ऋग्वैदिक आर्यों का सामाजिक जीवन
भौगोलिक स्थिति
ऋग्वैदिक आर्यों का सामाजिक जीवन
प्रारम्भिक आर्यों के बारे में हमारी जानकारी का मुख्य स्रोत ऋग्वेद है। चूंकि इस काल के लिए हमारा पुरातात्त्विक ज्ञान अत्यंत सीमित है, अतः जन-जीवन की झांकी के लिए उपलब्ध साहित्य पर निर्भर होना अपरिहार्य है।
स्मरणीय तथ्य
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3. भोजन और वस्त्र : वे छक कर दूध पीते थे और खूब मक्खन और घी खाते थे। फल, सब्जियां, अन्न और मांस भी खाया जाता था। वे मधु तथा कुछ अन्य पेय भी पीते थे। एक और अतिविशिष्ट पेय भी था, जिसे सोम कहते थे और जो धार्मिक उत्सवों में पीया जाता था, क्योंकि इसे तैयार करना कठिन था। इनके पहनावे में तीन वस्त्र होते थे-एक अन्दर का (निवि), दूसरा ऊपर का (वास) और एक अन्य पोशाक (अधिवास) टखना तक पहुंचती थी। सिर पर पगड़ी भी बांधी जाती थी। आभूषणों का भी इस्तेमाल होता था। ये गहने स्वर्ण या अन्य धातुओं के होते थे। स्त्रियां अनेक किस्म की मणि-मालाएं पहनती थीं।
4. मनोरंजनः रथों की दौड़ के खेल के अलावा नाच और गाने का भी उन लोगों को बड़ा शौक था। वे शिकार के भी शौकीन थे। वे बांसुरी, एक प्रकार की वीणा और ढोल का प्रयोग करते थे तथा औरतें भी साथ में नाचती और गाती थीं। हालांकि ऋग्वेद में जुआ खेलने की निंदा की गई है, परंतु जान पड़ता है कि जुआ खेलना भी उनका एक प्रिय मनोरंजन था।
5. जाति प्रथाः यह विवाद का विषय है कि ऋग्वैदिक आर्यों में जाति प्रथा प्रचलित थी या नहीं। ऋग्वेद के दसवें मंडल में उद्धृत पुरुष सूक्त के आधार पर इस काल के आरंभ से ही ब्राह्मण, राजन्य (क्षत्रिय), वैश्य एवं शूद्र रूपी चातुर्वण्र्य समाज की कल्पना भी की गई। इस सूक्त में इन चारों वर्गों की उत्पत्ति आदि पुरुष के भिन्न-भिन्न अंगों से बतलाई गई है। इसके अनुसार आदि पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से राजन्य, जंघा से वैश्य तथा पांव से शूद्र की उत्पत्ति हुई लेकिन आधुनिक विद्वान दसवें मंडल को परवर्ती रचना मानते हैं। अतः इस आधार पर ऋग्वैदिक काल में चार वर्णों के होने की पुष्टि नहीं होती। ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार के वर्ण-समाज की रूपरेखा ऋग्वेद काल के अंतिम चरणों में तैयार हो रही थी, जिसे पुरुष सूक्त जैसे क्षेपकों में देखा जा सकता है। ऋग्वेद के ही एक अन्य सूक्त में कहा गया है कि-”मैं कवि हूं, मेरे पिता वैद्य हैं और मेरी माता चक्की चलाने वाली है; भिन्न-भिन्न व्यवसायों से जीविकोपार्जन करते हुए हम एक साथ रहते हैं।“ अतः कहा जा सकता है कि ऋग्वैदिक समाज का चार वर्णों में स्पष्ट विभाजन नहीं हुआ था। हां, समाज के तीन वर्गों-योद्धा, पुरोहित और सामान्य लोग में विभाजन को स्वीकार किया जा सकता है। दक्षिणा के रूप में गाय और दास देने की प्रथा थी। ऋग्वेद में दान के लिए पुरुष दास का उल्लेख बहुत कम मिलता है जबकि नारी दासों को दान की वस्तु के रूप में स्वीकार किया गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि धनी वर्ग में संभवतः घरेलू दास प्रथा ऐश्वर्य के एक स्रोत के रूप में विद्यमान थी किंतु आर्थिक उत्पादन में दासों के प्रयोग की प्रथा प्रचलित न थी।
प्रमुख धार्मिक पुरोहित होतृ ऋग्वेद का पाठकत्र्ता उ०ातृ सामदेव का सस्वर पाठकत्र्ता अध्वर्यु यजुर्वेद का मंत्रोच्चारकत्र्ता |
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1. ऋग्वैदिक आर्यों का सामाजिक जीवन क्या था? |
2. ऋग्वैदिक काल में आर्यों के सामाजिक जीवन में धार्मिक आयोजनों की क्या भूमिका थी? |
3. ऋग्वैदिक काल में आर्यों के सामाजिक जीवन में विवाह की क्या महत्वता थी? |
4. ऋग्वैदिक काल में आर्य समाज में महिलाओं की क्या स्थिति थी? |
5. ऋग्वैदिक काल में आर्यों की शिक्षा का क्या महत्व था? |
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