जैन धर्म
- जैन परम्परानुसार इस धर्म में 24 तीर्थंकर हुए है। इनमें प्रथम है ‘ऋषभदेव’ किन्तु 23वें तीर्थकर ‘पाश्र्वनाथ’ के पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। ‘पाश्र्वनाथ’ के अनुयायियों को ‘निग्र्रन्थ’ कहा जाता था। निग्र्रन्थ सम्प्रदाय सुगठित था और प्रत्येक गणधर चार गणों (संघों) में विभक्त था।
- ‘पाश्र्वनाथ’ की शिक्षाओं का मुख्य विषय था-
1. वैदिक कर्मकाण्ड तथा देववाद की कटु आलोचना।
2. जाति प्रथा पर प्रहार।
3. प्रत्येक व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी है।
4. उनकी मूल शिक्षा थी- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह।
- इस परम्परा के 24वें एवं सबसे महत्वपूर्ण तीर्थंकर थे ‘महावीर स्वामी’। ये जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे वरन् उन्होंने इस धर्म में आपेक्षित सुधार करके इसका व्यापक स्तर पर प्रचार किया।
- महावीर का जन्म वैशाली के निकट कुण्डग्राम में ज्ञातृक क्षत्रियों के गण-प्रमुख ‘सिद्धार्थ’ के यहाँ 540 ई. पू. में हुआ। माता का नाम त्रिशला देवी था जो लिच्छवि राजकुमारी थी। पत्नी का नाम यशोदा था। महावीर के बचपन का नाम ‘वर्धमान’ था।
- बारह वर्ष की घोर तपस्या के बाद (42 वर्ष की आयु में) ज्रिम्बिकाग्राम के समीप ऋजुपालिक नदी के तट पर महावीर वर्धमान को ‘कैवल्य’ (सर्वोच्च ज्ञान) की प्राप्ति हुयी। इसी कारण उन्हें-”केवलिन“ की उपाधि मिली। अपनी समस्त इन्द्रियों-को जीतने के कारण वे ‘जिन’ कहलाए। कठोर तप करके एवं विषद कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के कारण वे ‘महावीर’ कहलाए।
बौद्ध महासंगीति
• प्रथम महासंगीति (483 ई. पू.): यह संगीति सत्तपन्नि (राजगृह, बिहार) में-अजातशत्रु के शासन काल में-आयोजित हुई। इसकी अध्यक्षता महाकश्यप उपालि ने की। इसमें-बुद्ध के उपदेशों-को दो पिटकों--विनय पिटक और सुत्त पिटक, में-संकलित किया गया।
• द्वितीय महासंगीति (383 ई. पू.): इसका आयोजन वैशाली (बिहार) में-कालाशोक के शासनकाल में-हुआ। इसका नेतृत्व साबाकामी कालाशोक ने किया। वैशाली के भिक्षुक नियमों-में-ढिलाई चाहते थे। परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म स्थाविरवादी व महासंघिक दो भागों-में-बंट गया।
• तृतीय महासंगीति (250 ई. पू.): यह संगीति पाटलिपुत्र में-अशोक के शासनकाल में-संपन्न हुआ। इसकी अध्यक्षता मोगलीपुत्त तिस्स ने की। इसमें-धर्म ग्रंथों-का अंतिम रूप से सम्पादन किया गया तथा तीसरा पिटक अभिधम्म पिटक संकलित किया गया।
• चतुर्थ महासंगीति (प्रथम या द्वितीय ईसवी सदी): इसका आयोजन बसुमित्र और अश्वघोष के नेतृत्व में-कश्मीर में-कनिष्क के शासनकाल में-हुआ। इसमें-बौद्ध धर्म के दो सम्प्रदायों-महायान तथा हीनयान, का उदय हुआ।
- 468 ई. पू. में महावीर की मृत्यु ‘पावा’ में हुई।
- महावीर के प्रथम शिष्य का नाम ‘जमालि’ था जो बाद में जैन धर्म के विभाजन पर एक धारा का अगुवा हुआ।
- जैन धर्म में भी संसार दुःखमूलक माना गया है। मनुष्य जरा (वृद्धावस्था) तथा मृत्यु से ग्रसित है। व्यक्ति को सांसारिक जीवन की तृष्णाएँ घेरे रहती है। संसार के सभी प्राणी अपने-अपने संचित कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में उत्पन्न होते है और कर्म-फल भोगते है। कर्म-फल ही जन्म तथा मृत्यु का कारण है। कर्म-फल से छुटकारा पाकर ही व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर हो सकता है।
- जैन धर्म में ‘संसार’ को एक वास्तविक तथ्य माना गया है, जो अनादि काल से विद्यमान है, परन्तु सृष्टिकर्ता ईश्वर नहीं हैं। जैन धर्म में भी संसारिक तृष्णा-बन्धन से मुक्ति को निर्वाण कहा गया है, और इसके लिए आवश्यक है कि पूर्व जन्म के संचित कर्म को समाप्त किया जाये एवं वर्तमान जीवन कर्म-फल संग्रह से मुक्त हो।
- कर्म-फल से छुटकारा पाने के लिए ‘त्रि-रत्न’ का अनुशीलन आवश्यक बताया गया है-
1. सम्यक् दर्शन (सत् में विश्वास)
2. सम्यक् ज्ञान (शंकाविहीन तथा वास्तविक ज्ञान)
बौद्ध धर्म के विभिन्न संप्रदाय
• महायान: इसकी स्थापना नागर्जुन ने की थी। महायानी लोग बोधिसत्व, बोधिसत्व की मूर्ति तथा संस्कृत भाषा आदि के प्रयोग में विश्वास करते थे। उन्होंने बुद्ध को अवतार मानकर उनकी मूर्ति बनाकर उपासना करना आरम्भ कर दिया। यह संप्रदाय तिब्बत, चीन, कोरिया, मंगोलिया और जापान में फैला। वसुमित्र, अश्वघोष, कनिष्क और नागार्जुन इसके प्रमुख प्रवत्र्तक थे।
• हीनयान: जिन अनुयायियों ने बिना किसी परिवर्तन के बुद्ध के मूल उपदेशों को स्वीकार किया, वे हीनयानी कहलाए। श्रीलंका, बर्मा, स्याम, जावा आदि देशों में इस सम्प्रदाय के लोग है।
• वज्रयान: सातवीं सदी आते-आते बौद्ध धर्म का एक नया रूप सामने आया, जिसे वज्रयान कहते है। इस सम्प्रदाय के अनुयायियों ने बुद्ध को अलौकिक सिद्धियों वाला पुरुष माना। इसमें मंत्र, हठयोग और तांत्रिक आचारों की प्रधानता थी।
3. सम्यक् आचरण (सांसारिक विषयों से उत्पन्न सुःख-दुःख के प्रति समभाव)
- त्रि-रत्न के अनुशीलन में आचरण पर अत्यधिक बल दिया गया है, और इस सम्बन्ध में 5 महाव्रतों के पालन का विधान किया गया हैः
(क) अहिंसा, (ख) सत्य वचन, (ग) अस्तेय, (घ) ब्रह्मचर्य, (ङ) अपरिग्रह।
- गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वालों के लिए भी इन्हीं व्रतों की व्यवस्था है, किन्तु इनकी कठोरता में पर्याप्त कमी की गयी है और इन्हें ‘अणुव्रत’ कहा गया है।
- जैन धर्म में तप पर अत्यधिक बल दिया गया है। आत्मा को घेरने वाले भौतिक तत्वों का दमन करने के लिए काया-क्लेश भी आवश्यक है। जैन धर्म में काया-क्लेश के अन्तर्गत उपवास द्वारा शरीर के अंत (आत्महत्या) का भी विधान है।
- जैन धर्मानुसार संसार 6 द्रव्यों-जीवन, पुद्रल (भौतिक तत्व), धर्म, अधर्म, आकाश और काल से निर्मित है। ये द्रव्य विनाशरहित एवं शाश्वत है। जो विनाश दिखता है, वह मात्रा इन द्रव्यों का परिवर्तन है, अस्तु यह विश्व भी नित्य, शाश्वत एवं परिवर्तनशील है।
- जैन धर्म ‘आत्मा’ के अस्तित्व को स्वीकार करता है। इस संसार में ‘आत्मा’ के अतिरिक्त कुछ भी असीम नहीं है। आत्मा संसार की प्रत्येक वस्तुओं में है।
- जैन धर्म द्वैधात्मक है। इसके अनुसार प्रत्येक जीव में दो तत्व सदैव विद्यमान रहते है-1. आत्मा, 2. इसे घेरे रहने वाले भौतिक तत्व। जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण है अर्थात आत्मा को भौतिक तत्वों से मुक्त करना। जीव में आत्मिक तत्व ही सत् है, इसे आवृत करने वाला भौतिक तत्व असत् है जो सत् के ज्ञान को अवरुद्ध करता है। जिस तरह जीवन भिन्न-भिन्न होते है वैसे ही उसमें उपस्थित आत्मा भी भिन्न-भिन्न हैं।
- ज्ञान के तीन स्त्रोत माने गए हैं-
1. प्रत्यक्ष
2. अनुमान
3. तीर्थंकरों के वचन
- ज्ञान सम्बन्धी जैन सिद्धान्त की अपनी विशिष्टता है। इसके अनुसार दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण हर ज्ञान 7 विभिन्न स्वरूपों में व्यक्त किया जा सकता है-
1. है
2. नहीं है
3. है और नहीं है
4. कहा नहीं जा सकता
5. है किन्तु कहा नहीं जा सकता
6. नहीं है और कहा नहीं जा सकता
7. है, नहीं है और कहा नहीं जा सकता।
- इसी आस्ति-नास्ति (है-नहीं है) के स्वरूप को सप्तभंगी ज्ञान के रूप में ‘स्याद्वाद’ तथा ‘अनेकांतवाद’ भी कहते है।
- महावीर पूर्ण नग्नता के पक्षपाती थे जबकि पाश्र्व ने अनुयायियों को वस्त्र धारण करने की अनुमति दी थी। काया-क्लेशवादी धर्म के लिए पूर्ण नग्नता का सिद्धान्त स्वाभाविक था। महावीर ने पाश्र्वनाथ के चार व्रतों में पाँचवा ब्रह्मचर्य महाव्रत भी जोड़ा था।
जैन तथा बौद्ध धर्म में महत्वपूर्ण अन्तर
1. जैन धर्म बौद्ध धर्म से कहीं अधिक प्राचीन है।
2. जैन धर्म आत्मवादी है, जबकि बौद्ध धर्म अनात्मवादी है।
3. जैन धर्म काया क्लेश पर विश्वास करता है, जबकि बौद्ध धर्म मध्यममार्गी है।
4. दोनों के निर्वाण प्राप्ति के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। जैन धर्म में निर्वाण मृत्योपरान्त ही सम्भव है जबकि बौद्ध धर्म में जीवनकाल में ही सम्भव है।
5. जैन धर्म में बौद्ध धर्म की अपेक्षा अहिंसा पर अत्यधिक जोर दिया गया है।
6. जैन धर्म ने संसार व सृष्टि निर्माण सम्बन्धी विषय पर अपना विचार व्यक्त किया है परन्तु बौद्ध धर्म ने उसे अत्याकृत कहकर छोड़ दिया है।
7. बौद्ध धर्म ने जाति-भेद को मान्यता नहीं दी। जैन धर्म ने भी उसका विरोध किया, परन्तु व्यवहार में उसे न ला सका।
8. बौद्धों के प्रधान ग्रंथ ‘त्रिपिटक’ और जैनों के ‘आगम’ कहलाते है जो भिन्न भाषाओं में क्रमशः ‘पालि’ एवं ‘प्राकृत’ में लेखबद्ध हुए।
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1. जैन धर्म क्या है और इसका इतिहास क्या है? |
2. जैन धर्म में मुख्य सिद्धांत क्या हैं? |
3. जैन धर्म के कितने मुख्य आचार्य हैं और उनके नाम क्या हैं? |
4. जैन धर्म के प्रमुख आराध्य हैं? |
5. जैन धर्म के अनुयायी किसे कहा जाता हैं? |
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