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एक दल के प्रभुत्व का दौर (Era of One Party Dominance) NCERT Solutions | NCERT Textbooks in Hindi (Class 6 to Class 12) - UPSC PDF Download

प्रश्न.1. सही विकल्प को चुनकर खाली जगह भरें-
(क) 1952 के पहले आम चुनाव में लोकसभा के साथ-साथ ________ के लिए भी चुनाव कराए गए थे। (भारत के राष्ट्रपति पद/राज्य विधानसभा/राज्यसभा/प्रधानमन्त्री)
(ख) ________ लोकसभा के पहले आम चुनाव में 16 सीटें जीतकर दूसरे स्थान पर रही। (प्रजा सोशलिस्ट पार्टी/भारतीय जनसंघ/भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी/भारतीय जनता पार्टी)
(ग)  ________ स्वतन्त्र पार्टी का एक निर्देशक सिद्धान्त था। (कामगार तबके का हित/रियासतों का बचाव/राज्य के नियन्त्रण से 
मुक्त अर्थव्यवस्था/संघ के भीतर राज्यों की स्वायत्तता)।

(क) राज्य विधानसभा,
(ख) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी,
(ग) राज्य के नियन्त्रण में मुक्त अर्थव्यवस्था।


प्रश्न.2. यहाँ दो सूचियाँ दी गई हैं। पहले में नेताओं के नाम दर्ज हैं और दूसरे में दलों के। दोनों सूचियों में मेल बैठाएँ

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प्रश्न.3. एकल पार्टी के प्रभुत्व के बारे में यहाँ चार कथन, लिखे गए हैं। प्रत्येक के आगे सही या गलत का चिह्न लगाएँ
(क) विकल्प के रूप में किसी मजबूत राजनीतिक दल का अभाव एकल पार्टी-प्रभुत्व का कारण था।
(ख) जनमत की कमजोरी के कारण एक पार्टी का प्रभुत्व कायम हुआ।
(ग) एकल पार्टी प्रभुत्व का सम्बन्ध राष्ट्र के औपनिवेशिक अतीत से है।
(घ) एकल पार्टी-प्रभुत्व से देश में लोकतान्त्रिक आदर्शों के अभाव की झलक मिलती है।

(क) सही,
(ख) गलत,
(ग) सही,
(घ) गलत।


प्रश्न.4. अगर पहले आम चुनाव के बाद भारतीय जनसंघ अथवा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी होती तो किन मामलों में इस सरकार ने अलग नीति अपनाई होती? इन दोनों दलों द्वारा अपनाई गई नीतियों के बीच तीन अन्तरों का उल्लेख करें।

यदि पहले आम चुनावों के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी या जनसंघ की सरकार बनती तो विदेश नीति के मामलों में इस प्रकार से अलग नीति अपनायी गयी होती। दोनों दलों द्वारा अपनाई गई नीतियों में तीन प्रमुख अन्तर अग्रलिखित होते है
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प्रश्न.5. कांग्रेस किन अर्थों में एक विचारधारात्मक गठबन्धन थी? कांग्रेस में मौजूद विभिन्न विचारधारात्मक उपस्थितियों का उल्लेख करें।

भारत जब स्वतन्त्र हुआ तब तक कांग्रेस एक गठबन्धन का आकार ले चुकी थी तथा इसमें सभी प्रकार की विचारधाराओं का समर्थन करने वाले विचारकों व समूहों ने अपने को कांग्रेस के साथ मिला दिया। कांग्रेस को निम्नांकित अर्थों में एक विचारधारात्मक गठबन्धन की संज्ञा दी जा सकती है-

  • प्रारम्भ में ही अनेक समूहों ने अपनी पहचान को कांग्रेस के साथ समाहित कर लिया। अनेक बार किसी समूह ने अपनी पहचान को कांग्रेस के साथ एकसार नहीं किया तथा अपने-अपने विश्वासों पर विचार करते हुए एक व्यक्ति या समूह के रूप में कांग्रेस के भीतर बने रहे। इस अर्थ में कांग्रेस एक विचारधारात्मक गठबन्धन था।
  • सन् 1924 में भारतीय साम्यवादी दल की स्थापना हुई। सरकार ने इसे प्रतिबन्धित कर दिया। यह दल सन् 1942 तक कांग्रेस को एक गुट के रूप में रहकर ही काम करता रहा। सन् 1942 में इस गुट को कांग्रेस से अलग करने के लिए सरकार ने इस पर से प्रतिबन्ध हटाया। कांग्रेस ने शान्तिवादी और क्रान्तिकारी, रूढ़िवादी और परिवर्तनकारी, गरमपन्थी और नरमपन्थी, दक्षिणपन्थी और वामपन्थी तथा प्रत्येक धारा के मध्यमार्गियों को समाहित कर लिया गया।
  • कांग्रेस ने समाजवादी समाज की स्थापना को अपना लक्ष्य बनाया। इसी कारण स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् कई समाजवादी पार्टियाँ बनीं लेकिन विचारधारा के आधार पर वे अपनी स्वतन्त्र पहचान नहीं स्थापित कर सकी तथा कांग्रेस के प्रभुत्व व वर्चस्व को नहीं हिला सकीं। इस प्रकार कांग्रेस एक ऐसा मंच था जिस पर अनेक हित समूह और राजनीतिक दल एकत्रित होकर राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेते थे। आजादी से पहले अनेक संगठन और पार्टियों को कांग्रेस में रहने की अनुमति प्राप्त थी।
  • कांग्रेस में अनेक ऐसे समूह थे जिनके अपने स्वतन्त्र संविधान थे और संगठनात्मक ढाँचा भी अलग था जैसे कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी। फिर भी उन्हें कांग्रेस के एक गुट में बनाए रखा गया। वर्तमान में विभिन्न दलों के गठबन्धन बनते हैं और सत्ता की प्राप्ति के प्रयत्न करते हैं परन्तु स्वतन्त्रता के समय कांग्रेस ही एक प्रकार से एक विचारधारात्मक गठबन्धन था।

जहाँ तक कांग्रेस में मौजूद विभिन्न विचारधारात्मक उपस्थिति के उल्लेख का सम्बन्ध है इसके लिए निम्नलिखित तथ्य प्रकाश में लाए जा सकते हैं-

  • कांग्रेस का उदय सन् 1885 में हुआ था। उस समय यह नवशिक्षित, कार्यशील और व्यापारिक वर्गों का मात्र हित-समूह थी परन्तु बीसवीं सदी में इसने जन आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। इसी कारण से कांग्रेस ने एक जनव्यापी राजनीतिक पार्टी का रूप ले लिया और राजनीतिक व्यवस्था में इसका वर्चस्व स्थापित हुआ।
  • प्रारम्भ में कांग्रेस में अंग्रेजी संस्कृति में विश्वास रखने वाले उच्च वर्ग के शहरी लोगों का वर्चस्व था। परन्तु कांग्रेस ने जब भी सविनय अवज्ञा जैसे आन्दोलन चलाए उसमें सामाजिक आधार बढ़ा। कांग्रेस ने परस्पर हितों के अनेक समूहों को एक साथ जोड़ा। कांग्रेस में किसान व उद्योगपति, शहर के नागरिक तथा गाँव के निवासी मजदूर और मालिक तथा मध्य, निम्न व उच्च वर्ग आदि सभी को स्थान मिला।
  • धीरे-धीरे कांग्रेस का नेतृत्व विस्तृत हुआ तथा यह अब केवल उच्च वर्ग या जाति के पेशेवर लोगों तक ही सीमित नहीं रहा। इसमें कृषि व कृषकों की बात करने वाले तथा गाँव की ओर रुझान रखने वाले नेता भी उभरे। स्वतन्त्रता के समय तक कांग्रेस एक सामाजिक गठबन्धन का रूप धारण कर चुकी थी तथा वर्ग, जाति, धर्म, भाषा व अन्य हितों के आधार पर इस सामाजिक गठबन्धन से भारत की विविधता की झलक प्राप्त होती थी।


प्रश्न.6. क्या एकल पार्टी-प्रभुत्व की प्रणाली का भारतीय राजनीति के लोकतान्त्रिक चरित्र पर खराब असर हुआ?

एकल पार्टी प्रभुत्व की प्रणाली का भारतीय राजनीति की लोकतान्त्रिक प्रवृत्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा प्रभुत्व प्राप्त दल विपक्षी पार्टियों की आलोचना की परवाह न करके मनमाने ढंग से शासन चलाने लगता है व लोकतन्त्र को तानाशाही शासन में बदलने की सम्भावना विकसित होती है, परन्तु हमारे देश में ऐसा नहीं हुआ। पहले तीन आम-चुनावों में कांग्रेस के प्रभुत्व के भारतीय राजनीति पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़े तथा इसने भारतीय लोकतन्त्र लोकतान्त्रिक राजनीति व लोकतान्त्रिक संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। इस प्रकार एकल पार्टी-प्रभुत्व प्रणाली के अच्छे परिणामों की पुष्टि निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर होती है-

  • कांग्रेस राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान किए गए वायदों को पूर्ण करने में सफल रही। जनमानस में कांग्रेस एक विश्वसनीय दल था, जनमानस की आशाएँ उसी से जुड़ी थीं, अतः मतदाताओं ने उसे ही चुना।
  • तत्कालीन भारत में लोकतन्त्र और संसदीय शासन-प्रणाली अपनी शैशवावस्था में थी। यदि उस समय कांग्रेस का प्रभुत्व न होता और सत्ता के लिए प्रतिस्पर्धा होती तो जनसाधारण का विश्वास लोकतन्त्र और संसदीय शासन-प्रणाली में उठ जाता।
  • तत्कालीन मतदाता राजनीतिक विचारधाराओं के सम्बन्ध में पूर्ण शिक्षित नहीं था, उसका मात्र 15% भाग ही शिक्षित था। मतदाताओं को कांग्रेस में ही आस्था थी। अतः जनता का मानना था कि कांग्रेस से ही जनकल्याण की आशा की जा सकती है।
  • प्रभुत्व की स्थिति प्राप्त होने के कारण विपक्षी दलों द्वारा सरकार की आलोचना होने पर भी सरकार अपना कार्य करती रही। इसने भारतीय लोकतन्त्र, संसदीय शासन-प्रणाली व भारतीय राजनीति की लोकतान्त्रिक प्रकृति को सुदृढ़ करने में योगदान दिया।


प्रश्न.7. समाजवादी दलों और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच के तीन अन्तर बताएँ। इसी तरह भारतीय जनसंघ और स्वतन्त्र पार्टी के बीच के तीन अन्तरों का उल्लेख करें।

समाजवादी दल और कम्युनिस्ट पार्टी में अन्तर
समाजवादी दल की जड़ों को स्वतन्त्रता से पहले के उस समय में ढूँढा जा सकता है जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जन-आन्दोलन चला रही थी। वहीं दूसरी ओर 1920 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में भारत के विभिन्न भागों में कम्युनिस्ट ग्रुप (साम्यवादी समूह) उभरे। इन दोनों पार्टियों के बीच निम्नलिखित अन्तर हैं-

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भारतीय जनसंघ और स्वतन्त्र पार्टी में अन्तर
भारतीय जनसंघ का गठन सन् 1951 में हुआ था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी इसके संस्थापक अध्यक्ष थे। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में जमीन की हदबन्दी, खाद्यान्न के व्यापार, सरकारी अधिग्रहण और सहकारी खेती का प्रस्ताव पारित हुआ था। इसके बाद अगस्त 1959 में स्वतन्त्र पार्टी अस्तित्व में आई। इन दोनों : पार्टियों में प्रमुख अन्तर अग्रलिखित हैं-
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प्रश्न.8. भारत और मैक्सिको दोनों ही देशों में एक खास समय तक एक पार्टी का प्रभुत्व रहा।बताएँ कि मैक्सिको में स्थापित एक पार्टी का प्रभत्व कैसे भारत की एक पार्टी के प्रभत्व से अलग था।

इंस्टीट्यूशनल रिवोल्यूशनरी पार्टी जिसे स्पेनिश में पी० आर० आई० कहा जाता है का मैक्सिको में लगभग 60 वर्षों तक शासन रहा। इस पार्टी की स्थापना सन् 1929 में हुई थी तब इसे ‘रिवोल्यूशनरी पार्टी’ कहा जाता था। मूलत: पी० आर० आई० राजनेता व सैनिक नेता, मजदूर तथा किसान संगठन व अनेक राजनीतिक दलों सहित विभिन्न किस्म के हितों का संगठन था। समय बीतने के साथ-साथ पी० आर० आई० के संस्थापक प्लूटार्क इलियास कैलस ने इसके संगठन पर कब्जा कर लिया व इसके पश्चात् नियमित रूप से होने वाले चुनावों में प्रत्येक बार पी० आर० आई० ही विजय प्राप्त करती रही। शेष पार्टियाँ नाममात्र की थी जिससे कि शासक दल को वैधता प्राप्त होती रहे। चुनाव के नियम भी इस प्रकार तय किए गए कि पी० आर० आई० की जीत हर बार निश्चित हो सके। शासक दल ने अक्सर चुनावों में हेर-फेर और धाँधली की। पी० आर० आई० के शासन को ‘परिपूर्ण तानाशाही’ कहा जाता है। अन्ततः सन् 2000 में हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव में इस पार्टी को पराजय का मुँह देखना पड़ा। मैक्सिको अब एक पार्टी के प्रभुत्व वाला देश नहीं रहा फिर भी अपने प्रभुत्व के काल में पी० आर० आई० ने जो तरीके अपनाए थे उनका लोकतन्त्र की सेहत पर बहुत प्रभाव पड़ा। मुक्त और निष्पक्ष चुनाव की बात पर अब भी वहाँ के नागरिकों का पूर्ण विश्वास नहीं जम पाया है।
भारत में स्वतन्त्रता संघर्ष से लेकर लगभग सन् 1967 तक देश की राजनीति पर एक ही पार्टी (कांग्रेस) का प्रभुत्व रहा। यहाँ हम मैक्सिको की तुलना भारत में कांग्रेस के प्रभुत्व से करते हैं तो दोनों में अनेक प्रकार के अन्तर मिलते हैं जिनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं-

  • भारत और मैक्सिको में एकल पार्टी का प्रभुत्व सम्बन्धी अन्तर यह है कि भारत में कांग्रेस का प्रभुत्व एक साथ नहीं रहा, जबकि मैक्सिको में पी० आर० आई० का शासन निरन्तर 60 वर्षों तक चला।
  • भारत और मैक्सिको में एक पार्टी के प्रभुत्व के मध्य एक बड़ा अन्तर यह है कि मैक्सिको में एक पार्टी का प्रभुत्व लोकतन्त्र की कीमत पर कायम हुआ, जबकि भारत में ऐसा कभी नहीं हुआ। भारत में कांग्रेस पार्टी के साथ-साथ प्रारम्भ से ही अनेक पार्टियाँ चुनाव में राष्ट्रीय स्तर व क्षेत्रीय स्तर के रूप में भाग लेती रहीं जबकि मैक्सिको में ऐसा नहीं हुआ।
  • भारत में प्रजातान्त्रिक संस्कृति व प्रजातान्त्रिक प्रणाली के अन्तर्गत कांग्रेस का प्रभुत्व रहा जबकि मैक्सिको में शासक दल की तानाशाही के कारण इसका प्रभुत्व रहा।

इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन के द्वारा स्पष्ट होता है कि भारत और मैक्सिको दोनों ही देशों में लम्बे समय तक एक ही पार्टी का प्रभुत्व रहा। परन्तु कुछ दृष्टियों में दोनों के प्रभुत्व में अन्तर था।


प्रश्न.9. भारत का एक राजनीतिक नक्शा लीजिए (जिसमें राज्यों की सीमाएँ दिखाई गई हों) और उसमें निम्नलिखित को चिह्नित कीजिए
(क) ऐसे दो राज्य जहाँ सन् 1952-67 के दौरान कांग्रेस सत्ता में नहीं थी।
(ख)दो ऐसे राज्य जहाँ इस पूरी अवधि में कांग्रेस सत्ता में रही।

(क) (i) जम्मू और कश्मीर,
(ii) केरल।

(ख) (i) महाराष्ट्र,
(ii) मध्य प्रदेश।

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प्रश्न.10. निम्नलिखित अवतरण को पढ़कर इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
कांग्रेस के संगठनकर्ता पटेल कांग्रेस को दूसरे राजनीतिक समूह में निसंग रखकर उसे एक सर्वांगसम तथा अनुशासित पार्टी बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि कांग्रेस सबको समेटकर चलने वाला स्वभाव छोड़े और अनुशासित कॉडर से युक्त एक सगुंफित पार्टी के रूप में उभरे। ‘यथार्थवादी’ होने के कारण पटेल व्यापकता की जगह अनुशासन को ज्यादा तरजीह देते थे। अगर “आन्दोलन को चलाते चले जाने” के बारे में गांधी के ख्याल हद से ज्यादा रोमानी थे तो कांग्रेस को किसी एक विचारधारा पर चलने वाली अनुशासित तथा धुरन्धर राजनीतिक पार्टी के रूप में बदलने की पटेल की धारणा भी उसी तरह कांग्रेस की उस समन्वयवादी भूमिका को पकड़ पाने में चूक गई जिसे कांग्रेस को आने वाले दशकों में निभाना था। – रजनी कोठारी
(क) लेखकक्यों सोच रहा है कि कांग्रेस को एक सर्वांगसमतथाअनुशासित पार्टी नहीं होना चाहिए?

लेखक का यह विचार है कि कांग्रेस को एक सर्वांगसम तथा अनुशासित पार्टी नहीं होना चाहिए क्योंकि एक अनुशासित पार्टी में किसी विवादित विषय पर स्वस्थ विचार-विमर्श सम्भव नहीं हो पाता, जो कि देश एवं लोकतन्त्र के लिए अच्छा होता है। लेखक का यह विचार है कि कांग्रेस पार्टी में सभी धर्मों, जातियों, भाषाओं एवं विचारधाराओं के नेता शामिल हैं, उन्हें अपनी बात कहने का पूरा हक है तभी देश का वास्तविक लोकतन्त्र उभरकर सामने आएगा इसलिए लेखक कहता है कि कांग्रेस पार्टी को सर्वांगसम एवं अनुशासित पार्टी नहीं होना चाहिए।

(ख) शुरुआती सालों में कांग्रेस द्वारा निभाई गई समन्वयवादी भूमिका के कुछ उदाहरण दीजिए।

कांग्रेस ने अपनी स्थापना के प्रारम्भिक वर्षों में कई विषयों में समन्वयकारी भूमिका निभाई। इसने देश के नागरिकों एवं ब्रिटिश सरकार के मध्य एक कड़ी का कार्य किया। कांग्रेस ने अपने अन्दर क्रान्तिकारी और शान्तिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपन्थी और नरमपन्थी, दक्षिणपन्थी, वामपन्थी और हर धारा के मध्यवर्गियों को समाहित किया। कांग्रेस एक मंच की तरह थी, जिस पर अनेक समूह हित और राजनीतिक दल तक आ जुटते थे और राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेते थे। इसी प्रकार कांग्रेस समाज के प्रत्येक वर्ग-कृषक, मजदूर, व्यापारी, वकील, उद्योगपति, सभी को साथ लेकर चली। इसे सिक्ख, मुस्लिम जैसे अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जाति एवं जनजातियों, ब्राह्मण, राजपूत व पिछड़ा वर्ग सभी का समर्थन प्राप्त हुआ।

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