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The Hindu Editorial Analysis- 31st January 2024 | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly - UPSC PDF Download

सार्वजनिक स्वास्थ्य पहलों में चुनौतियां और विषमताएँ


संदर्भ:

भारत के विविध भू-परिदृश्यों के जटिल ताने -बाने, सार्वजनिक स्वास्थ्य के खिलाफ निरंतर एक  मूक संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं। यद्यपि शहरी गतिविधियाँ और ग्रामीण स्तर की विषमता के मध्य चेचक, पोलियो, नवजात टेटनस और खसरा जैसी बीमारियों का प्रभुत्व आज भी यथावत देखा जा सकता है। तथापि स्वच्छता के अग्रणी प्रयास और व्यापक टीकाकरण के माध्यम से अर्जित ये आंशिक जीत, लोक स्वास्थ्य के निहितार्थ जीवन रक्षा के उपायों के महत्त्व को रेखांकित करती हैं। साथ ही साथ, लोकतांत्रिक शासन में अधिक औपचारिक शैली का उपयोग, सार्वजनिक स्वास्थ्य और निवारक उपायों को प्राथमिकता देने के साथ-साथ वर्तमान की सतत चुनौती को भी उजागर करता है।

लोकलुभावन स्वास्थ्य नीतियों की चुनौती:

  • वैचारिक दायरे में सीमित राजनीतिक नेता अक्सर तत्काल परिणामों का वादा करने वाली पहलों की ओर आकर्षित होते है। नए अस्पतालों की स्थापना, किफायती उपचार और आपातकालीन चिकित्सा उपायों जैसी पहल सामान्य लोगों के ध्यान और संसाधन दोनों को आकर्षित करती हैं। हालांकि, अल्पकालिक लाभ पर ध्यान देना अक्सर स्वच्छता, रोग निगरानी और सार्वजनिक स्वास्थ्य शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों को नजरअंदाज करते हैं। नीति निर्माताओं के यही उपेक्षित दृष्टिकोण लोक स्वास्थ्य की समस्या को बनाए रखने और रोग के प्रकोप को लम्बे समय तक रोके रखने के मौलिक कारण हैं।
  • इस संदर्भ में डेंगू के प्रकोप से निपटने का दृष्टिकोण एक मार्मिक उदाहरण हो सकता है। हालांकि इसके लिए  तत्काल राहत के प्रयास सराहनीय हैं, वे अक्सर वेक्टर बायोनोमिक्स को समझने और प्रभावी टीके विकसित करने जैसी दीर्घकालिक रणनीतियों को आकार देते हैं। वेक्टर नियंत्रण, वैक्सीन विकास और सार्वजनिक स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे में सुधार लाने हेतु आवश्यक अनुसंधान के अलावा आपातकालीन प्रतिक्रिया पर जोर देते हैं। परिणामतः, स्वास्थ्य सेवा प्रणाली तनावपूर्ण दृष्टिगत होती है और भविष्य के प्रभावों को समाप्त करने में अक्षम प्रतीत होती है।

अनुसंधान और दीर्घकालिक योजना की आवश्यकता:

  • वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सार्वजनिक स्वास्थ्य में अत्याधुनिक अनुसंधान और विकास अनिवार्य हैं। मौजूदा डेंगू वैक्सीन, अपनी सीमाओं के बावजूद, आगे की जांच की अनिवार्यता को चिन्हित करती है। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के संभावित जोखिमों के कारण मच्छरों के बदलते प्रजनन पैटर्न एवं गतिविधि का सामना करने के लिए एक अनुकूल रणनीति की आवश्यकता है। डेंगू जैसी अन्य कई बीमारियों से निपटने के लिए, इस प्रकार के वैज्ञानिक जांच और दीर्घकालिक योजना को शामिल करने वाला एक बहुआयामी दृष्टिकोण आवश्यक है।
  • उपर्युक्त बातों के अलावा शासन के अन्य क्षेत्रों से समानता बनाते हुए, स्वास्थ्य देखभाल को राजनीतिक प्रक्रियाओं से अलग करना एक सम्मोहक प्रस्ताव हो सकता है। जिस तरह भारत की न्यायिक प्रणाली और अंतरिक्ष कार्यक्रम स्वायत्त रूप से संचालित होते हैं, उसी तरह सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी निर्णय राजनीतिक औचित्य के बजाय वैज्ञानिक साक्ष्य पर आधारित होने चाहिए। यह स्वायत्तता सुनिश्चित करती है, कि नीतियां चुनावी चक्रों के बजाय लक्ष्यित आंकड़ों और विशेषज्ञता द्वारा संचालित होती हैं, जिससे अधिक लचीले और उत्तरदायी स्वास्थ्य देखभाल ढांचे को बढ़ावा मिलता है।

निवारक स्वास्थ्य उपायों में निवेश:

  • वर्ष 1946 से ही सार्वजनिक स्वास्थ्य चर्चा के लिए जोसेफ भोरे की मौलिक अंतर्दृष्टि एक प्रेरणास्रोत रही है। यद्यपि निवारक स्वास्थ्य उपायों की उपेक्षा करने से आर्थिक और मानवीय नुकसान होता है, जो पोषण कार्यक्रमों और निवारक स्वास्थ्य देखभाल पहलों में निरंतर निवेश के महत्व को रेखांकित करता है। तथापि, प्रधानमंत्री की सर्वांगीण पोषण योजना (पोषण) अभियान जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं के बावजूद, नीतिगत लक्ष्यों और वास्तविकताओं के बीच आज भी अंतर बना हुआ है।
  • प्रधानमंत्री की सर्वांगीण पोषण योजना (पोषण) अभियान का लक्ष्य प्रतिवर्ष स्टंटिंग में 2%, अल्पपोषण में 2%, एनीमिया में 3% और जन्म के समय कम वजन में 2% की कमी लाना है। हालाँकि, 2019-21 के बीच किए गए पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, पांच वर्ष से कम उम्र के 35.5% बच्चे अविकसित थे, और 32.1% कम वजन वाले थे। इसके अतिरिक्त, 6-59 महीने की आयु के बच्चों में एनीमिया की व्यापकता 58.6% से बढ़कर 67.1% हो गई, जबकि 15-19 वर्ष की आयु की महिलाओं में यह 54.1% से बढ़कर 59.1% हो गई। नीतिगत लक्ष्यों और वास्तविक प्रसार के बीच यह महत्वपूर्ण असमानता सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रयासों में पर्याप्त अंतर को रेखांकित करती है।
  • इसके अतिरिक्त सार्वजनिक स्वास्थ्य पर फार्मास्युटिकल उद्योग का प्रभाव निर्विवाद है। उपचारात्मक चिकित्सा को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण होते हुए भी, इसकी लाभ-उन्मुख प्रकृति अक्सर व्यापक सार्वजनिक स्वास्थ्य पहलों को तटस्थ कर देती है। उदाहरण के लिए, समान तपेदिक (टीबी) दवाओं तक पहुंच के बावजूद, भारत ने वर्ष 2021 में 21.4 लाख टीबी के मामले दर्ज किए, जो वर्ष 2020 से 18% की वृद्धि दर्शाता है। अर्थात प्रति 1,00,000 जनसंख्या पर 210 मामले दर्ज हुए हैं। इसके विपरीत, संयुक्त राज्य अमेरिका ने वर्ष 2022 में केवल 8,331 टीबी मामले दर्ज किए अर्थात प्रति 1,00,000 व्यक्तियों पर लगभग 2.5 मामले। यह विसंगति दवा की उपलब्धता से परे है और भारत में असंगठित शहरी आवास के कारण प्रचलित गरीबी, अपर्याप्त स्वच्छता और भीड़भाड़ में रहने वाली स्थिति जैसे सामाजिक-आर्थिक कारकों से जटिल रूप से जुड़ी हुई है।
  • अपने ठोस प्रयासों के बावजूद, भारत में गरीबी, स्वच्छता और भीड़भाड़ जैसे सामाजिक-आर्थिक कारक स्वास्थ्य देखभाल परिणामों को कमजोर कर रहे हैं, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन के लिए अधिक समग्र और सूक्ष्म दृष्टिकोण की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं।

व्यवहार परिवर्तन और शिक्षा में चुनौतियाँ:

  • वर्तमान भारत में लोक स्वास्थ्य का व्यवहारिक परिवर्तन प्रभावी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन के केंद्र में है। हालाँकि, लोकलुभावन प्रवृत्तियों से चिह्नित राजनीतिक वातावरण में, इस तरह के बदलाव को बढ़ावा देना एक कठिन चुनौती भी है। भारत के शैक्षणिक संस्थानों में सार्वजनिक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग में विशेष पाठ्यक्रमों का अभाव सार्वजनिक स्वास्थ्य शिक्षा और शासन के लिए अधिक अंतःविषय दृष्टिकोण की आवश्यकता को उजागर करती है।
  • सार्वजनिक स्वास्थ्य इस समय की सभी चिकित्सा हस्तक्षेप की सीमाओं को पार कर पर्यावरण विज्ञान, समाजशास्त्र, शहरी नियोजन और अर्थशास्त्र जैसे विभिन्न क्षेत्रों से विशेषज्ञता की आवश्यकता को अनिवार्य बनाता है। फिर भी, भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली अक्सर चिकित्सक-केंद्रित प्रतिमान में उलझी रहती है और व्यापक लोकाचार को पूरी तरह से अपनाने में विफल रहती है। इस कमी को दूर करने के लिए, सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी शिक्षा और शासन के लिए एक समावेशी और बहु-विषयक दृष्टिकोण आवश्यक है।

स्वायत्तता की अनिवार्यता:

  • सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन में स्वायत्तता की अनिवार्यता प्रभावी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन निवारक उपायों, नीति निर्माण और सामुदायिक सहभागिता को शामिल करते हुए एक समग्र दृष्टिकोण की मांग करता है। इस संदर्भ में, शक्तियों के पृथक्करण ढांचे को अपनाना सर्वोपरि है। स्वास्थ्य सेवा संबंधी निर्णय लेने को राजनीतिक प्रभाव से अलग किया जाना चाहिए। इससे नीति निर्माता अधिक न्यायसंगत और स्थायी स्वास्थ्य देखभाल पारिस्थितिकी तंत्र को बढ़ावा देते हुए साक्ष्य-आधारित हस्तक्षेप और दीर्घकालिक उद्देश्यों को प्राथमिकता दे सकते हैं।
  • हालाँकि, इसे जन आबादी के तत्काल स्वास्थ्य चिंताओं की व्यावहारिक स्वीकृति द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए। अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा विभागों के प्रबंधन के समान ही स्वास्थ्य मंत्रालयों को निर्वाचित अधिकारियों के दायरे में रखना; विशेषज्ञ-संचालित निर्णयन और सार्वजनिक आकांक्षाओं के बीच एक संतुलन स्थापित करता है। यह संरचनात्मक पुनर्संरेखण यह सुनिश्चित करता है, कि स्वास्थ्य नीतियां अल्पकालिक राजनीतिक उपयोगिता के नुकसान से रक्षा करते हुए आम जनों की बढ़ती जरूरतों के अनुरूप रहें।

निष्कर्ष

  • लोकतंत्र में, सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए प्रयास स्वाभाविक रूप से, अक्सर स्वास्थ्य देखभाल प्रबंधन में अंतर्निहित कमियों से जूझता रहा है। संक्रामक रोगों से लेकर गैर-संचारी रोगों तक, भारत के सार्वजनिक स्वास्थ्य परिदृश्य के सामने मौजूद असंख्य चुनौतियाँ, अधिक समग्र और दीर्घकालिक दृष्टिकोण की मांग करती हैं। स्वास्थ्य सेवा संबंधी निर्णयन को अल्पकालिक राजनीतिक अनिवार्यताओं से अलग करके, नीति निर्माता अधिक लचीले और उत्तरदायी स्वास्थ्य देखभाल ढांचे का निर्माण कर सकते हैं। साक्ष्य-आधारित हस्तक्षेपों और समावेशी शासन के प्रति दृढ़ प्रतिबद्धता के माध्यम से, भारत आने वाली पीढ़ियों के लिए स्वास्थ्य और कल्याण को सुनिश्चित कर सकता है। साथ ही यह अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य पारिस्थितिकी तंत्र के सामने आने वाली कठिन चुनौतियों पर नियंत्रण पा सकता है।
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FAQs on The Hindu Editorial Analysis- 31st January 2024 - Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly - UPSC

1. सार्वजनिक स्वास्थ्य पहलों में चुनौतियां और विषमताएँ क्या हैं?
उत्तर: सार्वजनिक स्वास्थ्य पहलों में चुनौतियां और विषमताएँ विभिन्न हो सकती हैं। कुछ मुख्य चुनौतियां शामिल हो सकती हैं, जैसे अपर्याप्त स्वास्थ्य बजट, अधिकारिक नीतियों की कमी, तकनीकी और लोगिस्टिकल समस्याएं आदि। इसके साथ ही, विषमताएँ शामिल हो सकती हैं जैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की अस्तित्व में असमानता, विभिन्न राज्यों के बीमारी प्रबंधन की विषमता, औषधि और सुविधाओं की कमी आदि।
2. सार्वजनिक स्वास्थ्य पहलों में वित्तीय संकट की वजह से क्या समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं?
उत्तर: सार्वजनिक स्वास्थ्य पहलों में वित्तीय संकट की वजह से कई समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। इससे अपर्याप्त और अधीनस्थ स्वास्थ्य सुविधाएं हो सकती हैं। वित्तीय संकट के कारण सरकारों को स्वास्थ्य सेवाओं के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं हो सकता है और इससे जनता को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करने में दिक्कतें आ सकती हैं। यह वित्तीय संकट सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और पहुंच पर भी असर डाल सकता है।
3. सार्वजनिक स्वास्थ्य पहलों में अधिकारिक नीतियों की कमी किस प्रकार समस्याएं उत्पन्न कर सकती है?
उत्तर: सार्वजनिक स्वास्थ्य पहलों में अधिकारिक नीतियों की कमी कई समस्याएं उत्पन्न कर सकती हैं। यह स्थानीय स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता और पहुंच पर असर डाल सकती है। अधिकारिक नीतियों की कमी से लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करने में असुविधा हो सकती है और इससे देश में स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ सकती हैं।
4. विभिन्न राज्यों के बीमारी प्रबंधन में कैसी विषमताएँ हो सकती हैं?
उत्तर: विभिन्न राज्यों के बीमारी प्रबंधन में कई विषमताएँ हो सकती हैं। इसके कारण राज्यों के बीमारी प्रबंधन के स्तर पर असमानता हो सकती है। यह असमानता स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और पहुंच पर असर डाल सकती है। विभिन्न राज्यों के बीमारी प्रबंधन में विषमताएँ शामिल हो सकती हैं जैसे वैश्विक रोग बहुतांत्रिका (पीडीएस), संक्रमण के लिए पर्याप्त साधारण औषधि उपलब्ध न होना, विभिन्न राज्यों के बीमारी प्रबंधन के निर्धारित मानकों में असमानता आदि।
5. सार्वजनिक स्वास्थ्य पहलों में औषधि और सुविधाओं की कमी किस प्रकार समस्याएं उत्पन्न कर सकती है?
उत्तर: सार्वजनिक स्वास्थ्य पहलों में औषधि और सुविधाओं की कमी से कई समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। यह स्थानीय स्तर पर स
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