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Essays (निबंध): August 2023 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly PDF Download

योग की प्रासंगिकता

योग शब्द का अर्थ ‘एक्य’ या ‘एकत्व’ होता है जो संस्कृत धातु ‘युज’ से निर्मित है। युज का अर्थ होता है ‘जोड़ना’।

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है ‘‘योग : कर्मसु कौशलम्’’ अर्थात् योग से कर्मों में कुश्लाता आती है। व्यावाहरिक स्तर पर योग शरीर, मन और भावनाओं में संतुलन और सामंजस्य स्थापित करने का एक साधन है।

योग भारतीय ज्ञान की हजारों वर्ष पुरानी शैली है। हजारों मूर्तियाँ इसके संबंध में योग की स्थिति में अभी तक प्रमाणिक रूप में है। भगवत गीता में अनेकों बार योग शब्द का उल्लेख किया गया है। योग के साक्ष्य सिंधु घाटी, वैदित सभ्यता तथा बौद्ध एवं जैन दर्शन में किसी-न-किसी रूप में प्राप्त हुआ है। योग के प्रसिद्ध ग्रंथों में पतंजलि द्वारा रचित योगसूत्र एवं वेदव्यास द्वारा रचित योगभाण्य का विशेष महत्त्व है। नागेश भट्ट द्वारा रचित योग सूत्रवृत्ति भी विख्यात है।

योग के आठ अंगों को अष्टांग कहते हैं जिससे आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है। यम, नियम, आसन, प्रणायाम, धारणा, ध्यान, प्रात्याहार, समाधि को योग के आठ अंग माना जाता है। योग में प्राणायाम का विशेष महत्त्व है। प्राण का अर्थ जीवन शक्ति एवं आयाम का अर्थ ऊर्जा पर नियंत्रण होता है। अर्थात् श्वास लेने संबंधी कुछ विशेष तकनीकों द्वारा जब प्राण पर नियंत्रण किया जाता है तो उसे प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम के तीन मुख्य प्रकार होते हैं- अनुलोम-विलोम, कपालभाति प्राणायाम और भ्रामरी प्राणायाम।

भारतीय धर्म और दर्शन में योग का अत्यधिक महत्त्व है। आध्यात्मिक उन्नति या शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिये योग की आवश्यकता एवं महत्त्व को प्राय: सभी दर्शनों एवं भारतीय धार्मिक संप्रदायों द्वारा एकमत से स्वीकार किया गया है। जैन और बौद्ध दर्शनों में भी योग के महत्त्व को स्वीकृति प्राप्त है। वर्तमान समय अर्थात् आधुनिक युग में योग के महत्त्व में और अधिक अभिवृद्धि हुई है। मनुष्यों में बढ़ती व्यस्तता एवं मन की व्याकुलता इसके प्रमुख कारणों में से हैं। आधुनिक मनुष्य को आज योग की अत्यधिक आवश्यकता हो गई है। मन और शरीर अत्यधिक तनाव, प्रदूषण एवं भागदौड़ भरी जिंदगी के कारण रोगग्रस्त होते जा रहे हैं। व्यक्ति के अंतर्मुखी और बहिर्मुखी स्थिति में असंतुलन आ गया है।

भारत के प्रधानमंत्री मोदी जी के अनुसार, योग भारत की प्राचीन परंपरा का एक अमूल्य उपहार है। यह दिमाग और शरीर की एकता का प्रतीक है; मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य है; विचार, संयम और पूर्ति प्रदान करने वाला है तथा स्वास्थ्य और भलाई के लिये एक समग्र दृष्टिकोण प्रदान करने वाला है। यह व्यायाम के बारे में नहीं है लेकिन अपने भीतर एकता की भावना, दुनिया और प्रकृति की खोज के विषय में है। हमारी बदलती जीवनशैली में यह चेतना बनकर हमें जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद कर सकता है।

कई बड़े योगियों और गुरुओं द्वारा योग को परिभाषित किया गया है। श्री श्री रविशंकर के अनुसार ‘‘योग सिर्फ व्यायाम और आसन ही है। यह भावनात्मक एकीकरण और रहस्यवादी तत्त्व का स्पर्श लिये हुए एक आध्यात्मिक ऊँचाई है, जो आपको सभी कल्पनाओं से परे की एक झलक देता है। ओशो के अनुसार ‘‘योग को धर्म, आस्था और अंधविश्वास के दायरे में बाधना गलत है। योग विज्ञान है, जो जीवन जीने की कला है। साथ ही यह पूर्ण चिकित्सा पद्धति है। जहाँ धर्म हमें खूंटे से बाँधता है, वहीं योग सभी तरह के बंधनों से मुक्ति का मार्ग है।’’ बाबा रामदेव के अनुसार ‘‘मन को भटकने न देना और एक जगह स्थिर रखना ही योग है।’’ आज योग का ज्ञान जिस सुव्यविस्थत तरीके से हमें उपलब्ध है उसका श्रेय महर्षि पतंजलि को जाता है। पहले योग के सूत्र बिखरे थे जिन्हें समझना मुश्किल था। महर्षि पतंजलि ने इन्हें समझते हुए इन्हें सुव्यवस्थित किया और अष्टांग योग का प्रतिपादन किया। भारत के षट् दर्शनों में महर्षि पतंजलि का योग दर्शन बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। योग शब्द की परिभाषा महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्र में ‘‘योगश्रितवृत्ति निरोध:’’ के रूप में दी जिसका अर्थ होता है चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं। चित्त की इन वृत्तियों के निरोध हेतु अभ्यास एवं वैराग्य को आवश्यक बताया जाता है- ‘‘अभ्यास वैराग्याम्यां तन्निरोध:’’ और चित्त की वृत्तियों के निरोध से होने वाली उपलब्धि को ‘‘तदा द्रष्ट: स्वरूपऽवस्थानम्’’ माना गया है अर्थात् इस समय द्रष्टा की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है। इस अवस्था की प्राप्ति के लिये जो साधन बताए गए हैं, वे ही अष्टांग योग कहलाते हैं।

देखा जाए तो योग कोई धर्म नहीं है, यह जीने की एक कला है, जिसका लक्ष्य है- स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन। योग के अभ्यास से व्यक्ति को मन, शरीर और आत्मा को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। यह भौतिक और मानसिक संतुलन द्वारा शांत मन और संतुलित शरीर की प्राप्ति कराता है। तनाव और चिंता का प्रबंधन करता है। यह शरीर में लचीलापन, मांसपेशियों को मजबूत करने और शारीरिक स्वास्थ्य को बढ़ाने में मदद करता है। इसके द्वारा श्वसन, ऊर्जा और जीवन शक्ति में सुधार होता है। इससे प्रतिरक्षा तंत्र में सुधार और स्वस्थ्य जीवन शैली बनाए रखने में मदद मिलती है।

2014 में भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने संयुक्त राष्ट्र को 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने का सुझाव दिया था क्योंकि गर्मियों में सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित होता है एवं उत्तरी गोलार्द्ध में 21 जून वर्ष का सबसे लंबा दिन होता है। सर्वप्रथम अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस का आयोजन 21 जून, 2015 को किया गया था जिसने विश्व भर में कई कीर्तिमान स्थापित किये। वर्तमान में योग भारत ही नहीं पूरे विश्व के लिये प्रासांगिक विषय बना हुआ है। भारत के अलावा कई इस्लामिक देशों ने भी इसे अपनाया है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि योग के महत्त्व को देखते हुए आज पूरा विश्व इसे पूरे मनोयोग से अपना रहा है। योग विद्या को वेदों में विशेष स्थान प्राप्त था। वेदों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय आध्यात्मिक उन्नति करना है। इसके लिये यज, उपासना, पूजा व अन्य कार्यक्रमों का वर्णन किया गया है। इन सबसे पूर्व योग साधना का विधान किया गया है। इसके संदर्भ में ऋग्वेद में कहा याग है-

यस्मादृते न सिध्यति यज्ञोविपश्चितश्रन।

स धीनां योगमिन्वति।।

योग के पूर्ण नहीं होता है। इस बात से पता चलता है कि वेदों में योग को कितना महत्त्व दिया गया है।

विष्णु पुराण में भी कहा गया है कि ‘‘जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।’’

योग के इसी महत्त्व को देखते हुए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा योग की बढ़ती स्वीकारोक्ति एवं पश्चात् को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस तरह की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत लोगों तथा समाजों एवं संस्कृतियों के मध्य सांस्कृतिक एवं सभ्यागत वार्ता बनाए रखने में मदद करती है और इस स्वीकृति से पूरे विश्व को लाभ पहुँचता है।

क्या वर्तमान समाज में रंगभेद व्याप्त है?

 कहा जाता है कि जैसे भारत में जातिभेद है, वैसे ही पश्चिम में रंगभेद है। शायद कहने वालों का आशय यह होता है कि हर समाज में भेदभाव का कोई-न-कोई अनिवार्य रूप अस्तित्व में होता ही है। भारत के संदर्भ में देखा जाए तो क्या यहाँ सिर्फ जातिभेद है, रंगभेद नहीं है। परंतु वास्तविकता कुछ और ही है, क्योंकि भारत भी रंगभेद से अछूता नहीं है। भारत में इसका अपना अलग ही स्वरूप है, क्योंकि लिंगभेद से जुड़कर यह और भयानक हो जाता है। विदेशी रंगभेद से भारतीय रंगभेद इस मायने में अलग है कि विदेशों में काले रंग का भेदभाव स्त्री और पुरुष दोनों के साथ समान रूप से होता है परंतु भारत में काले या सांवलेपन को खासतौर से स्त्रियों के सदंर्भ में देखा जाता है। प्रसिद्ध लेखिका मन्नू भंडारी और लेखिका व उद्योगपति प्रभा खेतान की आत्मकथाओं से पता चलता है कि किस प्रकार सांवले रंग ने उनके बचपन में जहर घोला, जिसका असर उनके पूरे व्यक्तित्व पर जिंदगीभर रहा। भारतीय समाज में लड़कियों के लिये सांवला रंग किसी शारीरिक अपंगता जैसा ही बड़ा अभिशाप है।

अगर वैश्विक स्तर पर रंगभेद की बात की जाए तो दक्षिण अफ्रीका और भारत के साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, नस्लीय भेदभाव और रंगभेद के खिलाफ साझा संघर्ष रहा है और इससे ही दोनों देशों के मध्य जुड़ाव स्थापित हुआ था। स्वतंत्रता उपरांत भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति के मूल सिद्धांतों में साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, नस्लीय भेदभाव, रंगभेद, गुट-निरपेक्षता और दक्षिण-दक्षिण सहयोग जैसे विषय प्रमुख थे, जिसके फलस्वरूप प्रधानमंत्री नेहरू ने दक्षिण अफ्रीका को प्रमुखता दी। इसी के परिणामस्वरूप भारत और दक्षिण अफ्रीका के मध्य आर्थिक और राजनैतिक संबंधों का एक नया अध्याय शुरू हुआ। नेहरू द्वारा वरीयता दिये जाने के कारण ही 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत ने जाति भेदभाव संबंधी मुद्दों को उठाया तथा दक्षिण अफ्रीका में हुए रंगभेद के विरुद्ध आंदोलन के फलस्वरूप ही भारत वह प्रथम देश बना, जिसने रंगभेद के कारण दक्षिण अफ्रीका से अपने आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक संबंधों पर प्रतिबंध लगा दिया था। संयुक्त राष्ट्र के अलावा अन्य मंचों यथा- गुटनिरपेक्ष आंदोलन तथा 1955 के अफ्रीका-एशिया सम्मेलन और अन्य बहुपक्षीय संगठनों के माध्यम से भारत ने रंगभेद की नीति को समाप्त करने का प्रयास किया। भारत सरकार द्वारा नई दिल्ली में अफ्रीकी नेशनल कॉन्ग्रेस का कार्यालय खोलने की दिशा में भी सहयोग किया गया एवं रंगभेद नीति के विरुद्ध किये जाने वाले प्रयासों के तहत आर्थिक सहयोग के माध्यम से सक्रिय भूमिका निभाई गई, स्वतंत्रता पश्चात् भारत द्वारा रंगभेद की नीति के विरोध के कारण दोनों देशों के आर्थिक संबंध प्रभावित हुए परंतु 1993 में नेल्सन मंडेला के नेतृत्व में दक्षिण अफ्रीका में बनी पहली अश्वेत सरकार के उपरांत दोनों देशों के मध्य द्विपक्षीय व्यापार एवं वाणिज्यिक समझौते में काफी परिवर्तन आया।

रंगभेद के संबंध में चर्चा करने पर मंडेला और गांधीजी का नाम स्वयं सामने आ जाता है। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति को मिटाने वाले नेल्सन मंडेला का अपने देश में वहीं स्थान है, जो भारत में महात्मा गांधी का है। जहाँ मंडेला ने रक्तहीन क्रांति द्वारा अफ्रीकी लोगों को उनका हक दिलाया जो अहिंसात्मक था। वे समस्याओं का निराकरण बातचीत के द्वारा करते थे। वहीं महात्मा गांधी भी रंगभेद के मुखर विरोधी थे। 06 नवम्बर, 1913 को महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीतियों के खिलाफ ‘द ग्रेट मार्च’ का नेतृत्व किया था। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी शासन के खिलाफ मंडेला की लड़ाई को भारत में अंग्रेजों के शासन के खिलाफ गांधी की लड़ाई के बराबर दर्जा प्राप्त है।

अगर वर्तमान में रंगभेद की स्थिति पर बात की जाए तो हाल ही में अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉयड की हिरासत में हत्या की घटना ने अश्वेत लोगों के खिलाफ पुलिस हिंसा को उजागर किया है, जिसके विरोध में पूरे अमेरिका में जगह-जगह विरोध प्रदर्शन किये गए। प्रदर्शन के द्वारा अमेरिकी समाज को भयभीत करने वाले स्थानिक और संस्थागत नस्लवाद को खत्म करने की आवश्यकता पर बल दिया गया। संयुक्त राज्य अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु, वेस्टइंडीज के पूर्व क्रिकेटर डेरेन सैमी द्वारा भारत में खेले जाने वाले आईपीएल मैचों के दौरान नस्लीय भेदभाव किये जाने का रहस्योद्दान और उत्तर भारत में दक्षिण व उत्तर-पश्चिम भारत के लोगों के साथ किये जाने वाला व्यवहार भेदभाव का प्रत्यक्ष उदाहरण है।

भारत में रंगभेद और अस्पृश्यता की घटनाओं के समाधान के संदर्भ में मूल अधिकारों की व्यवस्था की गई है, परंतु इस संदर्भ में व्यवस्थित रूप से विधि निर्माण की आवश्यकता है, जिसका भारत में अभाव है। स्वतंत्रता उपरांत किसी भी प्रकार के भेदभाव से सामाजिक ताने-बाने को संरक्षण प्रदान करने के लिये भारत में समानता के अधिकार का नारा दिया गया ताकि भारतीय जनमानस को इस बात का अहसास हो सके कि प्रत्येक व्यक्ति संविधान के सम्मुख समान है।

भारत सहित किसी भी देश में होने वाले भेदभाव का प्रमुख कारण पूर्वाग्रह है। पूर्वाग्रह का तात्पर्य किसी व्यक्ति की उन भावनाओं से है, जिसके कारण वह किसी व्यक्ति अथवा समूह के प्रति सकारात्मक व नकारात्मक रूझान रखता है। सामान्य रूप से सामाजिक विकास के दौरान व्यक्ति जिन परिस्थितियों में रहता है, उनके आधार पर उसके मन में पूर्वाग्रह का निर्माण होता है। पूर्वाग्रह से प्रभावित व्यक्ति वास्तविकता से अनभिज्ञ रहते हुए विशेष समूह और लोगों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार करने लगता है। द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व जर्मनी में नाजियों द्वारा यहूदियों के नरसंहार तथा अमेरिका में अश्वेतों के प्रति बुरा व्यवहार के मूल में भी यह नस्लीय भेदभाव ही है। हमारे देश में जाति के आधार पर भेदभाव तथा शोषण के मूल में पूर्वाग्रह की मानसिकता ही कार्य करती है।

भारत महात्मा गांधी का देश है, जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रंग के आधार पर हुए अपमान के कारण नस्लीय घृणा के विरुद्ध आंदोलन छेड़ा था। भारत में द्रविण, मंगोल, आर्य आदि नस्लों के लोग सदियों से साथ रहते आए हैं। रंग, क्षेत्र, नस्ल, वेशभूषा आदि के आधार पर होने वाला भेदभाव भारत की अनेकता में एकता की भावना को कलंकित करता है। वह संविधान में निहित समानता की भावना पर आघात पहुँचाता है। ऐसी स्थिति में भारत को भेदभाव के विरुद्ध व्यापक कार्ययोजना बनाने और इक्वलिटी बिल को संसद से पारित कराने की आवश्यकता है, जो भेदभाव के किसी भी रूप का समाधान करने में सक्षम हो सके। अंतराष्ट्रीय तौर पर हम देखते हैं कि जॉर्ज फ्लॉयड की दर्दनाक हत्या पुलिस हिंसा नस्लभेद की अमेरिकी विरासत की साफ झलक देता है। यह व्यवस्था रंगभेद के आधार पर कुछ लोगों को गलत तरीके से फायदा पहुँचाती है और दूसरों को नुकसान पहुँचाती है। रंगभेद की यह नीति मानव संसाधनों को नुकसान पहुँचाकर एक समाज के रूप में हमें कमजोर करती है। आज आवश्यकता है कि समाज के सभी लोग इस लड़ाई में एकजुट होकर इस बुराई का अंत करें।

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