VI. प्राकृतिक गैस
प्राकृतिक गैस के भंडार स्वतंत्रा रूप से भी मिलते हैं और प्राकृतिक तेल के भंडार के साथ भी मिलते हैं। किंतु, प्राकृतिक गैस का अधिकांश उत्पादन प्राकृतिक तेल के भंडारों के साथ ही हो रहा है। प्राकृतिक गैस के भंडार त्रिपुरा, राजस्थान के साथ-साथ गुजरात के कैंबे की खाड़ी, बंबई हाई, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश और उड़ीसा के अपतटीय क्षेत्रों में पाये जाते हैं।
भारत जैसे ऊर्जा की कमी वाले देशों के लिए प्राकृतिक गैस एक प्राकृतिक वरदान है। इसे ऊर्जा के स्रोत के रूप में (ताप-ऊर्जा के रूप में) और पेट्रो-रसायन उद्योग के लिए कच्चा माल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। प्राकृतिक गैस वाले ऊर्जा-संयंत्रा को बनाने में समय भी कम लगता है। भारत में प्राकृतिक गैस पर आधारित उर्वरक संयंत्रा लगाकर भारतीय कृषि को प्रोत्साहन दिया जा सकता है। इन्हें गैस पाईप लाइनों द्वारा आसानी से वितरित भी किया जा सकता है, जिससे इनकी ढुलाई की जरूरत नहीं रह जायेगी। आजकल बंबई तथा गुजरात के गैस भंडारों से गैस मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में लाया जा रहा है।
1984 में प्राकृतिक गैस के ढुलाई, प्रसंस्करण तथा विपणन के लिए भारतीय गैस प्राधिकार निगम (GAIL) का गठन किया गया। इसे 180 लाख क्यूबिक मीटर प्राकृतिक गैस प्रतिदिन आपूर्ति क्षमता वाले 1,730 किमी. लंबी हजीरा, बीजापुर, जगदीशपुर (HBT) पाईपलाईन बिछाने का कार्यभार सौंपा गया। यह 6 उर्वरक संयंत्रों और 3 ऊर्जा संयंत्रों को प्राकृतिक गैस की आपूर्ति करेगा। यह पाईपलाईन हजीरा से शुरू होकर (गुजरात में) बीजापुर (मध्य प्रदेश में) जाती है और वहां से जगदीशपुर (उ.प्र.) में आकर खत्म हो जाती है। बीजापुर से एक शाखा निकलकर सवाई माधोपुर (राजस्थान) जाती है। HBJ गैस पाईप लाईन दक्षिणी गैस ग्रिड का एक भाग है, जिसका निर्माण इस योजना के तहत किया गया है कि पश्चिमी अपतटीय क्षेत्रों से मिलने वाली अधिशेष प्राकृतिक गैस का और मध्य-पूर्व देश से आयात होनेवाली प्राकृतिक गैस का उचित वितरण हो सके। ओमान से भारत तक 2300 कि.मी. लंबी गैस पाईप लाईन बिछाने की योजना है ताकि सारे दक्षिणी राज्यों को गैस की आपूर्ति की जा सके।
1998 -99 के दौरान प्राकृतिक गैस का उत्पादन 27.427 अरब घन मीटर था, जबकि 1997 -98 में यह 26.401 अरब घन मीटर था। 1998 - 99 में 22.163 अरब घन मीटर गैस का इस्तेमाल किया गया, जबकि 1997 -98 में यह 21.043 अरब घन मीटर था। वर्ष 2016-17 में प्राकृतिक गैस का उत्पादन 273.8 बीसीएम अरब क्यूबिक मीटर था।
विद्युत-ऊर्जा
1910 में कर्नाटक में शिवसमुद्रम में जल-विद्युत संयंत्रा की स्थापना के साथ भारत में ऊर्जा-उत्पादन के विकास की शुरुआत हुई। हालांकि, आजादी के बाद भारत ने ऊर्जा-उत्पादन के क्षेत्र में अभूतपूर्व सफलता पाई है लेकिन तीव्र औद्योगिकीकरण और शहरीकरण तथा आर्थिक-सामाजिक विकास की तीव्रता के कारण ऊर्जा की मांग में उससे भी अधिक तेजी से वृद्धि हुई। 1947 में मात्रा 1,400 मेगावाट का उत्पादन हुआ, जो 1995 - 96 तक बढ़कर 83,288 मेगावाट हो गया, जिसमें 20,976 मेगावाट जल-विद्युत, 60,087 मेगावाट ताप-विद्युत तथा 2,225 मेगावाट परमाणु-विद्युत था। इस प्रकार, कुल ऊर्जा उत्पादन का 74% जल-विद्युत परियोजना से, 24% ऊर्जा ताप-विद्युत संयंत्रा से और मात्रा 2% परमाणु-विद्युत संयंत्रा से उत्पादित हुऔ। ऊर्जा-उत्पादन 2016-17 तक बढ़कर 1433.4 TWh हो गया,
विद्युत ऊर्जा का एक बहुमुखी स्रोत है, चाहे वह जल-विद्युत हो या ताप-विद्युत या परमाणु-विद्युत। इसकी मांग बहुत अधिक है। 50% विद्युत-ऊर्जा उद्योगों में, 25% कृषि में तथा शेष यातायात तथा अन्य घरेलू कार्यों में खर्च होता है।
VIII. ताप-विद्युत
कोयला, पेट्रालियम और प्राकृतिक गैस ताप-विद्युत ऊर्जा के मुख्य स्रोत हैं। इन स्रोतों को जीवाश्म ईंधन भी कहा जाता है। इनकी सबसे बड़ी खामी यह है कि इनका नवीनीकरण नहीं किया जा सकता है। साथ ही, जल-विद्युत की तरह ये प्रदूषण-मुक्त नहीं हैं।
ताप-विद्युत संयंत्रा मुख्यतः बड़े औद्योगिक क्षेत्रों तथा कोयला के खानों वाले प्रदेशों में हैं। देश की कुल ताप-विद्युत उत्पादन क्षमता का 14% महाराष्ट्र में, 13.2% प. बंगाल में, 12.8% उत्तर प्रदेश में, 12.2% गुजरात में, 12% बिहार एवं झारखण्ड़ में, 9.4% तमिलनाडु में, 7.8% मध्य प्रदेश में, 5.9% आंध्र प्रदेश और 5.2% दिल्ली में होता है।
1975 में ताप-विद्युत उत्पादन के विकास के लिए एक केन्द्रीय निकाय के रूप में नई दिल्ली में राष्ट्रीय ताप-विद्युत कारपोरेशन की स्थापना की गई। इसका कार्य सुपर ताप विद्युत संयत्रों की स्थापना करके विद्युत आपूर्ति की मांग को पूरा करना था। 1982 में इतने सबसे पहला 200 मेगावाट का ताप-विद्युत संयंत्रा सिंगरौली में लगाया। आज यह 155,969 मेगावाट ताप-विद्युत का उत्पादन कर रहा है, जो देश के कुल ताप-विद्युत उत्पादन क्षमता का 52% है। इस कारपोरेशन के सुपर ताप-विद्युत संयंत्रा निम्नलिखित स्थानों पर हैं- सिंगरौली (उ.प्र.), कोरबा (म.प्र.), रामगुंडम (आ.प्र.), फरक्का (प. बंगाल), विन्ध्याचल (म.प्र.), रिहन्द (उ.प्र.), दादरी (उ.प्र.), कहलगांव (बिहार), तालचर (उड़ीसा) और पांच संयुक्त गैस विद्युत परियाजनाएं अन्टा (राजस्थान), औरिया (उ.प्र.), दादरी (उ.प्र.), कावस (गुजरात) और गंधार (गुजरात)।
IX. जल-विद्युत
जल-संसाधन से समृद्ध क्षेत्रों में जल ऊर्जा प्राप्त करने का सबसे सस्ता और प्रदूषण-रहित स्रोत है। जल से प्राप्त किये गये विद्युत को जल-विद्युत कहा जाता है। कोयला, तेल और लिग्नाईट के भंडार सीमित होने के कारण जल-विद्युत तथा परमाणु-विद्युत पर अधिक जोर दिया जाने लगा है।
प्राप्ति क्षेत्र - भारत में जल-संसाधन प्रचुरता से उपलब्ध है। भारत के महत्वपूर्ण जल-विद्युत वाले क्षेत्र निम्नांकित हैं-
1. सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हिमाचल की तराई वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश हैं, जहां जहां 50,000 मेगावाट जल-विद्युत उत्पादन क्षमता है;
2. उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में जल-विद्युत उत्पादन की बहुत क्षमता है;
3. महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल से गुजरने वाले पश्चिमी घाट वाले प्रदेश में;
4. मध्य भारत में सतपुड़ा, विन्ध्य, महादेव और मैकाल पर्वत श्रेणी वाले क्षेत्र हैं;
5. पूर्व में नागपुर से पश्चिम में गोंडवाना क्षेत्र तक के ताप-विद्य़ुत वाले क्षेत्र में।
जल-विद्युत का विकास - 1897 में दार्जलिंग में भारत में सबसे पहला जल-विद्युत संयंत्रा लगाया गया। दूसरा संयंत्रा 1902 ई. में कर्नाटक के शिवसमुद्रम में लगाया गया। 1951 में कुल जल-विद्युत उत्पादन मात्रा 588 मेगावाट था जो 2016.17 में बढ़कर 39,788 मेगावाट हो गया।
जल-विद्युत की विशेषताएं- शुरू में जल-विद्युत परियोजना में अधिक लागत लगाने के बावजूद यह अन्य विद्युत परियोजनाओं से कई कारणों से अधिक लाभकारी है। जल-विद्युत सस्ता तो पड़ता ही है, साथ ही यह नवीनीकरण योग्य भी है (क्योंकि जल एक नवीनीकरण योग्य संसाधन है)। दूसरे शब्दों में, जल-विद्युत संयंत्रा से जल-विद्युत उत्पादन तथा रख-रखाव सस्ता है जबकि ताप-विद्युत संयंत्रों में भारी मात्रा में कोयले की खपत के कारण विद्युत उत्पादन मंहगा पड़ता है। जल-विद्युत निर्माण में न तो कचड़ों को ठिकाने लगाने की समस्या होती है और न ही प्रदूषण होता है। कोयला, प्राकृतिक तेल और गैस से चलने वाले ताप-विद्युत संयंत्रों के लिए विदेशों से कच्चा माल मंगाना पड़ेगा, जिससे देश के विदेशी-मुद्रा भंडार पर भी दबाव पड़ेगा। जल-विद्युत परियोजना से विद्युत-उत्पादन के साथ-साथ सिंचाई की सुविधा भी प्राप्त होती है।
जल विद्युत के क्षेत्र में समस्याएं- केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण के आकलन के अनुसार हमारे देश की कुल जल-विद्युत उत्पादन क्षमता 60% भार-घटक (लोड फैक्टर) पर 89,830 मेगावाट है। अभी तक हम इसके 45% अंश का ही देाहन कर पा रहे हैं। ऐसा शायद इसलिए है कि जल-विद्युत परियोजनाओं में प्रारंभिक दौर में भारी लागत आती है और निर्माण में लंबा समय भी लगता है। जल-विद्युत परियोजना की दूसरी समस्या यह है कि इससे लोगों का विस्थापन होता है और उर्वर भूमि का एक विशाल भाग जलमग्न हो जाता है। लंबे निर्माण काल से बचने का कोई उपाय तो नहीं है लेकिन जनसंख्या के विस्थापन और उर्वर-भूमि तथा पर्यावरण की भारी क्षति को देखते हुए विशाल डैमों की जगह अब नदी के उद्गम क्षेत्र पर ही डैम बनाया जाने लगा है। हालांकि, पहाड़ी के तराई क्षेत्र में डैम बनाने से सिंचाई की सुविधा भी मिलती है, लेकिन उद्गम क्षेत्र वाले डैम पहाड़ों पर ऊंचाईयों पर बनाये जाते हैं, जो मैदानों से बहुत दूर होते हैं। इसलिए इनसे सिंचाई-सुविधा नहीं मिलती है। ऐसी परियोजना में बड़े जलाशय बनाने की जरूरत नहीं पड़ती है और नदी में एक विशेष समय में जल की उपलब्धता से जल-विद्युत बनाया जाता है। इसमें न तो जनसंख्या का विस्थापन होता है और न ही जंगल तथा उर्वर क्षेत्र जलमग्न होते हैं। किंतु, इस विधि से विद्युत की बढ़ती मांग को पूरी नहीं किया जा सकता है। इसलिए दोनों तरह की जल-विद्युत परियोजना को आवश्यकतानुसार मिश्रित रूप से अपनाये जाने की जरूरत है।
X. परमाणु-ऊर्जा
कोयला, प्राकृतिक तेल और गैस की कमी के कारण भारत में परमाणु-ऊर्जा के विकल्प को अपनाना जरूरी हो गया। आज देश के कुल विद्युत उत्पादन का 3% भाग परमाणु-ऊर्जा से आता है। भारत में 1969 में विदेशी सहयोग से तारापुर में प्रथम परमाणु-ऊर्जा संयंत्रा की स्थापना से परमाणु-ऊर्जा के निर्माण का प्रांरभ हुआ। 1983 में मद्रास के निकट कल्पक्कम में भारत ने स्वनि£मत परमाणु ऊर्जा संयंत्रा लगाकर अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। उसके बाद परमाणु-ऊर्जा संबंधी हर क्षमता को भारत ने प्राप्त कर लिया है।
तीन-चरण वाला कार्यक्रम- 1954 में डा. होमी जहांगीर भाभा ने यूरेनियम तथा थोरियम के भारत के विपुल भंडार से परमाणु-ऊर्जा बनाकर भारत को इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए यह कार्यक्रम बनाया।
प्रथम चरण- इसमें प्राकृतिक यूरेनियम (U-238) को सम्पीड़ित भारी जल रिएक्टर में ईंधन के रूप में इस्तेमाल कर विद्युत एवं प्लूटोनियम बनाये जाने का कार्यक्रम है।
द्वितीय चरण- प्लूटोनियम को तीव्र प्रजनक रिएक्टर (फास्ट ब्रीडर रिएक्टर) में डालकर थोरियम से अतिरिक्त प्लूटोनियम/U-233 बनाना।
तृतीय चरण- विकसित चक्रीय ईंधन और रिएक्टर प्रणाली (जो अभी विकसित की जा रही है) में थोरियम U-233 का इस्तेमाल किया जायेगा।
प्रथम चरण व्यवसायिक तौर पर शुरू हो चुका है। 1969 में तारापुर में प्रथम परमाणु-ऊर्जा संयंत्रा की स्थापना से भारत में परमाणु-ऊर्जा का निमार्ण शुरू हुआ। देश के 5 राज्यों में कार्यशील 5 परमाणु-ऊर्जा संयंत्रों की कुल विद्युत-उत्पादन क्षमता 4780 मेगावाट है। भारत ने परमाणु-ऊर्जा कार्यक्रम के दूसरे चरण में 1985 में प्रवेश किया, जब कलपक्कम में 40 मेगावाट ताप-विद्युत तथा 13 मेगावाट विद्युत-ऊर्जा वाले तीव्र प्रजनक रिएक्टर की स्थापना की गई।
भारत ने परमाणु-ऊर्जा कार्यक्रम के तीसरे चरण में भी प्रवेश कर लिया है। U-233 ईंधन बनाकर इसे छोटी रिएक्टर प्रणाली में परीक्षित किया जा चुका है, और थोरियम/U-233 ईंधन चक्र वाली भारी जल वाले रिएक्टर प्रणाली का विकास किया जा रहा है। एक दीर्घकालिक योजना के अंतर्गत भारत द्वारा थोरियम रिएक्टर पर निर्भर होने के निम्नांकित कारण हैं-
1. थोरियम से बनाये गये U-233 से चक्रीय प्रक्रिया चलती रहेगी और बाहर से विखंडक पदार्थ डालने की जरूरत नहीं रहेगी।
2. प्राकृतिक यूरेनियम की तुलना में थोरियम में ताप-विद्युत पैदा करने की क्षमता अधिक है।
3. भारत में यूरेनियम से पांच गुणा अधिक थोरियम उपलब्ध है।
4. तीव्र प्रजनक रिएक्टर में थोरियम अािक उपयुक्त होते हैं।
परमाणु-ऊर्जा के खनिज - भारत कई परमाणु-खनिज के मामले में समृद्ध है। बिहार के सिंहभूम जिले के जादूगोड़ा के खानों से तथा राजस्थान से यूरेनियम मिलता है। केरल के तट के मोनाजा ईंट बालू में थोरियम और यरेनियम प्रचुरता से मिलते हैं। मालाबार तथा कोरोमंडल तट के बालू से इलमेनाईट और जिरकोनियम मिलता है। मध्य प्रदेश और तमिलनाडु में ग्रेफाईट मिलता है।
XI. ऊर्जा के गैर-परंपरागत संसाधन
ऊर्जा की मांग में दिनोंदिन वृद्धि हो रही है और आपूर्ति और मांग के बीच अंतर बढ़ता जा रहा है। ऊर्जा के पंरपरागत स्रोत भी तेजी से खत्म होते जा रहे हैं। इन स्थितियों के कारण और ग्रामीण क्षेत्रों में ऊर्जा को उपलब्ध कराने के लिए ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों की खोज शुरू हुई। सूरज, हवा, ज्वारभाटायें, समुद्र, भूगर्भीय ताप, बायोमास, बायोगैस, खेत तथा स्रोत हैं। भारत में नवीनीकरण-योग्य और कभी-न खत्म होने वाले इन संसाधनों की कमी नहीं है। ऊर्जा के इन संसाधनों से ऊर्जा के उत्पादन का विकेन्द्रीकरण तो संभव है ही, साथ में इनसे पर्यावरण संतुलन भी नहीं बिगड़ता है।
XII. सौर ऊर्जा
भारत को प्रतिवर्ष 50,000 खरब किलोवाट सौर ऊर्जा प्राप्त होती है। देश के अधिकतर भागों में हर साल तीन सो दिन घूप चमकती रहती है। प्रति वर्ग किलोमीटर इलाके में 20 मेगावाट सौर बिजली का उत्पादन किया जा सकता है। इस समय सौर ऊर्जा को दो भिन्न माध्यमों से प्रयोग में लाया जा रहा है-सौर तापीय माध्यम एवं सौर फोटोवोल्टेइक माध्यम। देश में ही किए अनुसंधान एवं विकास के आधार पर सैलों और पैनलों के निर्माण के प्रौद्योगिकी का विकास एवं व्यावसायिकीकरण किया गया है। भारत उन 6 देशों में से एक है जिन्होंने पाॅलीसिलिकाॅन पदार्थ के निर्माण की प्रौद्योगिकी विकसित की है। लगभग 9.5 मेगावाट के माॅडयूल उत्पादन का स्तर हासिल कर लिया गया है जो विश्व उत्पादन का 8 प्रतिशत है।
एक उष्णकटिबंधीय देश होने के कारण भारत को वर्ष में लगभग 300 दिन औसत के हिसाब 5KWH/59m सौर विकिरण ऊर्जा (SRE) मिलता है।
SRE से देश के विभिन्न क्षेत्रों में ताप-ऊर्जा एवं विद्युत-ऊर्जा की आपूर्ति की जा रही है। अबतक देश में 120 लाख जल प्रति दिन गर्म करने की क्षमता प्राप्त की जा चुकी है। शुष्क-क्षेत्रों में सौर-ऊर्जा बहुत उपयोगी साबित हो सकती है। उन क्षेत्रों में धूप हमेशा उपलब्ध रहती है जबकि ऊर्जा के अन्य संयंत्रा स्थापित करने में वहां भारी खर्च होगा। वर्तमान में सौर-फोटोवाल्टिक (SPU) प्रणाली का प्रयोग ग्रामीण तथा सुदूर क्षेत्रों में जहां विद्युत सुविधा नहीं है वहां प्रकाश, पानी तथा पम्पिंग के लिए किया जा रहा है। इसका उपयोग रेलवे सिग्नल प्रणाली, ग्रामीण दूरसंचार, पानी वाले जल के शुद्धीकरण, सिंचाई और दूरदर्शन प्रसारण के लिए भी ग्रामीण क्षेत्रो में किया जा रहा है।
XIII. पवन-ऊर्जा
भारत में कम से कम 102778 मेगावाट की पवन ऊर्जा की क्षमता आंकी गई है। लेकिन संभावित राज्यों में ग्रिड की क्षमता कम होने के कारण वर्तमान तकनीकी क्षमता लगभग 24677 मेगावाट तक ही सीमित है। जर्मनी, अमेरिका और डेनमार्क के बाद इस क्षेत्र में भारत का विश्व में चैथा स्थान है। घरेलू पवन टर्बाइन उद्योग की स्थापना के साथ एकमुश्त नीतियों के कारण भारत में पवन ऊर्जा क्षेत्र में तेजी से वृद्धि हुई है। 1998.99 में भारत में निर्मित रु. 29 करोड़ की पवन टर्बाइनों का निर्यात किया गया। पवन ऊर्जा कार्यक्रमों की सहायता के लिए मंत्रालय विश्व का सबसे बड़ा पवन संसाधन आकलन कार्यक्रम चला रहा है। पवन ऊर्जा मशीनों के निर्माताओं तथा देश में पवन फार्मों की स्थापना करने वालों को ‘इरेडा’ के जरिए वित्तीय सहायता दी जा रही है। चेन्नई में पवन ऊर्जा प्रौद्योगिकी केंद्र (सी-वेट) की स्थापना की गई है, जिसका उद्देश्य पवन-बिजली के इस्तेमाल को बढ़ावा देना तथा देश के बढ़ते हुए पवन-बिजली क्षेत्र को सहायता देना है। भारत की कुल पवन-ऊर्जा के उत्पादन के लिए उपयुक्त प्रदेश तमिलनाडु आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक और केरल में हैं। एशिया का सबसे बड़ा पवन-ऊर्जा केन्द्र गुजरात के कच्छ जिला में माण्डवी मे हैं, जिसकी क्षमता 28 मेगावाट है। एशिया का सबसे बड़ा पवन-फार्म समूह तमिलनाडू में मुप्पनडल में है, जिसकी उत्पादन क्षमता 150 मेगावाट है।
XIV. भू-ताप-ऊर्जा
पृथ्वी के भीतर प्राकृतिक प्रक्रिया से उत्पन्न ऊर्जा को भू-तापीय ऊर्जा कहते हैं। इस ऊर्जा का मुख्य स्रोत पृथ्वी के भीतर पिघली गर्म चट्टानों के लावा होते हैं, जिसे ‘मैग्मा’ कहा जाता है। पृथ्वी की ऊपरी सतह में मौजूद प्राकृतिक वाष्प, गर्म जल या पिघली चट्टानों से ताप एवं विद्युत उत्पादन के लिए भूतापीय ऊर्जा को अवशोषित किया जाता है। इसके सबसे महत्वपूर्ण स्रोत ज्वालामुखी एवं गर्म होते हैं। लेकिन दूसरे स्थानों से भी नियंत्रित विधि से भूतापीय-ऊर्जा का अवशोषण किया जा सकता है।
भारत में 800-1000C तापमान वाले 340 गर्म स्रोतों को भूतापीय ऊर्जा के स्रोत के रूप में खोजा जा चुका है। हिमाचल प्रदेश के कुल्लु जिले में मणिकन नामक स्थान पर 5 किलोमीटर क्षमता वाले एके भूताप-पायलट विद्युत संयंत्रा की स्थापना की गई है। जम्मू-कश्मीर के लद्दाख में पुग घाटी में 4.5 मेगावाट भूताप-ऊर्जा उत्पादन क्षमता वाले स्थल का पता चला है।
किसी स्थान को गर्म करने और ग्रीन हाऊस प्रभाव के संबंध में भूतापीय-ऊर्जा के महत्व की पहचान हो चुकी है। जम्मू के क्षेत्रीय शोध संस्थान में मशरूम की खेती और मुर्गीपालन में भूतापीय सोते की उपयोगिता पर अध्ययन किया जा रहा है। पुग घाटी में ग्रीन हाउस के लिए भूतापीय-ऊर्जा केन्द्र की स्थापना की जायेगीभ्।
XV. बायोमास
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में बायोमास ईंधन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। लकड़ी, घास, झाड़ियां, अनाज तथा खोई बायोमास के उदाहरण हैं। बाोमास ऊर्जा के नवीनीकरण योग्य संसाधन होते हैं। बायोमास के प्रमुख स्रोतों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है-
1. कृषि, वन तथा नगरपालिका के कूड़े-कचड़े।
2. वनों में ईंधन वाली फसलें।
बायोमास उत्पादन विकास कार्यक्रम के अंदर ईंधन, चारा और विद्युत-उत्पादन के लिए उच्च कैलोरी क्षमता वाले तेजी से बढ़नेवाले पौधों तथा पेड़ों के रोपण पर जोर दिया जा रहा है। इन्हें ऊर्जा के लिए वृक्षारोपण कहा जाता है। ऊर्जा के स्रोत होने के साथ-साथ बेकार भूमि पर लगाये जाने के कारण ये मिट्टी के अपरदन को रोकते हैं और पर्यावरण संतुलन का भी काम करते हैं। बायोमास से विद्युत-उत्पादन के लिए संयंत्रा का निर्माण स्वदेशी तकनीक से ही किया गया है।
बायोमास से इथेनोल और मेथेनोल जैसे तरल ईंधन भी बनाये जाते हैं, जिससे वाहन चलाये जाते हैं। कृषि के अवशिष्टों के गुल्ले बनाकर इनका ठोस ईंधन भी बनाया जा सकता है। वनस्पति तेलों में बहुत अधिक कैलोरी होती है और इनमें डीजल जैसी चालन क्षमता होती है, जिनका इस्तेमाल डीजल के विकल्प के रूप में किया जा सकता है।
भारत ने बायोमास से ऊर्जा प्राप्त करने में निम्नलिखित रूप से सफलता प्राप्त की है-
- पंजाब के झालखारी में BHEL द्वारा 10 मेगावाट क्षमता वाला चावल के भूसे से चलने वाला एक ताप-विद्युत संयंत्रा लगाया गया है, जो अपने प्रकार का पहला संयंत्रा है।
- दिल्ली के तिमारपुर में कूड़े-कचड़ों से विद्युत बनाने का एक पायलट संयंत्रा लगाया गया है।
- बंबई में कूड़े-कचड़ों से ईंधन वाले गुल्ले बनाने का एक संयंत्रा प्रायोगिक तौर पर चलाया जा रहा है।
- पोर्ट ब्लेयर में 100 मेगावाट क्षमता का एक गैसीफायर प्रणाली वाले संयंत्रा को स्थापित किया गया है और 15 किलोवाट के एक गन्ना और पानी से चलने वाले संयंत्रा लगाने के लिए तैयारी चल रही है।
XVI. बायोगैस
बायोगैस भी ऊर्जा का एक ऐसा स्रोत है, जो प्रचुरता से उपलब्ध प्राकृतिक कार्बनिक अवशिष्ठों से बनाया जाता है, इसे चलाना तथा रख-रखाव भी आसान है और राष्ट्रीय तथा व्यक्तिगत स्तर पर इसके बहुत सारे लाभ हैं।
बायोगैस एक प्रकार का गैसीय मिश्रण (विभिन्न अनुपातों में) है, जिसमें सामान्यतः 60% मीथेन (अच्छी किस्म का ईंधन), 40% कार्बनडाईआॅक्साईड (एक अक्रिय गैस) तथा नाइट्रोजन और हाइड्रोजन सल्फाईड जैसी कुछ गैसें भी होती हैं। कार्बनिक कचड़ों से वातनिरपेक्षीय किण्वन द्वारा बायोगैस बनाई जाती है। कार्बनिक कचड़े निम्नलिखित प्रकार के हो सकते हैं-
1. गोबर और जानवरों के मल-मूत्रा।
2. मानव के मल-मूत्रा।
3. कृषि-कार्य के बाद बचे कचड़े।
4. खाद्य-उद्योग, कागज-उद्योग, चर्म-शोधन उद्योग आदि के कचड़े।
बायोगैस बनाने के क्रम में गोबर के खाद वाले तत्व नष्ट नहीं होते हैं बल्कि बायोगैस टैंक में बचा अवशेष आॅक्सीजन, फाॅस्फोरस तथा पोटेशियम से समृद्ध खाद होता है। इसी तरह पौधों से बनाये गये बायोगैस से ऊर्जा के साथ-साथ समृद्ध प्राकृतिक खाद मिलते हैं। बायोगैस एक स्वच्छ, सस्ती और आसानी से इस्तेमाल करने लायक रसोई-गैस है। इससे प्रकाश की व्यवस्था भी की जा सकती है और कुटीर-उद्योगों के छोटे मोटरों को इससे चलाया भी जा सकता है। ग्रामीण परिवारों के लिए बायोगैस तकनीक बहुपयोगी है। इसे अपनाने से ग्रामीण महिलायें और बच्चे रोज-रोज लकड़ियों को चुनने और उनके बोझ को दूर तक ढोने की विवशता से मुक्त हो जायेंगे। चूल्हों को जलाने से जो धुआं निकलता है, उससे भी मुक्ति मिल जायेगी और आंखों में जलन तथा फेफड़े की बीमारी कम होगी। बर्तन की कालिख भी छुड़ाने से मुक्ति मिल जायेगी। जलावन के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई भी रुक जायेगी। यदि शौचालय को भी बायोगैस संयंत्रा से जोड़ दिया जाय तो गांव में स्वच्छता की भी व्यवस्था हो जायेगी।
बायोगैस तकनीक से ऊर्जा-उत्पादन होता है, जलावन में खर्च नहीं करना पड़ता है, और आॅक्सीजन, फास्फोरस और पोटेशियम से समृद्ध खाद मिलता है। अतः यह आ£थक दृष्टि से भी बहुत लाभकारी है।
XVII. समुद्री-ताप से ऊर्जा उत्पादन
भारत में समुद्री-ताप से ऊर्जा बनाने (OTEC) की काफी संभावना है। OTEC विधि से 50,000 मेगावाट ऊर्जा उत्पादन क्षमता भारत में है। OTEC के लिए विश्व के सबसे उपयुक्त क्षेत्रों में कुछ लक्षद्वीप, अंडमान और निकोबार द्वीप-समूह के क्षेत्रों में स्थित हैं। इस क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय विकास के समतुल्य विकास के लिए IIT मद्रास में एक समुद्री-ऊर्जा इकाई की स्थापना की गई है। तमिलनाडु के तट पर 100 मेगावाट क्षमता वाला एक OTEC संयंत्र होगा।
OTEC में समुद्र की ऊपरी सतह से 1000 मी. की गहराई तक से ऊर्जा को अवशोषित किया जाता है। इस ऊर्जा से विद्युत’उत्पादन के लिए इसे टरबाईन में भेजा जाता है। भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में जहां समुद्री तापमान 250C तक रहता है, OTEC से ऊर्जा-उत्पादन की व्यापक संभावना है।
OTEC तकनीक की ऊंची लागत, परिचालन संबंध बाधाएं तथा OTEC संयंत्रा की कम उत्पादन क्षमता इस विधि की सबसे बड़ी समस्याएं हैं।
XVIII. समुद्री-तरंग-ऊर्जा
समुद्र की ऊपर-नीचे उठती लहरों से ऊर्जा को शोषित करके उसे पानी से या गैस से चलनेवाले टरबाईन में डालकर विद्युत-ऊर्जा बनाई जाती है। भारत की तटरेखा लगभग 6000 किमी. है, जिससे लगभग 40,000 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्रतिवर्ष किया जा सकता है। अबर सागर और बंगाल की खाड़ी की व्यापारिक पवन वाली पट्टियां समुद्रीतरंग से ऊर्जा के उत्पादन के लिए आदर्श स्थल हैं।
समुद्री तरंग ऊर्जा नवीनीकरण योग्य और प्रदूषण रहित है, लेकिन यह काफी खर्चीली है।
भारत का प्रथम समुद्री तरंग विद्युत संयंत्रा IIT मद्रास द्वारा विजिगम में लगाया गया है, जिसकी क्षमता 150 मेगावाट है। समुद्री विकास विभाग ने विजिगम संयंत्रा को राष्ट्र को समर्पित किया है। एक स्वीडिश समुद्री-ऊर्जा संगठन AB द्वारा FNPC तकनीक से समुद्रीतरंग ऊर्जा के उत्पादन की विधि विकसित की गई है। इस तकनीक से समुद्रीतरंग ऊर्जा उत्पादन के लिए अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह में 1 मेगावाट क्षमता वाला एक समुद्री तरंग ऊर्जा निर्माण संयंत्रा स्थापित किया जा रहा है।
ज्वारीय-ऊर्जा
सूर्य और चांद की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण समुद्र में उठनेवाली ज्वार भाटाओं से भी विद्युत-उत्पादन किया जा सकता है। उन प्रदेशों में जहां ज्वारभाटायें ऊंची-ऊंची उठती हैं, वहां इसकी संभावना अधिक होती है। भारत के पास लगभग 8000 - 9000 मेगावाट ज्वारीय-विद्युत ऊर्जा के उत्पादन की क्षमता है। कैम्बे की खाड़ी (7,000 मेगावाट), कच्छ की खाड़ी (1,000 मेगावाट) और सुन्दरवन (100 मेगावाट) में ज्वारी-ऊर्जा उत्पादन की अच्छी संभावनाएं हैं। कच्छ की खाड़ी में कान्डला में 900 मेगावाट क्षमता वाला एक ज्वारीय-ऊर्जा उत्पादन संयंत्रा लगाने का प्रस्ताव है, जो एशिया का पहला ऐसा संयंत्रा होगा।
समुद्री-धारा से ऊर्जा
सिद्धान्ततः पानी के नीचे टरबाईनों की शंृखला से पानी को भेजकर समुद्री-प्रवाह से ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकता है। लेकिन इस विधि से उत्पादित ऊर्जा की मात्रा बहुत कम होती है और पानी के नीचे टरबाईनों को यथास्थिति में बनाये रखना भी एक मुश्किल कार्य है।
समुद्री हवा से ऊर्जा का उत्पादन
भूमि वाले भाग की अपेक्षा समुद्री तट वाले क्षेत्रों में हवा अधिक तेज चलती है। समुद्र तट पर चलनेवाली तेज हवा से ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकता है। कई देशों में इस विधि से ऊर्जा का उत्पादन किया जा रहा है। व्यापारिक पवन वाले क्षेत्रों में हिमपात तथा तूफान आने से इस विधि से ऊर्जा उत्पादन करने में कठिनाई होती है।
XXI. विद्युत उत्पादन -विभिन्न विकल्प
• विद्युत उत्पादन के लिए ईंधन के विभिन्न विकल्पों के बारे में योजना आयोग ने 1995 में एक अध्ययन कराया था जिसमें तरल हाइड्रोकार्बन, प्राकृतिक गैस और कोयले जैसे विकल्पों से बिजली पैदा करने पर आने वाली लागत की तुलना की गई थी। इन ईंधनों के उत्पादन स्थान से देश के विभिन्न भागों में स्थित बिजलीघरों तक कोयला एवं प्राकृतिक गैस पहुंचाने की लागत का इस अध्ययन से पता लगाया गया। योजना आयोग के अध्ययन के आधार पर निम्नलिखित विकल्प सबसे अच्छे माने गए हैं-
- उत्तरी क्षेत्र में कोयला, घरेलू तथा आयातित प्राकृतिक गैस और घरेलू नेप्र्था इंधन के बेहतरीन विकल्प हैं।
- पश्चिमी क्षेत्र में भी ईंधन के बेहतरीन विकल्प देश में उत्पादित कोयला और गैस हैं। दूसरा बेहतरीन विकल्प आयातित गैस, आयातित तरल प्राकृतिक गैस और आयातित नेप्था है।
- दक्षिणी क्षेत्र में भी ईंधन का सबसे अच्छा विकल्प घरेलू गैस और कोयला है। इसके बाद आयातित गैस और तरल प्राकृतिक गैस तथा आयातित फर्नेस आयल बेहतर विकल्प है। निम्नलिखित आंकड़ों से यह बात स्पष्ट हो जाएगी।
देश में विद्युत उत्पादन के लिए काम में लाए जा सकने योग्य कोयले के विशाल भण्डार हैं और पनबिजली उत्पादन की भी पर्याप्त क्षमता है। ऐसे में विद्युत उत्पादन के लिए देश में उत्पादित कोयले या पनबिजली क्षमता का उपयोग तर्कसंगत तथा स्वाभाविक है। अगर विद्युत उत्पादन में वृद्धि करनी है। तो भी इन्हीं उपलब्ध संसाधनों को बढ़ाना तर्कसंगत होगा मगर इसमें हमें समय का भी ध्यान रखना होगा। देश को न सिर्फ बिजली की आवश्यकता है बल्कि यह सुनिश्चित करना भी जरूरी है कि सभी आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों के लिए आवश्यकता पड़ने पर लगातार बिजली उपलब्ध रहे। इसमें किसी भी तरह की कमी नहीं होनी चाहिए। देश में हाल ही में ईंधन के क्षेत्र में विशेष रूप से कोयला क्षेत्र में जिस तरह से निवेश हुआ है। उससे बढ़ती हुई मांग के अनुरूप कोयले के उत्पादन में बाधाएं आई हैं। विद्युत उत्पादन के लिए प्राकृतिक गैस तथा अन्य तरल ईंधन भी सीमित मात्रा में उपलब्ध हैं। ऐसे में विद्युत क्षेत्र की ईंधन की आवश्यकता घरेलू ऊर्जा स्रोतों से पूरी हो पाना संभव नहीं लगता। देश में विभिन्न प्रकार की बिजली परियोजनाओं के निर्माण में लगने वाले समय, नयी क्षमता सृजित करने की दिशा में उच्चस्तरीय कार्यवाही की तैयारी तथा विद्युत क्षेत्र के लिए कोयले की अपर्याप्त सप्लाई को ध्यान ममे ंरखते हुए तरल ईंधन पर आधारित विद्युत उत्पादन क्षमता ही व्यावहारिक रास्ता नजर आता है। इसके माध्यम से -
यह अल्पकालिक व्यवस्था है जिसका उद्देश्य ऊर्जा की तात्कालिक मांग को पूरा करना है। देश को अपने विद्युत क्षेत्र की ईंधन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ऐसी दीर्घकालीन नीति की आवश्यकता होगी जिसमें स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों के विकास के रास्ते में आने वाली बाधाओं तथा लम्बे समय तक बड़े पैमाने पर ईंधन के आयात से उत्पन्न होने वाली बाधाओं को दूर रखने का ध्यान गया हो। पिछले कुछ दशकों के विश्लेषण से यह बात साफ जाहिर हो जाती है कि ऊर्जा के मुख्य स्रोत के रूप में कोयले और कुछ हद तक गैस का उपयोग आनुपातिक रूप से अधिक बढ़ रहा है। कोयला हमारे देश का ऐसा जीवाश्म ईंधन है जो यहां पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। ऐसे में इसके इस्तेमाल पर अधिक निर्भरता स्वाभाविक है। कोयले पर बढ़ती निर्भरता से कोयला खनन गतिविधियों तथा परिवहन संबंधी आधारभूत ढांचे पर काफी अधिक दबाव पड़ता है। ऐसे में यह धारणा बलवती होती जा रही है कि अल्पकालिक तथा मध्यावधि उपाय के रूप में कोयला भले ही महत्वपूर्ण हो, अकेले कोयले से हमारी ऊर्जा की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। अगर कोयला उद्योग अगले दस वर्षों में उत्पादन बढ़ाकर तीन गुना करने के कठिन लक्ष्य को पूरा कर भी ले और रेलवे के बुनियादी ढांचे में क्रांतिकारी परिवर्तन आ भी जाए तो भी अगले दशक में कोयले पर आधारित ताप बिजली इकाईयों से एक लाख मेगावाट अतिरिक्त विद्युत उत्पादन क्षमता जुटाना असंभव लगता है।
• जहां तक आपूर्ति पक्ष का सवाल है अन्य संभावित विकल्प है - विद्युत उत्पादन में दूसरे ईंधनों का इस्तेमाल। दूसरे ईंधनों का इस्तेमाल विशेष रूप से उन क्षेत्रों में संभव है जहां विद्युत उत्पादन के लिए आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद तरीके से इस्तेमाल में लाए जा सकने वाले कोयला और पेट्रोलियम पदार्थों जैसे स्रोत उपलब्ध नहीं है। इस तरह जल विद्युत ऊर्जा ही ऐसे वास्तविक विकल्प प्रतीत होते हैं जिनसे
ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने में काफी मदद मिलने की संभावना है। भारत में उपयोग में नहीं लाई जा रही अधिकांश जल विद्युत उत्पादन क्षमता उत्तरी और पूर्वोत्तर क्षेत्रों में केंद्रित हैं केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण ने हाल की अपनी दो रिपोर्टों में पनबिजली उत्पादन के क्षेत्रों में निवेश को प्राथमिकता देने के लिए व्यावहारिक नीतियां तैयार की हैं। भूगर्भ वैज्ञानिक तथा जल वैज्ञानिक अध्ययन और परियोजना निर्माण के कार्य में अधिक संसाधन व्यय करने की आवश्यकता है। परियोजना अनुसंधान का कार्य ठीक तरह से न करने से लागत और समय में बढ़ोतरी होती है। इसके लिए एक एजेंसी बनाई जा सकती है जो रोकथाम के उपाय सुझाएगी। नदी के बहाव और नहरों से बिजली बनाने की कुल 6000 मेगावाट से अधिक क्षमता की परियोजनाओं की पहचान की जा चुकी है। इनको पूरा होने में कम समय लगता है और इनसे पर्यावरण संबंधी कोई गंभीर समस्या भी पैदा नहीं होती। इन परियोजनाओं को शीघ्र लागू किया जाना चाहिए। अगर कीमत और ट्रांसमिशन की समस्याओं का समाधान कर लिया जाए तो और अधिक निजी पूंजीनिवेश भी संभव हो जाएगा।
परमाणु ऊर्जा भी एक अन्य व्यावहारिक विकल्प के रूप में स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आया है। इसके माध्यम से कोयले पर आधारित विद्युत उतपादन क्षमता बढ़ाने के कार्यक्रम मे काफी मदद ली जा सकती है। अगर हम देश में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों तथा बुनियादी ढांचे पर विचार करें तो मुझे ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता जिसकी वजह से परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का वांछित गति से विस्तार न किया जाए। विश्व में थोरियम के सबसे बड़े भण्डार हमारे यहां उपलब्ध हैं। अन्य विखंडनीय परमाणु सामग्री के भी काफी बड़े भण्डार हैं। पिछले कई वर्षों में हमने परमाणु ऊर्जा के उपयोग की कला में महारथ हासिल कर ली है हालाँकि कामिनी फास्ट ब्रीडर रिएक्टर प्रयोगात्मक रूप से चालू हो चुका है फिर भी इसके सक्रिय हो जाने से भारत परमाणु ईंधन चक्र पर नियंत्राण कर सकने वाला देश बनने जा रहा है। हमारे परमाणु संयंत्रा अच्छी तरह से कार्य कर रहें हैं। IAEA करार से परमाणु ऊर्जा का विकास आसान हो जाएगा। अधिक महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों के लिए वित्तीय समस्याओं को सुलझाना आवश्यक होगा।
तबिजली का वितरण एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी ओर हमें भविष्य में और अधिक ध्यान देना होगा। हमें इस बात का अहसास है कि उपभोक्ताओं को संतोषजनक सेवा उपलब्ध कराने के लिए एकाधिकार वाले संगठन उपयुक्त नहीं है। विभिन्न संगठनों के बीच प्रतिस्पर्धा बड़ी जरूरी है। मुंबई, कलकत्ता, अहमदाबाद, दिल्ली जैसे कई शहरों में विद्युत वितरण के कार्य का निजीकरण हो चुका है। देश के ग्रामीण तथा शहरी दोनों ही इलाकों में और अधिक क्षेत्र को इस तरह की प्रणाली के अंतर्गत लाना बेहद जरूरी है। एक बार यह लक्ष्य प्राप्त हो जाने के बाद जहां उपभोक्ताओं को बेहतर सुविधाएं मिलने लगेंगी, वहीं विद्युत उत्पादन करने वाली कंपनियों की वित्तीय स्थिति भी सुदृढ़ होगी क्योंकि उन्हें अपनी लेनदारी अधिक अच्छी तरह मिलने लगेगी। इसी बात को ध्यान में रखकर राज्यों के स्वामित्व वाले संगठनों की ऋण प्राप्त करने की क्षमता बढ़ाने की जरूरत है।
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1. ऊर्जा क्या है और उसके प्रकार क्या हैं? |
2. भूमिगत ऊर्जा क्या है और इसका महत्व क्या है? |
3. ऊर्जा संरक्षण क्या है और इसका महत्व क्या है? |
4. भारत में प्राकृतिक ऊर्जा स्रोतों का उपयोग कैसे बढ़ाया जा सकता है? |
5. भारत में ऊर्जा संरक्षण के लिए कौन-कौन से उपाय अपनाए जा सकते हैं? |
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