VII. कीटनाशकों के प्रयोग से पर्यावरण पर दुष्प्रभाव भारत
• कीटाणुओं के खिलाफ युद्ध में मनुष्य ने अनेक ज़हरीले रसायनों का इस्तेमाल किया है। अनुमान है कि विश्व भर में 30 लाख टन कीट नाशकों का प्रयोग किया जाता है। इनमें से पचास से साठ प्रतिशत शाकनाशी, 20 से 30 प्रतिशत कीटाणुनाशक और दस से बीस प्रतिशत फफूंदी नाशक है। इनमें से कुछ कीटनाशकों, विशेषकर डी. डी. टी. के इस्तेमाल पर अधिकांश देशों ने प्रतिबंध लगा दिया है।
• राकेल गारसन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘साइलेंट स्प्रिंग“ में कीटनाशकों से होने वाले नुकसान का ब्यौरा प्रस्तुत किया है। पता चला है कि कीटनाशकों के इस्तेमाल से स्वीडन में सफेद पूंछ वाले गरूड़ों की आबादी में कमी आयी। इसी प्रकार कीटनाशक अंटार्कटिका में पेनगुइन्स और सी-गुल्स तथा आयरिस तट पर कई हजार समुद्री पक्षियों की मृत्यु और भारत में चीता की मृत्यु के लिये जिम्मेदार पाये गये है। अनुमान है कि कीटनाशकों के कारण प्रतिवर्ष पाँच लाख दुर्घटनायें विषाक्त भोजन के कारण होती है, जिनसे दस हजार मौतें होने का अनुमान है।
• भारत जैसे देश में, जहाँ अभी भी कीटनाशकों के समुचित इस्तेमाल के बारे में अज्ञानता बनी हुई है, ये कीटनाशक पर्यावरण और भोजन को विषाक्त बना रहे है। बाजार से एकत्रित विभिन्न खाद्य नमूना के विश्लेषण से पता चला है कि उनमें से अधिकांश कीटनाशकों के अवशिष्ट पदार्थों के कारण विषाक्त हैं। डी. डी. टी. जैसे प्रतिबंधित कीटनाशक अभी भी इस्तेमाल में लाये जा रहे है। डी. डी. टी. के पक्ष में दलील यह दी जाती है कि यह सस्ती है। इस कीटनाशक का प्रयोग शुरू में बड़े पैमाने पर किया जाता था। किन्तु इसके अवशिष्ट पदार्थों में लम्बे समय तक विषाक्तता बनी रहती है। डी. डी. टी. टिकाऊ मिश्रण है जो धीरे-धीरे मिट्टी में मिलता रहता है और अपने प्रारंभिक प्रयोग के कई वर्षों बाद भी विषैला प्रभाव उत्पन्न कर सकता है।
• भारत में कीटनाशकों के दुष्प्रभाव को समाप्त करने के लिए ‘समन्वित कीटनाशक कार्यक्रम’ चलाया जा रहा है।
VIII. ओजोन परत के क्षय के कारण
ओजोन (Ozone)- आॅक्सीजन के तीन परमाणुओं से मिलकर बनी ओजोन, जो 20 किमी. से 30 किमी. की ऊँचाई में स्ट्रैटोस्फीयर में रहती है, सूर्य से आने वाली अल्ट्रावायलेट (पराबैंगनी) घातक किरणें जिनसे कैंसर जैसी बीमारियां हो सकती है, के प्रति अवरोधक का कार्य करती है।
ओजोन क्षय के कारण
• नाइट्रोजन के आॅक्साइड, पराबैंगनी किरणों की उपस्थिति में ओजोन को आॅक्सीजन अणुओं में बदल देते है। नाइट्रोजन-आक्साइड की कम मात्रा भी ओजोन नष्ट करने की प्रक्रिया में उत्प्रेरक का कार्य कर सकती है। इस क्रिया के उपरान्त बचने वाला सह-उत्पाद (Ley-Product) नाइट्रिक- आक्साइड पुनः इस प्रक्रिया को आरम्भ करने के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है।
• क्लोरीन, मीथेन और कुछ हद तक हाइड्रोजन भी दूसरे एजेन्ट है, जो ओजोन को नष्ट करने में सहायक होते है। पृथ्वी के ऊपरी वातावरण में इन तत्वों के अनुपात की जरा भी वृद्धि ओजोन के नष्ट करने की प्रक्रिया को और तीव्र कर देगी।
• यह पता लगाया गया कि कुछ विशेष रसायन जैसे- क्लोरोफ्लोरोकार्बन (Chloro-Floro-Carbons—CFCs) ओजोन परत को नष्ट करने में प्रमुख भूमिका निभा रहा है। CFCs अभिर्मक गैसें होती है जो रेफ्रिजरेशन, वातानुकूलन, सौन्दर्य प्रसाधन-सम्बन्धी स्प्रे आदि में बहुतायत में प्रयुक्त होती है। ऊँची उड़ान भरने वाले सुपर सोनिक जेट विमानों से भी काफी खतरा है। इसी प्रकार अंतरिक्ष में जाने वाले राकेटों के इंजनों से निकलने वाली गैस ओजोन परमाणुओं को नुकसान पहंुचाती है।
ओजोन क्षय के दुष्परिणाम
• ओजोन पराबैंगनी किरणों (अल्ट्रावायलेट रेज) से पृथ्वी की रक्षा करती है। ओजोन परत के कमजोर होने से पराबैंगनी किरणें सीधे धरती पर पडे़गी जो जीवमण्डल के लिये नुकसानदायक है। साथ ही पादपगृह पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ता है। अनुमान है कि ओजोन की परत में एक प्रतिशत की कमजोरी से त्वचा-कैंसर के मामले में 4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होती है। न्यूजीलैंड और आॅस्ट्रेलिया में भी इस तरह की चेतावनियाँ मौसम की खबरों की तरह दी जाने लगी है। हाल ही में अमरीकी नेशनल ऐराॅनाटिक्स और अन्तरिक्ष प्रशासन ने ऐसी वैज्ञानिक स्थापनाओं की घोषणा की है जिसमें यह दर्शाया गया है कि उत्तरी न्यू इंग्लैंड, पूर्वी कनाडा, ग्रीनलैंड, ब्रिटिश आईसलेस, स्कडेनविया और रूस के ऊपर ओजोन की परत में रिकार्ड कमजोरी आयी है।
मांट्रियल समझौता
• ओजोन की परत में छेद के विस्तार के खतरे के बारे में बीस औद्योगिक राष्ट्रों ने ऐतिहासिक उपाय पहले ही शुरू कर दिये है और सितम्बर 1987 में मांट्रियल में एक समझौते पर हस्ताक्षर करके यह संकल्प व्यक्त किया है कि सन् 2000 तक चरणबद्ध तरीके से सी. एफ. सी. को वायुमण्डल में जाने से रोका जायेगा। माण्ट्रियल समझौते पर 34 देशों ने हस्ताक्षर किये, लेकिन भारत और तीसरी दुनियाँ के अनेक देशों ने इस पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था और इसे विकासशील देशों के प्रति भेदभावपूर्ण बताया था।
• जून 1990 में लंदन में हुई एक बैठक में तीसरी दुनिया के देशों को कुछ प्रमुख रियासतें दी गयीं। उन्हें दस वर्ष का समय दिया गया जिससे वे 2010 तक सी. एफ. सी. पर रोक लगा सकें साथ ही विकसित देशों ने विश्व बैंक द्वारा संचालित 24 करोड़ डाॅलर के कोष की स्थापना पर भी सहमति व्यक्त की। इसकी स्थापना की सिफारिश संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा की गयी थी। इस कोष से विकासशील देशों को सी. एफ. सी. के विकल्प तलाशने में सहायता दी जायेगी। भारत और चीन को इस कोष से चार करोड़ डाॅलर मिलेंगे।
VIII. अम्ल-वर्षा
• मुख्यतः उद्योगों एवं यातायात के उपकरणों से निःसृत होने वाली SO2, NO और CO2 गैसे वायुमंडल में स्थित जलवाष्प से प्रतिक्रिया करके सल्फ्यूरिक और नाइट्रिक अम्ल बनाती हैं और ओस या वर्षा की बूंदों के रूप में वापस पृथ्वी पर गिरती हैं, यही अम्ल वर्षा कहलाता है।
• यह पृथ्वी के समस्त प्राणी समुदायों के लिए घातक सिद्ध होता है। यह मकान, संगमरमर, वन जीवन, सूती कपड़ा, भूमि आदि के लिए भी घातक होता है।
• स्केंडेनेवियाई देशों और खाड़ी देशों में अम्ल वर्षा होती है।
• इसे रोकने के लिए वायु प्रदूषण को समाप्त करना होगा।
IX. हरित गैस प्रभाव और बढ़ता तापमान।
• वायुमंडल द्वारा प्राप्त सूर्य ताप पृथ्वी के तापमान को नियंत्रित करता है। सूर्य से उत्पन्न लघु तरंग की विकिरण आसानी से वायुमंडल को पार कर धरती पर पहुँच जाती है लेकिन पृथ्वी से दीर्घ तरंग के रूप में होने वाला पार्थिव विकिरण वायुमंडल के जलवाष्प और CO2, NO, CFC तथा अन्य गैसों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। अगर यह क्रिया संतुलित रूप में हो, तो इससे धरती और वायुमंडल का ताप संतुलन कायम रहता है। वायुमंडल का यह प्रभाव हरित घर के ग्लाश के समान कार्य करता है।
हरित गैस प्रभाव की विशेषता
(1) यह धरती पर ताप संतुलन कायम रखता है।
(2) इसके अभाव में पृथ्वी का तापमान बहुत नीचे गिर जाता, जैसे-साफ रातें बादल वाली रातों की तुलना में अधिक ठंडी होती हैं।
(3) वायु प्रदूषण और वनों के हास के कारण हरित गैसों की मात्रा में (CO2 आदि) काफी वृद्धि हुई है जिससे पृथ्वी पर तापमान में अतिशय वृद्धि और ताप-संतुलन बिगड़ने का खतरा मंडरा रहा है।
(4) हरित गैसों की मात्रा में वृद्धि से पृथ्वी पर तापमान में वृद्धि हो रही है जिससे पर्वतीय और ध्रुवीय हिम जमाव के पिघलने से नदी घाटियों, मैदानों के निचले भागों में बाढ़ और समुद्र के जलस्तर में वृद्धि से समुद्र तटीय नगरों, अधिवासों औरनिम्न स्थलीय द्वीपों आदि के डूबने का खतरा उत्पन्न हो गया है और पृथ्वी के वृहत् भागों में सूखा संकट मंडराने लगा है। पिछले सौ वर्षों में CO2 की मात्रा में 25% और औसत ताप में 0.3॰ से 0.7 ॰C की वृद्धि हुई है। इस प्रकार मौसम में बदलाव के लिए हरित गृह प्रभाव सर्वाधिक जिम्मेदार है।
हरित गैस प्रभाव को वायुमंडल में संतुलित अवस्था में रखने हेतु निम्न उपाय करना होगा
(1) वायु प्रदूषण के कारण वायुमंडल में निःसृत हरित गैसों की विशाल मात्रा को नियंत्रित करना होगा।
(2) हरित गैसों को वायुमंडल में संतुलित रखने के लिए बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण करना होगा।
हरित गैस प्रभाव पर विश्व समझौता
• 1992 में रियो पृथ्वी सम्मेलन में विश्व जलवायु परिवर्तन पर एक समझौता हुआ जिसका उद्देश्य वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों के एकत्राीकरण को स्थिर करके पृथ्वी की जलवायु प्रणाली में हस्तक्षेप के क्रम को रोकना है। समझौते में प्रस्ताव यह है कि इस दशक के अंत तक ग्रीन हाउस गैसों को 1993 के स्तर तक ले आया जाएगा।
भारत में प्रयास
• भारत में वन अनुसंधान तथा शिक्षण परिषद लकड़ी वगैरह जलाने के प्रभावों से संबंधित अनुसंधान का संचालन कर रही है, जबकि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग और राष्ट्रीय सागर विज्ञान संस्थान क्रमशः वायुमंडलीय परिवर्तन तथा समुद्र जल स्तर की संभावित वृद्धि का अध्ययन कर रही है।
• वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने धान के खेतों से मीथेन उत्सर्जन का अध्ययन किया है। इसके निष्कर्षों से विकासशील देशों में होने वाले मीथेन उत्सर्जन के स्तर के संबंध में विकसित देशों की मान्यता की पुष्टि नहीं हो पायी।
X. जल भूमि का महत्व और भारत में जलभूमि क्षेत्र
• ताल झील के प्रबन्ध और संरक्षण के उपायों के साथ ही लोगों में इनके महत्व और उपयोगिता को भी प्रचारित किया जा रहा है। जल भूमि की उत्पादकता के बारे में वैज्ञानिक और व्यावहारिक अनुसंधान और अध्ययन कार्य भी शुरू किया जा चुका है। प्रबन्ध कार्य योजना लागू करने के लिये सरकार ने 10 जल भूमि क्षेत्रों का पता लगाया है। ये 10 जल भूमि क्षेत्र हैं-आन्ध्र प्रदेश में कोल्लूर, जम्मू-कश्मीर में बूलर, उड़ीसा में चिल्का, मणिपुर में लोकतक, मध्यप्रदेश में भोज, राजस्थान में साम्भर और पिछौला, केरल में अण्टमुद्री, पंजाब में हरिके तथा महाराष्ट्र में उजनी इनमें से प्रत्येक जल भूमि के लिए केन्द्रीय अध्ययन और अनुसंधान संस्थान का भी पता लगा लिया गया है।
XI. कच्छ वनस्पति का महत्व और भारत में इसके क्षेत्र
• मुख्य रूप से उष्ण-कटिबन्धीय या उसके निकटवर्ती भूभाग में, समुद्रतट पर, जहाँ ज्वार आते रहते हैं, खारे पानी में उगने वाले वनों को कच्छ-वनस्पति नाम दिया गया है। कच्छ वनस्पति का महत्व पर्यावरण के क्षेत्र में भी है। अतः इसके संरक्षण की आवश्यकता और उपयोगिता के बारे में जनता को शिक्षित करने तथा कच्छ-वनस्पतियों की उत्पादकता, उसमें उपस्थित वनस्पतियों (सूक्ष्म अथवा स्थूल) और प्राणियों आदि के बारे में वैज्ञानिक और व्यावहारिक अनुसंधान के लिए कई प्रयास किये जा रहे हैं।
• प्रबन्ध कार्य योजना तैयार करने के लिए 15 क्षेत्रों का चुनाव किया गया है। ये क्षेत्र हैं-उत्तरी अण्डमान और निकोबार, सुन्दरवन (प. बंगाल), भीतर कणिका (उड़ीसा), कोरिंगा (आन्ध्र प्रदेश), गोदावरी का मुहाना (उड़ीसा), कच्छ की खाड़ी (गुजरात), कुंदपुर (कर्नाटक), अचरा रत्नागिरी (महाराष्ट्र), वेम्बानाट (केरल), पाइट कैलीमियर (तमिलनाडु), कृष्णा का मुहाना (आन्ध्र प्रदेश)।
XII. पर्यावरण प्रदूषण के कारण तथा इसे रोकने हेतु सुझाव
1. पर्यावरण प्रदूषित होने का एक प्रमुख कारण भारत में हो रहे संसाधनों की कमी है, कारण कि जनसंख्या वृद्धि होने के साथ-साथ जमीन, खनिजों, कृषि उत्पादों, ऊर्जा तथा आवास की प्रति व्यक्ति उपलब्धता कम होती जा रही है।
2. तेजी से बढ़ते औद्योगीकरण से पर्यावरण सर्वाधिक प्रदूषित हुआ है। इससे पेड़ पौधों के साथ-साथ जीव-जन्तु भी मरने लगे है।
3. आज पर्यावरण प्रदूषण का खतरा रासायनिक पदार्थों, जहरीले धुएं आदि से उतना अधिक नहीं है जितना पृथ्वी के वायुमण्डल के तापमान के बढ़ने से उत्पन्न हुआ है।
4. जंगलों का अन्धा-धुंध काटा जाना तथा जनसंख्या में वृद्धि से पर्यावरण में असंतुलन पैदा हुआ है।
5. जन्तु चक्र को भी पर्यावरण प्रदूषण ने काफी हद तक प्रभावित किया है। समय पर वर्षा का न होना, भयंकर बाढ़, भूकम्प, महामारी एवं सूखा पड़ना आदि विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं का कारण पर्यावरण का प्रदूषण ही है। इससे तरह-तरह की बीमारियां फैलती है, कृषि की उपज कम हुई है-जो ऋतु चक्र की अनियमितता की वजह से हुआ है।
6. पर्यावरण प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोतों का अन्धा-धुन्ध उपयोग है। यदि समय रहते इस पर रोक नहीं लगाई गई तो परिस्थितियां तेजी से प्रतिकूल दिशा में बढ़ती हुई हमारे नियंत्राण से बाहर हो जाएंगी।
सुझाव
• बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए रचनात्मक दिशा प्रदान करनी होगी जिससे न तो पर्यावरण प्रदूषण हो और न ही आर्थिक सामाजिक विकास ही बाधित हो।
• हमें उद्योगीकरण के विकास को जारी रखते हुए यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पर्यावरण प्रदूषण कम-से-कम हो; अधिकाधिक छायायुक्त, फलयुक्त एवं इमारती लकड़ी वाले वृक्षों की रोपाई पर विशेष जोर देना चाहिए।
• वनों की अन्धाधुंध कटाई पर सरकार को सख्ती बरतनी चाहिए। भूमि को बंजर होने से बचाने, पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने तथा वनरोपण हेतु सिंचाई की व्यवस्था में सुधार के लिए सघन वृक्षारोपण कार्यक्रम चलाया जाना चाहिए और योजना आयोग, पर्यावरण और वन विभाग, गैर परम्परागत ऊर्जा विभाग, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी विभागों के बीच ऐसा समन्वय हो कि ये विभाग पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कृत संकल्प हों।
• पर्यावरणीय संरक्षण हेतु किये गये कारगर उपायों एवं प्रावधानों का हम नागरिकों द्वारा न केवल स्वागत होना चाहिए बल्कि जिम्मेवारीपूर्वक उसका पालन भी करना चाहिए।
XIII. सुपर थर्मल पावर स्टेशन
• वृहत् स्तरीय सामथ्र्य वाले थर्मल पावर स्टेशन जो केन्द्र द्वारा संचालित हैं, उन्हें सुपर थर्मल पावर स्टेशन कहा जाता है क्योंकि इनका आकार विस्तृत तथा प्रविधि आधुनिकतम होती है। इसमें शक्ति के उत्पादन में कम खर्च, सामान्य सुविधायें होती है। साथ ही साथ इससे प्रदूषण उत्पन्न होने की सम्भावना अल्प रहती है। नेशनल थर्मल पावर कारपोरेशन (NTPC) इसका मुख्य उदाहरण है। इसके स्टेशन इस समय भारत में हैं-सिंगरौली (उ. प्र.), कोरबा (2100 MW) मध्य प्रदेश में, रामागुण्डम् (2100 MW) आन्ध्र प्रदेश में, फरक्का (2100 MW) प. बंगाल में है।
XIV. जैविक खाद के प्रकार और लाभ
• इस समय हमारी खेती के लिए प्रतिवर्ष एक करोड़ तीस लाख टन उर्वरकों की खपत होती है। अनुमान है कि सन् 2000 तक खपत का यह स्तर बढ़कर दो करोड़ तीस लाख टन हो जायेगा।
• अधिक पैदावार देने वाली किस्मों की खेती के लिए रासायनिक उर्वरकों की निरन्तर बढ़ती जा रही मांग और उर्वरकों के उत्पादन पर होने वाले खर्च में वृद्धि के कारण फसलें उगाना महंगा होता जा रहा है, जिससे भारतीय कृषि को पोषण संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इस संदर्भ में यह अनिवार्य समझा गया है कि फसलों के पोषक तत्वों की आपूर्ति के बार-बार इस्तेमाल किये जा सकने वाले वैकल्पिक स्त्रोतों पर विचार किया जाये। ऐसे ही एक स्त्रोत के रूप में जैविक खादों पर जोर दिया जा रहा है।
• जैविक उर्वरकों को मोटे तौर पर तीन भागों में बाँटा जाता है-
1. नाइट्रोजनयुक्त जैविक उर्वरक,
2. फास्फेट जुटाने वाले जैविक उर्वरक,
3. सेल्यूलोलाईट या जैविक अपघटक।
1. नाइट्रोजनयुक्त उर्वरक- (क) फलीदार राइबोजियम के लिए एन. बी. एफ. (ख) अनाजों के लिए एजोटोबैक्टर, ऐजोस्पिरिलियम, ऐजोला, बी. जी. ए.।
2. फास्फेट जुटाने वाले जैविक उर्वरक- (क) फास्फेट सोल्यूबिलाइजर-वासिल्यूस, स्यूडोमोनास, एस्परगिल्यूस; (ख) फास्फेट एब्जाॅर्वर-वी. ए.-माइक्रोहिजा, वी. ए. एम-ग्लोमस।
जैविक उर्वरकों के लाभ
1. राइजोबियम बायो फर्टिलाइजर से प्रतिवर्ष प्रति हेक्टेयर 50 से 200 किलोग्राम तक नाइट्रोजन मिल सकता है।
2. इससे उत्पादन में 25 से 30ः तक वृद्धि होती है और 40 से 80 किलोग्राम तक नाइट्रोजन अगली फसल के लिए खेत में सुरक्षित रहता है।
3. बी. जी. ए. से चावल के खेत में 20 से 25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की वृद्धि हो सकती है।
4. जैविक उर्वरक (बी. जी. ए., एजोटोवैक्टर और एजोस्पिरिलियम) पौधों को वृद्धि-कारकों की आपूर्ति भी करते हैं जैसे-आई. ए. ए., आई. बी. ए. और एन. ए. ए. तथा जी. ए. से लेकर जी. ए. 33 और विटामिन।
5. एजोटोवैक्टर और ऐजोस्पिरिलियम में एंटीबायोटिक्स भी छिपे होते हैं जो कीटनाशकों के रूप में काम करते है अतः ये जैव-कीटनाशकों के रूप में भी काम करते हैं।
6. ऐजोला से न केवल नाइट्रोजन की आपूर्ति होती है बल्कि बायोमास के रूप में जैविक पदार्थों में वृद्धि होती है और इससे भूमि की उर्वरता बढ़ती है।
7. इनसे भूमि की भौतिक संपत्तियों में वृद्धि होती है, जैसे-संरचना, बनावट, रासायनिक संपत्तियों, जैसे-जलशोषण शक्ति, धरती की कैटायन विनिमय क्षमता, मिट्टी की बफर क्षमता आदि।
8. इससे मिट्टी की उपयोगी माइक्रोआर्गेनिज्म क्षमता यानी मिट्टी की जैविक संपत्ति में वृद्धि होती है।
9. इनसे लागत में कमी आती है और ये अत्यन्त प्रभावशाली और बार-बार निवेश किये जा सकने वाले हैं।
10. ये पारिस्थितिकी की दृष्टि व टैक्नोलोजी की दृष्टि से संभाव्य और किसानों के लिए सामाजिक दृष्टि से स्वीकार्य निवेश है।
सफल संचारण संबंधी कारक- इन उर्वरकों का सफल संचरण मिट्टी और पर्यावरण संबंधी विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है-
1. जैविक पदार्थ की आयु- ताजा जैविक पदार्थ में सूक्ष्म जैविक क्षमता अधिक होती है।
2. परपोषी विशिष्टता-राइजोबियम के मामले में कल्चर के बैक्टिरिया परपोषी दृष्टि से सक्षम होने चाहिए।
3. बीज उपचार और बुआई-उपचार के बाद बीजों की बुआई कारगर सिद्ध होती है।
4. रासायनिक नाइट्रोजन-शुरू में नाइट्रोजन की मात्रा देने से राइजोबियम से बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं।
5. खनिज लवण-फास्फोरस, पोटास, एम. ओ. और सी. ओ. ग्रन्थियो के विकास के लिए अनिवार्य है।
XV. पर्यावरण संबंधी कानून
• पर्यावरण संरक्षण से सीधे-सीधे संबंधित महत्वपूर्ण कानून इस प्रकार हैं- वन्यजीवन संरक्षण अधिनियम, 1972; वन सरंक्षण अधिनियम, 1980; जल (प्रदूषण से बचाव और नियंत्राण) अधिनियम, 1974; जल उपस्कर अधिनियम, 1977; वायु (प्रदूषण से बचाव और नियंत्राण) अधिनियम, 1981; पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986; लोक दायित्व बीमा अधिनियम, 1972 वन्य-जीवों के विवेकपूर्ण और आधुनिक प्रबंध की व्यवस्था करता है जबकि वन संरक्षण अधिनियम, 1980 वनों की अंधाधुंघ कटाई और वन भूमि का इतर उपयोग करने से रोकने के लिए बनाया गया था। जल और वायु अधिनियम पानी और हवा के प्रदूषण को नियंत्रित करने का प्रमुख औजार है। इनके अंतर्गत केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्राण बोर्ड स्थापित करने की व्यवस्था की गई है। लोक दायित्व बीमा अधिनियम, 1991 किसी भी किस्त कें खतरनाक पदार्थ के इस्तेमाल के दौरान हुई दुर्घटना से प्रभावित लोगों का तत्काल राहत देने के उद्देश्य से अनिवार्य ट्रिब्यूनल अधिनियम, 1995 खतरनाक पदार्थों के इस्तेमाल से व्यक्ति, संपत्ति और पर्यावरण को होने वाली हानि के लिए क्षतिपूर्ति हेतु अधिनिर्णय के लिए ट्रिब्यूनल के गठन की व्यवस्था करता है। ताकि उनके कार्यक्षेत्रा, विस्तार और दंडात्मक प्रावधानों को तर्कसंगत और विस्तृत बनाया जा सके।