संस्कृत साहित्य में जिन पद्यों (श्लोकों) में सार्वभौमिक सत्य को सुचारु रूप से प्रस्तुत किया है उनको ‘सुभाषित’ कहा जाता है। प्रस्तुत पाठ में 10 सुभाषितों का संग्रह है। इनमें परिश्रम का महत्त्व, क्रोध का दुष्प्रभाव, मानव प्रकृति, वस्तुओं की उपादेयता, बुद्धि की विशेषता आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
शरीर में स्थित आलस्य ही मनुष्यों का महान् शत्रु है और परिश्रम समान कोई बन्धु नहीं है जिसको करके मनुष्य दुःखी नहीं होता। गुणी मनुष्य ही गुण को जानता है निर्गुण नहीं, बलवान बल को जानता है निर्बल नहीं, वसन्त का गुण कोयल जानती है कौआ नहीं, शेर का बल हाथी जानता है चूहा नहीं। जो मनुष्य किसी कारण से क्रोधित होते हैं। उस कारण की समाप्ति पर प्रसन्न हो जाते हैं। परंतु जो अकारण क्रोधी हैं उनको कौन संतुष्ट कर सकता है? कही गई बात का अर्थ तो पशु, हाथी, घोड़े आदि भी जान लेते हैं। लेकिन ज्ञानीजन वह है जो न कहा गया भी जान ले। मनुष्यों के देह विनाश के लिए देह में ही स्थित प्रथम शत्रु क्रोध ही है। जैसे काष्ठ में स्थित अग्नि ही काष्ठ को जला डालती है वैसे ही शरीरस्थ क्रोध मानव शरीर को जला देता है। मित्रता समान शील और व्यवहार में होती है। जैसे मृग मृगों के साथ, गाएँ गायों के साथ विचरण करते हैं वैसे ही मूर्ख मूों के साथ और बुद्धिमान ज्ञानियों के साथ मैत्री करते हैं। फल व छायायुक्त महावृक्ष संरक्षण के योग्य है यदि दुर्भाग्य से वृक्ष फलहीन है तो छाया तो सदैव देता ही है। अक्षर मन्त्रहीन नहीं होता, औषधि मूल हीन नहीं होती, पुरुष अयोग्य नहीं होता। वहाँ योजक दुर्लभ है अर्थात् पारखी ही वस्तु की परख रखता है। महान् पुरुष सम्पत्ति और विपत्ति में समभाव होते हैं जैसे सूर्य उदय व अस्त समय एक ही रूप (रक्त वर्ण) होता है। इस विचित्र संसार में कुछ भी निरर्थक नहीं है। यदि घोड़ा दौड़ने में वीर है तो गधा बोझ वहन करने में। अर्थात् सबकी अपनी उपयोगिता है।
24 videos|77 docs|20 tests
|
24 videos|77 docs|20 tests
|
|
Explore Courses for Class 10 exam
|