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Politics and Governance (राजनीति और शासन): January 2023 UPSC Current Affairs | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 19 के दायरे का विस्तार किया

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया है कि अनुच्छेद 19/21 के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार को राज्य या उसके साधनों के अलावा अन्य व्यक्तियों के खिलाफ भी लागू किया जा सकता है।

  • न्यायालय ने फैसला सुनाते हुए कहा कि अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार को अनुच्छेद 19(2) में पहले से निर्धारित किये गए आधारों के अलावा किसी भी अतिरिक्त आधार पर प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है।

अनुच्छेद 19

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 में वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रावधान है और आमतौर पर राज्य के खिलाफ लागू होता है।  
  • भारतीय संविधान, 1949 का अनुच्छेद 19 सभी नागरिकों को स्वतंत्रता के अधिकारों की गारंटी प्रदान करता है, जो इस प्रकार हैं: 
    • वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार। 
    • शांतिपूर्वक सम्मेलन में भाग लेने की स्वतंत्रता का अधिकार।
    • संगम या संघ बनाने का अधिकार। 
    • भारत के संपूर्ण क्षेत्र में अबाध संचरण की स्वतंत्रता का अधिकार।
    • भारत के किसी भी क्षेत्र में निवास का अधिकार। 
    • विलोपित
    • व्यवसाय आदि की स्वतंत्रता का अधिकार। 
  • भारतीय संविधान, 1949 का अनुच्छेद 19(2): 
    • खंड (1) का उपखंड (a) किसी भी मौजूदा कानून के संचालन को प्रभावित नहीं करेगा या राज्य को कोई भी कानून बनाने से नहीं रोकेगा, हालाँकि उक्त उपखंड प्रदत्त अधिकार के प्रयोग पर भारत की संप्रभुता और अखंडता के संदर्भ में उचित प्रतिबंध लगाता है जैसे- राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता, या न्यायालय की अवमानना, मानहानि या हिंसा के लिये उकसाने के संबंध में।
    • कुछ मौलिक अधिकार जैसे- अस्पृश्यता, तस्करी और बंधुआ मज़दूरी पर रोक लगाने वाले अधिकार स्पष्ट रूप से राज्य और अन्य व्यक्तियों दोनों के खिलाफ हैं।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का संदर्भ

  • निजी संस्थाओं के खिलाफ अधिकार:
    • यह व्याख्या राज्य पर यह सुनिश्चित करने का दायित्त्व डालती है कि निजी संस्थाएँ भी संवैधानिक मानदंडों का पालन करती हैं।
    • यह कई संवैधानिक कानूनी संभावनाएँ प्रदान करता है, जैसे कि निजी डॉक्टर के खिलाफ गोपनीयता के अधिकार को लागू करना या निजी सोशल मीडिया फर्म के खिलाफ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करना। 
  • न्यायालय के पूर्व फैसलों का संदर्भ: 
    • न्यायालय ने पुट्टास्वामी मामले में वर्ष 2017 के फैसले का हवाला दिया, जिसमें नौ न्यायाधीशों की बेंच ने सर्वसम्मति से निजता को मौलिक अधिकार के रूप में बरकरार रखा था।
    • सरकार ने तर्क दिया कि निजता एक ऐसा अधिकार है जिसे अन्य नागरिकों के खिलाफ लागू किया जा सकता है, इसलिये इसे राज्य के खिलाफ मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं दिया जा सकता है। 
  • अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण: 
    • न्यायालय ने अन्य देशों की कानूनी प्रणालियों को देखते हुए यूरोपीय न्यायालयों के साथ अमेरिकी दृष्टिकोण की तुलना की।
    • अमेरिकी कानून में "ऊर्ध्वाधर दृष्टिकोण" से "क्षैतिज दृष्टिकोण" में बदलाव का एक उदाहरण न्यूयॉर्क टाइम्स बनाम सुलिवन मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय है, जिसमें पाया गया कि न्यूयॉर्क टाइम्स के खिलाफ मानहानि कानून संबंधी राज्य का आवेदन भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संविधान की गारंटी के साथ असंगत था।
    • जब अधिकारों को ऊर्ध्वाधर (Vertically) रूप से लागू किया जाता है, तो उनका उपयोग केवल सरकार के विरुद्ध ही किया जा सकता है; क्षैतिज (Horizontally) रूप से लागू होने पर उनका उपयोग अन्य नागरिकों के विरुद्ध भी किया जा सकता है
    • उदाहरण के लिये एक नागरिक किसी निजी कंपनी के खिलाफ जीवन के अधिकार के क्षैतिज (Horizontally) आवेदन के तहत प्रदूषण उत्पन्न करने के लिये मुकदमा दायर कर सकता है, जो कि स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार का उल्लंघन होगा

चार्जशीट: एक सार्वजनिक दस्तावेज़ नहीं

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायलय (SC) ने फैसला सुनाया कि चार्जशीट 'सार्वजनिक दस्तावेज़' नहीं हैं और चार्जशीट  की स्वतंत्र सार्वजनिक पहुँच को सक्षम करना आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) के प्रावधानों का उल्लंघन करता है क्योंकि यह आरोपी, पीड़ित और जाँच एजेंसियों के अधिकारों से समझौता करता है।  

चार्जशीट

  • परिचय:
    • चार्जशीट, जैसा कि धारा 173 CrPC के तहत परिभाषित किया गया है, एक पुलिस अधिकारी या जाँच एजेंसी द्वारा मामले की जाँच पूरी करने के बाद तैयार की गई अंतिम रिपोर्ट है।
    • के वीरास्वामी बनाम भारत संघ और अन्य (1991) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि चार्जशीट CrPC की धारा 173 (2) के तहत पुलिस अधिकारी की अंतिम रिपोर्ट है। 
    • आरोपी के खिलाफ 60-90 दिनों की निर्धारित अवधि के भीतर चार्जशीट दायर की जानी चाहिये, अन्यथा गिरफ्तारी अवैध मणी जाएगी और आरोपी जमानत का हकदार होगा।
  • चार्जशीट में शामिल होना चाहिये: 
    • नामों का विवरण, सूचना की प्रकृति और अपराध। अभियुक्त गिरफ्तारी में है, हिरासत में है, या रिहा हो गया है, क्या उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही की गई, ये सभी महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं जिनका उत्तर चार्जशीट में दिया जाना चाहिये।
  • चार्जशीट दाखिल करने के बाद की प्रक्रिया:
    • चार्जशीट तैयार करने के बाद पुलिस स्टेशन का प्रभारी इसे एक मजिस्ट्रेट को प्रेषित करता है, जिसे इसमें उल्लिखित अपराधों का नोटिस लेने का अधिकार है ताकि आरोप तय किये जा सकें। 

चार्जशीट FIR से कैसे अलग है?

  • प्रावधान: 
    • 'चार्जशीट' शब्द को सीआरपीसी की धारा 173 के तहत परिभाषित किया गया है, लेकिन प्राथमिकी (FIR) को न तो भारतीय दंड संहिता (IPC) और न ही CrPC में परिभाषित किया गया है। इसके स्थान पर इसे CrPC की धारा 154 के तहत पुलिस नियमों/विनियमों के तहत जगह मिलती है, जो 'संज्ञेय मामलों में जानकारी' से संबंधित है। 
  • दाखिल करने का समय: 
    • चार्जशीट किसी जाँच की समाप्ति पर दाखिल की गई अंतिम रिपोर्ट होती है, एक प्राथमिकी (FIR) 'किसी भी घटना की प्रथम सूचना' के तौर पर दर्ज की जाती है जब पुलिस को एक संज्ञेय अपराध (ऐसा अपराध जिसके लिये किसी को वारंट के बिना गिरफ्तार किया जा सकता है, जैसे कि बलात्कार, हत्या, अपहरण) के बारे में सूचित किया जाता है।
  • दोष निर्धारण:
    • एक प्राथमिकी से किसी व्यक्ति के दोष का निर्धारण नहीं हो जाता है, लेकिन एक चार्जशीट में सबूत भी होते है और अक्सर मुकदमे के दौरान अभियुक्त पर लगाए गए अपराधों को साबित करने के लिये इनका उपयोग किया जाता है
  • नियम एवं शर्तें:
    • FIR दर्ज किये जाने के बाद जाँच होती है। CRPC की धारा 169 के तहत पुलिस मामले को मजिस्ट्रेट के पास तभी ला सकती है जब उसके पास पर्याप्त सबूत हों, अन्यथा आरोपी को हिरासत से रिहा कर दिया जाता है। 
    • CRPC की धारा 154 (3) के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति अधिकारियों द्वारा प्राथमिकी दर्ज करने से इनकार करने की समस्या से परेशान है, तो वह पुलिस अधीक्षक को शिकायत भेज सकता हैं, जो या तो स्वयं मामले की जाँच करेगा या अपने अधीनस्थ को निर्देशित करेगा।
    • पुलिस या कानून-प्रवर्तन/जाँच एजेंसी द्वारा प्राथमिकी में वर्णित अपराधों के संबंध में अभियुक्त के खिलाफ पर्याप्त सबूत इकट्ठा करने के बाद ही आरोप पत्र दायर किया जाता है, अन्यथा सबूत की कमी के कारण 'रद्दीकरण रिपोर्ट' या 'अनट्रेस्ड रिपोर्ट' दायर की जा सकती है।

चार्जशीट, एक सार्वजनिक दस्तावेज़ क्यों नहीं? 

  • न्यायालय के अनुसार, चार्जशीट को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं कराया जा सकता क्योंकि यह साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 74 और 76 के तहत एक 'सार्वजनिक दस्तावेज़' नहीं है।
  • धारा 74: यह सार्वजनिक दस्तावेज़ों को ऐसे दस्तावेज़ों के रूप में परिभाषित करता है जो भारत, राष्ट्रमंडल या किसी बाहरी देश के किसी भी हिस्से में संप्रभु प्राधिकरण, आधिकारिक निकायों, न्यायाधिकरणों और सार्वजनिक कार्यालयों के या तो विधायी, न्यायिक या कार्यकारी के कार्य या रिकॉर्ड होते हैं। इसमें "निजी दस्तावेज़ों के किसी भी राज्य में रखे गए" सार्वजनिक रिकॉर्ड भी शामिल हैं।
  • इस खंड में उल्लिखित दस्तावेज़ सार्वजनिक दस्तावेज़ हैं तथा उनकी प्रमाणित प्रतियाँ उन सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वारा प्रदान की जानी चाहिये जिनके पास उनकी कस्टडी है।
    • आवश्यक सार्वजनिक दस्तावेज़ों के साथ चार्जशीट की प्रति को इस धारा के तहत सार्वजनिक दस्तावेज़ नहीं कहा जा सकता है। 
    • धारा 76: ऐसे दस्तावेज़ों की अभिरक्षा वाले किसी भी सार्वजनिक अधिकारी को कानूनी शुल्क की मांग और भुगतान पर एक प्रति प्रदान करनी चाहिये, साथ ही सत्यापन का प्रमाण पत्र भी देना होगा जिस पर अधिकारी की मुहर, नाम एवं पदनाम तथा तारीख अंकित हो। 
    • साक्ष्य अधिनियम की धारा 75 के अनुसार, धारा 74 के अंतर्गत सूचीबद्ध दस्तावेज़ों के अलावा अन्य सभी दस्तावेज़ निजी दस्तावेज़ हैं।
    • यूथ बार एसोसिएशन ऑफ इंडिया बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले (2016) में सर्वोच्च न्यायालय ने देश के सभी पुलिस स्टेशनों को निर्देश दिया कि वे FIR दर्ज होने के 24 घंटे के भीतर FIR की प्रतियाँ ऑनलाइन प्रकाशित करेंउन मामलों को छोड़कर जहाँ अपराध संवेदनशील प्रकृति के हों।
    • इस निर्णय के तहत केवल FIR को कवर किया गया था तथा चार्जशीट को शामिल नहीं किया गया था।

हड़ताल का अधिकार

चर्चा में क्यों ?

केरल उच्च न्यायालय ने इस बात को दोहराया है कि जो सरकारी कर्मचारी हड़तालों में भाग लेते हैं तथा सरकारी खजाने के साथ-साथ सामान्य जनता के जीवन को भी प्रभावित करते हैं, वे संविधान के अनुच्छेद 19(1)(c) के तहत सुरक्षा के हकदार नहीं हैं, साथ ही यह केरल सरकारी कर्मचारी आचरण नियम, 1960 के प्रावधानों के तहत नियमों का उल्लंघन है। 

हड़ताल का अधिकार

  • परिचय:
    • हड़ताल का आशय नियोक्ताओं द्वारा निर्धारित आवश्यक शर्तों के तहत काम करने से कर्मचारियों का सामूहिक रूप से इनकार करना है। हड़ताल के कई कारण हो सकते  हैं, हालाँकि मुख्य तौर पर आर्थिक स्थितियों (आर्थिक हड़ताल के रूप में परिभाषित और मजदूरी एवं लाभ में सुधार के लिये) या श्रम प्रथाओं (कार्य स्थितियों में सुधार के उद्देश्य से) के संदर्भ में की जाती है।
    • प्रत्येक देश में चाहे वह लोकतांत्रिक हो, पूंजीवादी या समाजवादी हो श्रमिकों को हड़ताल का अधिकार होना चाहिये लेकिन यह अधिकार अंतिम उपाय के रूप में उपयोग होना चाहिये क्योंकि यदि इस अधिकार का दुरुपयोग किया जाता है तो यह उद्योगों के उत्पादन और वित्तीय लाभ में समस्या उत्पन्न करेगा।  
    • यह अंततः देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगा।
    • भारत में विरोध का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत एक मौलिक अधिकार है।  
    • लेकिन हड़ताल का अधिकार एक मौलिक अधिकार नहीं है बल्कि एक कानूनी अधिकार है और इस अधिकार के साथ औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अंतर्गत वैधानिक प्रतिबंध जुड़ा हुआ है।
    • औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 को औद्योगिक संबंध संहिता, 2020 के तहत समाहित किया गया है।
  • भारत में स्थिति: 
    • अमेरिका के विपरीत भारत में हड़ताल का अधिकार कानून द्वारा स्पष्ट रूप से मान्यता प्राप्त नहीं है।
    • वाणिज्यिक विवाद के समर्थन में पंजीकृत ट्रेड यूनियन द्वारा की गई विशिष्ट कार्रवाइयों को मंज़ूरी देकर, जो अन्यथा सामान्य आर्थिक कानून का उल्लंघन कर सकती थी, ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 ने हड़ताल संबंधी पहला प्रतिबंधित अधिकार बनाया।
    • वर्तमान में हड़ताल के अधिकार को ट्रेड यूनियनों के एक वैध हथियार के रूप में कानून द्वारा निर्धारित सीमाओं के तहत सीमित मान्यता प्राप्त है।
    • भारतीय संविधान हड़ताल करने का पूर्ण अधिकार नहीं प्रदान करता, लेकिन यह संघ का गठन करने की मौलिक स्वतंत्रता का पालन करता है।
    • राज्य ट्रेड यूनियनों को संगठित करने और हड़तालों का आह्वान करने की क्षमता पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है, जैसा कि हर दूसरा मौलिक अधिकार उचित प्रतिबंधों के अधीन है।
    • अंतर्राष्ट्रीय समझौते के तहत हड़ताल का अधिकार: 
    • हड़ताल के अधिकार को अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organization- ILO) के सम्मेलनों द्वारा भी मान्यता दी गई है।
    • भारत ILO का संस्थापक सदस्य है।
  • हड़ताल के अधिकार से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के महत्त्वपूर्ण निर्णय:
    • दिल्ली पुलिस बनाम भारत संघ (1986) में सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस बल (अधिकारों का प्रतिबंध) अधिनियम, 1966 और संशोधन नियम, 1970 द्वारा संशोधित नियमों के प्रभावी होने के बाद गैर-राजपत्रित पुलिस बल के सदस्यों द्वारा संघ बनाने के प्रतिबंधों को बरकरार रखा।
    • टी. के. रंगराजन बनाम तमिलनाडु सरकार (2003) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कर्मचारियों को हड़ताल का कोई मौलिक अधिकार नहीं है। इसके अलावा उनके हड़ताल पर जाने पर तमिलनाडु सरकारी सेवक आचरण नियम, 1973 के तहत रोक है।

केंद्र बनाम संघ

  • संदर्भ
    • हाल ही में तमिलनाडु सरकार ने अपने आधिकारिक पत्राचार या संचार में 'केंद्र सरकार' (Central Government) शब्द के उपयोग को बंद करने एवं इसके स्थान पर 'संघ सरकार' (Union Government) का उपयोग करने का फैसला किया है।
    • मूल संविधान के 22 भागों में 395 अनुच्छेदों और आठ अनुसूचियों को पढ़ने के बाद यह कहा जा सकता है कि 'केंद्र' या 'केंद्र सरकार' शब्द का उपयोग कहीं भी नहीं किया गया है।
    • भले ही मूल संविधान में 'केंद्र सरकार' का कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन 'General Clauses Act, 1897' इसे पारिभाषित करता है।
    • इसलिये सवाल यह है कि क्या 'केंद्र सरकार' की ऐसी परिभाषा संवैधानिक है क्योंकि संविधान ही सत्ता के केंद्रीकरण को मंजूरी नहीं देता है।
  • उत्पत्ति: संघ सरकार और केंद्र सरकार
    • ब्रिटिश शासन के तहत गवर्नर जनरल द्वारा चलाए जाने वाले प्रशासन को अक्सर "केंद्र सरकार" के रूप में वर्णित किया जाता था।
    • उदाहरण के लिये वर्ष 1919 में, जब ब्रिटेन की संसद द्वारा नए भारत सरकार अधिनियम को पारित किया गया, जो भारत में स्वशासन और संघवाद का एक प्रारंभिक रूप पेश करता था। इसके तहत शक्तियों को "केंद्रीय" और "प्रांतीय" विषयों के बीच विभाजित किया गया था।
    • आधुनिक शब्द "संघ" का पहली बार आधिकारिक तौर पर वर्ष 1946 में कैबिनेट मिशन प्लान द्वारा इस्तेमाल किया गया था, जो सत्ता के हस्तांतरण के बाद भारत को एकजुट रखने के लिये एक ब्रिटिश योजना थी।
    • संविधान सभा के कई सदस्यों की राय थी कि ब्रिटिश कैबिनेट मिशन योजना (वर्ष 1946) के सिद्धांतों को अपनाया जाए
    • कैबिनेट मिशन ने बहुत सीमित शक्तियों वाली केंद्र सरकार जबकि प्रांतों के पास पर्याप्त स्वायत्तता देकर एक तरह से संघ सरकार बनाने का विचार दिया था।
    • हालाँकि कश्मीर में वर्ष 1947 के विभाजन और हिंसा ने संविधान सभा को अपने दृष्टिकोण को संशोधित करने के लिये मजबूर किया और इसके पश्चात एक मज़बूत केंद्र के पक्ष में विचार किया जाने लगा। 
    • इसके कारण संघ से राज्यों के अलग होने की संभावना को देखते हुए संविधान के निर्माणकर्त्ताओं ने यह सुनिश्चित किया कि भारतीय संघ "अविनाशी" होगा।
    • इस प्रकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 1 में कहा गया है कि "भारत, अर्थात् इंडिया, राज्यों का संघ होगा।" (“India, that is Bharat, shall be a Union of States”)।
  • संघ और केंद्र के मध्य अंतर
    • संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप के अनुसार, शब्दों के प्रयोग की दृष्टि से 'केंद्र' एक वृत्त के मध्य में एक बिंदु को इंगित करता है, जबकि 'संघ' संपूर्ण वृत्त है।
    • भारत में संविधान के अनुसार, तथाकथित 'केंद्र' और राज्यों के बीच का संबंध वास्तव में 'संपूर्ण और उसके भागों के मध्य का संबंध' है।
    • संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का बँटवारा सरकार के कार्यकारी अंग तक ही सीमित नहीं है, यह सरकार के अन्य अंगों में भी दृष्टव्य है।
    • उदाहरण के लिये, न्यायपालिका को संविधान में यह सुनिश्चित करने के लिये बनाया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय, देश की सबसे ऊँची अदालत, का उच्च न्यायालय पर कोई अधीक्षण नहीं है।
    • यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय क्षेत्राधिकार है - न केवल उच्च न्यायालयों पर बल्कि अन्य न्यायालयों और न्यायाधिकरणों पर भी तथापि उन्हें सर्वोच्च न्यायालय के अधीनस्थ घोषित नहीं किया जाता है।
    • वास्तव में उच्च न्यायालयों के पास जिला और अधीनस्थ न्यायालयों पर अधीक्षण की शक्ति होने के बावजूद विशेषाधिकार रिट जारी करने की शक्तियाँ सर्वोच्च न्यायालय की तुलना में व्यापक हैं।
    • संसद और विधानसभाएँ अपनी अधिकार सीमाओं की पहचान करती हैं और जब उन विषय वस्तुओं पर कानून बनाए जाते हैं तो ये सीमाएँ पार न हों, इसका ध्यान रखते हैं।
  • केंद्र सरकार शब्द के साथ जुड़े मुद्दे
    • संविधान सभा द्वारा खारिज़: संविधान में 'केंद्र' शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है; संविधान निर्माताओं ने इसे विशेष रूप से खारिज़ कर दिया और इसके बजाय 'संघ' शब्द का प्रयोग किया।
    • बी. आर. अम्बेडकर ने स्पष्ट किया कि "संघ और राज्य दोनों संविधान द्वारा बनाए गए हैं, दोनों संविधान से अपने-अपने अधिकार प्राप्त करते हैं।
    • उनके अनुसार, दोनों में से कोई अपने-अपने क्षेत्र में एक-दूसरे के अधीन नहीं है और एक का अधिकार दूसरे के साथ समन्वय करना है।
    • औपनिवेशिक विरासत: 'केंद्र' शब्द औपनिवेशिक काल की याद दिलाता है क्योंकि नई दिल्ली स्थित सचिवालय में नौकरशाही 'केंद्रीय कानून', 'केंद्रीय विधायिका' आदि शब्द का उपयोग करने की आदी है। अतः बाकी सभी, जिनमें मीडिया भी शामिल हैं, ने इस शब्द का उपयोग करना शुरू कर दिया।
    • संघवाद की भावना के विरुद्ध: भारत एक संघीय सरकार है। शासन करने की शक्ति पूरे देश के लिये दो तरह से विभाजित है। एक संघ की सरकार, जो सामान्य राष्ट्रीय हित के विषयों के लिये ज़िम्मेदार है, और दूसरी राज्यों की सरकार, जो राज्यों के विस्तृत एवं दिन-प्रतिदिन के क्रियाकलाप की देखरेख करते हैं।
    • सुभाष कश्यप के अनुसार, 'केंद्र' या 'केंद्र सरकार' शब्द का उपयोग करने का मतलब होगा कि राज्य सरकारें इसके अधीन हैं

निष्कर्ष

संविधान सभा के सदस्य संविधान में 'केंद्र' या 'केंद्र सरकार' शब्द का प्रयोग न करने के लिये बहुत सतर्क थे क्योंकि उनका उद्देश्य एक इकाई में शक्तियों के केंद्रीकरण की प्रवृत्ति को दूर रखना था। 'संघ सरकार' या 'भारत सरकार' का एक एकीकृत प्रभाव है। इससे यह संदेश जाता है कि यह सरकार सभी की है।

तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के बीच गतिरोध

चर्चा में क्यों?

हाल ही में आंध्र प्रदेश ने आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2014 के तहत संपत्ति और देनदारियों के "न्यायसंगत, उचित एवं समान विभाजन" की मांग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की है। 

पृष्ठभूमि

  • 2 जून, 2014 को आंध्र प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी हिस्से को अलग कर तेलंगाना के रूप में 29वें राज्य का गठन किया गया
  • राज्य पुनर्गठन अधिनियम (1956) के माध्यम से हैदराबाद राज्य के तेलुगू भाषी क्षेत्रों को आंध्र प्रदेश राज्य के साथ विलय कर विस्तृत आंध्र प्रदेश राज्य का निर्माण किया गया।
  • आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम (2014) ने आंध्र प्रदेश को दो अलग-अलग राज्यों अर्थात् आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में विभाजित किया।
  • अविभाजित आंध्र प्रदेश के विभाजन के आठ वर्ष से अधिक समय के बाद भी दोनों राज्यों के बीच संपत्ति और दायित्त्वों का आवंटन अस्पष्ट बना हुआ है क्योंकि प्रत्येक राज्य आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम 2014 के प्रावधानों की व्यक्तिगत व्याख्या लागू करता है।

संबंधित मुद्दे

  • 12 संस्थानों का अधिनियम में उल्लेख नहीं किया गया है:
    • इस निर्गम में 245 संस्थान शामिल हैं जिनकी कुल स्थायी संपत्ति का मूल्य 1.42 लाख करोड़ रुपए है। 
    • अधिनियम की अनुसूची IX के अंतर्गत 91 संस्थान और अनुसूची X के अंतर्गत 142 संस्थान हैं।  
    • अधिनियम में उल्लिखित अन्य 12 संस्थाओं का विभाजन भी राज्यों के बीच विवादास्पद बना हुआ है। 
  • संपत्ति और देनदारियों के विभाजन में देरी:
    • आंध्र प्रदेश ने खेद व्यक्त किया कि तेलंगाना सरकार ने शीला भिडे की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति द्वारा दी गई सिफारिशों को चुनिंदा रूप से स्वीकार कर लिया था, जिसके परिणामस्वरूप संपत्ति और देनदारियों के विभाजन में देरी हुई थी।
    • समिति ने अनुसूची IX के 91 संस्थानों में से 89 के विभाजन के संबंध में सिफारिशें की हैं।  
    • आंध्र प्रदेश का तर्क है कि विभाजन की प्रक्रिया में तेज़ी लाने और इन संस्थानों के विभाजन को अंतिम रूप देने के लिये सिफारिशों को जल्दबाज़ी में स्वीकार कर लिया गया।
  • संपत्ति के बँटवारे को लेकर विवाद:
    • मुख्यालय की संपत्तियों का हिस्सा न बनने वाली संपत्तियों के विभाजन को लेकर  विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों की तेलंगाना सरकार ने आलोचना करते हुए कहा कि यह पुनर्गठन अधिनियम की भावना के खिलाफ है।  
  • केंद्र की भूमिका:
    • गृह मंत्रालय (MHA) ने वर्ष 2017 में मुख्यालय परिसंपत्तियों के बारे में स्पष्टता प्रदान की।
    • एक एकल व्यापक राज्य उपक्रम (जिसमें मुख्यालय और परिचालन इकाइयाँ शामिल हैं) जो विशेष रूप से एक स्थानीय क्षेत्र में स्थित है या इसका संचालन एक स्थानीय क्षेत्र में सीमित है, के मामले में गृह मंत्रालय का कहना है कि इसे पुनर्गठन अधिनियम की धारा 53 की उप-धारा (1) के अनुसार स्थान के आधार पर विभाजित किया जाएगा।
    • अधिनियम केंद्र सरकार को आवश्यकता पड़ने पर हस्तक्षेप करने का अधिकार देता है।
  • नोट:  
    • सर्वोच्च न्यायालय अपने मूल अधिकार क्षेत्र में राज्यों के बीच विवादों का निर्णय करता है।  
    • संविधान के अनुच्छेद 131 के अनुसार, भारत सरकार और एक या अधिक राज्यों के बीच या भारत सरकार और किसी भी राज्य के बीच या दो या दो से अधिक राज्यों के बीच कोई  भी विवाद सर्वोच्च न्यायालय का मूल अधिकार क्षेत्र है।
    • संविधान के अनुच्छेद 263 के तहत अंतर्राज्यीय परिषद से विवादों पर पूछताछ और सलाह देने, सभी राज्यों के सामान्य विषयों पर चर्चा करने और बेहतर नीति समन्वय हेतु सिफारिशें करने की अपेक्षा की जाती है।
    • अंतर्राज्यीय विवादों को सुलझाने हेतु पहल:
    • संविधान द्वारा अंतर्राज्यीय परिषद को प्रदान उत्तरदायित्त्वों (अंतर्राज्यीय विवादों के समाधान के संदर्भ में) को केवल कागज़ों में नहीं बल्कि वास्तविकता में पूरा करने की आवश्यकता है।  
    • इसी तरह सामाजिक और आर्थिक योजना, सीमा विवाद, अंतर-राज्य परिवहन आदि से संबंधित प्रत्येक क्षेत्र में राज्यों की चुनौतियों के संदर्भ में चर्चा करने हेतु क्षेत्रीय परिषदों को मज़बूत करने की आवश्यकता है।
    • भारत विविधता में एकता का प्रतीक है। हालाँकि इस एकता को और मज़बूत करने के लिये केंद्र एवं राज्य सरकारों दोनों को सहकारी संघवाद के लोकाचार को आत्मसात करने की आवश्यकता है।

लद्दाख द्वारा छठी अनुसूची की मांग

चर्चा में क्यों?

हाल ही में गृह मंत्रालय (MHA) ने लद्दाख के लोगों के लिये "भूमि और रोज़गार की सुरक्षा सुनिश्चित करने" हेतु केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख के लिये एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया।

  • समिति के कुछ सदस्यों के अनुसार, गृह मंत्रालय का स्पष्ट आदेश है कि छठी अनुसूची में शामिल करने की उनकी मांगों पर विचार-विमर्श नहीं किया जाएगा।
  • सितंबर 2019 में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने लद्दाख को छठी अनुसूची के तहत शामिल करने की सिफारिश यह देखते हुए की थी कि नया केंद्रशासित प्रदेश मुख्य रूप से आदिवासी बहुल (97% से अधिक) था और इसकी विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने की आवश्यकता थी।

कमेटी का गठन किस कार्य हेतु किया गया है?

  • पृष्ठभूमि:
    • संसद द्वारा 2019 में संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य का विशेष दर्जा समाप्त किये जाने के बाद लद्दाख में नागरिक समाज समूह पिछले तीन वर्षों से भूमि, संसाधनों और रोज़गार की सुरक्षा की मांग कर रहे हैं।
    • बड़े व्यवसायों और बड़े समूहों द्वारा स्थानीय लोगों से भूमि एवं नौकरियाँ छीने जाने के भय ने इस मांग को बढ़ावा दिया है।
  • उद्देश्य:
    • क्षेत्र की अनूठी संस्कृति और भाषायी भौगोलिक स्थिति तथा सामरिक महत्त्व को ध्यान में रखते हुए इसकी रक्षा के उपायों पर चर्चा करना।
    • समावेशी विकास की रणनीति बनाना और लेह, कारगिल एवं लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी ज़िला परिषदों के सशक्तीकरण से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करना।
  • सरकार का रुख:
    • जहाँ तक लद्दाख को विशेष राज्य का दर्जा देने की बात है, तो सरकार इसके लिये बहुत उत्सुक नहीं है।
    • गृह मंत्रालय ने हाल ही में संसद की एक स्थायी समिति को सूचित किया कि छठी अनुसूची के तहत आदिवासी आबादी को शामिल करने का उद्देश्य उनके समग्र सामाजिक-आर्थिक विकास को सुनिश्चित करना है, जिसका केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन पहले से ही ध्यान रख रहा है और लद्दाख को इसकी समग्र विकास आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये पर्याप्त धन प्रदान किया जा रहा है।
    • गृह मंत्रालय के मुताबिक, लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करना मुश्किल होगा।
    • संविधान की छठी अनुसूची पूर्वोत्तर के लिये है तथा पाँचवीं अनुसूची देश के बाकी हिस्सों के आदिवासी क्षेत्रों के लिये है।
    • राज्यसभा में पेश की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, लद्दाख प्रशासन ने हाल ही में सीधी भर्ती में अनुसूचित जनजातियों के लिये आरक्षण को 10% से बढ़ाकर 45% कर दिया है, जिससे जनजातीय आबादी को उनके विकास में काफी मदद मिलेगी।
  • छठी अनुसूची:
    • अनुच्छेद 244: स्वायत्त ज़िला परिषदों (Autonomous District Councils- ADCs), जिनके पास राज्य के भीतर कुछ विधायी, न्यायिक और प्रशासनिक स्वायत्तता होती है, को संविधान के अनुच्छेद 244 की छठी अनुसूची के अनुसार बनाया जा सकता है।
    • छठी अनुसूची में पूर्वोत्तर के चार राज्यों असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम के जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित विशेष प्रावधान हैं।
    • स्वायत्त ज़िले: इन चार राज्यों में जनजातीय क्षेत्रों को स्वायत्त ज़िलों के रूप में गठित किया गया है। राज्यपाल के पास स्वायत्त ज़िलों के गठन और पुनर्गठन से संबंधित अधिकार है।
    • संसद या राज्य विधानमंडल के अधिनियम स्वायत्त ज़िलों पर लागू नहीं होते हैं अथवा विशिष्ट संशोधनों और अपवादों के साथ लागू होते हैं।
    • इस संबंध में निर्देशन की शक्ति या तो राष्ट्रपति या फिर राज्यपाल के पास होती है।
    • ज़िला परिषद: प्रत्येक स्वायत्त ज़िले में एक ज़िला परिषद होती है और इसमें सदस्यों की संख्या 30 होती हैं, जिनमें से चार राज्यपाल द्वारा मनोनीत किये जाते हैं और शेष 26 वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने जाते हैं।
    • निर्वाचित सदस्य पाँच वर्ष की अवधि के लिये पद धारण करते हैं (यदि परिषद पहले भंग नहीं हो जाती है) और मनोनीत सदस्य राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद पर बने रहते हैं।
    • प्रत्येक स्वायत्त क्षेत्र में एक अलग क्षेत्रीय परिषद भी होती है।
    • परिषद की शक्तियाँ: ज़िला और क्षेत्रीय परिषदें अपने अधिकार क्षेत्रों का प्रशासन देखती हैं।
    • वे भूमि, जंगल, नहर का पानी, झूम खेती, ग्राम प्रशासन, संपत्ति की विरासत, विवाह और तलाक, सामाजिक रीति-रिवाज़ों आदि जैसे कुछ विशिष्ट मामलों पर कानून बना सकती हैं। लेकिन ऐसे सभी कानूनों हेतु राज्यपाल की सहमति की आवश्यकता होती है।
    • वे जनजातियों के बीच मुकदमों और मामलों की सुनवाई के लिये ग्राम सभाओं या न्यायालयों का गठन कर सकती हैं। वे उनकी अपील सुनती हैं। इन मुकदमों एवं मामलों पर उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र राज्यपाल द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है।
    • ज़िला परिषद ज़िले में प्राथमिक विद्यालयों, औषधालयों, बाज़ारों, घाटों, मत्स्य पालन, सड़कों आदि की स्थापना, निर्माण या प्रबंधन कर सकती है।
    • उन्हें भू-राजस्व का आकलन करने और एकत्र करने एवं कुछ निर्दिष्ट कर लगाने का अधिकार है।
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FAQs on Politics and Governance (राजनीति और शासन): January 2023 UPSC Current Affairs - भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

1. सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 19 के दायरे का किया है विस्तार?
उत्तर. सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 19 के दायरे का विस्तार किया है।
2. चार्जशीट क्या होती है?
उत्तर. चार्जशीट एक सार्वजनिक दस्तावेज़ नहीं होती।
3. किसका अधिकार होता है हड़ताल करने का?
उत्तर. हड़ताल करने का अधिकार सभी व्यक्तियों को होता है।
4. कौन-सा गतिरोध तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के बीच है?
उत्तर. तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के बीच गतिरोध है।
5. छठी अनुसूची की मांगराजनीति और शासन किस द्वारा की गई है?
उत्तर. छठी अनुसूची की मांगराजनीति और शासन लद्दाख द्वारा की गई है।
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