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सूरदास के पद: सार | NCERT Textbooks & Solutions for Class 10 PDF Download

सूरदास का परिचय

सूरदास हिंदी साहित्य में भक्ति-काल के एक बड़े कवि हैं, जिन्हें सगुण भक्ति के महानायक माना जाता है। उनका जन्म 1478 में रुनकता गाँव में हुआ। सूरदास ने कई किताबें लिखीं, जिनमें "सूरसागर," "साहित्य लहरी," और "सूर सारावली" शामिल हैं, और "सूरसागर" सबसे प्रसिद्ध है। उन्होंने अपनी रचनाओं में वात्सल्य, श्रृंगार, और शांत रस को प्रमुखता से दर्शाया। उनके अनुसार, सच्ची भक्ति ही मोक्ष पाने का सही रास्ता है, और उन्होंने भक्ति को ज्ञान से भी महत्वपूर्ण समझा। उनके काव्य में भक्ति, प्रेम, वियोग, और श्रृंगार की भावनाओं को बहुत सुंदरता से चित्रित किया गया है।

सूरदाससूरदास

सूरदास के पद : व्याख्या

(1)

उधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी में पाँव न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
'सूरदास' अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।

व्याख्या-इन पंक्तियों में गोपियाँ उद्धव से व्यंग्य करती हैं, कहती हैं कि तुम बहुत ही भाग्यशाली हो जो कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम और स्नेह से वंचित हो। तुम कमल के उस पत्ते के समान हो जो रहता तो जल में है परन्तु जल में डूबने से बचा रहता है। जिस प्रकार तेल की गगरी को जल में भिगोने पर भी उसपर पानी की एक भी बूँद नहीं ठहर पाती,ठीक उसी प्रकार तुम श्री कृष्ण रूपी प्रेम की नदी के साथ रहते हुए भी उसमें स्नान करने की बात तो दूर तुम पर तो श्रीकृष्ण प्रेम की एक छींट भी नहीं पड़ी। तुमने कभी प्रीति रूपी नदी में पैर नही डुबोए। तुम बहुत विद्यवान हो इसलिए कृष्ण के प्रेम में नही रंगे परन्तु हम भोली-भाली गोपिकाएँ हैं इसलिए हम उनके प्रति ठीक उस तरह आकर्षित हैं जैसे चीटियाँ गुड़ के प्रति आकर्षित होती हैं। हमें उनके प्रेम में लीन हैं।

शब्दार्थ

  • ऊधौ – उद्धव  ( श्री कृष्ण के सखा / मित्र )
  • अति – बहुत , अधिकता , जिसको करने में मर्यादा का उल्लंघन या अतिक्रमण किया गया हो , सीमा से अधिक किया गया
  • बड़भागी – भाग्यवान , ख़ुशनसीब
  • अपरस –अछूता , जिसे किसी ने छुआ न हो , अस्पृश्य , अनासक्त , अलिप्त
  • सनेह – स्नेह
  • तगा – धागा / बंधन
  • नाहिन – नहीं
  • अनुरागी – प्रेम से भरा हुआ , अनुराग करने वाला , प्रेमी , भक्त , आसक्त
  • पुरइनि पात – कमल का पत्ता
  • दागी – दाग , धब्बा
  • ज्यौं – जैसे
  • माहँ – बीच में
  • गागरि – मटका
  • ताकौं – उसको
  • प्रीति नदी – प्रेम की नदी
  • पाउँ – पैर
  • बोरयौ – डुबोया
  • दृष्टि – नज़र , निगाह
  • परागी – मुग्ध होना
  • अबला – बेचारी नारी , जिसमें बल न हो , असहाय , कमज़ोर
  • भोरी – भोली
  • गुर चाँटी ज्यौं पागी – जिस प्रकार चींटी गुड़ में लिपटती है

गोपियाँ गोपियाँ 

(2)

मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि असार आस आवन की,तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि,बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उर तैं धार बही ।
'सूरदास'अब धीर धरहिं क्यौं,मरजादा न लही।।

व्याख्या- इन पंक्तियों में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि उनकी मन की बात मन में ही रह गयी। वे कृष्ण से बहुत कुछ कहना चाहती थीं परन्तु अब वे नही कह पाएंगी। वे उद्धव को अपने सन्देश देने का उचित पात्र नही समझती हैं और कहती हैं कि उन्हें बातें सिर्फ कृष्ण से कहनी हैं, किसी और को कहकर संदेश नहीं भेज सकती। वे कहतीं हैं कि इतने समय से कृष्ण के लौट कर आने की आशा को हम आधार मान कर तन मन, हर प्रकार से विरह की ये व्यथा सह रहीं थीं ये सोचकर कि वे आएँगे तो हमारे सारे दुख दूर हो जाएँगे। परन्तु श्री कृष्ण ने हमारे लिए ज्ञान-योग का संदेश भेजकर हमें और भी दुखी कर दिया। हम विरह की आग मे और भी जलने लगीं हैं। ऐसे समय में कोई अपने रक्षक को पुकारता है परन्तु हमारे जो रक्षक हैं वहीं आज हमारे दुःख का कारण हैं। हे उद्धव, अब हम धीरज क्यूँ धरें, कैसे धरें. जब हमारी आशा का एकमात्र तिनका भी डूब गया। प्रेम की मर्यादा है कि प्रेम के बदले प्रेम ही दिया जाए पर श्री कृष्ण ने हमारे साथ छल किया है उन्होने मर्यादा का उल्लंघन किया है।

शब्दार्थ

  • माँझ – अंदर ही
  • जाइ – जा कर
  • अवधि – समय
  • अधार –आधार ,  अवलंब , सहारा , नींव
  • आस – आशा , किसी कार्य या बात के पूर्ण हो जाने की उम्मीद , इच्छा , विश्वास , उम्मीद , संभावना
  • आवन –आने की
  • बिथा – व्यथा , मानसिक या शारीरिक क्लेश , पीड़ा , वेदना , चिंता , कष्ट
  • जोग सँदेसनि – योग के संदेशों को
  • बिरहिनि – वियोग में जीने वाली
  • बिरह दही – विरह की आग में जल रही हैं
  • हुती – थीं
  • गुहारि –रक्षा के लिए पुकारना
  • जितहि तैं – जहाँ से
  • उत तैं- उधर से
  • धार – योग की धारा
  • धीर – धैर्य
  • धरहिं – धारण करें / रखें
  • मरजादा –मर्यादा
  • लही – रही

(3)

हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम  बचन नंद -नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस - निसि, कान्ह- कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ 'सूर' तिनहिं लै सौपौं, जिनके मन चकरी ।।

व्याख्या-इन पंक्तियों में गोपियाँ कहती हैं कि कृष्ण उनके लिए हारिल की लकड़ी हैं। जिस तरह हारिल पक्षी लकड़ी के टुकड़े को अपने जीवन का सहारा मानता है उसी प्रकार श्री कृष्ण भी गोपियों के जीने का आधार हैं। उन्होंने  मन कर्म और वचन से नन्द बाबा के पुत्र कृष्ण को अपना माना है। गोपियाँ कहती हैं कि जागते हुए, सोते हुए दिन में, रात में, स्वप्न में हमारा रोम-रोम कृष्ण नाम जपता रहा है। उन्हें उद्धव का सन्देश कड़वी ककड़ी के समान लगता है। हमें कृष्ण के प्रेम का रोग लग चुका है अब हम आपके कहने पर योग का रोग नहीं लगा सकतीं क्योंकि हमने तो इसके बारे में न कभी सुना, न देखा और न कभी इसको भोगा ही है। आप जो यह योग सन्देश लायें हैं वो उन्हें जाकर सौपें जिनका मन चंचल हो चूँकि हमारा मन पहले ही कहीं और लग चुका है।

शब्दार्थ

  • हरि – श्री कृष्ण
  • हारिल – ऐसा पक्षी , जो अपने पैरों में लकड़ी दबाए रहता है
  • लकरी – लकड़ी
  • क्रम – कार्य
  • नंद – नंदन – नंद का पुत्र अर्थात श्री कृष्ण
  • उर – हृदय
  • दृढ़ – मज़बूती से / दृढ़तापूर्वक
  • पकरी- पकड़ी
  • जागत – जागना
  • सोवत – सोना
  • दिवस – दिन
  • निसि – रात
  • जक री – रटती रहती हैं
  • जोग – योग का संदेश
  • करुई – कड़वी
  • ककरी – ककड़ी / खीरा
  • सु – वह
  • ब्याधि – रोग
  • तिनहिं – उनको
  • मन चकरी – जिनका मन स्थिर नहीं रहता 
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(4)

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं हीं , अब गुरु ग्रंथ पढाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी , जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के , पर हित डोलत धाए।
अब अपने  मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन ,जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै ' सूर', जो प्रजा न जाहिं सताए।।

अर्थ -गोपियाँ कहतीं हैं कि श्री कृष्ण ने राजनीति पढ़ ली है। गोपियाँ बात करती हुई व्यंग्यपूर्वक कहती हैं कि वे तो पहले से ही बहुत चालाक थे पर अब उन्होंने बड़े-बड़े ग्रन्थ पढ़ लिए हैं जिससे उनकी बुद्धि बढ़ गई है तभी तो हमारे बारे में सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने हमारे पास उद्धव से योग का सन्देश भेजा है। उद्धव जी का इसमे कोई दोष नहीं है, ये भले लोग हैं जो दूसरों के कल्याण करने में आनन्द का अनुभव करते हैं। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं की आप जाकर कहिएगा कि यहाँ से मथुरा जाते वक्त श्रीकृष्ण हमारा मन भी अपने साथ ले गए थे, उसे वे वापस कर दें। वे अत्याचारियों को दंड देने का काम करने मथुरा गए हैं परन्तु वे स्वयं अत्याचार करते हैं। आप उनसे कहिएगा कि एक राजा को हमेशा चाहिए की वो प्रजा की हित का ख्याल रखे। उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचने दे, यही राजधर्म है।

शब्दार्थ

  • पढ़ि आए – पढ़कर / सीखकर आए
  • मधुकर – भौरा , गोपियों द्वारा उद्धव के लिए प्रयुक्त संबोधन
  • पाए – प्राप्त करना
  • पठाए – भेजा
  • आगे के – पहले के
  • पर हित- दूसरों की भलाई के लिए
  • डोलत धाए – घूमते – फिरते थे
  • फेर – फिर से
  • पाइहैं – चाहिए
  • हुते – थे
  • आपुन – अपनों पर
  • अनीति – अन्याय
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सूरदास – पद पाठ का सार

  • सूरदास के काव्य ‘सूरसागर’ में संकलित ‘भ्रमरगीत’ में गोपियों की प्रेम-वियोग पीड़ा को चित्रित किया गया है। उद्धव, जो प्रेम के संदेश के स्थान पर श्री श्रीकृष्ण के योग-संदेश लाने के लिए आए थे, उसकी ओर गोपियों ने व्यंग्य-बाण छोड़ दिए हैं। इन व्यंग्य-बाणों में गोपियों की उत्कट आक्रोशित भावना है, साथ ही श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम भी प्रकट हो रहा है। इस तरह ये पद श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम और प्रेम-वियोग का वर्णन करते हैं।

  • पहले पदमें दिखाया गया है कि यदि उद्धव प्रेम के बंधन में बँधे होते तो वह निश्चित रूप से प्रेम-वियोग की पीड़ा को समझ सकता। उद्धव कितने भाग्यशाली हैं कि वह श्रीकृष्ण के पास रहते हुए भी प्रेम-बंधन में नहीं बँध सके। वे कमल-पत्र और तेल से युक्त घड़े की तरह हैं, जिस पर पानी जमा ही नहीं होता। उन्होंने प्रेम-नदी में अपना पैर भी नहीं डुबोया। गोपियाँ ही एक ऐसी भोली और कमजोर हैं, जो नहीं जानती कि क्यों प्रेम के बंधन में ऐसे ही बँधी चली जाती हैं, जैसे चींटियाँ गुड़ से चिपटी चली जाती हैं।

  • दूसरे पदमें गोपियों ने श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम की गहराई को व्यक्त किया है। गोपियाँ ऐसे ही मन में दुःख और आकांक्षाएँ रखती हैं। गोपियाँ कहती हैं कि मन की इच्छाएँ मन में ही बनी रह गईं। हम श्रीकृष्ण के आने की प्रतीक्षा में दुख को सह रहे थे। अब उनके द्वारा भेजे गए योग-साधना के संदेश ने हमारे दुःख को और बढ़ा दिया है। इस अवस्था में हमें कैसे संतुलन रखना चाहिए?

  • तीसरे पद में गोपियों ने योग-साधना के संदेश को बहुत कड़वा और तीखा माना है, और श्रीकृष्ण के प्रति अपने निष्ठापूर्ण प्रेम में दृढ़ विश्वास प्रकट किया है। गोपियाँ हारिल के लकड़ी की तरह श्रीकृष्ण को छोड़ने में असमर्थ होने का दावा करती हैं, वह कहती हैं कि श्रीकृष्ण के बिना जीना संभव नहीं है। योग-साधना का यह संदेश तेज खट्टा जैसा प्रतीत होता है। वह एक ऐसी बीमारी है, जिसे हमने कभी नहीं देखा, न सुना, न ही अनुभव किया है। गोपियों के मुताबिक योग के विचार सिर्फ उन्हीं के लिए उचित हो सकते हैं, जिनका मन चाकरी के समान चंचल होता है।

  • चौथे पद में गोपियाँ बोलती हैं कि श्रीकृष्ण पहले से ही चतुर और योग्य थे। उसके साथ इस विषय में उद्धव की शिक्षा लेने से वह और भी चतुर और बुद्धिमान हो गए हैं। गोपियाँ फिर सोचती हुई राजनीति को याद दिलाती हैं और कहती हैं कि पहले लोग राजनीति में रहकर अपने प्रजा का हित करते थे, लेकिन अब तो वे स्वयं ही अन्याय करने लगे हैं। राजनीति के अनुसार प्रजा को सताना नहीं चाहिए।
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FAQs on सूरदास के पद: सार - NCERT Textbooks & Solutions for Class 10

1. सूरदास कौन थे और उनका योगदान क्या था?
Ans. सूरदास एक महान भक्त कवि और संत थे, जिन्होंने 15वीं से 16वीं सदी के दौरान भारत में जन्म लिया। वे विशेष रूप से भगवान कृष्ण के भक्त रहे हैं और उनकी रचनाएं मुख्य रूप से कृष्ण भक्ति पर केंद्रित हैं। सूरदास ने हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया और उनकी कविताएं आज भी लोकप्रिय हैं।
2. सूरदास के पद किस प्रकार के होते हैं?
Ans. सूरदास के पद सरल और भावुक होते हैं। इनमें प्रेम, भक्ति, और कृष्ण की लीलाओं का वर्णन होता है। उनके पदों में गीतात्मकता और गहराई होती है, जिससे पाठकों को कृष्ण की भक्ति का अनुभव होता है।
3. सूरदास की प्रसिद्ध रचनाएं कौन सी हैं?
Ans. सूरदास की सबसे प्रसिद्ध रचना 'सूरसागर' है, जिसमें भगवान कृष्ण की लीलाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसके अलावा, उनके कई अन्य पद भी प्रसिद्ध हैं जो कृष्ण भक्ति को दर्शाते हैं।
4. सूरदास के पदों की विशेषताएँ क्या हैं?
Ans. सूरदास के पदों की विशेषताएँ हैं उनकी सरल भाषा, भावनात्मक गहराई, और भक्ति का अद्भुत चित्रण। उनके पदों में लोक जीवन और धार्मिकता का समावेश होता है, जो उन्हें आम जन के करीब लाता है।
5. सूरदास की भक्ति में कौन से तत्व प्रमुख हैं?
Ans. सूरदास की भक्ति में प्रमुख तत्व हैं प्रेम, समर्पण, और भक्तिभाव। वे भगवान कृष्ण को अपने सखा, प्रेमी और आराध्य के रूप में मानते हैं, और उनके पदों में यह भावनाएँ प्रकट होती हैं।
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