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कृषि (भाग - 1) - भारतीय भूगोल | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

भारतीय कृषि एक परिचय

  • यद्यपि अब तक की सभी पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि को पर्याप्त महत्व दिया गया किन्त इसके बावजूद खेती की हालत खस्ता बनी हुई है। बजट में कृषि के लिए जितनी राशि स्वीकृत की जाती है उसका पूरा लाभ किसान को नहीं मिल पाता है क्योंकि बिचैलिए बहुत बड़ा हिस्सा हडप़्पा जाते हैं। किसान की सहायता के लिए सरकार समय-समय पर समर्थन मूल्य घोषित करती है, किन्त इसमें भी खाद्य निगम के कर्मचारियों और आढ़तियों द्वारा हेराफेरी करने की शिकायतें सुनने को मिलती हैं। 
  • उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी का लाभ भी प्रायः फार्महाउस वाले अथवा अमीर किसान ही उठा पाते हैं क्योंकि छोटे और सीमान्त किसानों के पास कृषि भूमि कम होने के कारण उर्वरकों की खपत भी कम होती है। संसद में पिछले दिनों यह मामला उठाया गया और मांग की गई कि सरकार को छोटे किसानों के हितों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। कृषि मंत्री ने इस समस्या के समाधान के लिए दोहरी मूल्य नीति अपनाने का आश्वासन दिया है।
  • केवल समर्थन मूल्य बढ़ा देने अथवा उर्वरकों पर सब्सिडी जारी रखने से ही कृषि का विकास संभव नहीं है। सिंचाई सुविधाएं, उन्नत बीज, कीटनाशक, बिजली, ऋण आदि भी आवश्यक है। खेती के विकास में सबसे बड़ी बाधा सिंचाई सुविधाओं की कमी है। जब तक सिंचाई सुविधाएं नहीं होंगी तब तक एक से अधिक फसल जोत असंभव है। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश की कुल जीत का केवल एक-चैथाई भाग ही सिंचाई की पूरी सुविधाओं से युक्त है। अन्य चैथाई भाग में आंशिक सिंचाई सुविधाएं सुलभ हैं और शेष 50 प्रतिशत भाग में सिंचाई सुविधांए नहीं हैं। 
  • निस्संदेह, स्वतंत्रता के बाद पिछले पांच दशकों में देश की प्रमुख नदियों पर बांध बनाकर सिंचाई सुविधाएं मुहैया कराने का प्रयास किया गया किन्त कुछ राज्यों के बीच चल रहे नदी जल विवादों के कारण इन बांधों का पूरा लाभ किसानों को नहीं मिल सका है। जल को राष्ट्र की बहुमूल्य सम्पत्ति मानते हुए 1987 में राष्ट्रीय जल नीति बनाई गई थी। इस नीति के अनुसार जल संसाधनों का उपयोग केवल बेसिन में रह रहे लोगों के लाभ के लिए ही नहीं बल्कि पानी की कमी वाले क्षेत्रों के लिए भी होना चाहिए। दुर्भाग्य से क्षेत्रीय भावनाओं के कारण ऐसा नहीं हो रहा है।
  • केवल बड़ी सिंचाई योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करना ही पर्याप्त नहीं है, लघ और मध्यम सिंचाई योजनाओं से छोटे और सीमान्त किसान अधिक लाभ उठा सकते हैं। देखने में आया है कि वर्षा ऋत में काफी पानी बहकर चला जाता है। पोखर और तालाब बनाकर यदि इस पानी को जमा कर लिया जाए तो खेती के काम आ सकता है। पुराने तालाबों की मरम्मत और अनेक रखरखाव की ओर विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
  • खेती के विकास मेें उर्वरकों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्य से देश में उर्वरकों का उत्पादन आवश्यकता से कम होता है और यही कारण है कि इसकी खपत अन्य विकासशील देशों की तुलना में कम है। रासायनिक उर्वरकों का उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ गोबर और हरी खाद के इस्तेमाल को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। किस मिट्टी में किस खद की कितनी मात्रा में आवश्यकता है इसका ज्ञान अधिकांश किसानों को नहीं है। इसके लिए वैज्ञानिक ढंग से मिट्टी की जांच करने की व्यवस्था होनी चाहिए। यह स्वागतयोग्य है कि बिहार और उड़ीसा के कुछ जिलों में जांच का यह कार्य प्रारम्भ किया गया है।
  • उन्नत बीजों से ही अच्छी उपज की आशा की जा सकती है, पर ये बीज कुछ चुने हुए कृषि विज्ञान केंद्रों पर ही  मिलते हैं। नतीजतन अधिकांश किसान सड़े-गले बीजों से ही काम चलाते हैं।
  • देखने में आया है कि धनी किसान, व्यापारिक घराने और संगठन नाममात्र दाम पर नवीनतम प्रौद्योगिकी प्राप्त कर काफी लाभ उठा रहे हैं जबकि गरीब और सीमान्त किसान अपनी खस्ता हालत के कारण इसे प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। स्थिति यह है कि यदि उन्हें प्रौद्योगिकी मुफ़्त उपलब्ध कराई जाए तो भी वे उसके क्रियान्वयन में होने वाले अत्यधिक खर्च के कारण उसका इस्तेमाल करने में असमर्थ हैं।
  • कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में यद्यपि अनेक उल्लेखनीय उपलब्धिां हैं किन्त कृषि विज्ञान केंद्रों का कार्य सुचार रूप से नहीं चलने के कारण ये किसानों तक नहीं पहुंच पाती है। बताया जाता है कि इन केंद्रों के धीमे विकास का मुख्य कारण यह है कि बजट में इनके लिए पर्याप्त राशि का प्रावधान नहीं किया जाता। यह भी शिकायत है कि राज्य कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा कृषि विज्ञान केंद्रों के धन का उपयोग अन्य कार्यों में कर लिया जाता है।
  • किसान सीमित साधन होने के कारण खेती का समुचित विकास नहीं कर पाता है। उसे ऋण के लिए बैंकों अथवा अन्य संस्थानों की शरण में जाना पड़ता है। यह ऋण कभी समय पर नहीं मिलता और जो मिलता भी है वह स्वीकृत राशि से प्रायः कम होता है क्यों बिचैलिए इसमें से अपनी भेंट पूजा वसूल कर लेते हैं। कहने को गांवों में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, सहकारी बैंक और वाणिज्यिक बैंक हैं पर इनसे लाभ प्रायः समर्थ किसान ही उठा पाते हैं।
  • खेती के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा यह है कि किसानों को बिजली न तो समय पर मिलती है और न ही पर्याप्त मात्रा में। राज्य बिजली बोर्डों की अव्यवस्था से किसानों में असंतोष बढ़ता  जा रहा है। हमारे देश में सूरज की रोशनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इससे सौर ऊर्जा पैदा कर ईंधन की बचत की जा सकती है और सिंचाई के पम्प भी चलाए जा सकते हैं। गोबर गैस संयंत्रों और सौर ऊर्जा के अधिकाधिक प्रयोग से खेती लाभकारी हो सकती है।
  • भूमि सुधारों की बातें हम एक लम्बे अर्मे से सुनते आ रहे हैं किन्त अफसोस है कि अभी तक इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए गए। भूमि सुधार नहीं होने से खेती का समुचित विकास नहीं हो रहा है।
  • दुर्भाग्य से हमारे देश में भूमि का काफी बड़ा भाग बंजर है। इस भूमि को कृषि योग्य बनाकर हम पैदवार बढ़ा सकते हैं। मरुस्थल को हरा-भरा बनाने के लिए इजराइल की प्रौद्योगिकी काम में ली जा सकती है। यह चिंता की बात है कि वन क्षेत्र निरंतर घटता जा रहा है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई पर पाबंदी लगाकर वृक्षारोपण के कार्य को प्राथमिकता देनी होगी। जरूरत इस बात की है कि वृक्षारोपण और चरागाह विकास को जन आंदोलन का रूप दिया जाए।
  • भारत कृषि प्रधान देश है किन्तु यह लज्जा की बात है कि आज हमको अपनी आवश्यकता के लिए विदेशों से गेहूं, दालों और तेलों का आयात करना पड़ रहा है अच्छी वर्षा के बावजूद कम पैदावार का होना वास्तव में चिंता का विषय है। एक कारण तो यह है कि हमारे देश में प्रति हेक्टेयर उपज कम है। 
  • दूसरा कारण यह है कि किसानों का झुकाव खाद्यान्नों की अपेक्षा नकद फसलों की ओर बढ़ता जा रहा है। यह भी देखने में आ रहा है कि उद्योग, व्यापार अथवा नौकरीपेशा से जुड़े लोग अपने काले धन का उपयोग फार्महाउस खरीदने में कर रहे हैं। इन फार्महाउसों में अनाज और दालों के बजाय उन चीजों का उत्पादन किया जाता है जिनको निर्यात करके अधिक धन कमाया जा सकता है। कम पैदावार, अपर्याप्त वसूली और सरकारी तंत्रा के कुप्रबंध के कारण गेहूं का संकट पैदा हुआ।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद 16 जुलाई, 1929 को इम्पीरियल काउंसिल आॅफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के रूप में अस्तित्व में आई थी। इसका उद्देश्य उस समय लगातार पड़ रहे अकालों के संदर्भ में खाद्यान्न आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए कृषि में सुधार लाना था। स्वतंत्राता के बाद सन् 1947 में इसका नाम बदलकर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद कर दिया गया और एक स्वायत्त सर्वोच्च संस्था के रूप में कृषि विज्ञान में विभिन्न विषयों में अनुसंधान और शिक्षा के संचालन और प्रबंध का उत्तदायित्व इसको सौंपा गया।

कार्यक्षेत्र

  • कृषि में शिक्षा और अनुसंधान तथा उसके अनुप्रयोग के लिए योजना बनाना, क्रियान्वयन करना, सहायता देना और समन्वय करना।
  • अनुसंधान की सूचना प्रदान करने के केन्द्र का काम करना।
  • कृषि में परामर्श सेवाएं देना, क्रियान्वयन करना और उन्हें बढ़ावा देना।
  • ग्रामीण विकास से जुड़ी कृषि संबंधी समस्याओं पर ध्यान देना।

संस्थागत संसाधन

अनुसंधान

  • 46 केन्द्रीय संस्थान
  • 4 राष्ट्रीय ब्यूरो
  • 30 राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्र
  • 10 परियोजना निदेशालय
  • 80 अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजनाएं
  • 26 अन्य स्कीम और परियोजनाएं

शिक्षा

  • 28 राज्य कृषि विश्वविद्यालय
  • 01 केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय
  • 04 मानद विश्वविद्यालय

विस्तार

  • 261 कृषि विज्ञान केन्द्र
  • 8 प्रशिक्षक-प्रशिक्षण केन्द्र
  • 1 कृषि में महिलाओं का राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्र

मानव संसाधन

  • भा.कृ.अनु.प. देश में वैज्ञानिक जन बल का सबसे बड़ा नियोक्ता है। परिषद के अनुसंधान संगठनों में लगभग 30 हजार कार्यकर्ता शामिल हैं, जिनमें 6200 अनुसंधान में रत वैज्ञानिक हैं।
    राज्य कृषि विश्वविद्यालयों में परिषद द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त परियोजनाओं में लगभग 5000 वैज्ञानिक हैं।
  • 172 महाविद्यालय कृषि में शिक्षण का कार्य कर रहे हैं और उनमें हर साल 9000 स्नातक स्तर पर, 4800 स्नातकोत्तर पर और 1500 डाक्टरेट के स्तर पर दाखिले हो सकते हैं।

प्रमुख कार्यक्रम

  • राष्ट्रीय संसाधन सूची एवं प्रबंध
  • दूरसंवेदन और भूमि उपयोग योजना
  • फसलों, जंतुओं, मछलियों और कृषि की दृष्टि से महत्वपूर्ण सूक्ष्म जीवों के जनन द्रव्य का संकलन, संरक्षण और मूल्यांकन
  • फसलों और बागानों में किस्म सुधार तथा प्रबंध
  • समेकित कीट प्रबंधन
  • प्रजनक बीज उत्पादन
  • अधिक उत्पादन के लिए कृषि तकनीकों का विकास
  • पश सुधार
  • पश पोषण, कार्यिकी और स्वास्थ्य प्रबंधन
  • मछली पालन और प्रग्रहण मात्स्यिकी में सुधार और प्रबंधन
  • कृषि यंत्रीकरण और ऊर्जा प्रबंधन
  • कटाई उपरांत प्रौद्योगिकी प्रसंस्करण और मूल्य अभिवर्द्धन
  • कृषि नीति विश्लेषण और अनुसंधान की प्राथमिकताएं निश्चित करना
  • मानव संसाधन विकास
  • प्रौद्योगिकी मूल्यांकन व परिशोधन। इसमें व्यावसायिक प्रशिक्षण, सेवाकालीन प्रशिक्षण, प्रथम पंक्ति प्रसार और कृषि विज्ञान संबंधी निदान सेवाएं शामिल हैं
  • अनुसंधान और विकास संबंधी विभागों के बीच मजबूत गठबंधन
  • सूचना प्रसार
  • प्रंबध सुधार

नई पहल

संपूर्ण कृषि विकास को टिकाऊ और समतापूर्ण बनाने में मौजूद कमियों को दूर करने के लिए विश्व बैंक की लगभग 800 करोड़ रुपये की सहायता से एक राष्ट्रीय कृषि प्रौद्योगिकी परियोजना शुरू करने पर विचार किया जा रहा है। इस परियोजना में मुख्य रूप से नीचे दिए मुद्दों पर ध्यान दिया जाएगा

  • संचालन और प्रबंधन-प्रणाली का विकास
  • कार्यक्रम विधि से कृषि पारिस्थितिक अनुसंधान
  • मिशन-विधि से उत्कृष्ट अनुसंधान
  • श्रेष्ठता के केन्द्र संबंधी विधि से बुनियादी सूक्ष्मस्तरीय अनुसंधान
  • प्रौद्योगिकी का मूल्यांकन परिशोधन एवं स्थानान्तरण
  • प्रौद्योगिकी प्रसार में नवीकरण
  • अनुसंधान की प्रथामिकता निश्चित करने की प्रक्रिया को संस्थाबद्ध बनाना
  • मानव संसाधन विकास बदलती हुई जरूरतों और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्पर्धा के परिपेक्ष्य में परिषद के सभी संस्थानों के लिए सन् 2020 की अग्रदर्शी योजनाएं बना ली गई हैं। एक बार लागू किए जाने पर यह योजनाएं हमारे कृषि अनुसंधान को विश्वस्तरीय प्रतिस्पर्धा प्रदान करेंगी।
  • विश्व में सूचना क्रांति के बढ़ते महत्त्व को देखते हुए परिषद ने कृषि अनुसंधान सूचना प्रणाली (ए.आर.आई.एस.) विकसित की है जिसमें, कम्प्यूटर के नेटवर्क के जरिए परिषद के सभी संस्थानों, अनुसंधान केन्द्रों और राज्य कृषि विश्वविद्यालयों को आपस में जोड़ दिया गया है।
  • विश्व के सबसे बड़े जीन बैंक का नवंबर 1996 में नई दिल्ली में राष्ट्रीय पौध आनुवंशिकी संसाधन ब्यूरो के परिसर में उद्घाटन किया। इसमें 10 लाख तक नमूने रखने की क्षमता है।
  • विश्व बैंक  की सहायता से कृषि मानव संसाधन विकास परियोजना शुरू की गई है। इस परियोजना में मुख्य रूप से निम्नलिखित बातें शामिल हैंः
  • नई अपेक्षाओं के अनुरूप पाठ्यक्रम सुधार
  • राज्य-कृषि विश्वविद्यालयों की भौतिक सुविधाओं में बढ़ोत्तरी कर कृषि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार
  • मानव संसाधन प्रबंध कोष्ठ की स्थापना
  • जन बल सलाहकार परिषद की स्थापना
  • शिक्षा में गुणवत्तात्मक सुधार के लिए मानदण्ड और प्रत्यायन (नाम्र्स एवं एक्रीडिटेशन) समिति का पुनर्गठन
  • परिषद ने पश पोषण और कार्यिकी पर एक संस्थान और डी.एन.ए. छाप पर तथा आर्किड पुष्पों पर राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्रों की स्थापना की है। बेहतर तकनीकों के विकास और तेजी से अनुपालन के लिए प्रोत्साहन और पुरस्कार देने के साथ-साथ संसाधनों के विकास की एक प्रणाली बनाई गई है। 
  • इसके मुख्य पहलू इस प्रकार हैं
    (i) सरकारी और निजी क्षेत्र, गैर सरकारी संगठन और किसानों की समितियों के बीच कारगर सहकारिता विकसित करके तकनीकों के विकास और प्रसारण को गति देना।
    (ii) ज्ञान के प्रसार और तकनीकों से व्यक्तियों, संस्थाओं, उद्यमियों और अंतिम छोर के उपभोक्ताओं का फायदा पहुंचाने के लिए सलाहकार सेवाओं को संस्थाबद्ध करना
    (iii) विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्तााओं के लिए प्रशिक्षण की प्रक्रिया और प्रणाली को क्रमबद्ध करना और मानकीकृत करना। ठेके पर अनुसंधान और सेवाएं उपलब्ध कराने की प्रक्रिया विकसित करना।
  • ”संस्थान-गा्रम सम्पर्क कार्यक्रम“ (आई.वी.एल.पी.) के द्वारा प्रौद्योगिकी के विकास, मूल्यांकन, परिष्कार और प्रसारण को संस्थागत बनाया गया है। इसमें 40 संस्थान/विश्वविद्यालय लगभग 40 हजार कृषि परिवारों को शामिल करके काम आगे बढ़ा रहे हैं।

 अंतर्राष्ट्रीय संबंध

  • भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग के लिए विभिन्न देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ द्विपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं। अब तक 34 देशों, अंतर्राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान केन्द्रों के परामर्शदात्राी समूह (सी.जी.आई.ए.आर.) के अंतर्गत 13 केन्द्रों तथा 12 अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग समझौते किए जा चुके हैं।
  • वर्ष 1996-2007 के दौरान अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ट्यूनीशिया, इजराइल, त्रिनिदाद एवं टोबेगो, उज्बेकिस्तान, नेपाल, क्यूबा तथा ईरान और सी.जी.आई.ए.आर. के कई केन्द्रों के साथ समझौते/कार्ययोेेजना पर हस्ताक्षर करने से तेजी से विकसित हो रही नई प्रौद्योगिकियों के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के एक नए युग का सूत्रापात हुआ है।

नई अनुसंधान उपलब्धियाॅं

चावल: एक निर्यात उपार्जक

  • गत कुछ वर्षों से भारत विश्व में एक प्रमुख चावल निर्यातक देश बन गया है। पूसा बासमती 1 सहित जारी की गई अन्य चीनी धान की किस्मों की बदौलत किसान उपज में उल्लेखनीय वृद्धि करने में सक्षम हुए हैं।

गेहूं

  • उत्तरी पश्चिमी क्षेत्रों के लिए विकसित डब्ल्यू.एच.-542, पी.बी.डब्ल्यू-343, यू.पी.-2338 नामक नई रोग रोधी और उच्च उपज़ देने वाली गेहूं की किस्मों से काफी आशाएं जगी हैं क्योंकि इनसे एच.डी.-2329 जैसी प्रचलित किस्मों का विकल्प संभव हो सकेगा, जो रतुआ रोग से ग्रसित हो गई थीं। ड्यूरम गेहूं की उन्नत किस्में जिनमें निर्यात संभावनाएं है और सेंवई आधारित उत्पादों के लिए उपयुक्त हैं, विकसित तथा प्रचारित की गई हैं कर्नाटक और महाराष्ट्र के लिए उच्च पैदावार देने वाली डी.डी.के-1001 नामक खपली गेहूं की किस्म जारी की गई जो कि उपमा जैसे दक्षिण भारतीय व्यंजनों के लिए उपयुक्त है।
  • गेहूं-चावल प्रणाली में सतत उत्पादकता बनाए रखने के लिए शून्य जुताई बीज ड्रिल उपकरण विकसित किया गया है। इस यंत्र की बदौलत धान की फसल की कटाई और गेहूं की बुआई के बीच के अंतराल को काफी कम कर पाना संभव हो सका है।

 तिलहन क्रांति

  • सूर्यमुखी और अरंडी में संकर किस्मों तथा सोयाबीन और सरसों-तोरिया में उन्नत किस्मों के विकास के साथ-साथ बेहतर प्रबंध पद्धतियों के इस्तेमाल से गत एक दशक में देश में तिलहन की उपज दुगुनी हो गई। पंजाब के लिए भारत का सर्वप्रथम ब्रासिका संकर पी.जी.एस.एच.1 जिसकी उपज 20 प्रतिशत अधिक है, का विकास एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

 गन्ना क्रांति का विस्तार

  • उपज बढ़ोत्तरी को टिकाऊ बनाने और गन्ने से चीनी की अधिक मात्रा प्राप्त करने के उद्देश्य से नई किस्म शीघ्र तैयार होने और चीनी की अधिक मात्रा देने वाली किस्मों का उत्तरी क्षेत्रों के लिए मूल्यांकन किया जा रहा है। इस संदर्भ में गन्ना बीजों के बहुगुणन में तेजी लाने के लिए सूक्ष्म प्रवर्धन तकनीक (माइक्रोप्रोपेगेशन) का विकास भी एक उल्लेखनीय सफलता है।

 कपास की शीघ्र पकने वाली संकर किस्में उपलब्ध

  • विश्व में भारत की एकमात्रा ऐसा देश है जहां कपास की संकर किस्मों का व्यावसायिक स्तर पर दोहन किया गया है। इस क्षेत्र में पंजाब के लिए फतेह, हरियाणा से लिए ‘धनलक्ष्मी’ और राजस्थान के लिए ‘मरू विकास’ नामक संकरों का विकास विशेष उपलब्धि है। इन किस्मों से 30 से 40 प्रतिशत अधिक उपज और श्रेष्ठ गुणवत्ता वाली कपास की उपज ले पाना संभव है। प्राकृतिक रंगीन उत्पादेां के प्रति विश्वव्यापी तौर पर बढ़ते हुए रुझान का फायदा उठाने के उद्देश्य से ही रंगीन कपास पर जारी अनुसंधान कार्यों को और बढ़ावा दिया जा रहा है।

 फल उत्पादन: नए आयाम

  • अनुसंधान द्वारा आम, पपीता, नींबू वर्गीय फल, बेर, अनार की नियमित उपज देने वाली संकर किस्मों तथा उच्च उपज और उच्च गुणवत्ता वाली अंगूर की किस्मों के विकास के फलस्वरूप भारत विश्व कप शीर्ष फल उत्पादक देश बन गया है। आम, काजू और चीकू में ”साफ्ट वुड ग्राफ्टिंग“ की तकनीक के मानकीकरण से पौध प्रजनन सामग्री का बडे़ पैमाने पर प्रगुणन हुआ है। केले में ऊतक संबर्द्ध और ड्रिप सिंचाई तकनीक का प्रयोग करने से उत्पादकता में उल्लेखनीय सुधार हुआ है।

 सब्जियां: पोषक सुरक्षा के लिए

  • भारी उपज क्षमता और शीघ्र पैदावार देने वाली संकर किस्मों के विकास तथा विभिन्न कृषि जलवाय परिस्थितियों में उत्पादान तकनीकों के मानकीकरण से सब्जी-उत्पादन के खेत्र में क्रांति सी आ गई है। सब्जी अनुसंधान से निम्न क्षेत्रों में अच्छे नतीजे दिखाए हैं:
  • अब मूली और टमाटर की वर्ष भर उपज ली जा सकती है।
  • खरीफ प्याज के लिए तकनीक के विकास के बाद उत्तरी भारत में प्याज की वर्ष में दो फसल लेना संभव हो सकता है।
  • पूसा अर्ली सिन्थेटिक किस्म के विकास से गैर-परंपरागत राज्य जैसे केरल, तमिलनाड और कर्नाटक में भी फूलगोभी उगाई जा रही है।

 आलू का सच्चा बीज (टी.पी.एस.): एक क्रान्तिकारी उपलब्धि

  • आलू के सत्य बीज के विकास से आलू उगाने की कीमत से कमी हुई, जो कि एक महत्वपूर्ण उपलिब्ध है। भारत इस समय सत्य आलू बीज का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। यह तकनीक पर्वतीय क्षेत्रोंः विशेषकर उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए ज्यादा उपयोगी है।

 पुष्पोत्पादन: निर्यात की प्रबल संभावनाएं

  • बडे़ पैमाने पर संकर किस्मों का विकास और ग्रीन हाउस प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल पुष्पोत्पादन उद्योग और फूलों के निर्यात के लिए वरदान सिद्ध हुआ है।

 मोती संवर्धन: चमकती संभावनाएं

  • भा.कृ.अनु.प. के संस्थानों में किए गए अनुसंधान की मदद से ताजा पानी और समुद्री पानी दोनों में मोती संवर्धन व्यवसायिक स्तर पर होने लगा है। मुक्त स्तर- आकृतियों तथा रंगीन मोती के विकास के लिए प्रौद्योगिकी को और उन्नत बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

 सिफाका“- श्रेष्ठ मत्स्य आहार की ओर

  • भा.कृ.अनु.प. के संस्थान सी.आई.एफ.ए. द्वारा विकसित नए मत्स्य आहार की उपलब्धियां इस प्रकार हैं:
  • अधिक मत्स्य उत्पादन, उच्च कोटि का मछली मांस, प्रभावी आहार परिवर्तन, स्वादिष्ट और जल में टिकाऊ

 मछली की आंत से तैयार शल्य चिकित्सा में काम आने वाला धागा - एक आयात विकल्प

  • कार्प मछली की आंत से चिकित्सा की दृष्टि से अनुमोदित और स्वीकृत शल्य चिकित्सा में काम आने वाला धागा तैयार किया गया है तथा व्यावसयिक उत्पादन के लिए इस प्रौद्योगिकी का प्रसार किया गया है।

 भ्रूण प्रत्यारोपण प्रौद्योगिकी: एक नई संकल्पना

  • यह तकनीक मवेशी, भैंस और बकरी में उत्पादन बढ़ाने में इस्तेमाल की जा रही है। इस तकनीक से गाय के जीवन में 50-60 बछड़े पैदा किये जा सकते है।

 अधिक ऊन बेहतर ऊन

  • भेड़ की नई व उत्पादक प्रजातियों का विकास किया गया है तथा कालीन और ऊनी वस्त्रों के लिए भेड़ की किस्मों में सुधार लाने के लिए उनका प्रयोग किया जा रहा है।

 मवेशी में संकरण से उत्पादकता में बढ़ोत्तरी

  • गाय की अधिक दूध देने वाली फ्रीजवाल नस्ल का विकास किया गया। यह प्रथम दुग्धकाल में 3,000 लीटर और प्रौढ़ावस्था दुग्धकाल में 4,000 लीटर दूध देती है। फ्रीजवाल योजना को देश में अच्छे किस्म के वीर्य की पूर्ति के लिए बढ़ाया जा रहा है।

 मूल्य-अभिवर्धन से अधिक कमाई

  • लाख का प्रयोग रंग और अच्छे किस्म के सुगंधित द्रव्य बनाने में किया जा रहा है।

  • तरल गुड़ तथा गुड़ पाउडर बनाने की प्रक्रिया का मानकीकरण।

  • केले से बनाये दूध के पाउडर का विकास।

 बुआई और कटाई-उपरांत की प्रौद्योगिकी संबंधित मशीनरी

  • पशु  चालित हल

  • उच्च क्षमता वाला बह फसली गहाई क्षेत्र

  • किन्त तुड़ाई का उन्नत यंत्र और संवहनीय किकिन्नू छंटाई यंत्र

  • लघ दाल मिल

  • बैल चालित मूंगफली बुआई यंत्र

  • धान के बाद गेहूं की रोपाई के लिए जीरो टिलेज सीड ड्रिल

  • धान रोपाई यंत्र

  • गन्ना कटाई यंत्र

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FAQs on कृषि (भाग - 1) - भारतीय भूगोल - भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi

1. भारतीय कृषि क्या है?
उत्तर: भारतीय कृषि भारत में कृषि और संबंधित क्षेत्रों की एक प्रमुख गतिविधि है। यह देश की अर्थव्यवस्था का मुख्य स्रोत है और लगभग 50% भारतीय जनसंख्या को रोजगार प्रदान करती है। भारतीय कृषि में विभिन्न फसलों की खेती, गौवंश पालन, मत्स्य पालन, अधिकृत वन्य जीवन का संरक्षण, औद्योगिक कृषि, और कृषि विज्ञान शामिल है।
2. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद क्या है?
उत्तर: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) भारत सरकार के गठन की एक स्वतंत्र संगठन है जो कृषि अनुसंधान, शिक्षा और विकास को संचालित करता है। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है और यह भारतीय कृषि विज्ञान संस्थानों के संगठन, निदेशन और समन्वय का कार्य करता है। ICAR द्वारा विभिन्न अनुसंधान केंद्रों में नवीनतम उपलब्धियों का विकास और अध्ययन किया जाता है।
3. भारतीय कृषि में कौन-कौन से संसाधन महत्वपूर्ण हैं?
उत्तर: भारतीय कृषि में विभिन्न संसाधन महत्वपूर्ण हैं, जैसे कि माटी, पानी, बिजली, बीज, उर्वरक, खाद्यान्न, बागवानी, पशुपालन के लिए चारा, तकनीकी औजार, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, और मनोबल। ये संसाधन उच्च उत्पादन को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
4. नई पहल क्या है जो भारतीय कृषि में शुरू की गई है?
उत्तर: नई पहल भारतीय कृषि में एक नया योजनाकारी और तकनीकी समग्रता कार्यक्रम है जो अनुसंधान, प्रौद्योगिकी और नवाचारों के विकास को प्रोत्साहित करता है। इसका लक्ष्य भारतीय कृषि के लिए स्वतंत्रता और समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करना है। इस पहल के तहत, नवीनतम खेती तकनीक, बीजों का विकास, कृषि अनुसंधान केंद्रों का विकास, और पशुपालन के लिए नवीनतम तकनीकी उपलब्धियों का अवलोकन किया जाता है।
5. भारतीय कृषि के क्षेत्र में कौन-कौन सी नई उपलब्धियाँ हुई हैं?
उत्तर: भारतीय कृषि के क्षेत्र में कई नई उपलब्धियाँ हुई हैं, जैसे कि अधिक उत्पादनशील बीज, कृषि रोबोटिक्स, स्वच्छ कृषि प्रवंधन, स्मार्ट खेती, जीवनीय और अनुपातिक उपज, आधारित खेती, और समुद्री खेती। ये उपलब्धियाँ कृषि क्षेत्र में उच्चतर उत्पादकता, क्षेत्रीय संतुलन के साथ कृषि विकास को बढ़ावा देती हैं।
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