संतुलन
- पीसा की ऐतिहासिक मीनार एक ओर झुकी रहने पर भी अभी तक गिरी नहीं है, क्योंकि उसके गुरूत्व केन्द्र से होकर ऊध्र्वाधर रेखा उसके आधार के भीतर पड़ती है।
- दौड़ की कार (racing car) का गुरुत्व केन्द्र नीचा और आधार बड़ा होता है ताकि यह तीव्र गति के साथ मोड़ लेने पर भी स्थायी संतुलन में रह सके।
- पुआल से भरी एक बैलगाड़ी यदि ढालवीं सड़क पर जा रही हो तो उसके लुढ़क जाने की संभावना है,क्यूंकि उसका गुरूत्व केन्द्र ऊपर होने के कारण उससे होकर ऊध्र्वाधर रेखा आधार से बाहर पड़ सकती है।
- पीठ पर बोझ लादे हुए कुली आगे की ओर झुक जाता है, ताकि बोझ-सहित उसके गुरूत्व केन्द्र से होकर ऊध्र्वाधर रेखा उसके दोनों पैरों के बीच में पड़े।
- एक अच्छी तुला के लिए आवश्यक है कि
(i) इसकी दोनों भुजाएँ बराबर हों,
(ii) दोनों पलड़ों के भार बराबर हों,
(iii) पूरे निकाय (system) का गुरुत्व-केंद्र तुला को समद्विभाजित करनेवाले ऊध्र्वाधर रेखा (vertical line) पर हो।
आर्किमीडिज का सिद्धांत
- जब कोई वस्तु द्रव में डुबाई जाती है तो वह नीचे से ऊपर की ओर लगते हुए एक बल (force) का अनुभव करती है। ऊपर की ओर लगते हुए इस बल को उत्प्लावन-बल (force of buoyancy) कहते है।
- यदि यह उत्प्लावन-बल न हो, तो लोग पानी में तैर नहीं सकते और जहाज या नाव पानी में प्लवन करने के बदले उसमें डूब जाएगी।
- जब कोई वस्तु किसी द्रव या गैस में पूर्णतः या अंशतः डुबाई जाती है, तो उसके भार में आभासी कमी वस्तु के डुबे हुए भाग द्वारा विस्थापित द्रव या गैस के भार के बराबर होती है। इसे आर्किमीडिज का सिद्धांत कहते है।
- आर्किमीडिज सिद्धांत के उपयोगः-
(i) पदार्थों का विशिष्ट घनत्व ज्ञात करना।
(ii) उत्प्लावन-घनत्वमापी (Hydrometer), दुग्धमापी (Lactometer) जहाज तथा पनडुब्बी का प्रायोगिक विरुपण।
प्लवमान वस्तु के संतुलन की शर्तें
1. प्लवमान वस्तु का भार उसके डूबे हुए भाग द्वारा विस्थापित द्रव के भार के बराबर होता है।
2. प्लवमान वस्तु का गुरुत्व-केन्द्र और विस्थापित द्रव का गुरुत्व-केन्द्र अर्थात् उत्प्लावन-केन्द्र दोनों एक ही ऊध्र्वाधर रेखा पर स्थित होते है।
3. स्थायी संतुलन में प्लवमान वस्तु का आप्लव-केन्द्र (मित-केन्द्र) उसके गुरुत्व-केन्द्र के ऊपर होता है।
नोट- उपर्युक्त प्रथम तथा द्वितीय शर्तों को प्लवन का नियम (laws of floatation) कहते है।
प्रत्यास्थता (Elasticity)
- जब वस्तुओं पर बाह्य बल (external force) लगाया जाता है तो उसके साइज (आकार) या रूप (shape) या दोनों में परिवर्तन हो जाता है। वस्तु में होनेवाले इस परिवर्तन को विरूपण (deformation) कहते है और वस्तु पर लगनेवाले बल को विरूपक बल (deforming force) कहते हैं।
- प्रत्यास्थता वस्तु का वह गुण है, जिसके कारण वस्तु पर लगे बाह्य बल (अर्थात् विरूपक बल) को हटा लेने पर वस्तु अपनी पूर्वस्थिति पुनः प्राप्त कर लेती है।
- जो वस्तुएँ विरूपक बल हटा लिए जाने पर अपनी पूर्वस्थिति में आ जाती हैं वे पूर्ण प्रत्यास्थ (perfectly elastic) कहलाती है। इसके विपरीत, जो वस्तुएँ विरूपक बल को हटा लेने पर अपनी पूर्वावस्था में नहीं लौटतीं, बल्कि हमेशा के लिए विरूपित (deformed) हो जाती हैं, पूर्ण सुघट्य (perfectly plastic) कहलाती है।
- वास्तव में कोई भी वस्तु न तो पूर्ण प्रत्यास्थ होती है और न पूर्ण सुघट्य, बल्कि सभी वस्तुएँ इन दोनों सीमाओं के भीतर होती हैं।
- क्वार्ट्ज़ (quartz) तथा फाॅस्फर-काँसा (phosphor-bronze) करीब-करीब प्रत्यास्थ है, और गीली मिट्टीए मोम, गूँधा हुआ आटा तथा प्लैस्टीसीन करीब-करीब सुघट्य है।
- प्रत्यास्थ विरूपण (elastic deformation) के कारण ही अनेक धातुओं का व्यावहारिक उपयोग संभव है। इनमें से कुछ धातुओं के प्रत्यास्थ व्यवहार निम्नलिखित है-
(i) इस्पात (steel)द्ध लचीला और प्रत्यास्थ दोनों होते हैं। इसलिए मकान बनाने तथा रेलों के लिए पुल बनाने के लिए इसका उपयोग किया जाता है।
(ii) शुद्ध लोहा लचीला होता है परन्तु प्रत्यास्थ नहीं होता। इसलिए मकान बनाने तथा नहरों पर पुल बनाने के लिए इसका उपयोग नहीं किया जाता है।
(iii) सीसा आघातवध्र्य (malleable) होता है और इसमें सुघट्यता (plasticity) भी होती है। इसलिए इसे पीटकर आसानी से चदरों के रूप में बनाया जा सकता है, और फिर उन्हें मोड़कर आवश्यकतानुसार नई आकृति में बदला जा सकता है। इसका उपयोग छत बनाने में भी होता है।
(iv) ताँबा तन्य (ductile) होता है। इसलिए ताँबे के पतले तार आसानी से बनाए जा सकते है।
- इंजीनियरी के सामान बनाने के लिए पदार्थों में साधारणतः निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है-
(a) पदार्थों को भंगुर ;इतपजजसमद्ध न होकर चिमड़ा होना चाहिए, तथा
(b) उन्हें काफी मजबूत होना चाहिए जिससे वे अधिक भार आसानी से वहन कर सकें ।
- किसी वस्तु में विकृति उत्पन्न करने के लिए जितना अधिक बल लगाना पड़े, उतना ही वह वस्तु अधिक प्रत्यास्थ है। अतः रबर की अपेक्षा इस्पात अधिक प्रत्यास्थ है।
पृष्ठ तनाव (Surface Tension)
- द्रव का वह गुण जिसके कारण इसका मुक्त पृष्ठ तानित कला (stretched membrane) के रूप में कार्य करता है, पृष्ठ तनाव कहलाता है।
उदाहरण:
(i) जल की सतह पर हल्के से पिन रखे जाने पर, पिन तैरता है। पिन को दबा देने से द्रव तनाव की तह टूट जाती है और पिन जल में डूब जाता है।
(ii) शेविंग ब्रश को जल से निकाले जाने पर इसके केश आपस में सटे रहते है।
(iii) स्पिरिट और जल के मिश्रण में पिपेट के सहारे ओलिव आयल की बूँद हलके से गिराई जाने पर ओलिव आयल की बूँद पूर्णतया गोलाकार रूप ले लेती है। मिश्रण और ओलिव आयल का घनत्व बराबर होता है। पृष्ठ तनाव के कारण द्रव के पृष्ठ में न्यूनतम स्थान ग्रहण करने की प्रवृत्ति रहती है। यही कारण है कि वर्षा की बुँदे भी गोलाकार होती है।
(iv) पतली नली के सिरे से पिघला सीसा गिराए जाने पर, सीसे की बूँद पृष्ठ तनाव के कारण गोलाकार रूप ले लेती है। कारखाने में सीसे की गोली इसी प्रकार बनाई जाती है।
(v) शीशे की सतह पर मर्करी गिराई जाने पर गोलिकाएँ गोलाकर बन जाती है।
(vi) जल की अपेक्षा तेल का पृष्ठ-तनाव कम होता है। जल की सतह पर तेल की एक बूँद गिराई जाने पर जल के अत्यधिक पृष्ठ-तनाव के कारण, यह महीन झिल्ली के रूप में चारों ओर फैल जाती है। जल के अत्यधिक पृष्ठ तनाव के कारण ही मच्छर इसकी सतह पर अंडे देती है, किन्तु तेल का छिड़काव करने पर पृष्ठ तनाव में कमी आ जाने के कारण इसकी सतह पर अंडे नहीं दे पाती है।
(vii) समुद्र की लहरों को शांत करने के लिए तेल गिराया जाता है। पृष्ठ तनाव में कमी आने पर लहरों की ऊँचाई कम हो जाती है।
केशिकात्व (Capillarity)
- द्रव का वह गुण जिसके कारण यह केशिका नली में द्रव की सतह के ऊपर चढ़ जाता है या नीचे उतर आता है, केशिकात्व कहलाता है।
- केशिका नली को द्रव में डुबाए जाने पर जल इसमें अपनी सतह से ऊपर चढ़ जाता है, किन्तु पारे में केशिका नली डुबाए जाने पर पारा इसमें अपनी सतह से नीचे उतर आता है।
उदाहरण
(i) लालटेन की बत्ती में एक सिरे से दूसरे सिरे तक तेल इसकी केशिकाओं के माध्यम से पहुँचता है। लालटेन में तेल का ऊपर चढ़ना इसी क्रिया द्वारा होता है।
(ii) वर्षाऋतु में दीवारें आद्र्र हो जाती है, क्योंकि ईंट केशिकाकर्षण द्वारा जल अवशोषित करती है।
(iii) ब्लाॅटिंग पेपर से स्याही का सुखाया जाना भी केशिकाकर्षण द्वारा होता है। ब्लाॅटिंग पेपर के असंख्य छोटे-छोटे छिद्र केशिकाओं के रूप में काम करते है जो स्याही के सम्पर्क में आने पर इसे सोख लेते है।
(iv) वृक्ष के पत्ते, धड़ एवं डालियों में महीन केशिकाएँ रहती है, जिनसे वृक्षों में मौजूद रस और दिया गया जल केशिकाकर्षण द्वारा एक-एक पत्ता तक पहुँच जाता है।
(v) कलम की नींव का अग्र भाग फटा रहता है ताकि यह फटा भाग केशिका का काम करे और स्याही नींव के अग्र बिन्दु तक लगातार पहुँचती रहे।
श्यानता (Viscosity)
- श्यानता द्रव का वह गुण है जिसके कारण यह विभिन्न परतों के बीच आपेक्षिक गति का प्रतिरोध करता है। सामान्यतः अल्कोहल, जल, स्पिरिट आदि पतले द्रव में कोलतार, अंडी का तेल, ग्लिसरीन जैसे गाढ़े द्रव की अपेक्षा कम श्यानता रहती है।
सापेक्षवाद का सिद्धान्त (Theory of Relativity)
- भौतिक विज्ञान के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो. अलवर्ट आईंस्टीन ने किया था। इसकी मूलभूत मान्यता यह है कि- (i) दिक्क और काल आपस में पूर्णतया जुड़े है और एक दूसरे पर निर्भर है, (ii) दो वस्तुओं के बीच दिक्क और स्थान का अन्तराल और दो घटनाओं के बीच समय का अन्तराल निरपेक्ष नहीं बल्कि सापेक्ष है, (iii) द्रव्य और ऊर्जा मूलतः एक ही है और उन्हें एक दूसरे में परिवर्तित किया जा सकता है।
ऊष्मा
- पहले यह विश्वास किया जाता था कि ऊष्मा एक प्रकार का द्रव है, जिसे ”कैलोरिक“ (Caloric) कहते थे तथा यह द्रव द्रव्य (Matter) के अणुओं के बीच खाली स्थान में भरा रहता था और जब वस्तु का ताप अधिक होता था तो माना जाता था कि उसमें इस द्रव की अधिक मात्र संचित थी। इस सिद्धान्त को ”ऊष्मा का कैलोरिक सिद्धान्त“ कहते थे। लेकिन ये सिद्धान्त बाद में कई घटनाओं की व्याख्या नहीं कर सका तथा अस्वीकार कर दिया गया।
- ऊष्मा एक प्रकार की ऊर्जा है, जिसे कार्य में बदला जा सकता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण सबसे पहले रमफोर्ड (Rumford) ने दिया। बाद में डेवी (Davy) ने दो बर्फ के टुकड़ों को आपस में घिसकर पिघला दिया। चूँकि बर्फ को पिघलने के लिये ऊष्मा का और कोई स्त्रोत न था, अतः यह माना गया कि बर्फ को घिसने में किया गया कार्य बर्फ पिघलने के लिये ली गई आवश्यक ऊष्मा में बदल गया। बाद में जूल (Joule) ने अपने प्रयोगों से इस बात की पुष्टि की कि ”ऊष्मा ऊर्जा का ही एक रूप है।“
- जब कभी कार्य ऊष्मा में बदलता है, या ऊष्मा कार्य में बदलती है, तो किये गये कार्य व उत्पन्न ऊष्मा का अनुपात एक स्थिरांक होता है, जिसे ”ऊष्मा का याँत्रिक तुल्यांक“ (Mechanical equivalent of heat) कहते हैं।
- ऊष्मा के यांत्रिक तुल्यांक का मान 4186 जूल/किलोकैलोरी या 4.186 जूल/कैलोरी या 4.186 x 107 अर्ग/कैलोरी होता है। इसका तात्पर्य हुआ कि यदि 4186 जूल का यांत्रिक कार्य किया जाये तो उत्पन्न ऊष्मा की मात्र 1 किलोकैलोरी होगी।
(1) कैलोरी (Calorie) - एक ग्राम जल का ताप 10c बढ़ाने के लिये आवश्यक ऊष्मा की मात्र को ‘कैलोरी’ कहते है।
(2) अन्तर्राष्ट्रीय कैलोरी (International Calorie)- एक ग्राम पानी का ताप 14.50c से 15.50c तक बढ़ाने के लिये आवश्यक ऊष्मा की मात्र को अन्तर्राष्ट्रीय कैलोरी कहते है। इसी प्रकार एक किग्रा. पानी का ताप 14.50c से 15.50c तक बढ़ाने के लिये आवश्यक ऊष्मा की मात्र को किलोकैलोरी कहते हैं।
(3) ब्रिटिश थर्मल यूनिट (B. Th. U.)- 1 पोंड पानी का ताप 1 डिग्री फारेनहाइट बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्र को B.Th.U. कहते हैं।
1 B.Th.U. = 252 कैलोरी
1 कैलोरी = 4.18 जूल
1 किलो कैलोरी = 4.18 x 103 जूल
ताप मापन
(1) सेल्सियस पैमाना (Celsius Scale or C) - इस पैमाने का आविष्कार स्वीडन के वैज्ञानिक सेल्सियस ने किया था, जिसके कारण उन्हीं के नाम पर इसे सेल्सियस पैमाना कहते है।
(2) फारेनहाइट पैमाना (Fahrenheit Scale or F)-इस पैमाने का आविष्कार जर्मन वैज्ञानिक फारेनहाइट ने किया था।
- -400 तापक्रम पर फारेनहाइट और सेल्सियस दोनों पैमाने समान पठन देते है।
(3) र्यूमर पैमाना (Reamur Scale or R) -इस पैमाने पर अधोबिन्दु या हिमांक को 00 तथा ऊध्र्वबिन्दु या भाप बिन्दु को 800 पर अंकित किया जाता है।
- सेल्सियस पैमाने, फारेनहाइट पैमाने तथा र्यूमर पैमाने पर ताप में निम्न सम्बन्ध है-
(4) केल्विन पैमाना (Kelvin Scale)-इस पैमाने पर हिमांक या अधोबिन्दु को 2730 k तथा भाप बिन्दु को 3730 k पर अंकित किया जाता है। इस पैमाने पर ताप को केल्विन (k) से व्यक्त किया जाता है। इस पैमाने में अधोबिन्दु 0°k जल के हिमाँक से 2730k नीचे होता है। केल्विन पैमाने पर 00k को परम शून्य (absolute zero) कहते है तथा सिद्धान्ततः यह माना जाता है कि 00k न्यूनतम ताप है। इसके नीचे कोई ताप सम्भव नहीं है।
- सेल्सियस पैमाने के किसी मान को केल्विन पैमाने पर प्राप्त करने के लिये उसमें 273 जोड़ देते है। तथा केल्विन पैमाने का कोई मान सेल्सियस पैमाने पर प्राप्त करने के लिये उसमें से 273 घटा देते है।
- मुख्य रूप से अल्कोहल व पारा ही ऐसे द्रव है, जो थर्मामीटर में प्रयोग किये जाते है। अल्कोहल का प्रयोग उन तापमापियों में किया जाता है जो -400c से नीचे ताप मापने के काम आते है।
(1) द्रव-तापमापी-इस प्रकार के तापमापी का उदाहरण पारे का तापमापी है। साधारणतः पारे का तापमापी 3570c तक के ताप का मापन कर सकता है, क्योंकि 3570c पर पारा उबलने लगता है।
(2) गैस तापमापी-इस प्रकार के तापमापियों में स्थिर आयतन हाइड्रोजन तापमापी से 5000c तक के ताप को मापा जा सकता है। 5000c के ऊपर हाइड्रोजन की जगह नाइट्रोजन गैस लेने पर 15000c के ताप का मापन किया जा सकता है।
(3) प्लेटिनम प्रतिरोध तापमापी-”ताप बढ़ाने से धातु के तार के विद्युत प्रतिरोध में परिवर्तन होता है,“ इसी सिद्धान्त पर प्लेटिनम प्रतिरोध तापमापी कार्य करता है। इसका प्रयोग गैस तापमापी की तुलना में सरल है तथा इसके ताप मापन का परिसर -2000c से 12000c तक होता है।
(4) ताप-युग्म तापमापी (Thermo-couple Thermometer)-जब दो भिन्न-भिन्न धातुओं के तारों के सिरों को जोड़कर एक बन्द परिपथ बनाते है तथा इस परिपथ की सन्धियों (Junctions) को अलग-अलग तापों पर रखते है तो परिपथ में धारा बहने लगती है। इसे ताप विद्युत धारा (Thermo electric current) कहते है तथा इस प्रभाव को सीबेक का प्रभाव कहते है। ताप युग्म तापमापी सीबेक के प्रभाव पर ही आधारित है। भिन्न-भिन्न धातुओं के तारों को लेकर हम इस प्रकार के तापमापी से -2000c से लेकर 16000c तक के ताप का मापन कर सकते है।
(5) पूर्ण विकिरण उत्तापमापी (Total Radiation Pyrometer)-इस तापमापी की सहायता से अत्यधिक ऊंचे तापों की माप की जाती है। यह तापमापी स्टीफैन के नियम (Stefan's law) पर आधारित है, जिसके अनुसार उच्च ताप पर किसी वस्तु से उत्सर्जित विकिरण की मात्र इसके परमताप के चतुर्थ घात के अनुक्रमानुपाती होती है। इस तापमापी में तापमापी को वस्तु के सम्पर्क में नहीं रखना पड़ता, अतः दूर की वस्तुओं जैसे सूर्य आदि का ताप इसी प्रकार के तापमापी के द्वारा मापा जाता है। इस तापमापी से करीब 8000c से नीचे का ताप नहीं मापते क्योंकि इससे कम ताप पर वस्तुयें ऊष्मीय विकिरण का उत्सर्जन नहीं करती।
ऊष्मीय प्रसार (Thermal expansion)
- सामान्यतः पदार्थ को ऊष्मा देने पर पदार्थ का आयतन बढ़ता है, कयोंकि ताप बढ़ने पर पदार्थ के अणुओं के बीच की दूरी बढ़ जाती है। लेकिन कुछ पदार्थ, जैसेकृ पानी 00c से 40c के बीच, सिल्वर आयोडाइड (Silver iodide) 800cसे 1400c के बीच, तथा सिलिका - 800c के नीचे आदि का ताप बढ़ाने पर इनका संकुचन (Contraction) होता है। जब हम पदार्थ को ठण्डा करते है तो ठीक विपरीत क्रिया होती है, अर्थात् पदार्थ के अणुओं के बीच की दूरी घटती है व उनका संकुचन होता है।
- पानी का असामान्य प्रसार (Anomalous expa-nsion of water)-अधिकतर द्रवों को गर्म करने पर उनका आयतन बढ़ता है तथा घनत्व घटता है। लेकिन पानी का व्यवहार 00c से 40c के बीच ठीक उल्टा होता है। यदि पानी को गर्म किया जाये तो 00c से 40c तक इसका आयतन घटता है व घनत्व बढ़ता है। 40c पर पानी का आयतन न्यूनतम व घनत्व अधिकतम होता है। 40c के आगे गर्म करने पर इसका व्यवहार सामान्य द्रवों की भाँति होता है अर्थात् 40c के आगे गर्म करने पर इसका आयतन बढ़ता है व घनत्व घटता जाता है।
- पानी के इस असामान्य प्रसार का जलीय जीवन (Aquatic life) में बहुत महत्व है। जाड़ों में या ठण्डे प्रदेशों में वायुमण्डल का ताप गिरने से जल की ऊपरी सतह ठंडी होती है तथा उसका घनत्व बढ़ता है, जबकि तालाबों या झीलों की निचली पर्त अपेक्षाकृत गर्म होती है और हल्की होकर ऊपर आती है। यह क्रिया तब तक होती है जब तक झील का सारा पानी 40c तक नहीं आ जाता। अब यदि वायुमण्डल के तापमान में और कमी आती है तो झील के पानी की ऊपरी सतह का ताप तो गिरता है परन्तु 40c से कम ताप पर पानी के असामान्य प्रसार के कारण झील के पानी की ऊपरी पर्तों का घनत्व बढ़ने के बजाय कम होने लगता है। फलस्वरूप यह ठंडी पर्त ऊपर ही रहती है और क्रमशः 00c तक ठंडा होने पर बर्फ बन जाती है। परन्तु नीचे का पानी 40c पर द्रव अवस्था में ही रहता है। इससे झीलों या तालाबों में बर्फ के नीचे 40c पर पानी रहता है जिसमें मछलियाँ व अन्य जलीय जन्तु जिन्दा रहते है।
- प्रायः यह पाया जाता है कि चमकदार व श्वेत तल से ऊष्मीय विकिरण का उत्सर्जन बहुत कम होता है अर्थात् इन तलों की उत्सर्जन क्षमता कम होती है; दूसरी ओर काले व खुरदरे तलों से ऊष्मीय विकरण का उत्सर्जन अधिक होता है।
- जो पिण्ड अपने सतह से सभी प्रकार के ऊष्मीय विकिरण का पूर्णतया उत्सर्जन करता है, उसे ‘कृष्ण पिण्ड’ (Black body) कहते है।
- न्यूटन का शीतलन नियम (Newton's law of cooling)-इस नियम के अनुसार किसी वस्तु के ठण्डे होने की दर वस्तु तथा उसके चारों ओर के माध्यम के तापान्तर के अनुक्रमानुपाती होती है। अतः वस्तु जैसे-जैसे ठण्डी होती जायेगी उसके ठण्डे होने की दर कम होती जायेगी। उदाहरणार्थ, गर्म पानी को 800cसे 700c तक ठण्डा होने में लिया गया समय 400c से 300c तक ठण्डा होने में लिये गये समय की अपेक्षा बहुत कम होता है।
ग्रीनहाउस प्रभाव (Greenhouse effect)
- कुछ विकरण जिनकी तरंगदैध्र्य छोटी होती है, जैसे प्रकाश, वे काँच से पार हो जाते है, जबकि कुछ विकिरणों जैसे ऊष्मा आदि के लिए यह अवरोधक का कार्य करता है।
- कार्बन डाई आक्साइड, मिथेन, क्लोरोफ्लोरो कार्बन, जलवाष्प, नाइट्रस आक्साइड आदि ऊष्मारोधी गैस पृथ्वी के चारों ओर आच्छादित होकर ऊष्मारोधी घेरा बनाती है, जिससे पृथ्वी पर सौर विकिरण आ तो जाते है लेकिन ये गैसें इसके द्वारा उत्पन्न ऊष्मा को वापस अंतरिक्ष में नहीं जाने देती, जिससे वायुमण्डल के ताप में निरंतर वृद्धि हो रही है। यदि इन गैसों के आच्छादित होने की गति यही रही तो अगले पचास वर्षों में पृथ्वी के तापमान में चार से पाँच डिग्री सेण्टीग्रेट तक वृद्धि होने की सम्भावना है।
- एक अनुमान के अनुसार यदि 3.50c की वृद्धि हो जाये तो ध्रुवों की बर्फ पिघलने लगेगी, जिसके फलस्वरूप समुद्र के जल स्तर में वृद्धि होगी व हमारे कई तटीय नगर जल समाधि ले लेंगे। पृथ्वी के तापमान में वृद्धि से सिर्फ समुद्र का जल स्तर ही नहीं बढ़ेगा, बल्कि और भी मौसम व जलवायु सम्बन्धी खतरनाक परिवर्तन हो सकते हैं, जैसे- कहीं भयंकर तूफान आना, कहीं सूखा पड़ना, तेज हवाएं चलना आदि।
विशिष्ट ऊष्मा (Specific heat)
- यदि एक ग्राम पानी, एक ग्राम मिट्टी का तेल व एक ग्राम ताम्बा कमरे के ताप (25°c) पर लेकर प्रत्येक को एक कैलोरी ऊष्मा दी जाये, तो पानी का ताप 25°c, मिट्टी के तेल का ताप 270c तथा ताम्बा का ताप 350c हो जाता है। अतः स्पष्ट है कि यदि समान ताप पर समान द्रव्यमान के पदार्थ को लेकर उनको ऊष्मा की समान मात्र प्रदान की जाये तो प्रत्येक के ताप में वृद्धि भिन्न-भिन्न होती है।
- यदि पदार्थ के एक ग्राम संहति का द्रव्यमान लेकर इसका ताप एक डिग्री सेण्टीग्रेट बढ़ा दिया जाये तो इस प्रक्रिया में दी गई ऊष्मा को पदार्थ की विशिष्ट ऊष्मा कहा जाता है।
पानी की विशिष्ट ऊष्मा (Specific heat of water)
- पानी की विशिष्ट ऊष्मा सभी द्रवों व ठोसों की अपेक्षा अधिक होती है।
- यही कारण है कि शरद ऋतु में कमरे को गर्म करने के लिये पाइपों में गर्म पानी प्रवाहित किया जाता है। शरीर को सेंकने वाली बोतलों में भी गर्म पानी का इस्तेमाल किया जाता है। यदि पानी की विशिष्ट ऊष्मा कम होती तो समुद्र का जल शीघ्र ही वाष्प बन कर उड़ जाता।
- दिन में वायु समुद्र की ओर से स्थल की ओर चलती है तथा रात्रि में वायु स्थल से समुद्र की ओर चलती है। यही कारण है कि समुद्र के पास वाले स्थानों में न तो अधिक गर्मी पड़ती है और न ही अधिक सर्दी। दिन में समुद्र की ओर से पृथ्वी की ओर चलने वाली हवाओं को ‘समुद्री समीर’ और रात्रि में पृथ्वी से समुद्र की ओर चलने वाली हवाओं को ‘स्थलीय समीर’ कहते है।
वातानुकूलन (Air-conditioning)
- पृथ्वी पर किसी स्थान की जलवायु वहाँ के ताप, आपेक्षिक आद्र्रता तथा वायु बहने की दिशा से निर्धारित होती है। सामान्यतः मनुष्य के स्वास्थ्य व अनुकूल जलवायु के लिये निम्न परिस्थितियाँ होनी चाहिए-
(1) ताप: 230c से 250c
(2) आपेक्षिक आद्र्रता: 60% से 65%
(3) वायु की गति: 0.75 मी./मिनट से 2.5 मी./मिनट तक
- यदि किसी स्थान की जलवायु उपर्युक्त परिस्थितियों के अनुसार नहीं होती तो वह जलवायु मनुष्य के लिये आरामदेह व स्वास्थ्यकर नहीं होती। अतः इसको अनुकूल बनाने के लिये इन बाह्य परिस्थितियों को कृत्रिम रूप से निर्धारित व नियन्त्रिात करने की प्रक्रिया को ही ”वातानुकूलन“ कहते है।
ध्वनि (Sound)
- ध्वनि (Sound)- ध्वनि एक प्रकार की ऊर्जा है, जिसकी उत्पत्ति कम्पायमान वस्तुओं से होती है। किन्तु यह आवश्यक नहीं कि हर कम्पन से ध्वनि उत्पन्न हो ही।
- वस्तुओं में प्रति सेकेण्ड 20 से 20,000 कम्पन्न अर्थात 20 हर्टज (Hrtd =k Hz) से 20,000 हर्टज उत्पन्न होने पर मनुष्य का स्वस्थ कान इन्हें ग्रहण कर पाता है। मनुष्य की अपेक्षा पशु-पक्षियों, विशेषकर चमगादर, कुत्ते, बिल्ली एवं पक्षियों में श्रव्यता-सीमाएँ अधिक रहती है।
- ध्वनि का संचरण- ध्वनि संचरण के लिए द्रव्यात्मक माध्यम अर्थात् ठोस, द्रव एवं गैस आवश्यक होता है। ध्वनि का संचरण द्रव की अपेक्षा ठोस में और गैस की अपेक्षा द्रव में अधिक होता है। निर्वात् में घंटी तो बजती है, किन्तु आवाज सुनाई नहीं पड़ती।
- तरंग गति (Wave motion)- यह एक प्रकार का विक्षोभ (Disturbance) है, जो माध्यम के कणों की माध्य स्थिति पर उत्पन्न बार-बार आवर्ती गति के कारण माध्यम में आगे की ओर बढ़ता है। एक कण दूसरे की गति को दुहराता है और अगले कण को यह विक्षोभ स्थानान्तरित करता जाता है।
- तरंग की गति दो प्रकार की होती है- अनुप्रस्थ तरंग गति (Transverse wave motion) और अनुदैध्र्य तरंग गति (Longitudinal wave motion)।
(i) अनुप्रस्थ तरंग गति (Transverse wave motion) - अनुप्रस्थ तरंग गति में माध्यम के कण अपनी माध्य स्थिति पर ऊपर नीचे लम्बवत् (Perpendicular) तरंग की दिशा में कंपित होते है। कंपन के उच्चतम बिन्दु को शीर्ष (Crest) और निम्नतम बिन्दु को गर्त (Trough) कहा जाता है। एक शीर्ष और एक गर्त मिलकर एक तरंग की रचना करती है।
(ii) अनुदैध्र्य तरंग गति (Longitudinal wave motion) - इसमें माध्यम के कण अपनी माध्य स्थिति पर तरंग की दिशा में समान्तर (Parallel) कंपित होते है। इसमें एक संपीडन (Condensation) और एक विरलन (Rarefaction) मिलकर एक तरंग की रचना होती है।
- आवृत्ति (Frequency)- प्रति सेकेण्ड कणों में जितने कम्पन होते है, उसे आवृत्ति कहा जाता है।
- आयाम (Amplitude)- माध्यम के कण में इसकी माध्य स्थिति से जो अधिकतम विस्थापन होता है, उसे आयाम कहा जाता है।
- ध्वनि का वेग (Velocity of Sound)- किसी भी माध्यम- ठोस, द्रव एवं गैस में ध्वनि का वेग, माध्यम की प्रत्यास्थता (Elasticity) और घनत्व (Elasticity) पर निर्भर करता है। हवा या गैस का घनत्व तापक्रम में परिवर्तन के अनुसार घटता-बढ़ता है। अतः ध्वनि-वेग पर तापक्रम का प्रभाव पड़ता है।
- तापक्रम में 1°c की वृद्धि से ध्वनि वेग में 60 सेंमी प्रति सेकेण्ड की वृद्धि होती है। हवा या गैस में ध्वनि-वेग पर वायुमंडलीय दाब का प्रभाव नहीं पड़ता है।
- आद्र्रता एवं वायु की दिशा का प्रभाव ध्वनि-वेग पर पड़ता है। हवा में ध्वनि-वेग की अपेक्षा जल में ध्वनि का वेग लगभग चार गुना अधिक होता है।
- पराश्रव्य ध्वनि तरंग (Ultrasonic Waves)- 20,000 हर्टज की आवृत्ति वाली ध्वनि का तरंग दैध्र्य 0.0175 मीटर होता है। यह श्रव्य ध्वनि होती है। 20,000 हर्टज से अधिक आवृत्ति की ध्वनि तरंग को पराश्रव्य ध्वनि तरंग कहा जाता है। इसके तरंग दैध्र्य छोटे होते है। अतः इसकी आवृत्ति श्रव्यता-सीमा के परे होती है।
उपयोग
(i) इसका उपयोग समुद्र की गहराई मापने में किया जाता है। पराश्रव्य-ध्वनि समुद्र के तल तक प्रक्षेपित की जाती है जो तल से टकराकर लौटती है। ध्वनि को तल तक पहुँचने और टकराकर लौटने में जो समय लगता है उसके आधार पर गहराई निकाली जाती है।
(ii) पराश्रव्य ध्वनि का उपयोग सिग्नल देने के कार्य में भी किया जाता है। इसके तरंग दैध्र्य छोटे होते हैं जिससे इसे लघु बिम्ब के रूप में भेजा जा सकता है। हाल ही में अल्ट्रासोनिक माइक्रोस्कोप का भी आविष्कार किया गया है जिसकी सहायता से छिपी वस्तुओं का पता लगाया जाता है। इसकी आवृत्ति इतनी अधिक होती है कि यह दृष्टिगोचर होने वाले प्रकाश के तरंग दैध्र्य के समतुल्य हो जाती है।
(iii) पराश्रव्य ध्वनि का बिम्ब किसी द्रव्य से गुजरने पर वह गर्म हो जाती है। यदि 0°c तापक्रम वाले जल में पराश्रव्य ध्वनि दी जाए तो वह उबलने लगेगा।
(iv) स्टील और अन्य धातुओं में छिद्र करने के लिए अल्ट्रासाॅनिक ड्रिल का प्रयोग किया जाता है।
(v) इसके द्वारा धातु की बनी वस्तुओं में दरक (Crack) का पता लगाया जा सकता है।
(vi) चूहे, मेढ़क, मछली आदि पर पराश्रव्य ध्वनि का प्रयोग करने पर ये लँगड़े हो जाते है।
- इसके अतिरिक्त पराश्रव्य ध्वनि तरंग का उपयोग चिकित्सा विज्ञान, तरल पदार्थ को निर्जीवाणुकृत करने, रासायनिक प्रतिक्रिया में उत्प्रेरक के रूप में भी उपयोगी है।
- अवश्रव्य ध्वनि (Infrasonic Sound)- श्रव्यता सीमा से कम आवृत्ति की अर्थात् 20 कम्पन प्रति सेकेण्ड से कम आवृत्ति वाली ध्वनि तरंग को अवश्रव्य ध्वनि कहा जाता है।
- पराध्वनिक तरंग (Supersonic wave)- ध्वनि वेग अर्थात् 332 मी/से. से अधिक वेग की ध्वनि को पराध्वनिक (Supersonic) कहा जाता है। इस ध्वनि का वेग 1200 किमी प्रतिघंटा से अधिक होता है।
- ध्वनि का अपवर्तन (Refraction)- प्रकाश की तरह ध्वनि का भी अपवर्तन प्रकाश के अपवर्तन नियमानुसार होता है।
- दिन में सूर्य की गर्मी के कारण वायुमण्डल की निचली परत ऊपरी परत की अपेक्षा अधिक गर्म हो जाती है। इससे नीचे विरल और ऊपर सघन माध्यम बन जाता है जिससे ध्वनि अपवर्तित होकर ऊपर की ओर विचलित हो जाती है और पृथ्वी पर ध्वनि तीव्रता कम मालूम पड़ती है।
- रात्रि में वायुमंडल की निचली परत अधिक ठंडी रहती है जिसके कारण इसका घनत्व अधिक रहता है। फलतः ध्वनि तरंग अपवर्तित होकर नीचे की ओर मुड़ जाती है और पृथ्वी पर ध्वनि की तीव्रता अधिक मालूम पड़ती है।
- सुस्वर ध्वनि (Musical Sound)- सुखद प्रभाव या संवेदना उत्पन्न करने वाली ध्वनि को सुस्वर ध्वनि कहा जाता है। सुस्वर ध्वनि नियमित अन्तराल के बाद जल्द-जल्द आती है और इस बीच ध्वनि की तीव्रता में अचानक परिवर्तन नहीं होता है।
- कोलाहल (Noise)- कर्णकटु या अप्रिय प्रभाव उत्पन्न करने वाली ध्वनि को कोलाहल कहा जाता है। ऐसी ध्वनि अनियमित अंतराल पर आती है और इसकी तीव्रता में अचानक परिवर्तन आ जाता है।
- सुस्वर ध्वनि के तीन गुण होते है-
(i) तीव्रता (Intensity), (ii) सुर (Pitch) और (iii) रूप या प्रकृति (Quality)।
- ध्वनि की तीव्रता (Intensity of sound)- ध्वनि की तीव्रता ध्वनि के उद्गम स्थान, हवा की दिशा, माध्यम का घनत्व, वायुमण्डल का तापक्रम, परावर्तक समूह की बनावट, ध्वनि तरंग की शक्ति, कंपन करने वाली वस्तु का द्रव्यमान एवं कम्प-विस्तार पर निर्भर करती है।
- सूर या आवृत्ति (Pitch or Frequency)- यह एक प्रकार की संवेदना है जो ध्वनि की आवृत्ति पर निर्भर करती है। कर्कश ध्वनि उच्च आवृत्ति वाले स्त्रोत से उत्पन्न होती है जबकि सुस्वर ध्वनि, आवृत्ति कम करने पर प्राप्त होती है। सुस्वर ध्वनि तीव्रता पर निर्भर नहीं करती है। ध्वनि का सुर, डाॅप्लर के सिद्धान्त के अनुसार, जब ध्वनि-स्त्रोत या श्रोता या दोनों गतिशील होते है, बदलता है।
- ध्वनि-स्वरूप (Quality or Timbre)- यह अधिस्वर (Overtones) पर निर्भर करता है। ध्वनि के अधिस्वर के कारण ही एक ही तीव्रता और सुर वाली दो ध्वनियों के बीच प्रभेद करने में सुविधा होती है। व्यक्तियों का अधिस्वर अलग-अलग होता है, जिसके कारण उसे केवल आवाज सुनकर पहचान लिया जाता है।
- ताल (Beat)- एक ही आवृत्ति और आयाम की ध्वनि उत्पन्न करने वाली दो वस्तुओं से उत्पन्न ध्वनि में नियमित अंतराल पर उतार-चढ़ाव होता है, जिसे ताल कहा जाता है।
- स्वर संघात (Chord)- यदि दो या इससे अधिक स्वर एक साथ उत्पन्न किए जाएँ तो मिले-जुले इस स्वर को स्वर संघात कहा जाता है। यदि मिला-जुला स्वर कर्णप्रिय हो तो इसे स्वर साम्य (Concord)और कर्णकटु हो तो इसे बेसुर (Discord) कहा जाता है।
- स्वर संगति (Harmony) - यदि दो या दो से अधिक स्वर साथ-साथ उत्पन्न किए जाएँ और मिले-जुले स्वर कर्णप्रिय हों तो इसे स्वर-संगति कहा जाता है।
- लय (Melody)- यदि दो या दो से अधिक स्वर एक के बाद एक उत्पन्न किए जाएँ और मिला-जुला स्वर कर्णप्रिय हो तो इसे लय कहा जाता है।
- प्रतिध्वनि (Echo)- ध्वनि परावर्तन में ध्वनि की जो पुनरावृत्ति सुनाई पड़ती है, उसे प्रतिध्वनि कहते है।
- प्रकाश की अपेक्षा ध्वनि का तरंग-दैध्र्य बड़ा (आधा इंच से 0.36 फीट) होता है, अतः इसके परावर्तन के लिए विस्तृत पृष्ठ की आवश्यकता होती है।
- मनुष्य के कान पर ध्वनि का प्रभाव 1/10 सेकेंड तक रहता है। अतः 1/10 सेकेण्ड से कम समय में ध्वनि का परावर्तन होने पर प्रतिध्वनि नहीं सुनाई पड़ेगी।
- प्रतिध्वनि का सुनना ध्वनि के उद्गम-स्थल और परावर्तन-स्थल के बीच की दूरी पर निर्भर करता है। 17 मीटर से कम की दूरी होने पर प्रतिध्वनि नहीं सुनाई पड़ती है। प्रतिध्वनि के लिए यह दूरी इससे अधिक की होनी चाहिए।
- इकोसाउंडिंग (Echo-Sounding)- महासागर या समुद्र की गहराई मापने के लिए ध्वनि तरंग छोड़ी जाती है, जो महासागर के तल (Bottom) से टकराकर लौट आती है। प्रतिध्वनि के लौटने में जो समय लगता है, उसके आधार पर गहराई निर्धारित कर ली जाती है।
ध्वनि के स्त्रोत | तीव्रता (डेसीबल में) |
साधारण बातचीत | 40-30 डेसीबेल |
जोर से बातचीत | 50-60 डेसीबेल |
ट्रक-टैªक्टर | 90-100 डेसीबेल |
आरकेस्ट्रा | 100 डेसीबेल |
मोटर साइकिल,विद्युत मोटर | 110 डेसीबेल |
साइरन | 110-120 डेसीबेल |
जेट विमान | 140-150 डेसीबेल |
मशीनगन | 170 डेसीबेल |
मिसाइल | 180 डेसीबेल |
- हवाई गर्त (Airpocket)- कभी-कभी अधिक ऊँचाई पर हवा की भिन्न-भिन्न परत बन जाती है। इनमें हवा की अलग-अलग गति होती है। फलतः इन परतों के बीच एक अन्तराल (gap) बन जाता है। यह अन्तराल तरंग की चोटी जैसा होता है, जिसे हवाई गर्त या पारिभाषिक शब्दों में वायु-विक्षोभ (Airturbulance) भी कहा जाता है।
- वायुयान के हवाई गर्त में आ जाने पर इसकी प्रतिक्रिया ठीक वैसी ही होती है जैसी कागज की नाव के जल की तरंग की चोटी पर आ जाने पर। इससे बचने के लिए वायुयान गोता लगाने के बाद, अपनी गति सुस्थिर करता है।
- चलचित्र में ध्वनि उत्पादन फिल्म में चित्र की दाहिनी ओर 1/4 इंच में ध्वनि-पट्टी बनी रहती है। यह ध्वनि-पट्टी प्रकाश पट्टी के रूप में बनाई जाती है। ध्वनि को विद्युत् आवेगों (Electrical impulses) में परिवर्तित कर (हरेक ध्वनि का विद्युत आवेग अलग-अलग होता है) उसका फोटोग्राफ लिया जाता है। ध्वनि प्रकाश के विभिन्न शेडों (लाइट और डार्क या ग्रे) में अभिलिखित की जाती है। फिल्म जब प्रोजेक्टर के फोटो-इलेक्ट्रिक-सेल से गुजरती है, प्रकाश पट्टी (लाईट और डार्क शेड) ध्वनि में परिवर्तित हो जाती है।
डाप्लर प्रभाव (Doppler's effect)
- दैनिक जीवन में हम अनुभव करते है कि जब रेलवे स्टेशन पर कोई रेलगाड़ी सीटी बजाती हुई स्टेशन की ओर आती है, तो हमें उसकी ध्वनि तेज सुनाई देती है। अर्थात् हमें सुनी गई ध्वनि की आवृत्ति सीटी की वास्तविक आवृत्ति से अधिक प्रतीत होती है तथा जब गाड़ी स्टेशन से दूर जाती है, तो सीटी की ध्वनि धीमी सुनाई देती है। अर्थात् सुनी गई ध्वनि की आवृत्ति सीटी की वास्तविक आवृत्ति से कम प्रतीत होती है। इसी प्रकार यदि हम किसी सीटी बजाते हुये स्थिर इंजन के पास जायंे तो भी हमें उसकी ध्वनि तीव्र सुनाई देती है तथा जब दूर जायें तो ध्वनि धीमी सुनाई देती है।
- इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ”जब किसी ध्वनि स्त्रोत (source) व श्रोता (observer) के बीच आपेक्षिक गति (relative motion) होती है, तो श्रोता को ध्वनि की आवृत्ति उसकी वास्तविक आवृत्ति से अलग (Different) सुनाई देती है।“ ध्वनि में आवृत्ति परिवर्तन के इस प्रभाव को सर्वप्रथम जाॅन डाप्लर ने 1842 में प्रतिपादित किया, जिसके कारण उन्हीं के नाम पर इसे डाप्लर प्रभाव कहते है।- डाप्लर के प्रभाव का उपयोग किसी स्टेशन को आते हुये वायुयान की दिशा व वेग को ज्ञात करने में किया जाता है। स्टेशन से रडार के द्वारा रडार-तरंगे वायुयान की ओर भेजी जाती है, जो इससे परावर्तित होकर वापस लौट आती है। यदि इन परिवर्तित तरंगों की आवृति घटी हुई प्रतीत होती है तो यान स्टेशन से दूर जा रहा है। इन आपतित व परावर्तित तरंगों के बीच आवृति का अन्तर ज्ञात करके वायुयान के वेग का पता करते हैं।
- डाप्लर का प्रभाव प्रकाश तरंगों के लिये भी लागू होता है। लेकिन ध्वनि तरंगों के डाप्लर-प्रभाव व प्रकाश तरंगों के डाप्लर प्रभाव में मुख्य अन्तर यह है कि ध्वनि तरंगों में यह प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि श्रोता या स्त्रोत में कौन गतिमान है, अर्थात् उनकी आपेक्षिक गति पर निर्भर करता है, जबकि प्रकाश तरंगों में यह प्रभाव स्त्रोत या श्रोता के बीच आपेक्षिक गति पर निर्भर नहीं करता।
- प्रकाश में डाप्लर के प्रभाव का खगोलीय विज्ञान में अत्यन्त महत्व है। इससे यह पता लगाया जाता है कि कोई आकाशीय पिण्ड पृथ्वी की ओर आ रहा है या पृथ्वी से दूर जा रहा है। यदि वह पृथ्वी की ओर आ रहा है, तो उससे प्राप्त आवृत्ति रेखायें प्रयोगशाला में बैंगनी रंग की ओर विस्थापित होती है और यदि पिण्ड पृथ्वी से दूर जा रहा है, तो ये रेखायें लाल रंग की ओर विस्थापित होती हैं।
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1. सामान्य भौतिकी क्या है? |
2. सामान्य भौतिकी क्यों महत्वपूर्ण है? |
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