UPSC Exam  >  UPSC Notes  >  Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly  >  Social Justice (सामाजिक न्याय): September 2021 UPSC Current Affairs

Social Justice (सामाजिक न्याय): September 2021 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly PDF Download

विश्व सामाजिक संरक्षण रिपोर्ट: आईएलओ

हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की 'वर्ल्डसोशल प्रोटेक्शन रिपोर्ट 2020-22' से पता चला हैकि वैश्विक स्तर पर 4.1 बिलियन लोगों को किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा प्राप्त नही है।

  • रिपोर्ट में कहा गया हैकि महामारी की प्रतिक्रिया असमान रूप से अप्रत्याशित थी। इस प्रकार कोविड -19 ने सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा के महत्त्व को रेखांकित किया है।
  • ILO संयुक्त राष्ट्र की एक विशेष एजेंसी है। यह संयुक्त राष्ट्र की एकमात्र त्रिपक्षीय एजेंसी है। यह 187 सदस्य राज्यों की सरकारों, नियोक्ताओं और श्रमिकों को श्रम मानकों को स्थापित करने, नीतियों को विकसित करने तथा सभी महिलाओं एवं पुरुषों के लिये अच्छे काम को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम तैयार करने हेतु एक साथ लाती है।

प्रमुख बिंदु

सामाजिक सुरक्षा (अवधारणा):

(i) यह नुकसान में कमी या रोकने, व्यक्ति और उसके आश्रितों के लिये एक बुनियादी न्यूनतम आय का आश्वासन देने तथा किसी भी अनिश्चितता से व्यक्ति की रक्षा करने हेतु डिज़ाइन किया गया एक व्यापक दृष्टिकोण है।

(ii) सामाजिक सुरक्षा में विशेष रूप से वृद्धावस्था, बेरोज़गारी, बीमारी, विकलांगता, कार्य के दौरान चोट, मातृत्व अवकाश , स्वास्थ्य देखभाल तथा आय सुरक्षा उपायों तक पहुंँच के साथ-साथ बच्चों वाले परिवारों हेतु अतिरिक्त सहायता शामिल है।


रिपोर्ट की मुख्य बाते:

(i) सामाजिक संरक्षण के साथ वैश्विक जनसंख्या: वर्ष 2020 में वैश्विक आबादी के केवल 46.9% (सामाजिक सुरक्षा के दायरे में आने वाले) लोगों को एक ही प्रकार की सुरक्षा का लाभ प्राप्त हुआ है।

(ii) कोविड -19 महामारी के दौरान उत्पन्न चुनौतियाँ: आर्थिक असुरक्षा का उच्च स्तर, लगातार बढ़ती गरीबी और असमानता, लोगों के मध्य बढ़ती व्यापक अनौपचारिकता एवं नाजुक सामाजिक अनुबंध जैसी व्यापक चुनौतियों को कोविड -19 ने बढ़ा दिया है।

(iii) बढ़ती असमानताएँ: सामाजिक सुरक्षा में महत्त्वपूर्णक्षेत्रीय असमानताएँ व्याप्त हैं, यूरोप और मध्य एशिया में इन असमानताओं की उच्चतम दर है जहाँ 84% लोगों को एक ही प्रकार का सामाजिक सुरक्षा लाभ प्राप्त है।

  • अमेरिका 64.3% के साथ वैश्विक औसत से ऊपर है, जबकि एशिया और प्रशांत में 44%, अरब राज्य में 40% तथा अफ्रीका में 17.4% का कवरेज अंतराल (Coverage Gaps) देखा गया है।

(iv) सामाजिक सुरक्षा व्यय में असमानता: देश अपने सकल घरेलू उत्पाद का औसतन 12.9% सामाजिक सुरक्षा (स्वास्थ्य को छोड़कर) पर खर्च करते हैं, लेकिन यह आंँकड़ा चौंका देने वाला है।

  • उच्च आय वाले देश औसतन 16.4%, उच्च-मध्यम आय वाले देश 8%, निम्न-मध्यम आय वाले देश 2.5% और निम्न-आय वाले देश 1.1% सामाजिक सुरक्षा पर खर्च करते हैं।

(v) महिलाओं, बच्चों और विकलांग लोगों के लिये सीमित सुरक्षा: विश्व स्तर पर अधिकांश बच्चों के पास अभी भी कोई प्रभावी सामाजिक सुरक्षा कवरेज नहीं है और चार बच्चों में से केवल एक (26.4%) को सामाजिक सुरक्षा लाभ प्राप्त होता है।

  • दुनिया भर में नवजात शिशुओं वाली सिर्फ 45% महिलाओं को नकद मातृत्व लाभ प्राप्त होता है।
  • दुनिया भर में गंभीर रूप से विकलांग तीन में से केवल एक व्यक्ति को ही विकलांगता लाभ मिलता है।

(vi) सीमित बेरोज़गारी संरक्षण: दुनिया भर में केवल 18.6% बेरोज़गार श्रमिकों के पास बेरोज़गारी के लिये प्रभावी कवरेज है और इस प्रकार वास्तव में कुछ सीमित लोग ही बेरोज़गारी लाभ प्राप्त कर पाते हैं।

  • यह सामाजिक सुरक्षा का सबसे कम विकसित हिस्सा है।

(vii) स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच में बाधाएँ: यद्यपि जनसंख्या कवरेज बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है, किंतु स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच में बाधाएँ अभी भी बनी हुई है:

  • स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक भुगतान, स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और स्वीकार्यता, लंबे समय तक प्रतीक्षा समय, अवसर लागत आदि।

सामाजिक सुरक्षा लाभ प्रदान करने हेतु भारत सरकार द्वारा उठाए गए कदम:

  • प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (PM-JAY)
  • राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017
  • सामाजिक सुरक्षा कोड 2020
  • प्रधानमंत्री श्रम योगी मान-धन (PM-SYM)
  • आत्मनिर्भर भारत अभियान
  • प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (PMGKAY)
  • वन नेशन वन राशन कार्ड
  • आत्मनिर्भर भारत रोज़गार योजना
  • महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा)

आगे की राह

  • इस बात को स्वीकार करने की आवश्यकता हैकि प्रभावी और व्यापक सामाजिक सुरक्षा न केवल सामाजिक न्याय के लिये बल्कि एक स्थायी भविष्य के निर्माण हेतु भी आवश्यक है।
  • सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा की स्थापना और सभी के लिये सामाजिक सुरक्षा संबंधी मानव अधिकारों को साकार करना सामाजिक न्याय प्राप्ति हेतु मानव-केंद्रित दृष्टिकोण की आधारशिला है।
  • सामूहिक वित्तपोषण, जोखिम-पूलिंग और अधिकार-आधारित पात्रता सभी के लिये स्वास्थ्य देखभाल तक प्रभावी पहुँच का समर्थन करने हेतु महत्त्वपूर्णशर्तें हैं।
  • स्वास्थ्य के प्रमुख निर्धारकों को अधिक प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिये चिकित्सा देखभाल एवं आय सुरक्षा तक पहुँच सुनिश्चित करने संबंधी तंत्र के बीच मज़बूत संबंध और बेहतर समन्वय की आवश्यकता है।

पोषण 2.0

हाल ही में ‘महिला एवं बाल विकास मंत्रालय’ ने ‘पोषण 2.0’ का उद्घाटन किया और सभी ‘आकांक्षी ज़िलों’ से 1 सितंबर से पोषण माह के दौरान ‘पोषण वाटिका’ (पोषण उद्यान) स्थापित करने का आग्रह किया है।

  • ‘पोषण अभियान मिशन’ एक महीने तक चलने वाला उत्सव है, जो मुख्य तौर पर गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों पर विशेष ध्यान केंद्रित करता है।

प्रमुख बिंदु

परिचय

(i) यह ‘एकीकृत बाल विकास सेवा’ (ICDS) (आँगनवाड़ी सेवाएँ, पोषण अभियान, किशोरियों के लिये योजना, राष्ट्रीय शिशु गृह योजना) को कवर करने वाली एक अम्ब्रेला योजना है।

(ii) केंद्रीय बजट 2021-22 में पूरक पोषण कार्यक्रमों और पोषण अभियान को मिलाकर इसकी घोषणा की गई थी।

(iii) इसे देश में स्वास्थ्य और तंदुरुस्ती के साथ-साथ रोग एवं कुपोषण के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने वाली पोषण प्रथाओं पर नए सिरे से ध्यान देने के साथ पोषण सामग्री, वितरण, आउटरीच और मज़बूत परिणाम प्राप्त करने के लिये लॉन्च किया गया था।


पोषण माह

(i) बच्चों, किशोरियों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं के लिये पोषण संबंधी परिणामों में सुधार हेतु सितंबर माह को वर्ष 2018 से पोषण माह के रूप में मनाया जाता है।

(ii) इसमें प्रसवपूर्व देखभाल, इष्टतम स्तनपान, एनीमिया, विकास निगरानी, लड़कियों की शिक्षा, आहार, शादी की सही उम्र, स्वच्छता और स्वच्छ एवं स्वस्थ भोजन (फूड फोर्टिफिकेशन) पर केंद्रित एक महीने तक चलने वाली गतिविधियाँ शामिल हैं।

(iii) ये गतिविधियाँ ‘सामाजिक एवं व्यवहार परिवर्तन संचार’ (SBCC) पर केंद्रित हैं और जन आंदोलन दिशा-निर्देशों पर आधारित हैं।

  • SBCC का आशय मौजूदा ज्ञान, दृष्टिकोण, मानदंड, विश्वास और व्यवहार में परिवर्तन को बढ़ावा देने के लिये संचार का उपयोग करने से है।

पोषण वाटिका

(i) इसका मुख्य उद्देश्य जैविक रूप से घर में उगाई गई सब्जियों और फलों के माध्यम से पोषण की आपूर्तिसुनिश्चित करना है ताकि मिट्टी भी स्वस्थ रहे।

(ii) आँगनबाड़ियों, स्कूल परिसरों और ग्राम पंचायतों में उपलब्ध स्थानों में सभी हितधारकों द्वारा पोषण वाटिका के लिये वृक्षारोपण अभियान चलाया जाएगा।


पोषण अभियान:

(i) 8 मार्च, 2018 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर सरकार द्वारा राष्ट्रीय पोषण मिशन शुरू किया गया था।

(ii) इसका उद्देश्य स्टंटिंग, अल्पपोषण, एनीमिया (छोटे बच्चों, महिलाओं और किशोर लड़कियों में) और जन्म के समय कम वज़न को क्रमशः 2%, 2%, 3% और 2% प्रतिवर्ष कम करना है।

(iii) इसमें वर्ष 2022 तक 0-6 वर्ष की आयु के बच्चों में स्टंटिंग को 38.4% से कम कर 25% तक करने का भी लक्ष्य शामिल है।


भारत में कुपोषण का परिदृश्य:

(i) विश्व बैंक की 2010 की एक रिपोर्ट के अनुसार, शौचालयों की कमी के कारण भारत को 24,000 करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ।

(ii) वर्ष 2018 के एसोचैम (Assocham) के अध्ययन के अनुसार, कुपोषण के कारण सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 4% की गिरावट आई है।

  • रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि बड़े होकर कुपोषण से पीड़ित बच्चे स्वस्थ बचपन वाले बच्चों की तुलना में 20% कम कमाते हैं।

(iii) देश में गंभीर रूप से कुपोषित( Severe Acute Malnourished- SAM) बच्चों की संख्या पहले 80 लाख थी, जो अब घटकर 10 लाख हो गई है।


संबंधित सरकारी पहलें:

(i) एनीमिया मुक्त भारत अभियान

(ii) मध्याह्न भोजन (MDM) योजना

(iii) राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), 2013

(iv) प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना (PMMVY)


कुपोषण

(i) कुपोषण तब भी होता है जब किसी व्यक्ति के आहार में पोषक तत्त्वों की सही मात्रा उपलब्ध नहीं होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ के अनुसार, कुपोषण के तीन प्रमुख लक्षण हैं:

  • कम वज़न (Underweight)- अल्पपोषण: इसमें वेस्टिंग (कद के अनुपात में कम वज़न), स्टंटिंग (आयु के अनुपात में कम लंबाई) और कम वज़न (आयु के अनुपात से कम वज़न) शामिल हैं।
  • सूक्ष्म पोषक-संबंधी (Micronutrient-Related): इसमें सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी (महत्त्वपूर्णविटामिन और खनिजों की कमी) या सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की अधिकता शामिल है।
  • अधिक वज़न: मोटापा और आहार से संबंधित गैर-संचारी रोग (जैसे हृदय रोग, स्ट्रोक, मधुमेह और कैंसर)।

(ii) सतत् विकास लक्ष्य (SDG 2: ज़ीरो हंगर) का उद्देश्य वर्ष 2030 तक सभी प्रकार की भूख और कुपोषण को समाप्त करना है, साथ ही यह सुनिश्चित करना कि सभी लोगों को विशेष रूप से बच्चों को पूरे वर्ष पर्याप्त और पौष्टिक भोजन उपलब्ध हो।


डिमेंशिया (मनोभ्रंश)

हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 'ग्लोबल स्टेटस रिपोर्ट ऑन द पब्लिक हेल्थ रिस्पांस टू डिमेंशिया' नामक एक रिपोर्ट जारी की।

  • यह वर्ष 2017 में प्रकाशित WHO के 'ग्लोबल डिमेंशिया एक्शन प्लान' में डिमेंशिया हेतु वर्ष 2025 के लिये निर्धारित वैश्विक लक्ष्यों की दिशा में हुई प्रगति का आकलन करता है।

प्रमुख बिंदु

डिमेंशिया :

(i) मनोभ्रंश एक सिंड्रोम है, आमतौर पर एक पुरानी या प्रगतिशील प्रकृति का - जो उम्र बढ़ने के जैविक सिद्धांत के सामान्य परिणामों से भिन्न, संज्ञानात्मक कार्य (अर्थात् सोचने की प्रक्रिया क्षमता) में गिरावट की ओर ले जाता है।

(ii) यह स्मृति, सोच-विचार, अभिविन्यास, समझ, गणना, सीखने की क्षमता, भाषा और निर्णय को प्रभावित करता है।

  • हालाँकि इसमें चेतना (Consciousness) प्रभावित नहीं होती है।

(iii) मनोभ्रंश के कारण होने वाली कुल मौतों में से 65% महिलाएँ हैं और मनोभ्रंश के कारण विकलांगता-समायोजित जीवन वर्ष (Disability-Adjusted Life Years- DALYs) पुरुषों की तुलना में महिलाओं में लगभग 60% अधिक है।


लक्षण :

  • इसमें स्मृतिलोप, सोचने में कठिनाई, दृश्य धारणा, स्व-प्रबंधन, समस्या समाधान या भाषा और ध्यान केंद्रित करने की क्षमता जैसे लक्षण शामिल हैं।
  • इसमें व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन होता है जैसे- अवसाद, व्याकुलता, मानसिक उन्माद और चित्तवृति या मनोदशा।

कारण :

  • जब मस्तिष्क की कोशिकाएँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं तो मनोभ्रंश की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। यह सिर में चोट, स्ट्रोक, ब्रेन ट्यूमर या एचआईवी संक्रमण के कारण हो सकता है।

उपचार :

  • मनोभ्रंश को ठीक करने के लिये वर्तमान में कोई उपचार उपलब्ध नहीं है, हालाँकि नैदानिक परीक्षणों के विभिन्न चरणों में कई नए उपचारों की जाँच की जा रही है।

वैश्विक परिदृश्य:

  • डिमेंशिया वर्तमान में सभी प्रकार की बीमारियों से होने वाली मृत्यु का सातवांँ प्रमुख कारण है जो वैश्विक स्तर पर वृद्ध लोगों में विकलांगता और दूसरों पर निर्भरता के प्रमुख कारणों में से एक है।
  • 55 मिलियन से अधिक लोग (8.1% महिलाएंँ और 65 वर्षसे अधिक आयु के 5.4% पुरुष) डिमेंशिया के साथ जी रहे हैं।
  • वर्ष 2030 तक यह संख्या बढ़कर 78 मिलियन और वर्ष 2050 तक 139 मिलियन हो जाने का अनुमान है।
  • WHO के पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में डिमेंशिया (20.1 मिलियन) से पीड़ित लोगों की संख्या सबसे अधिक है तथा इसके बाद यूरोपीय क्षेत्र (14.1 मिलियन) का स्थान है।

WHO के प्रयास:

(i) ग्लोबल एक्शन प्लान ऑन द पब्लिक हेल्थ रिस्पांस टू डिमेंशिया 2017-2025:

  • यह डिमेंशिया/ मनोभ्रंश को संबोधित करने हेतु एक व्यापक खाका प्रस्तुत करता है।

(ii) वैश्विक मनोभ्रंश वेधशाला:

  • यह मनोभ्रंश संबंधी नीतियों, सेवा वितरण, महामारी विज्ञान और अनुसंधान पर निगरानी और जानकारी साझा करने की सुविधा हेतु एक अंतर्राष्ट्रीय निगरानी मंच है।

(iii) संज्ञानात्मक गिरावट और मनोभ्रंश के जोखिम में कमी हेतु दिशा-निर्देश:

  • यह मनोभ्रंश के लिये परिवर्तनीय जोखिम कारकों को कम करने हेतु हस्तक्षेपों पर साक्ष्य-आधारित सिफारिशें प्रदान करता है।

(iv) मेंटल हेल्थ गैप एक्शन प्रोग्राम:

  • सामान्यतः यह विशेष रूप से निम्न और मध्यम आय वाले देशों में मानसिक (Mental), स्नायविक (Neurologica) और मादक द्रव्यों के सेवन संबंधी विकारों के लिये प्रथम दृष्टया देखभाल में मदद करने हेतु एक संसाधन है।

भारत की पहल:

(i) अल्ज़ाइमर्स एंड रिलेटेड डिसऑर्डर्स सोसाइटी ऑफ इंडिया:

  • यह सरकार से मनोभ्रंश पर अपनी योजना या नीति बनाने का आह्वान करता हैजिसे सभी राज्यों में लागू किया जाना चाहिये तथा स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा वित्तपोषण और निगरानी की जानी चाहिये।

(ii) राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन:

  • यह न्यायसंगत, सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं की सार्वभौमिक पहुंँच की परिकल्पना करता है और लोगों की ज़रूरतों के प्रति जवाबदेह और उत्तरदायी है।

तपेदिक

बेसिल कैलमेट-गुएरिन (BCG) वैक्सीन ने अपने 100 वर्ष पूरे कर लिये हैं और यह वर्तमान में ‘तपेदिक’ (TB) की रोकथाम के लिये उपलब्ध एकमात्र वैक्सीन है।

प्रमुख बिंदु

‘तपेदिक’ (TB)

(i) टीबी या क्षय रोग ‘माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस’ नामक जीवाणु के कारण होता है, जो कि लगभग 200 सदस्यों वाले ‘माइकोबैक्टीरियासी परिवार’ से संबंधित है।

  • कुछ माइकोबैक्टीरिया मनुष्यों में टीबी और कुष्ठ रोग का कारण बनते हैं तथा अन्य काफी व्यापक स्तर पर जानवरों को संक्रमित करते हैं।

(ii) टीबी, मनुष्यों में सबसे अधिक फेफड़ों (पल्मोनरी टीबी) को प्रभावित करता है, लेकिन यह अन्य अंगों (एक्स्ट्रा-पल्मोनरी टीबी) को भी प्रभावित कर सकता है।

(iii) टीबी एक बहुत ही प्राचीन रोग है और मिस्र में तकरीबन 3000 ईसा पूर्व में इसके अस्तित्व में होने का दस्तावेज़ीकरण किया गया था।

(iv) वर्तमान में टीबी एक इलाज योग्य रोग है।


ट्रांसमिशन

  • टीबी रोग हवा के माध्यम से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलता है। जब ‘पल्मोनरी टीबी’ से पीड़ित कोई व्यक्ति खाँसता, छींकता या थूकता है, तो वह टीबी के कीटाणुओं को हवा में फैला देता है।

लक्षण

  • ‘पल्मोनरी टीबी’ के सामान्य लक्षणों में बलगम के साथ खाँसी और कई बार खून आना, सीने में दर्द, कमज़ोरी, वज़न कम होना, बुखार और रात को पसीना आना शामिल है।

टीबी का वैश्विक प्रभाव:

(i) वर्ष 2019 में टीबी के 87% नए मामले केवल 30 उच्च संक्रमण वाले देशों में देखने को मिले थे।

(ii) टीबी के नए मामलों में से दो-तिहाई मामलों में केवल आठ देशों का योगदान है:

  • इनमें भारत, इंडोनेशिया, चीन, फिलीपींस, पाकिस्तान, नाइजीरिया, बांग्लादेश और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं।
  • भारत में जनवरी और दिसंबर 2020 के बीच 1.8 मिलियन टीबी के मामले दर्ज किये गए, जबकि एक वर्ष पूर्व यह संख्या 2.4 मिलियन थी।

(iii) वर्ष 2019 में मल्टी-ड्रग रेसिस्टेंट-टीबी (MDR-TB) एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट और स्वास्थ्य सुरक्षा के लिये एक गंभीर खतरा बना रहा।

  • ‘मल्टी-ड्रग रेसिस्टेंट ट्यूबरकुलोसिस’ (MDR-TB) टीबी का एक प्रकार है, जिसका इलाज दो सबसे शक्तिशाली एंटी-टीबी दवाओं के साथ नहीं किया जा सकता है। ‘एक्स्टेंसिव ड्रग रेसिस्टेंट ट्यूबरकुलोसिस’ (XDR-TB) टीबी का वह रूप है, जो ऐसे बैक्टीरिया के कारण होता है जो कई सबसे प्रभावी एंटी-टीबी दवाओं के प्रतिरोधी होते हैं।

बीसीजी (BCG) वैक्सीन :

(i) बीसीजी वैक्सीन को दो फ्राँसीसी वैज्ञानिकों अल्बर्ट कैलमेट (Albert Calmett) और केमिली गुएरिन (Camille Guerin) द्वारा माइकोबैक्टीरियम बोविस [Mycobacterium bovis (जो मवेशियों में टीबी का कारण बनता है)] के एक स्ट्रेन में परिवर्तन करके विकसित किया गया था, जिसे पहली बार वर्ष 1921 में मनुष्यों में प्रयोग किया गया था।

(ii) भारत में बीसीजी का चयन पहली बार वर्ष 1948 में सीमित पैमाने पर किया गया था तथा यह वर्ष 1962 में राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम का एक हिस्सा बन गया।

(iii) एक टीके के रूप में इसका प्राथमिक उपयोग टीबी के खिलाफ किया जाता है तथा इसके अतिरिक्त यह नवजात शिशुओं के श्वसन और जीवाणु संक्रमण, कुष्ठ एवं बुरुली अल्सर (Buruli Ulcer) जैसे अन्य माइकोबैक्टीरियल रोगों से भी बचाता है।

(iv) त्राशय के कैंसर और घातक मेलेनोमा बीमारी में एक इम्यूनोथेरेपी एजेंट के रूप में भी इसका उपयोग किया जाता है।

(v) बीसीजी के बारे में सबसे रोचक तथ्य हैकि यह कुछ भौगोलिक स्थानों पर अच्छा काम करता है, जबकि कुछ जगहों पर इतना प्रभावी नहीं होता है। आमतौर पर भूमध्य रेखा से दूरी बढ़ने के साथ-साथ ‘बीसीजी वैक्सीन’ की प्रभावकारिता भी बढ़ती जाती है।

  • यूके, नॉर्वे, स्वीडन और डेनमार्क में इसकी प्रभावकारिता काफी अधिक है तथा भारत, केन्या एवं मलावी जैसे भूमध्य रेखा पर या उसके आस-पास स्थित देशों में, जहाँ क्षय रोग का भार अधिक है, वहाँ इसकी प्रभावकारिता बहुत कम या कोई प्रभाव नहीं दिखाई देता है।

संबंधित पहल :

(i) वैश्विक प्रयास :

  • विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने ग्लोबल फंड और स्टॉप टीबी पार्टनरशिप के साथ एक संयुक्त पहल "शोध. उपचार. सर्व. #EndTB" (Find. Treat. All. #EndTB") शुरू की है।
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व तपेदिक रिपोर्ट (Global Tuberculosis Report) भी जारी करता है।

(ii) भारत के प्रयास :

  • क्षय रोग उन्मूलन वर्ष 2017-2025 हेतु राष्ट्रीय रणनीतिक योजना (NSP), निक्षय इकोसिस्टम (राष्ट्रीय टीबी सूचना प्रणाली), निक्षय पोषण योजना (NPY द्वारा वित्तीय सहायता), टीबी हारेगा देश जीतेगा अभियान।
  • वर्तमान में नैदानिक परीक्षण के तीसरे चरण के अंतर्गत टीबी के लिये दो टीके विकसित किये गए हैं - वैक्सीन प्रोजेक्ट मैनेजमेंट 1002 (VPM1002) तथा माइकोबैक्टीरियम इंडिकस प्राणी' (MIP)।

महिलाओं के प्रति अपराधों की बढ़ती शिकायतें : एनसीडब्

हाल ही में राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) ने सूचित किया कि वर्ष 2021 के प्रारंभिक आठ महीनों में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की शिकायतों में पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में 46% की वृद्धि हुई है।

  • राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन जनवरी 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम, 1990 के तहत एक सांविधिक निकाय के रूप में किया गया था। इसका उद्देश्य महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में समानता और समान भागीदारी हासिल करने में सक्षम बनाने की दिशा में प्रयास करना है।
  • अक्तूबर 2020 में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को एक ‘कभी न खत्म होने वाले चक्र’ (NeverEnding Cycle) के रूप में परिभाषित किया।

प्रमुख बिंदु

परिचय:

(i) प्रमुख अपराध (शिकायतों की संख्या):

  • गरिमामयी जीवन जीने के अधिकार के खिलाफ > घरेलू हिंसा > विवाहित महिलाओं का उत्पीड़न या दहेज उत्पीड़न > महिलाओं का शील भंग या छेड़छाड़ > बलात्कार और बलात्कार का प्रयास > साइबर अपराध।

(ii) राज्यवार आँकड़े:

  • उत्तर प्रदेश (10,084)> दिल्ली (2,147)> हरियाणा (995)> महाराष्ट्र (974)।

महिलाओं के प्रति हिंसा:

परिचय:

(i) संयुक्त राष्ट्र महिलाओं के खिलाफ हिंसा को "लिंग आधारित हिंसा के रूप में परिभाषित करता है, जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं को शारीरिक, यौन या मानसिक नुकसान या पीड़ा होती है, जिसमें इस तरह के कृत्यों की धमकी, ज़बरदस्ती या मनमाने ढंग से उनको स्वतंत्रता से वंचित (चाहे सार्वजनिक या निजी जीवन में हो) करना शामिल है।

(ii) महिलाओं के खिलाफ हिंसा एक सामाजिक, आर्थिक, विकासात्मक, कानूनी, शैक्षिक, मानव अधिकार और स्वास्थ्य (शारीरिक और मानसिक) का मुद्दा है।

(iii) कोविड -19 के प्रकोप के बाद से सामने आए आँकड़ों और रिपोर्टों से पता चला हैकि महिलाओं एवं बालिकाओं के खिलाफ सभी प्रकार की हिंसा, विशेष रूप से घरेलू हिंसा में वृद्धि हुई है।


कारण:

(i) लैंगिक असमानता महिलाओं के खिलाफ हिंसा के बड़े कारणों में से एक है जो महिलाओं को कई प्रकार की हिंसा के जोखिम में डालती है।

(ii) उनके अधिकारों को व्यापक रूप से संबोधित करने वाले कानूनों की अनुपस्थिति और मौजूदा विधियों की अज्ञानता।

(iii) सामाजिक रवैये, कलंक और कंडीशनिंग ने भी महिलाओं को घरेलू हिंसा के प्रति संवेदनशील बना दिया है तथा ये मामलों की कम रिपोर्टिंग के मुख्य कारक हैं।


प्रभाव:

(i) महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध हिंसा के प्रतिकूल मनोवैज्ञानिक, यौन और प्रजनन स्वास्थ्य परिणाम महिलाओं को उनके जीवन के सभी चरणों में प्रभावित करते हैं।

(ii) उदाहरण के लिये प्रारंभिक शैक्षिक नुकसान न केवल सार्वभौमिक स्कूली शिक्षा और लड़कियों के लिये शिक्षा के अधिकार हेतु प्राथमिक बाधा उत्पन्न करते हैं; बल्कि उच्च शिक्षा तक उनकी पहुँच को प्रतिबंधित करने और यहाँ तक कि श्रम बाज़ार में महिलाओं के लिये सीमित अवसरों की उपलब्धता के लिये भी दोषी हैं।


वैश्विक प्रयास:

(i) ‘स्पॉटलाइट’ इनिशिएटिव: यूरोपीय संघ (EU) और संयुक्त राष्ट्र (UN) ने महिलाओं एवं लड़कियों के विरुद्ध हिंसा के सभी रूपों को खत्म करने पर केंद्रित इस नई वैश्विक, बहु-वर्षीय पहल शुरू की है।

  • इसका यह नाम इसलिये रखा गया है, क्योंकि यह विभिन्न मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती है और उन्हें लैंगिक समानता एवं महिला सशक्तीकरण के प्रयासों के केंद्र में रखती है।

(ii) ‘महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के उन्मूलन हेतु अंतर्राष्ट्रीय दिवस- 25 नवंबर।

(iii) ‘यूएन वीमेन’ संयुक्त राष्ट्र की एक इकाई है, जो लैंगिक समानता और महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु समर्पित है।


भारतीय प्रयास

(i) संवैधानिक सुरक्षात्मक उपाय: 

  • मौलिक अधिकार
  • यह सभी भारतीयों को समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), लिंग के आधार पर राज्य द्वारा किसी भी प्रकार के भेदभाव से स्वतंत्रता (अनुच्छेद 15[1]) और महिलाओं के पक्ष में राज्य द्वारा किये जाने वाले विशेष प्रावधानों (अनुच्छेद 15[3]) की गारंटी देता है।
  • मौलिक कर्त्तव्य
  • अनुच्छेद 51(A) के तहत महिलाओं की गरिमा के लिये अपमानजनक प्रथाओं को प्रतिबंधित किया गया है।

(ii) विधायी ढांँचा:

  • घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005
  • दहेज निषेध अधिनियम, 1961
  • कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013
  • बाल यौन अपराध संरक्षण (POCSO), 2012

आगे की राह

  • महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा समानता, विकास, शांति के साथ-साथ महिलाओं और लड़कियों के मानवाधिकारों की पूर्ति में एक बाधा बनी हुई है।
  • कुल मिलाकर सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) का वादा -’किसी को पीछे नहीं छोड़ना’ - महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा को समाप्त किये बिना पूरा नहीं किया जा सकता है।
  • महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध का समाधान केवल कानून के तहत अदालतों में ही नहीं किया जा सकता हैबल्कि इसके लिये एक समग्र दृष्टिकोण और पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को बदलना आवश्यक है।
  • इसके लिये कानून निर्माताओं, पुलिस अधिकारियों, फोरेंसिक विभाग, अभियोजकों, न्यायपालिका, चिकित्सा और स्वास्थ्य विभाग, गैरसरकारी संगठनों, पुनर्वास केंद्रों सहित सभी हितधारकों को एक साथ मिलकर कार्य करने की आवश्यकता है।

भारत की बदलती खाद्य प्रणालिया

जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले वर्षों में खाद्य प्रणालियों की स्थिरता महत्त्वपूर्ण होने जा रही है।

  • भारत को अपनी खाद्य प्रणालियों में भी परिवर्तन करना होगा, जिन्हें उच्च कृषि आय और पोषण सुरक्षा के लिये समावेशी और टिकाऊ होना चाहिये।
  • इससे पहले खाद्य प्रणाली पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में बताया गया था कि वर्तमान खाद्य प्रणालियाँ शक्ति असंतुलन और असमानता के कारण अत्यधिक प्रभावित हैं और अधिकांश महिलाओं के पक्ष में नहीं हैं।

प्रमुख बिंदु

खाद्य प्रणाली:

(i) खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के अनुसार, खाद्य प्रणालियों में कारकों की पूरी शृंखला शामिल है:

  • कृषि, वानिकी या मत्स्य पालन से प्राप्त खाद्य उत्पादों का उत्पादन, एकत्रीकरण, प्रसंस्करण, वितरण, खपत, निपटान और व्यापकता आर्थिक, सामाजिक एवं प्राकृतिक वातावरण के कुछ हिस्सों में अंतर्निहित है।

(ii) भारतीय खाद्य प्रणालियों के सम्मुख उपस्थित विभिन्न चुनौतियाँ:

(i) हरित क्रांति का प्रभाव:

  • यद्यपि हरित क्रांति के कारण देश के कृषि विकास में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है, लेकिन इसने जल-जमाव, मिट्टी का कटाव, भू-जल की कमी और कृषि की अस्थिरता जैसी समस्याओं को भी जन्म दिया है।

वर्तमान नीतियाँ:

  • वर्तमान नीतियाँ अभी भी 1960 के दशक की घाटे की मानसिकता पर आधारित हैं। खरीद, सब्सिडी और जल नीतियाँ चावल और गेहूँ के पक्ष में हैं।
  • तीन फसलों (चावल, गेहूँ और गन्ना) की सिंचाई में 75 से 80% पानी का प्रयोग होता है।

कुपोषण:

  • NFHS-5 से पता चलता हैकि वर्ष 2019-20 में भी कई राज्यों में कुपोषण में कमी नहीं आई है। इसी तरह मोटापा भी बढ़ रहा है।
  • ग्रामीण भारत के लिये EAT-Lancet आहार संबंधी सिफारिशों के आधार पर प्रति व्यक्ति लागत प्रतिदिन 3 अमेरिकी डॉलर और 5 अमेरिकी डॉलर के बीच है। इसके विपरीत वास्तविक आहार लागत प्रति व्यक्ति प्रतिदिन लगभग 1 अमेरिकी डॉलर है।

भारत की खाद्य प्रणालियों को बदलने के लिये आवश्यक कदम:

(i) फसल विविधीकरण:

  • पानी के अधिक समान वितरण, टिकाऊ और जलवायु-लचीली कृषि हेतु बाजरा, दलहन, तिलहन, बागवानी के लिये फसल पैटर्न के विविधीकरण की आवश्यकता है।

(ii) कृषि क्षेत्र में संस्थागत परिवर्तन:

  • किसान उत्पादक संगठनों (FPO) को छोटे भूमि धारकों को इनपुट और आउटपुट के बेहतर मूल्य की प्राप्ति में मदद करनी चाहिये।
  • ई-चौपाल जैसी पहल छोटे किसानों को लाभान्वित करने वाली प्रौद्योगिकी का एक उदाहरण है।
  • महिला सशक्तीकरण विशेष रूप से आय और पोषण बढ़ाने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • केरल में महिला सहकारी समितियाँ और कुदुम्बश्री जैसे समूह इसमें मददगार होंगे।

(iii) सतत् खाद्य प्रणाली:

  • अनुमान बताते हैं कि खाद्य क्षेत्र विश्व के लगभग 30% ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है।
  • उत्पादन, मूल्य शृंखला और खपत में स्थिरता हासिल करनी होगी।

(iv) स्वास्थ्य अवसंरचना और सामाजिक सुरक्षा:

  • कोविड-19 महामारी ने भारत जैसे देशों खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में कमज़ोर स्वास्थ्य बुनियादी ढाँचे की स्थिति को उजागर किया है।
  • समावेशी खाद्य प्रणालियों के लिये भी मज़बूत सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों की आवश्यकता है। भारत को इन कार्यक्रमों का लंबा अनुभव है। भारत राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS), एकीकृत बाल विकास योजना (ICDS), मध्याह्न भोजन कार्यक्रम जैसे पोषण कार्यक्रमों को मज़बूती प्रदान कर गरीब और कमज़ोर समूहों की आय, आजीविका और पोषण में सुधार कर सकता है।

गैर-कृषि क्षेत्र:

  • टिकाऊ खाद्य प्रणालियों के लिये गैर-कृषि क्षेत्र की भूमिका समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। श्रम प्रधान विनिर्माण और सेवाएँ कृषि पर दबाव को कम कर सकती हैं क्योंकि कृषि से होने वाली आय छोटे भूमि धारकों और अनौपचारिक श्रमिकों हेतु पर्याप्त नहीं है।
  • इसलिये ग्रामीण सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम आकार के उद्यमों (MSME) और खाद्य प्रसंस्करण को मजबूत करना समाधान का हिस्सा है।

आगे की राह

  • संयुक्त राष्ट्र (UN) के महासचिव ने सतत् विकास के लिये वर्ष 2030 एजेंडा के दृष्टिकोण को साकार करने और दुनिया में कृषि-खाद्य प्रणालियों में सकारात्मक बदलाव हेतु रणनीति विकसित करने के लिये पहले संयुक्त राष्ट्र खाद्य प्रणाली शिखर सम्मेलन के आयोजन का आह्वान किया है, जिसे सितंबर 2021 में आयोजित किया जाएगा। यह सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) को प्राप्त करने के लिये नीतियों को बढ़ावा देने का एक शानदार अवसर है।
  • इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये विज्ञान और प्रौद्योगिकी महत्त्वपूर्ण चालक हैं। भारत को खाद्य प्रणाली परिवर्तन का भी लक्ष्य रखना चाहिये जो समावेशी और टिकाऊ हो, जिससे कृषि आय में वृद्धि तथा पोषण सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।

ग्राउंड्सवेल रिपोर्ट: विश्व बैंक

हाल ही में विश्व बैंक द्वारा जारी अद्यतित ‘ग्राउंड्सवेल रिपोर्ट’ ने संकेत दिया हैकि जलवायु परिवर्तन विश्व के छह प्रमुख क्षेत्रों में 216 मिलियन लोगों को वर्ष 2050 तक अपने देशों से स्थानांतरित करने के लिये मज़बूर कर सकता है।

  • जलवायु प्रवास के आंतरिक हॉटस्पॉट वर्ष 2030 की शुरुआत में ही सामने आ सकते हैं, जबकि वर्ष 2050 तक इनकी संख्या में तेज़ी से वृद्धि होगी।

प्रमुख बिंदु

रिपोर्ट के विषय में

(i) पहली ग्राउंड्सवेल रिपोर्ट: इसे वर्ष 2018 में प्रकाशित किया गया था और यह मुख्यतः तीन क्षेत्रों यथा- उप-सहारा अफ्रीका, दक्षिण एशिया और लैटिन अमेरिका पर ध्यान केंद्रित करते हुए भविष्य के जलवायु प्रवास के पैमाने, प्रक्षेपवक्र एवं स्थानिक पैटर्न को समझने हेतु एक मज़बूत एवं नवीन मॉडलिंग दृष्टिकोण का उपयोग करती है।

(ii) दूसरी ग्राउंड्सवेल रिपोर्ट: यह पहली रिपोर्ट का विस्तार है,जिसमें तीन नए क्षेत्रों: ‘मध्य पूर्व तथा उत्तरी अफ्रीका’, ‘पूर्वी एशिया एवं प्रशांत’ और ‘पूर्वी यूरोप व मध्य एशिया’ को भी शामिल किया गया है।

  • साथ ही इसमें ‘मशरेक’ (अरब जगत का पूर्वी हिस्सा) और ‘लघु द्वीपीय विकासशील राज्यों’ (SIDS) में जलवायु से संबंधित गतिशीलता का गुणात्मक विश्लेषण भी प्रदान किया जाता है।

महत्त्व

  • दो रिपोर्टों का संयुक्त निष्कर्ष, वैश्विक स्तर पर आंतरिक जलवायु प्रवास के संभावित पैमाने की एक वैश्विक तस्वीर प्रदान करता है।

परिणाम:

(i) आंतरिक जलवायु प्रवासी: विश्व के छह क्षेत्रों (2050 तक) में कम-से-कम 216 मिलियन लोग आंतरिक जलवायु प्रवासी हो सकते हैं। यह इन क्षेत्रों की कुल अनुमानित जनसंख्या का लगभग 3% है।

  • उप-सहारा अफ्रीका: 85.7 मिलियन आंतरिक जलवायु प्रवासी (कुल जनसंख्या का 4.2%)।
  • पूर्वी एशिया और प्रशांत: 48.4 मिलियन (2.5%)।
  • दक्षिण एशिया: 40.5 मिलियन (1.8%)।
  • उत्तरी अफ्रीका: 19.3 मिलियन (9%)।
  • लैटिन अमेरिका: 17.1 मिलियन (2.6%)।
  • पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया: 5.1 मिलियन (2.3%)।

(ii) सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र: आंतरिक जलवायु प्रवास का पैमाना सर्वाधिक कमज़ोर और जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में सबसे बड़ा होगा।

  • उप-सहारा अफ्रीका: मरुस्थलीकरण, नाजुक तटरेखा और कृषि पर जनसंख्या की निर्भरता के कारण सर्वाधिक कमज़ोर क्षेत्र में सबसे अधिक प्रवासी दिखाई देंगे।
  • उत्तरी अफ्रीका: यहाँ पर जलवायु प्रवासियों का सबसे बड़ा अनुपात (9%) होने का अनुमान है।
  • यह काफी हद तक जल की गंभीर कमी के साथ-साथ घनी आबादी वाले तटीय क्षेत्रों और नील डेल्टा में समुद्र के स्तर में वृद्धि के प्रभावों के कारण है।

(iii) दक्षिण एशिया: दक्षिण एशिया में बांग्लादेश विशेष रूप से बाढ़ और फसल खराब होने से प्रभावित है, जो अनुमानित जलवायु प्रवासियों का लगभग आधा हिस्सा है, जिसमें 19.9 मिलियन लोग शामिल हैं, इसमें महिलाओं का बढ़ता अनुपात, वर्ष 2050 तक निराशावादी परिदृश्य के तहत आगे बढ़ रहा है।


नीतिगत सिफारिशें:
(i) उत्सर्जन कम करें:

  • पेरिस समझौते के पाँच वर्षबाद दुनिया अभी भी वर्ष 2100 तक कम-से-कम 3 डिग्री सेल्सियस ग्लोबल वार्मिंग की ओर अग्रसर है।
  • वैश्विक उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिये महत्त्वाकांक्षी कार्रवाई प्रमुख संसाधनों, आजीविका प्रणालियों और शहरी केंद्रों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के बोझ को कम करने के लिये महत्त्वपूर्ण है जो लोगों को संकट में पलायन करने हेतु प्रेरित कर सकते हैं।

(ii) समावेशी और अनुकूलित विकास मार्ग:

  • विकास योजना में आंतरिक जलवायु प्रवास को एकीकृत करना गरीबी के कारकों को संबोधित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है जो लोगों को विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति संवेदनशील बनाते हैं, जैसे कि व्यवहार्य आजीविका विकल्पों की कमी और निम्न गुणवत्ता वाली संपत्ति।

(iii) प्रवासन के प्रत्येक चरण के लिये योजना: आंतरिक जलवायु प्रवासन की योजना का अर्थ है प्रवास के सभी चरणों हेतु लेखांकन (प्रवास के पहले, प्रवास के दौरान और इसके बाद)।

  • प्रवास से पहले, स्थानीय अनुकूलन समाधान समुदायों को उस स्थान पर बने रहने में मदद कर सकता है जहाँ स्थानीय अनुकूलन विकल्प व्यवहार्य हैं।
  • प्रवास के दौरान, नीतियाँ और निवेश उन लोगों के लिये गतिशीलता को सक्षम कर सकते हैं जिन्हें अपरिहार्य जलवायु जोखिमों से दूर जाने की आवश्यकता होती है।
  • प्रवास के बाद, नियोजन यह सुनिश्चित कर सकता हैकि भेजने और प्राप्त करने वाले दोनों क्षेत्र अपनी आबादी की ज़रूरतों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिये अच्छी तरह से सुसज्जित हैं।

(iv) निवेश: क्षेत्रीय और देश स्तर पर आंतरिक जलवायु प्रवासन को बेहतर ढंग से समझने के लिये नए एवं अधिक सटीक डेटा स्रोतों औरविभेदित जलवायु परिवर्तन प्रभावों सहित बड़े पैमाने पर अनुसंधान में अधिक निवेश की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन और प्रवासन चुनौतियों का समाधान करने हेतु वैश्विक प्रयास


कैनकन अनुकूलन ढाँचा (2010) :

  • संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) औपचारिक रूप से 2010 के कैनकन अनुकूलन ढाँचे (Cancun Adaptation Framework) में जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में गतिशीलता को शामिल किया गया है, जिसमें देशों को जलवायु- प्रेरित विस्थापन, प्रवास और नियोजित स्थानांतरण के संबंध में उनकी सामान्य लेकिन अलग-अलग ज़िम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए "समझ, समन्वय एवं सहयोग बढ़ाने के उपायों" के लिये आह्वान किया गया है।

विस्थापन पर यूएनएफसीसीसी टास्क फोर्स (2013):

  • विस्थापन पर UNFCCC टास्क फोर्स, वारसॉ फ्रेमवर्क/मैकेनिज़्म के तहत स्थापित किया गया।
  • वारसॉ इंटरनेशनल मैकेनिज़्म फॉर लॉस एंड डैमेज, गतिशीलता पर प्रभाव सहित अचानक और धीमी गति से शुरू होने वाले जलवायु परिवर्तन प्रभावों से नुकसान और क्षति को रोकने और समाधान करने पर केंद्रित है।

पेरिस समझौता (2015):

  • पेरिस समझौते की प्रस्तावना में कहा गया हैकि "जलवायु परिवर्तन के समाधान के लिये कार्रवाई करते समय पार्टियों को प्रवासियों पर अपने संबंधित दायित्वों का सम्मान, प्रचार और विचार करना चाहिये।

आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये सेंदाई फ्रेमवर्क (2015-30):

  • सेंदाई फ्रेमवर्क आपदा जोखिमों की रोकथाम, जोखिम कम करने हेतु कार्रवाई के लिये लक्ष्यों और प्राथमिकताओं की रूपरेखा तैयार करता है, जिसमें शासन के माध्यम से आपदा-रोधी तैयारी को बढ़ावा देना तथा पुनः प्राप्ति, पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण शामिल है।
  • यह तीन क्षेत्रों पर आपदा जोखिम में कमी और प्रबंधन में प्रवासियों को शामिल करने की आवश्यकता को स्पष्ट करता है।

शरणार्थियों पर संयुक्त राष्ट्र वैश्विक समझौता (2016):

  • पर्यावरणीय गतिशीलता के संचालकों को संबोधित करने हेतु विशिष्ट प्रतिबद्धताएँ प्रदान करता है तथा इन गतिविधियों से प्रभावित लोगों के लिये अधिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से नीति निर्माण करता है।

सुरक्षित, व्यवस्थित और नियमित प्रवास के लिये संयुक्त राष्ट्र वैश्विक समझौता (2018):

  • यह संयुक्त विश्लेषण को मज़बूत करने और बेहतर मानचित्रण, समझ एवं अनुमानों के ज़रिये प्रवासी गतिविधियों का समाधान करने हेतु जानकारी साझा करने की आवश्यकता पर ज़ोर देता है, जैसे कि अचानक आने वाली और धीमी गति से शुरू होने वाली प्राकृतिक आपदाएँ जो जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के परिणामस्वरूप भी घटित हो सकती हैं। प्रवासन पर संभावित प्रभावों को ध्यान में रखते हुए
  • अनुकूलन और लचीली रणनीतियों का विकास करना।

UNFCCC पक्षकारों के 24वें सम्मेलन का निर्णय (2018):

  • COP24 निर्णय (विस्थापन पर UNFCCC टास्क फोर्स की एक रिपोर्ट द्वारा सूचित) प्रवासियों एवं विस्थापित व्यक्तियों, मूल समुदायों, पारगमन एवं गंतव्य की आवश्यकताओं पर विचार करने और श्रम गतिशीलता के माध्यम से नियमित प्रवास मार्गों के अवसरों में वृद्धि करके जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में व्यवस्थित, सुरक्षित, नियमित एवं उत्तरदायित्त्वपूर्ण प्रवासन तथा आवागमन की सुविधा के लिये UNFCCC पक्षकारों को आमंत्रित करता है।
The document Social Justice (सामाजिक न्याय): September 2021 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly is a part of the UPSC Course Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly.
All you need of UPSC at this link: UPSC
2317 docs|814 tests

Top Courses for UPSC

Explore Courses for UPSC exam

Top Courses for UPSC

Signup for Free!
Signup to see your scores go up within 7 days! Learn & Practice with 1000+ FREE Notes, Videos & Tests.
10M+ students study on EduRev
Related Searches

Objective type Questions

,

Sample Paper

,

Important questions

,

shortcuts and tricks

,

ppt

,

Free

,

Extra Questions

,

Exam

,

Social Justice (सामाजिक न्याय): September 2021 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily

,

Previous Year Questions with Solutions

,

practice quizzes

,

mock tests for examination

,

Weekly & Monthly

,

video lectures

,

Weekly & Monthly

,

MCQs

,

Semester Notes

,

Social Justice (सामाजिक न्याय): September 2021 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily

,

Weekly & Monthly

,

past year papers

,

Summary

,

Social Justice (सामाजिक न्याय): September 2021 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily

,

pdf

,

study material

,

Viva Questions

;