प्रश्न.1. वर्चस्व के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन ग़लत है?
(क) इसका अर्थ किसी एक देश की अगुआई या प्राबल्य है।
(ख) इस शब्द का इस्तेमाल प्राचीन यूनान में एथेंस की प्रधानता को चिह्नित करने के लिए किया जाता था।
(ग) वर्चस्वशील देश की सैन्यशक्ति अजेय होती है।
(घ) वर्चस्व की स्थिति नियत होती है। जिसने एक बार वर्चस्व कायम कर लिया उसने हमेशा के लिए वर्चस्व कायम
सही उत्तर (घ) वर्चस्व की स्थिति नियत होती है। जिसने एक बार वर्चस्व कायम कर लिया उसने हमेशा के लिए वर्चस्व कायम कर लिया।
प्रश्न.2. समकालीन विश्व-व्यवस्था के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है?
(क) ऐसी कोई विश्व-सरकार मौजूद नहीं जो देशों के व्यवहार पर अंकुश रख सके।
(ख) अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अमरीका की चलती है।
(ग) विभिन्न देश एक-दूसरे पर बल-प्रयोग कर रहे हैं।
(घ) जो देश अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करते हैं उन्हें संयुक्त राष्ट्रसंघ कठोर दंड देता है।
सही उत्तर (क) ऐसी कोई विश्व-सरकार मौजूद नहीं जो देशों के व्यवहार पर अंकुश रख सके।
प्रश्न.3. 'ऑपरेशन इराकी फ्रीडम' (इराकी मुक्ति अभियान ) के बारे में निम्नलिखित में से कौन सा कथन ग़लत है?
(क) इराक पर हमला करने के इच्छुक अमरीकी अगुआई वाले गठबंधन में 40 से ज्यादा देश शामिल हुए।
(ख) इराक पर हमले का कारण बताते हुए कहा गया कि यह हमला इराक को सामूहिक संहार के हथियार बनाने से रोकने के लिए किया जा रहा है।
(ग) इस कार्रवाई से पहले संयुक्त राष्ट्रसंघ की अनुमति ले ली गई थी।
(घ) अमरीकी नेतृत्व वाले गठबंधन को इराकी सेना से तगड़ी चुनौती नहीं मिली।
सही उत्तर (ग) इस कार्रवाई से पहले संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुमति ले ली गई थी।
प्रश्न.4.इस अध्याय में वर्चस्व के तीन अर्थ बताए गए हैं। प्रत्येक का एक-एक उदाहरण बतायें। ये उदाहरण इस अध्याय में बताए गए उदाहरणों से अलग होने चाहिए।
अध्याय में वर्णित वर्चस्व के तीन अर्थ निम्नलिखित हैं:
(i) वर्चस्व-सैन्य शक्ति के अर्थ में: वर्चस्व का अर्थ सैन्य शक्ति के अर्थ में होता है। वर्तमान में अमरीका की रीढ़ उसकी सैन्य शक्ति है। आज अमरीका अपनी सैन्य क्षमता के बल पर पूरी दुनिया में कहीं भी निशाना साध सकता एवं आज कोई भी देश अमरीकी सैन्य ताकत के मुकाबले उसके आस-पास कहीं भी नहीं है। उदाहरण के लिए-सोवियत संघ ने जब क्यूबा में मिसाइलें लगा लीं तो अमरीका ने उसे अपनी सैन्य शक्ति का वर्चस्व दिखाते हुए कहा कि या तो क्यूबा सोवियत संघ को मिसाइल हटाने के लिए शीघ्न कहे और वह हटा ले नहीं तो युद्ध के लिए तैयार हो जाए। इसी संदर्भ में अभी हाल के समय (2006-07) में अमरीका ईरान को बार-बार सैन्य शक्ति का हवाला दे रहा था कि या तो परमाणु परीक्षण बंद करे नहीं तो उसके विरुद्ध कभी भी युद्ध छेड़ा जा सकता है।
(ii) वर्चस्व-दाँचागत ताकत के अर्थ में: वर्चस्व का दूसरा अर्थ है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी मर्जी चलाने वाला एक ऐसा देश जो अपने मतलब की चीजों को बनाए और कायम रखे। हम जानते हैं कि अमरीका विश्व के प्रत्येक भाग, वैश्विक अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र और प्रौद्योगिकी के प्रत्येक भाग में मौजूद है। उदाहरण के लिए-अमरीका अनेक देशों को कह चुका है कि वह विश्व के सभी समुद्री मार्गा को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए पूर्णतया खुला रखें क्योंकि मुक्त व्यापार समुद्री व्यापारिक मार्गों के खुलेपन के बिना संभव नहीं है। यह धमकी वास्तव में वह जापान, ताइवान, खाड़ी देशों आदि को दे चुका है। अमरीका अपनी ढाँचागत ताकत को देखाने के लिए अनेक छोटे-बड़े देशों को कह चुका है कि 'जो भी उदारीकरण और वैश्वीकरण को नहीं अपनाएगा या परमाणु परीक्षण निषेध संधि पर हस्ताक्षर नहीं करेगा' उसे विश्व बैंक या अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक कोष आदि से ऋण देने के बारे में या तो कटौती की जा सकती है या उस पर पूर्ण प्रतिबंधा लग सकता है। जनसंचार माध्यमों से जानकारी मिलती है कि अमरीका समय-समय पर आर्थिक प्रतिबंध लगाता रहा है।
(iii) वर्चस्व सांस्कृतिक अर्थ में: वर्चस्व के इस तीसरे अर्थ का संबंध सहमति गढ़ने की शक्ति से है। अर्थात् कोई प्रभुत्वशाली वर्ग या देश अपने प्रभाव में रहने वालों को इस प्रकार सहमत कर सकता है कि वे भी विश्व को उसी दृष्टिकोण से देखें जिसमें वह देखता है। उदाहरण के लिए-अमरीकी विचारधारा अर्थात् पूँजीवादी विचारधारा सभी पूर्व साम्यवादी यूरोपीय देशों पर लाद दी गई और वह उनसे सहमति बनवाने में सफल रहा। अमरीका अंतर्राष्ट्रीय मंचों से कई बार स्पष्ट कर चुका है कि जो भी राष्ट्र नई अर्थव्यवस्था अर्थात् उदारीकरण और वैश्वीकरण को नहीं अपनाएगा उन देशों में बहु-राष्ट्रीय कंपनियाँ निवेश नहीं करेंगी और अमरीका भी ये चाहता है। वह धीरे-धीरे सभी पूर्व साम्यवादी देशों यहाँ तक कि वर्तमान रूस और चीन को भी किसी सीमा तक अपने तीसरे अर्थ के वर्चस्व अर्थात् सांस्कृतिक वर्चस्व में लाने में कामयाब हो रहा है। अमरीका का घोर विरोधी चीन बड़ी तेजी से उदारीकरण, विदेशी निवेश आदि की ओर बढ़ रहा है।
प्रश्न.5.उन तीन बातों का जिक्र करें जिनसे साबित होता है कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अमरीकी प्रभुत्व का स्वभाव बदला है और शीतयुद्ध के वर्षों के अमरीकी प्रभुत्व की तुलना में यह अलग है।
शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अमरीकी प्रभुत्व की प्रकृति में बदलाव (Change in the Nature of US Dominance after Cold War): वैसे तो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ही अमरीका ने विश्व राजनीति में अपना प्रभुत्व प्रदर्शित करना आरंभ कर दिया था परंतु वह दादागिरी की प्रकृति का नहीं था क्योंकि उस समय उस के प्रभुत्व को, उसको शक्ति को सोवियत संघ चुनौती देता रहता था और उसे अपने गठबंधन को मजबूत बनाए रखने के लिए अपने सहयोगियों तथा छोटे-छोटे देशों की भी आवश्यकता महसूस होती थी और वह पूर्ण रूप से मनमानी नहीं कर पाता था। परंतु शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद उसके प्रभुत्व की प्रकृति में बदलाव आया और वह दादागिरी की तरह व्यवहार करने लगा।
इसके तीन उदाहरण निम्नलिखित हैं:
1. 1990 में पहला खाड़ी युद्ध हुआ था जो इराक को कुवैत से भगाने के लिए किया गया था। उस समय भी इसमें लगभग 3/4 से अधिक सैन्य शक्ति अमरीका की थी। यह संयुक्त राष्ट्र के आधार पर किया गया था। 2003 में अमरीका ने जब इराक पर आक्रमण किया तो उसे संयुक्त राष्ट्र की अनुमति की आवश्यकता नहीं पड़ी। अपने सहयोगी राष्ट्रों जैसे कि फ्रांस और रूस तथा संयुक्त राष्ट्र के विरोध के बावजूद भी उसने सार्वजनिक नरसंहार के हथियारों का बहाना करके इराक पर आक्रमण कर दिया जो कि अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धांतों के विपरीत था।
2. 1999 में युगोस्लाविया के क्षेत्र पर नाटो द्वारा की गई बमबारी इसका एक और उदाहरण है। युगोस्लाविया के प्रांत कोसोवों में अल्बानियाई लोगों द्वारा किए गए आंदोलन को कुचलने के लिए यह बागबारी की गई थी जो लगभग दो महीने तक चली। यह भी संयुक्त राष्ट्र की अनुमति के बिना तथा अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की अवहेलना करते हुए की गई थी।
3. 9/11 की घटना अथवा ।। सितंबर, 2001 में अमरीका के महत्त्वपूर्ण भवनों पर आतंकवादी हमलों के बाद अमरीका ने सारे संसार से आतंकवाद को समाप्त करने के लिए, ऑपरेशन एन्डयूरिंग फ्रीडम चलाया और अफगानिस्तान की तालिबान सरकार पर आक्रमण कर दिया। अफगानिस्तान से तालिबान सरकार को समाप्त किया गया और अमरीका की पसंद की सरकार स्थापित की गई। इसके साथ ही अमरीकी सेनाओं ने सारे संसार में गिरफ्तारियाँ की और बंदी बनाए गए लोगों को यातनाएँ दी तथा उन्हें कानूनी सहायता से भी वंचित रखा। आतंकवादी होने के शक में लोगों को कानूनों का उल्लंघन करते हुए लंबे समय तक बंदी बनाए रखा और अपने कानूनों तथा अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का भी उल्लंघन किया। यह भी दादागिरी का एक नमूना है।
प्रश्न.6. निम्नलिखित में मेल बैठायें -
प्रश्न.7. अमरीकी वर्चस्व की राह में कौन-से व्यवधान हैं। आप जानते इनमें से कौन-सा व्यवधान आगामी दिनों में सबसे महत्त्वपूर्ण साबित होगा?
अमरीकी वर्चस्व की राह में निम्नलिखित प्रमुख व्यवधान हैं:
(i) संयुक्त राज्य अमरीकी वर्चस्व की सबसे बड़ी बाधा खुद उसके वर्चस्व के अंदर उपलब्ध है। अमरीकी शक्ति की राह में तीन अवरोध है। ।। सितंबर, 2001 की घटना के बाद के सालों में ये व्यवधान एक तरह से निष्क्रिय प्रतीत होने लगे थे। लेकिन धीरे-धीरे फिर प्रकट होने लगे हैं। पहला व्यवधान खुद अमरीका की संस्थागत बनावट है यहाँ शासन के तीन अंगों के बीच शक्ति का विभाजन है और यही बनावट कार्यपालिका द्वारा सैन्य ताकत के बेलगाम इस्तेमाल पर नियंत्रण करने का काम करती है।
(ii) अमरीका की शक्ति के आड़े आने वाली दूसरी बाधा भी अंदरूनी है। इस बाधा के जड़ में है अमरीकी समाज जो अपनी प्रकृति में उन्गुक्त है। अगरीका में जन-संचार के साधन समय-समय पर वहाँ के जनमत को एक विशेष दिशा में मोड़ने का भले ही प्रयास करें लेकिन अमरीकी राजनीतिक संस्कृति में शासन के उद्देश्य और तरीके को लेकर गहरे संदेह का भाव भरा है। अमरीका के विदेशी सैन्य-अभियानों पर नियंत्रण रखने में यह बात बड़ी कारगर भूमिका निभाती है।
(iii) अमरीकी शक्ति की राह में मौजूद तीसरी बाधा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में आज केवल एक संगठन है जो संभवतया अमरीकी शक्ति पर नियंत्रण रख सकता है और संगठन का नाम है 'नाये' अर्थात् उचर अटलांटिक ट्रीटी आर्गनाइजेशन। स्पष्ट ही अमरीका का बहुत बड़ा हित लोकतांत्रिक देशों के इस संगठन को बरकरार रखने से जुड़ा है क्योंकि इन देशों में बाजारमूलक अर्थव्यवस्था चलती है। इसी कारण इस बात की संभावना बनती है कि 'नाटो' में शामिल अमरीका के साथी देश उसके वर्चस्व पर कुछ नियंत्रण लगा सकें।
हमारे विचार में अमरीका के वर्चस्व पर दूसरा व्यवधान ही सबसे महत्त्वपूर्ण साबित होगा क्योंकि अमरीका एक लोकतांत्रिक देश है। अमरीका के नागरिक संपन्न और सुशिक्षित हैं। वे किसी भी ऐसे व्यक्ति/सरका/राजनीतिक दल को अनमति नहीं देंगे कि वह अपने वर्चस्व के लिए सारी मानवजाति को तीसरे महायुद्ध की आग में झोंक दे या अपनी मनमानी के द्वारा आंतकवादियों के निशाने पर स्थायी बिंदु बना दे अथवा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर असंतोष/ईर्ष्या शत्रुता अमरीका के लिए अंदर-अंदर ही पनपती रहे। अमरीका के लोग अंतत: स्वतंत्र जीवन सभी के लिए चाहेंगे। जनमत की अवहेलना कोई भी लोकतांत्रिक नेता/सरकार या राजनैतिक दल नहीं कर सकता। अमरीका के विदेशी सैन्य अभियानों पर वहाँ का लोकमत अंकुश रखता है और भविष्य में भी रखेगा, वही कारगर भूमिका निभाएगा। जहाँ तक नाटो का प्रश्न है उसके सदस्य-विचारधारा, वित्तीय साधनों, सैन्य शक्ति और यहाँ तक कि धार्मिक और जातिगत संबंधों से भी अमरीका के साथ बहुत ज्यादा घनिष्ठ हैं। उनमें भी फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी को छोड़कर प्रायः सभी सदस्य अमरीका के वर्चस्व पर नियंत्रण लगाने की शायद ही सोच सकें।
प्रश्न.8.भारत-अमरीका समझौते से संबंधित बहस के तीन अंश इस अध्याय में दिए गए हैं। इन्हें पढ़ें और किसी एक अंश को आधार मानकर पूरा भाषण तैयार करें जिसमें भारत-अमरीकी संबंध के बारे में किसी एक रुख का समर्थन किया गया हो।
भारत और अमरीका के मध्य परमाणु ऊर्जा के मुद्दे पर समझौता हुआ। भारत की लोकसभा में इस मुद्दे पर बहस हुई। हम देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के विचारों से सहमत होकर भारत-अमरीकी संबंधों के बारे में निम्नलिखित भाषण तैयार कर सकते हैं।
मान्यवर हमारे विचारानुसार इसमें कोई शक नहीं है कि अमरीका विश्व की एक महाशक्ति है। यह भी सच है कि शीत युद्ध के दौरान (1945--1991) भारत अमरीकी गुट के विरुद्ध खड़ा था। भारत लगभग 45-46 वर्षों में मित्रता की दृष्टि से विश्व की दूसरी महाशक्ति सोवियत संघ और उसके समर्थक देशों के साथ था लेकिन अब तो सोवियत संघ ही नहीं रहा। उनके 15 गणतंत्र उससे अलग हो गए हैं। सोवियत संघ बिखर गया है। भारत ने अपनी विदेश नीति को अमरीका की और बदला है। नि:संदेह भारत 1991 में हो नई आर्थिक नीति अपनाने की घोषणा की। वर्तमान प्रधानमंत्री ही उस समय देश के वित्त मंत्री थे और कांग्रेस पार्टी की ही सरकार थी। उस समय भी भारत मानता था और आज भी वर्तमान सरकार मानती है कि ताकत की राजनीति अब भी बीते दिनों की बात नहीं कही जा सकती। भारत स्वयं महाशक्ति बनना चाहता है। हम मानते हैं कि भारत के विकास के मार्ग में अमरीका जैसी महाशक्ति अवरोध ला सकती है या अपनी शर्ते थोप सकती है। ऐसा वह पहले भी करता रहा है। हमारा कोई भी राष्ट्रीय नेता या राजनैतिक दल हमारे देश की सुरक्षा पर आँच नहीं आने देगा। क्योंकि यह देश अधिकांश राष्ट्रभक्त नागरिकों का देश है परंतु वर्तमान परिस्थितियों में देश के लिए आर्थिक और सैनिक लाभ न उठाना और परमाणु समझौते को न लागू करना भी ठीक नहीं होगा।
प्रश्न.9."यदि बड़े और संसाधन संपन्न देश अमरीकी वर्चस्व का प्रतिकार नहीं कर सकते तो यह मानना अव्यावहारिक है कि अपेक्षाकृत छोटी और कमजोर राज्येतर संस्थाएँ अमरीकी वर्चस्व का कोई प्रतिरोध कर पाएंगी।" इस कथन की जाँच करें और अपनी राय बताएँ।
मेरी राय के अनुसार यह कथन बिल्कुल सत्य है। आज कोई संदेह नहीं कि अमरीका विश्व का सबसे धनी और सैन्य दृष्टि से शक्तिशाली देश है। आज वैचारिक दृष्टि से भी पूँजीवाद, समाजवाद को बहुत पीछे छोड़ चुका है। सोवियत संघ लगभग 70 वर्षों तक पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ा। वहाँ के लोगों को अनेक नागरिक और स्वतंत्रता के अधिकारों से वंचित रहना पड़ा। वहाँ विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं थी। एक ही राजनैतिक पार्टी की तानाशाही थी परन्तु वहाँ के लोगों ने महसूस किया कि उपभोक्ता संस्कृति और विकास की दर से पश्चिमी देशों की तुलना में न केवल सोवियत संघ बल्कि अधिकांश पूर्वी देश भी पिछड़ गए। आज विश्व में सबसे बड़ा साम्यवादी देश चीन है। वहाँ पर भी ताइवान, तिब्बत और अन्य क्षेत्रों में अलगाववाद, उदारीकरण, वैश्वीकरण के पक्ष में आवाज उठती रहती है, माहौल बनता रहा। जब ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, भारत और चीन जैसे बड़े देश अमरीका के वर्चस्व को खुलकर चुनौती नहीं दे सकते तो छोटे देश जिनको संख्या 160-170 से भी ज्यादा है, वे अमरीका को चुनौती किस प्रकार से दे सकेंगे। वस्तुत: हाल में यह सोचना गलत होगा। छोटी और कमजोर राज्येतर संस्थाएँ अमरीकी वर्चस्व का कोई प्रतिरोध नहीं कर पाएँगी। अभी तो उदारीकरण, वैश्वीकरण और नई अर्थव्यवस्था का बोलबाला है जो अमरीकी छत्रछाया में ही परवान चढ़ रहे हैं।
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