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जन आन्दोलनों का उदय (Rise of Popular Movements) NCERT Solutions | NCERT Textbooks in Hindi (Class 6 to Class 12) - UPSC PDF Download

प्रश्न.1. चिपको आन्दोलन के बारे में निम्नलिखित में कौन-कौन से कथन गलत हैं-
(क) यह पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए चला एक पर्यावरण आन्दोलन था।
(ख) इस आन्दोलन ने पारिस्थितिकी और आर्थिक शोषण के मामले उठाए।
(ग) यह महिलाओं द्वारा शुरू किया गया शराब-विरोधी आन्दोलन था।
(घ) इस आन्दोलन की माँग थी कि स्थानीय निवासियों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियन्त्रण होना चाहिए।

(क) सही,
(ख) सही,
(ग) गलत,
(घ) सही।


प्रश्न.2. नीचे लिखे कुछ कथन गलत हैं। इनकी पहचान करें और जरूरी सुधार के साथ उन्हें दुरुस्त करके दोबारा लिखें
(क) सामाजिक आन्दोलन भारत के लोकतन्त्र को हानि पहुंचा रहे हैं।
(ख) सामाजिक आन्दोलनों की मुख्य ताकत विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच व्याप्त उनका जनाधार है।
(ग) भारत के राजनीतिक दलों ने कई मुद्दों को नहीं उठाया। इसी कारण सामाजिक आन्दोलनों का उदय हुआ।

(क) सामाजिक आन्दोलन भारत के लोकतन्त्र को बढ़ावा दे रहे हैं।
(ख) यह कथन पूर्ण रूप से सही है।
(ग) यह कथन पूर्ण रूप से सही है।


प्रश्न.3. उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में ( अब उत्तराखण्ड) 1970 के दशक में किन कारणों से चिपको आन्दोलन का जन्म हुआ? इस आन्दोलन का क्या प्रभाव पड़ा?

1970 के दशक में उत्तर प्रदेश के उत्तरांचल (उत्तराखण्ड) क्षेत्र में चिपको आन्दोलन की शुरुआत हुई। चिपको आन्दोलन का अर्थ है-पेड़ से चिपक (लिपट) जाना अर्थात् पेड़ को आलिंगनबद्ध कर लेना।
चिपको आन्दोलन के कारण-चिपको आन्दोलन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे—

  • चिपको आन्दोलन की शुरुआत उस समय हुई जब वन विभाग ने खेती-बाड़ी के औजार बनाने के लिए ‘Ashtree’ काटने की अनुमति नहीं दी तथा खेल सामग्री बनाने वाली एक व्यावसायिक कम्पनी को यह पेड़ काटने की अनुमति प्रदान की गई। इससे गाँव वालों में रोष उत्पन्न हुआ और गाँव वाले वनों की इस कटाई का विरोध करते हुए जंगल में एकत्रित हो गए तथा पेड़ों से चिपक गए, जिससे ठेकेदारों के कर्मचारी पेड़ों को काट न सकें। इस घटना का पूरे देश में प्रसार हुआ।
  • गाँव वालों ने माँग रखी कि वन कटाई का ठेका किसी बाहरी व्यक्ति को नहीं दिया जाना चाहिए तथा स्थानीय लोगों का जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक साधनों पर उपयुक्त नियन्त्रण होना चाहिए।
  • चिपको आन्दोलन का एक अन्य कारण पारिस्थितिकी सन्तुलन बनाए रखना था। गाँववासी चाहते थे कि इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी सन्तुलन को हानि पहुँचाए बिना विकास किया जाए।
  • ठेकेदारों द्वारा शराब की आपूर्ति करने का विरोध के रूप में यह आन्दोलन उठा। इस क्षेत्र में वनों की कटाई के दौरान ठेकेदार यहाँ के पुरुषों को शराब आपूर्ति का व्यवसाय भी करते थे। अतः स्त्रियों ने शराबखोरी की लत के विरोध में भी आवाज बुलन्द की।

प्रभाव-चिपको आन्दोलन को देश में व्यापक सफलता प्राप्त हुई और सरकार ने पन्द्रह वर्षों के लिए हिमालयी क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी ताकि इस अवधि में क्षेत्र का वनाच्छादन फिर से ठीक अवस्था में आ जाए। इस आन्दोलन की सफलता ने भारत में चलाए गए अन्य आन्दोलनों को भी प्रभावित किया। इस आन्दोलन से ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक जागरूकता के आन्दोलन चलाए गए।


प्रश्न.4. भारतीय किसान यूनियन किसानों की दुर्दशा की तरफ ध्यान आकर्षित करने वाला अग्रणी संगठन है। नब्बे के दशक में इसने किन मुद्दों को उठाया और इसे कहाँ तक सफलता मिली?

1990 के दशक में भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) ने भारतीय किसानों की दुर्दशा सुधारने हेतु अनेक मुद्दों पर बल दिया, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-

  • बिजली की दरों में बढ़ोतरी का विरोध किया।
  • 1980 के दशक में उत्तरार्द्ध में भारतीय अर्थव्यवस्था पर उदारीकरण के प्रभाव को देखते हुए नगदी फसलों के सरकारी खरीद मूल्यों में बढ़ोतरी की माँग की।
  • कृषि उत्पादों के अन्तर्राज्यीय आवाजाही पर लगी पाबन्दियों को हटाने पर बल दिया।
  • किसानों के लिए पेन्शन का प्रावधान करने की माँग की।

सफलताएँ – भारतीय किसान यूनियन को निम्नलिखित सफलताएँ प्राप्त हुईं-

  • बीकेयू (BKU) जैसी माँगें देश के अन्य किसान संगठनों ने भी उठायीं। महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन ने किसानों के आन्दोलन को इण्डिया की ताकतों (यानी शहरी औद्योगिक क्षेत्र) के खिलाफ ‘भारत’ (यानी ग्रामीण कृषि क्षेत्र) का संग्राम करार दिया।
  • 1990 के दशक में बीकेयू ने अपनी संख्या बल के आधार पर एक दबाव समूह की तरह कार्य किया तथा अन्य किसान संगठनों के साथ मिलकर अपनी मांगें मनवाने में सफलता पायी।
  • यह आन्दोलन मुख्य रूप से देश के समृद्ध राज्यों में सक्रिय था। खेती को अपनी जीविका का आधार बनाने वाले अधिकांश भारतीय किसानों के विपरीत बीकेयू जैसे संगठनों के सदस्य बाजार के लिए नगदी फसल उगाते थे। बीकेयू की तरह राज्यों के अन्य किसान संगठनों ने अपने सदस्य बनाए, जिनका क्षेत्र की चुनावी राजनीति से सम्बन्ध था। महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन और कर्नाटक का रैयत संघ ऐसे किसान संगठनों के जीवन्त उदाहरण हैं।


प्रश्न.5. आन्ध्र प्रदेश में चले शराब-विरोधी आन्दोलन ने देश का ध्यान कुछ गम्भीर मुद्दों की तरफ खींचा। ये मुद्दे क्या थे?

आन्ध्र प्रदेश में चले शराब-विरोधी आन्दोलन ने देश का ध्यान निम्नलिखित गम्भीर मुद्दों की तरफ खींचा-

  • शराब पीने से पुरुषों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य कमजोर होता है।
  • शराब पीने से व्यक्ति की कार्यक्षमता प्रभावित होती है जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।
  • शराबखोरी से ग्रामीणों पर कर्ज का बोझ बढ़ता है।
  • शराबखोरी से कामचोरी की आदत बढ़ती है।
  • शराब माफिया के सक्रिय होने से गाँवों में अपराधों को बढ़ावा मिलता है तथा अपराध और राजनीति के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध बनता है।
  • शराबखोरी से परिवार की महिलाओं से मारपीट एवं तनाव को बढ़ावा मिलता है।
  • शराब विरोधी आन्दोलन ने महिलाओं के मुद्दों-दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा, कार्यस्थल व सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न, लैंगिक असमानता आदि के प्रति समाज में जागरूकता उत्पन्न की।


प्रश्न.6. क्या आप शराब-विरोधी आन्दोलनको महिला-आन्दोलन का दर्जा देंगे? कारण बताएँ।

शराब-विरोधी आन्दोलन को महिला-आन्दोलन का दर्जा दिया जा सकता है क्योंकि अब तक जितने भी शराब-विरोधी आन्दोलन हुए उनमें महिलाओं की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण रही है। शराबखोरी से सर्वाधिक परेशानी महिलाओं को होती है। इससे परिवार की अर्थव्यवस्था चरमराने लगती है, परिवार में तनाव व मारपीट का वातावरण बनता है। तनाव के चलते पुरुष शारीरिक व मानसिक रूप से कमजोर हो जाते हैं। इन्हीं कारणों से शराब-विरोधी आन्दोलनों का प्रारम्भ प्रायः महिलाओं द्वारा किया जाता रहा है। अत: शराब-विरोधी आन्दोलन को महिला-आन्दोलन भी कहा जा सकता है।


प्रश्न.7. नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने नर्मदा घाटी की बाँध परियोजना का विरोध क्यों किया?

नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने नर्मदा घाटी की बाँध परियोजना का विरोध अग्रलिखित कारणों से किया-

  • बाँध निर्माण से प्राकृतिक नदियों व पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है।
  • जिस क्षेत्र में बाँध बनाए जाते हैं वहाँ रह रहे गरीबों के घर-बार, उनकी खेती योग्य भूमि, वर्षों से चले आ रहे कुटीर-धन्धों पर भी बुरा असर पड़ता है।
  • प्रभावित गाँवों के करीब ढाई लाख लोगों के पुनर्वास का मामला उठाया जा रहा था।
  • परियोजना पर किए जाने वाले व्यय में हेरा-फेरी के दोषों को उजागर करना भी परियोजना विरोधी स्वयं सेवकों का उद्देश्य था।
  • आन्दोलनकर्ता प्रभावित लोगों को आजीविका और उनकी संस्कृति के साथ-साथ पर्यावरण को बचाना चाहते थे। वे जल, जंगल और जमीन पर प्रभावित लोगों का नियन्त्रण या इन्हें उचित मुआवजा और उनका पुनर्वास चाहते थे।


प्रश्न.8. क्या आन्दोलन और विरोध की कार्रवाइयों से देश का लोकतन्त्र मजबूत होता है? अपने उत्तर की पुष्टि में उदाहरण दीजिए।

अहिंसक और शान्तिपूर्ण आन्दोलनों एवं विरोध की कार्रवाइयों ने लोकतन्त्र को नुकसान नहीं बल्कि मजबूत किया है। इसके समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-

  • चिपको आन्दोलन-अहिंसक और शान्तिपूर्ण तरीके से चलाया गया यह एक व्यापक जन आन्दोलन था। इससे पेड़ों की कटाई, वनों का उजड़ना रुका। पशु-पक्षियों और जनता को जल, जंगल, जमीन और स्वास्थ्यवर्धक पर्यावरण मिला। सरकार लोकतान्त्रिक माँगों के समक्ष झुकी।
  • वामपन्थियों द्वारा चलाए गए किसान और मजदूर आन्दोलनों द्वारा जन-साधारण में जागृति, राष्ट्रीय कार्यों में भागीदारी और सरकार को सर्वहारा वर्ग की उचित माँगों के लिए जगाने में सफलता मिली।
  • दलित पैंथर्स नेताओं द्वारा चलाए गए आन्दोलनों, लिखे गए सरकार विरोधी साहित्यकारों की कविताओं और रचनाओं ने आदिवासी, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों में चेतना पैदा की। दलित पैंथर्स राजनीतिक दल और संगठन बने। जाति भेद-भाव और छुआछूत जैसी बुराइयों को दूर किया गया। समाज में समानता, स्वतन्त्रता, सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय, राजनीतिक न्याय को सुदृढ़ता मिली।
  • ताड़ी-विरोधी आन्दोलन ने नशाबन्दी और मद्य-निषेध के विरोध का वातावरण तैयार किया। महिलाओं से जुड़ी अनेक समस्याएँ; जैसे-यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा और महिलाओं को विधायिका में दिए जाने वाले आरक्षण के मामले उठे। संविधान में कुछ संशोधन हुए और कानून बनाए गए।


प्रश्न.9. दलित पैंथर्स ने कौन-कौन से मुद्दे उठाए?

दलित पैंथर्स बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के शुरुआती सालों में दलित शिक्षित युवा वर्ग का आन्दोलन था। इसमें ज्यादातर शहर की झुग्गी-बस्तियों में पलकर बड़े हुए दलित थे। दलित पैंथर्स ने दलित समुदाय से सम्बन्धित सामाजिक असमानता, जातिगत आधार पर भेदभाव, दलित महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, दलितों का सामाजिक एवं आर्थिक उत्पीड़न तथा दलितों के लिए आरक्षण जैसे मुद्दे उठाए।


प्रश्न.10. निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दें
_____ लगभग सभी नए सामाजिक आन्दोलन नयी समस्याओं; जैसे-पर्यावरण का विनाश, महिलाओं की बदहाली, आदिवासी संस्कृति का नाश और मानवाधिकारों का उल्लंघन _____ के समाधान को रेखांकित करते हुए उभरे। इनमें से कोई भी अपने आप में समाज व्यवस्था के मूलगामी बदलाव के सवाल से नहीं जुड़ा था। इस अर्थ में ये आन्दोलन अतीत की क्रान्तिकारी विचारधाराओं से एकदम अलग हैं। लेकिन, ये आन्दोलन बड़ी बुरी तरह बिखरे हुए हैं और यही इनकी कमजोरी है _____ सामाजिक आन्दोलनों का एक बड़ा दायरा ऐसी चीजों की चपेट में है कि वह एक ठोस तथा एकजुट जन आन्दोलन का रूप नहीं ले पाता और न ही वंचितों और गरीबों के लिए प्रासंगिक हो जाता है। ये आन्दोलन बिखरे-बिखरे हैं, प्रतिक्रिया के तत्त्वों से भरे हैं, अनियत हैं और बुनियादी सामाजिक बदलाव के लिए इनके पास कोई फ्रेमवर्क नहीं है। ‘इस’ या ‘उस’ के विरोध (पश्चिम-विरोधी, पूँजीवाद-विरोधी, ‘विकास’-विरोधी, आदि) में चलने के कारण इनमें कोई संगति आती हो अथवा दबे-कुचले लोगों और हाशिए के समुदायों के लिए ये प्रासंगिक हो पाते हों-ऐसी बात नहीं। – रजनी कोठारी
(क) नए सामाजिक आन्दोलन और क्रान्तिकारी विचारधाराओं में क्या अन्तर है?
(ख) लेखक के अनुसार सामाजिक आन्दोलनों की सीमाएँ क्या-क्या हैं?
(ग) यदि सामाजिक आन्दोलन विशिष्ट मुद्दों को उठाते हैं तो आप उन्हें ‘बिखरा’ हुआ कहेंगे या मानेंगे कि वे अपने मुद्दे पर कहीं ज्यादा केन्द्रित हैं। अपने उत्तर की पुष्टि में तर्क दीजिए।

(क) सामाजिक आन्दोलन समाज से जुड़े हुए मामलों अथवा समस्याओं को उठाते हैं; जैसे-जाति भेदभाव, रंग भेदभाव, लिंग भेदभाव के विरोध में चलाए जाने वाले सामाजिक आन्दोलन। इसी प्रकार ताड़ी विरोधी आन्दोलन, सभी को शिक्षा, सामाजिक न्याय और समानता के लिए चलाए जाने वाले आन्दोलन आदि। जबकि क्रान्तिकारी विचारधारा के लोग तुरन्त सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में बदलाव लाना चाहते हैं। वे लक्ष्यों को ज्यादा महत्त्व देते हैं, तरीकों को नहीं। मार्क्सवादी-लेनिनवादी या नक्सलवादी आन्दोलन को क्रान्तिकारी विचारधारा के आन्दोलन मानते हैं।
(ख) सामाजिक आन्दोलन बिखरे हुए हैं तथा इसमें एकजुटता का अभाव पाया जाता है। सामाजिक आन्दोलनों के पास सामाजिक बदलाव में लिए कोई ढाँचागत योजना नहीं है।
(ग) सामाजिक आन्दोलनों द्वारा उठाए गए विशिष्ट मुद्दों के कारण यह कहा जा सकता है कि ये आन्दोलन अपने मुद्दों पर अधिक केन्द्रित हैं।

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