1987 के ऐतिहासिक भारत-श्रीलंका समझौते के पश्चात श्रीलंका के संविधान में 13वें संशोधन का कार्यान्वयन तीन दशकों से अधिक समय से एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। इसके अधिनियमन के बावजूद, नृजातीय समुदायों के बीच परस्पर विरोधी मत, राजनीतिक धारणाओं और कानूनी बाधाओं जैसे विभिन्न कारकों ने इसके पूर्ण कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न की है।
14 नवंबर, 1987 को अधिनियमित, 13वें संबैधानिक संशोधन ने तमिल और सिंहली को आधिकारिक भाषाओं और अंग्रेजी को एक संपर्क भाषा के रूप में स्वीकारने सहित कई महत्वपूर्ण बदलाव किए। हालांकि, इसकी प्रभावशीलता को एक कठोर एकात्मक राज्य के ढांचे में इसके एकीकरण ने प्रभावित किया। राज्यपाल की व्यापक शक्तियां, प्रांतीय निर्णयों को अमान्य करने की केंद्रीय कार्यपालिका की क्षमता और विधायी स्वायत्तता के बारे में अनिश्चितताओं ने प्रांतों को शक्तियों के हस्तांतरण में बाधा उत्पन्न की है।
राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे के सकारात्मक उपाय, जिनमें सर्वदलीय सम्मेलन एवं राष्ट्रीय सुलह कार्यक्रम और पूर्वोत्तर विकास पर चर्चा शामिल हैं, तमिल आकांक्षाओं के लिए आशा प्रदान करते हैं। 13 वें संशोधन की सीमाओं को देखते हुए इसे पूरी तरह से लागू करने पर ही ध्यान केंद्रित नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि समस्या का समाधान करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। विशेष रूप से, विमर्श प्रक्रिया में नागरिक समाजों को शामिल करना और राजनीतिक दलों के सम्मेलनों में उनकी जरूरतों को प्राथमिकता देना आवश्यक है।
राष्ट्रपति विक्रमसिंघे ने संसद में प्रबलता से कहा कि एक संपन्न प्रांतीय परिषद प्रणाली में महत्वपूर्ण समग्र परिवर्तन की क्षमता है। श्रीलंका में चल रहे आर्थिक पुनर्निर्माण कार्यक्रमों के बावजूद, लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने से ही एक राष्ट्र के रूप में सच्ची समृद्धि प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए उत्तरी और पूर्वी प्रांतों में पूर्ण विसैन्यीकरण, पुलिस, भूमि एवं शिक्षा शक्तियों के पूर्ण हस्तांतरण, चुनाव कराने और इन क्षेत्रों को पर्याप्त धन आवंटित करने की आवश्यकता है।
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