UPSC Exam  >  UPSC Notes  >  सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi  >  प्राणि विज्ञान (भाग - 3) - जीव विज्ञान, सामान्य विज्ञान, UPSC

प्राणि विज्ञान (भाग - 3) - जीव विज्ञान, सामान्य विज्ञान, UPSC | सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

तंत्रिका तंत्र (Nervous System)
मस्तिष्क (Brain)
- इसे तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-
1. अग्र भाग (Fore Brain): इसके अंतर्गत दो आॅलफैक्टरी बल्ब, दो सिरिब्रल हेमीस्फेयर और एक डायनसिफेलाॅन आते है। इनमें सिरिब्रल हेमीस्फेयर का आकार इतना बृहत् होता है कि यह पीछे बढ़कर न सिर्फ मस्तिष्क के मध्य भाग को ढकता है बल्कि पिछले भाग में सेरिबेल्लमध्को छूता है। यह मस्तिष्क का करीब 2/3 हिस्सा होता है। दोनों हेमीस्फेयर ”काॅर्पस कैलोसम“ (Corpus callosum) तंतु द्वारा जुड़े रहते है। सिरिब्रल हेमीस्फेयर के ऊपर तथा नीचे क्रमशः आॅलफैक्टरी बल्ब तथा डायनसिफेलाॅन होते है।
2. मध्य भाग (Mid Brain): इसकी छत में दो आॅप्टीक लोब्स (Optic Lobes) होते है जो एक दूसरे से आॅप्टिक चियाज्मा (Optic Chiasma) द्वारा जुड़े रहते है।
3. पश्च भाग (Hind Brain): इसमें सेरिबेल्लम और चैड़ा तथा त्रिभुजाकार मेड्यूला होता है।     

  • मस्तिष्क का भार पूरे शरीर के भार का लगभग 3% होता है। 
  • जो आक्सीजन हम श्वांस द्वारा ग्रहण करते है उसका लगभग 20% आॅक्सीजन मस्तिष्क उपयोग में लाता है और जो खाना हम खाते है उसका भी लगभग 20% कैलोरी ऊर्जा केवल मस्तिष्क उपयोग करता है।

मस्तिष्क के कार्य
1. आॅलफैक्टरी बल्ब (Olfactory bulb): यह गंध ग्रहण करने वाले अंग से सम्बद्ध है।
2. सिरिब्रल हेमीस्फेयर्स (Cerebral Hemispheres): यह नाक, आँख, कान और स्पर्श ज्ञान सम्बन्धी संवेदना ग्रहण करने तथा उन्हें नियंत्रित करने से सम्बद्ध है। इसके अतिरिक्त यह निम्नलिखित के लिए भी उत्तरदायी है-

याददाश्त, चतुराई, सहजीविता, कल्पनाशक्ति, स्वयं को नियंत्रित करने की शक्ति तथा अनुभव। 

  • हेमीस्फेयर का बायां भाग शरीर के दाएँ तरफ के पेशियों को तथा दायाँ भाग शरीर के बाएँ तरफ के पेशियों को नियंत्रित करता है और संवेदनाएँ ग्रहण करता है। 
  • बाएँ हाथ से कार्य करने वाले (Left Handed) मनुष्य में हेमीस्फेयर की ये नियंत्रण क्रियाएँ विपरीत होती हैं। 
  • किसी कारणवश मस्तिष्क के अन्दर रक्त का अभाव होना ही बेहोशी का कारण होता है।

3. डायनसिफेलाॅन (Diencephalon): यह मस्तिष्क के पिछले हिस्से से प्राप्त संवेदना सिरिब्रल हेमीस्फेयर्स को पहुँचाती है। यह ऊष्मा, शीत, दर्द, शरीर की गति आदि की संवेदना को ग्रहण करती है तथा आॅटोनोमिक तंत्रिका तंत्र (Autonomic Nervous System) को नियंत्रित करती है।
4. आॅप्टिक लोब्स (Optic Lobes): अग्र आॅप्टिक लोब हेमीस्फेयर के सहयोग से देखने की शक्ति नियंत्रित करता है जबकि पश्च लोब सुनने की शक्ति को।
5. सेरिबेल्लम (Cerebellum): यह सिरिब्रल हेमीस्फेयर द्वारा भेजे आदेश को संतुलित तथा समायोजित करती है।
6. मेड्यूला आॅबलोंगाटा (Medulla oblongata): यह शरीर की जटिल मांशपेशीय गति को नियंत्रित करता है।

  • हमारे शरीर में एक बहुत ही जटिल क्षेत्र है जिसे हम ‘निद्रा केन्द्र’ कहते है। रक्त में घुला हुआ कैल्सियम इस निद्रा केन्द्र को नियंत्रित करता है।
  • जब कैल्सियम की एक निश्चित मात्र रक्त द्वारा निद्रा-केन्द्र तक पहुँचा दी जाती है तो हमें नींद आ जाती है।
  • छाती तथा गर्दन के पास जो वसा कोशिकाएँ होती है वहाँ हुए आॅक्सीकरण के फलस्वरूप ।ज्च् का संश्लेषण नहीं होता जिसके कारण उत्पन्न ऊर्जा ऊष्मा के रूप में बाहर निकलती है।
  • एक अवधि के बाद इससे उत्पन्न ऊष्मा इतनी होती है कि यह हमारे श्वासनली को काफी गर्म कर देती है, फलस्वरूप यह ऊष्मा ऊर्जा रक्त के माध्यम से मस्तिष्क में पहुँचती है और हम सोये से जग जाते है।
  • मानव में स्नायु-संवेगों की सबसे तेज गति 288 कि. मी. या 180 मील/घंटा आँकी गयी है। आयु के बढ़ने के साथ यह गति 15ः धीमी हो जाती है।
  • शरीर में लगभग 100 अस्थि-संधियाँ (Joints), 100,000 कि. मी. रक्त नली तथा 130,000 लाख तंत्रिका कोशिकाएँ (nerve cells) होती है।

 

मूत्र बनने का सारांश

अंग का नाम

कार्य

निर्गत हुए पदार्थ

ग्लोमेरूलस (Glomerulus)

छानना

जल; सभी प्रकार के घुले पदार्थ (रक्त प्रोटीन को छोड़कर)

नजदीक वाली नलिका तथा हेनले का लूप दूर वाली नलिका

पुनः अवशोषण (आवश्यक जल का) पुनः अवशोषण; आॅसमोसिम द्वारा

Na+ और कुछ अन्य आयन, ग्लूकोज तथा अमीनो अम्ल, Cl, HNO3, जल Na+ और कुछ अन्य आयन

मूत्र संग्रह करने वाली नली

जल का पुनः अवशोषण

जल, NH3, K+, H+ और कुछ अन्य पदार्थ

 

कुछ सामान्य खाद्य पदार्थों के प्रमुख अवयव

 

खाद्य पदार्थ

कार्बोहाइड्रेट:

वसा:

प्रोटीन:

चावल (पका हुआ)

23.8

0.1

2.3

आलू

20

0.1

1.9

डबल रोटी

57.3

4.2

9.6

अंडा

-

0.3

11.9

पालक

3.2

0.3

1.6

मटर

16.7

0.5

5.2

केला        

20.0

0.5

1.0

बन्द गोभी

5.5

0.3

1.2

सेब

12.9

0.5

1.0

दाल

60

1-2

17-30

सोयाबीन

-

20

42

 


प्रतिवर्ती क्रिया (Reflex Action)

  • सभी जन्तुओं की क्रियाएँ दो प्रकार की होती है-ऐच्छिक  (voluntary) तथा अनैच्छिक (involuntary)। ऐच्छिक क्रियाएँ इच्छाशक्ति के अधीन होती है तथा मस्तिष्क द्वारा नियन्त्रिात होती हैं।
  • इसके विपरीत, वे क्रियाएँ जो इच्छाशक्ति के अधीन नहीं होती, अनैच्छिक क्रियाएँ कहलाती है।
  • ये क्रियाएँ रीढ़-रज्जु या मेरु-रज्जु द्वारा नियंत्रित होती है। उदाहरण के लिए, अगर एक ऐसे मेढक को जिसका मस्तिष्क नष्ट कर दिया गया हो लेकिन रीढ़-रज्जू या मेरु-रज्जू पूर्ण सुरक्षित हो, एक धागे से बाँधकर दीवार से लटका दिया जाए तथा उसकी टाँगों में कोई अम्ल (acid) या गरम लोहा छुआ दिया जाए, तो वह अपनी टाँगों को झटके से ऊपर उठाने की कोशिश करेगा।
  • मस्तिष्क के नष्ट होने से यह स्पष्ट है कि यह क्रिया रीढ़-रज्जु द्वारा ही नियंत्रित होती है। इसी प्रकार, मनुष्य में दिनचर्या की अनेक क्रियाएँ, जैसे-खाने की वस्तु देखकर मुँह में पानी आना, आँखों का झपकना, डर से काँपने लगना इत्यादि भी अनैच्छिक क्रियाएँ है, जो सभी मेरु-रज्जु द्वारा नियंत्रित होती है। सभी अनैच्छिक क्रियाओं को प्रतिवर्ती क्रियाएँ कहते है।
  • प्रतिवर्ती क्रिया में उद्दीपनों या संवेदनाओं को त्वचा या अन्य ग्राही अंगों से संवेदना-मार्ग द्वारा तंत्रिका-केन्द्र (मेरु-रज्जु) में पहुँचा दिया जाता है। यहाँ से संवेदना प्राप्त कर उचित आदेश निर्गत होता है। ये आदेश प्रेरक मार्ग से होते हुए अपवाही अंगों में पहुँचते है जहाँ तंत्रिका-केन्द्र के आदेशानुसार कार्य होता है। आवेगों या संवेदनाओं या उद्दीपनों का संचरण निम्नलिखित प्रकार से होता है-

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  • आवेग-संचरण के सम्पूर्ण पथ को प्रतिवर्ती चाप (reflex arc) कहते है।
  • अधिकतर प्रतिवर्तन मेरु-रज्जु से सम्बन्धित होते है, इसलिए उन्हें मेरु-प्रतिवर्तन कहते है। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मस्तिष्क में कोई प्रतिवर्ती चाप नहीं होता। उदाहरण के लिए, पलक झपकने की प्रतिवर्ती क्रिया का सम्बन्ध मस्तिष्क में पाये जाने वाले प्रतिवर्ती चाप से होता है।


 

माता-पिता के रक्त समूह के आधार पर बच्चे के रक्त समूह का निर्धारण

माता-पिता का रक्त समूह

बच्चे का रक्त समूह

 

संभव

असंभव

O x O

O

A, B, AB

O x A

O

B

A x A

A

AB

O x B

O, B

A

A x B

B, AB

-

O x AB

A, B

O, AB

A x AB

 

 

                 B x AB

            A, B, AB

O

                AB x AB

 

 



नेत्र  (Eye)
- प्रत्येक नेत्र के रेटिना में 13.7 करोड़ प्रकाश संवेदनशील कोशिकाएं होती है जिनमें 13 करोड़ राॅड कोशिकाएं  (Rod cells) काली और सफेद दृष्टि के लिए तथा 0.7 करोड़ कोन कोशिकाएं (Cone cells) होती है।
- मनुष्य की आँखों की रंग संवेदनशीलता इतनी तीव्र होती है कि विशेष लेंस के प्रयोग के बिना ही वह अपनी आँखों से 1 करोड़ भिन्न रंगों को पहचान सकता है।
- आँखों की पलकों का झपकना एक अनैच्छिक (Involuntary) क्रिया है।
- औसतन हर 6 सेकेण्ड में एक बार पलक झपक जाते है। मनुष्य देखने में अनजाने ही 65% प्रयोग दायीं आँख का, 32% बायीं आँख का तथा कुल 3% दोनों आँखों का प्रयोग करता है।

- आँसू में लाइसोजाइम एन्जाइम होता है जो जीवाणुनाशी होता है और जीवाणुओं से नेत्रों की रक्षा करता है।
- आँसू का निकलना एक प्रतिवर्ती (Reflexive) क्रिया है।
 

पुष्प से संबंधित प्रमुख शब्दावलियां

एक्लेमाइडस :  बाह्य दलपुंज एवं दलपुंजरहित पुष्प

उभयलिंगी  :  पुमंग एवं जायांगयुक्त पुष्प

एकलिंगी  :  पुमंग या जायांग में से एक उपस्थित

उभयलिंगाश्रयी  : जब एक ही पौधे में दोनों प्रकार के पुष्प पाये जाते हैं

एक लिंगाश्रयी  : जब एक पौधे में नर या मादा में से कोई एक पुष्प पाया जाये

पुष्पासन   : पुष्प का चपटा भाग, जिसके ऊपर पुष्प के विभिन्न अंग लगे रहते हैं

त्रिज्या सममित  : जो पुष्प कई बार केन्द्र से होकर काटने पर दो समान भागों में बंट जाये। जैसे - गुलाब, गुड़हल

एकव्यास सममित   : जो पुष्प एक बार केन्द्र से होकर काटने पर दो समान भागों में बंट जाये। जैसे - मटर

बाह्य दलपुंज :  पुष्प की सबसे बाह्य इकाई (पंखुड़ी)

दलपुंज : बाह्य दलपुंज के अन्दर की इकाई (पंखुड़ी)

पुमंग :  पुष्प का नर जननांग। इसकी इकाई पुंकेसर कहलाती है

जायांग : पुष्प का मादा जननांग। इसकी इकाई अण्डप (Carpel) कहलाती है

परागकण : परागकोष में पाये जाते हैं

एकसंधि : जब पुंकेसर के पुतन्तु मिलकर एक पुंज बनाते हैं तथा परागकोष स्वतंत्र रहते हैं, जैसे - गुड़हल, कपास

द्विसंधि :  जब पुंकेसर के पुतंतु जुड़कर दो पुंज बनाते हैं, जैसे - मटर, सेम

बहुसंधि :  जब पुंकेसर के पुतंतु मिलकर तीन या अधिक पुंज बनाते हैं, जैसे - सेमल, रेंडी, नींबू

पुष्पक्रम : तने अथवा शाखाओं पर पुष्पों के लगे रहने के क्रम को पुष्पक्रम कहते हैं




अंतःस्त्रावी ग्रंथियां (Endocrine Glands)
- अंतःस्त्रावी ग्रंथियाँ नलीविहीन ग्रंथियाँ है। इनके स्त्रावण को हाॅरमोन कहते है जो रक्त नली में सीधी प्रवेश करती है।

उत्सर्जन तंत्र (Excretory System)
वृक्क (Kidney)
- प्रत्येक वृक्क गहरे लाल रंग की रचना है जिसका बाहरी सतह उन्नतोदर तथा अन्दर की सतह नतोदर होती है।
- दायां वृक्क, बायें वृक्क से थोड़ा ऊपर स्थित रहता है।
- वृक्क के अन्दर वाले सतह से मूत्र नली निकलती है जिसका सम्बन्ध मूत्रशय से रहता है।
- इसके अनुदैध्र्य काट में परिधीय रचना काॅर्टेक्स तथा बीच वाली रचना मेड्यूला कहलाती है।
- वृक्क में असंख्य नेफ्राॅन भरे रहते है।
- प्रत्येक नेफ्राॅन एक नली की तरह की रचना है जिसका एक छोर फैलकर कप-आकार की ”बोमेन्स कैप्स्यूल“ (Bowman's capsuls) बनाती है, जिसमें रक्त कोशिकाएँ बृहत पैमाने पर भरी रहती हैं।
- बोमेन्स कैप्स्यूल तथा रक्त कोशिकाओं के संयुक्त रूप को मैलपिघियन काॅर्पसल्स कहते हैं।
- इस काॅर्पसल्स के पीछे नेफ्राॅन की नलिका को स्त्रावण नलिका कहते है जिसमें निम्नलिखित क्षेत्र रहते है-
    1. नजदीक की मुड़ी हुई नलिका (Proximal convoluted tubule)
    2. हेनले का लूप (Loop of Henle); तथा
    3. दूर की मुड़ी हुई नलिका (Distal convoluted tubule)

 

हाॅरमोन के अल्पस्त्रावण का प्रभाव

हाॅरमोन का नाम    

 रोग

लक्षण

थायराॅक्सिन

बच्चों में जड़मानवता (Cretinism)

शरीर का बौनापन, त्वचा मोटी व पेट निकला हुआ, जीभ का बाहर निकला रहना, मंदबुद्धि।

 

वयस्कों में मिक्सोएडिमा

शरीर का मोटा या भारी होना, वृद्धावस्था के लक्षण, बाल झड़ना, क्षीण रक्त दाब आदि।

 

घेघा (Goitre)

ग्रंथि और गले का अत्यधिक फूलना।

पैराथायराॅइड

टिटेनी रोग (Tetany disease)

पेशियों और तंत्रिकाओं में अत्यधिक उत्तेजना।

एड्रिनेलिन

ऐडिसन का रोग

शरीर का निर्जलीकरण, त्वचा का रंग बदलना तथा रक्त में ग्लूकोज का कम होना।

वृद्धि हारमोन

बौनापन

बचपन में वृद्धि का रुकना; ऐसे बौने को मिजेट्स (Midgets) कहतेहै।

इन्सूलिन

मधुमेह (Diabetes)

रक्त में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ना, शरीर का निर्जलीकरण, अधूरे वसा विखंडन से बेहोशी, मृत्यु।

 

हाॅरमोन के अतिस्त्रावण का प्रभाव

रोग

लक्षण

हाइपर थायराॅडिज्म

अनावश्यक उत्तेजना, घबराहट, अत्यधिक पसीना आदि।

नेत्रा का बाहर आना

नेत्रा गोलकों के नीचे म्यूकस एकत्रा होने से नेत्रा गोलक का बाहर उभरना।

प्लम्मर का रोग (Plummer's disease)

ग्रंथि में जगह-जगह गाँठों का बनना तथा सूजन।

ओस्टिओपोरोसिस

अस्थियों का कमजोर होना, अधिक प्यास लगना।

कुशिंग रोग (Cushing's disease)

रक्त दाब बढ़ना, शरीर पर सूजन, लकवा।

एक्रोमीगैली (Acromegaly)

शरीर में अति वृद्धि होना, कुरूप दीखना, आवाज का भारी होना। रक्त में ग्लूकोज की मात्रा कम होना, उत्तेजना, थकावट, मूर्छा, मृत्यु।

 
उत्सर्जन तन्त्रा के कुछ तथ्य
- ऐसे जन्तु जो अमीनो अम्ल का उत्सर्जन मूत्रा के रूप में कर देते हैं उसे अमीनोटीलिक (Aminotelic) कहते हैं, जैसे- सीपी (Unio), घोंघा (Limnaea), एकाइनोडर्मेटा आदि।
- ऐसे जन्तु जो अमोनिया (Amonia—NH3) को उत्सर्जित करते हैं, उसे अमोनोटीलिक कहते हैं, जैसे- प्रोटोजोआ, पोरिफेरा, निडेरिया, अनेक मोलस्का, जलीय आथ्र्रोपोडा, अस्थीय मछलियाँ, कछुआ इत्यादि।
- ऐसे जन्तु जो अमोनिया से यूरिया को संश्लेषित कर उत्सर्जन करते हैं, उसे यूरियोटीलिक (Ureotelic) कहते हैं, जैसे- वयस्क उभयचर एवं सारे स्तनधारी।
- ऐसे जन्तु जो अमोनिया से यूरिक अम्ल का निर्माण ठोस रवा (Crystal) के रूप में करके उत्सर्जित करते हैं, उसे यूरिको-टेलिक (Uricotelic) कहते हैं, जैसे- पक्षी, सरीसृप, कीट आदि।
- अनेक समुद्री जन्तु अमोनिया को मिथाइलेशन (Methylation) द्वारा ट्राइमिथाइलैमिन में बदलकर इसका आॅक्सीकरण कर लेते हैं एवं इससे निर्मित ट्राइमिथाईलैमिन आॅक्साइड का उत्सर्जन कर देते हैं, जैसे- इलैस्मोब्रेक मछलियाँ, कुछ मोलस्का एवं क्रस्टेशिया।
- ऐसे जन्तु जो अपने नाइट्रोजनीय पदार्थों का ग्वानीन के रूप में उत्सर्जन करते हैं, जैसे- मकड़ियाँ, केचुआ आदि।

मानव त्वचा
- त्वचा विकार वाहक संस्थान के अंग के साथ ही माँस- पेशियों का आच्छादक भी है। इसकी मुख्यतः दो तह होती है- उपचर्म (Epidermis) और चर्म (Dermis)।
(i) उपचर्म: त्वचा का यह भाग एपिथिलियल (Epith-elial) उत्तकों की अनेक तहों द्वारा बनी होती है जिसमें स्नायु तंत्रों का जाल-सा बिछा रहता है किंतु कोई रक्त नलिका नहीं होती।
(ii) चर्म: यह संयोजी उत्तक, तन्य कोलाजन (Collagen) तंतु, अरेखित पेशी, रक्त केशिकाओं, वसा कोशिकाओं (जिन्हें एडीपोज उत्तक कहते हैं) के एक जाल जैसी संरचना के परिणामस्वरूप निर्मित होता है।
त्वचा से व्युत्पन्न संरचना
(i) बाल या रोम: यह धागे जैसी बेलनाकार संरचना है जिसका उद्गम मूलतः उपचर्म में होता है, किंतु इसकी जड़ (Follicel) चर्म में धँसा रहता है। सिबेसियस ग्रंथि से स्रावित तैलीय पदार्थ, जिसे सिबम (Sebum) कहते हैं, इसे चिकनाहट प्रदान करता है।
(ii) सिबेसियस ग्रंथि (Sebaceous gland): फ्लास्क आकार की वायवीय (alveolar) ग्रंथि जो अपने तैलीय स्रवण से बाल तथा त्वचा को मुलायम रखता है।
(iii) स्वेद ग्रंथि (Sweat gland): चर्म में स्थित घुमावदार संरचना, स्वेद ग्रंथि, त्वचा के बाहरी सतह पर सूक्ष्म छिद्र द्वारा खुलता है। स्वेद ग्रंथि रक्त द्वारा उत्सर्जित लवणीय तरल पदार्थ, स्वेद, को शरीर से बाहर निकालता है। स्वेद एक प्रकार का स्रवण है, क्योंकि त्वचा पर इसके वाष्पीकरण से शरीर को ठंडक पहुँचती है; साथ ही एक प्रकार का उत्सर्जन है, क्योंकि इसमें यूरिया और अन्य अनेक प्रकार के लवण, जैसे नमक घुलित रहते हैं।
(iv) स्तन ग्रंथि (Mammary gland): यह सिबेसियस ग्रंथि का रूपांतरण है जो सिर्फ मादा में क्रियाशील रहता है; नर में यह ग्रंथि अविकसित तथा निष्क्रिय रहता है।
(v) लेक्राइमल ग्रंथि (Lachrymal gland):  यह ग्रंथि आँखों से सम्बन्धित रहता है जो आंसू का स्रवण करता है तथा आँखों व पलकों को स्वच्छ तथा नम बनाए रखता है।
(vi) मीबोमियन ग्रंथि (Meibomian gland): ये बरौनी (Eye lash) की जड़ से सम्बन्धित रहते हैं। इसका स्रवण बरौनी को मुलायम तथा लचीला रखता है।
(vii) वैक्स ग्रंथि (Wax gland): ये कान की नलिका में स्थित रहते हैं। इसके स्रवण को ‘सेरूमेन’ (Cerumen) कहते हैं जो कान के टाइम्पेनिक झिल्ली (Tympanic membrane) की सुरक्षा करता है।
(viii) त्वचा की अन्य व्युत्पन्न रचनाएं हैं: तलवा, हथेली, नाखून, खुर, सींग, पक्षी के पंख, मछलियों के चर्म शल्क (dermal scales) आदि।
 

वनस्पति विज्ञान की शाखाएँ

आकारिकी (Morphology)

पौधों की बाह्य रचना का अध्ययन

शारीरिकी (Anatomy)

पौधों की आंतरिक संरचना का अध्ययन

ऊतिकी (Histology)

पौधों के ऊतकों (Tissues) का अध्ययन

कोशिका विज्ञान  (Cytology)

कोशिका तथा उसके विभिन्न अवयवों का सूक्ष्मदर्शी द्वारा अध्ययन

वर्गिकी (Taxonomy)

पौधों के वर्गीकरण (Classification) का अध्ययन

पारिस्थिति विज्ञान (Ecology)

पौधों तथा उसके वातावरण के पारस्परिक संबंधों का अध्ययन

आनुवंशिकी (Genetics)

पौधों के आनुवंशिक लक्षणों की वंशागति तथा भिन्नताओं का अध्ययन

शरीर-क्रिया विज्ञान (Physiology)

पौधों में होने वाली क्रियाओं जैसे कृ प्रकाश-संश्लेषण, श्वसन, वाष्पोत्सर्जन आदि का अध्ययन

भू्रण-विज्ञान (Embryology)

प्रजनन की क्रियाओं का अध्ययन

सूक्ष्म जैविकी (Microbiology)

सूक्ष्म जीवों (Micro organisms), जैसे कृ जीवाणु-विषाणु पी.पी.एल.ओ. (P.P.L.O) आदि का अध्ययन

पादप-रोग विज्ञान (Plant Pathology)

पौधों में रोगों के कारण और उपचार का अध्ययन

वनस्पति-भूगोल (Phytogeography)

पौधों के भौगोलिक वितरण और उसके कारणों का अध्ययन

आर्थिक वनस्पति विज्ञान (Economic Botany)

पौधों से प्राप्त होने वाले आर्थिक महत्व की वस्तुओं का अध्ययन

पुरा-वनस्पति विज्ञान (Palaeo-Botany)

प्राचीन वनस्पतियों के अवशेषों (Fossils) का अध्ययन

भेषज विज्ञान (Pharmacology)

औषधि के रूप में प्रयोग होने वाले पौधों का अध्ययन

शैवाल-विज्ञान (Phycology or algology)

शैवालों का अध्ययन

कवक विज्ञान (Mycology)

कवक, मोल्ड्स का अध्ययन

जीवाणु विज्ञान (Bacteriology)

जीवाणुओं का अध्ययन

विषाणु विज्ञान (Virology)

विषाणुओं का अध्ययन

लाइकेन-विज्ञान (Lichenology)

लाइकेन का अध्ययन

पेडोलाॅजी (Pedology)

मिट्टी का अध्ययन

पोमोलाॅजी (Pomology)

फलकृषि-विज्ञान

एग्रोस्टोलाॅजी (Agrostology)

घासों का अध्ययन

ब्रायोलाॅजी (Bryology)

ब्रायोफाइट्स का अध्ययन

पादप प्रजनन (Plant Breeding)

पौधों में संकरण की विधि का अध्ययन


त्वचा के रंग कणिका (Chromatophores)
- त्वचा में रंग कणिका चर्म के ऊपरी भाग में स्थित होते है । इनका आकार तारों जैसा होता है और ये निम्न प्रकार के होते है- 
(क) मेलानोफोर्स (Melanophores): मनुष्य में पाये जाने वाले इन कणिकाओं को मेलानीन (Melanin) कहते है जो गहरे भूरे या काले रंग के होते हैं।
(ख) इरिथ्रोफोर्स (Erythrophores): ये लाल रंग के कणिका है ।
(ग) लाइपोफोर्स (Lipophores): पीले रंग के कणिका।
(घ) ग्वानोफोर्स (Guanophores): इनमें कोई रंग नहीं होता बल्कि ये छोटे-छोटे रवादार ग्वानिन कण है जो प्रकाश से प्रभावित होकर रंग कणिका के परिणाम को प्रभावित करते है ।
त्वचा के कार्य-त्वचा के निम्नलिखित कार्य है: 
• बाहरी आघातों से शरीर की सुरक्षा।
• शरीर से उत्सर्जी पदार्थों का निष्कासन।
• शरीर के तापमान को सामान्य बनाए रखना।
• शरीर की बाहरी रोगाणुओं से सुरक्षा।
• स्पर्शेंद्रिय का कार्य।
 

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FAQs on प्राणि विज्ञान (भाग - 3) - जीव विज्ञान, सामान्य विज्ञान, UPSC - सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi

1. प्राणि विज्ञान क्या है?
उत्तर: प्राणि विज्ञान एक शाखा है जो जीवन के विभिन्न पहलुओं को अध्ययन करती है, जैसे जीवों का आरंभिक विकास, जीवन का रचनात्मक तंत्र, आहार-शोषण, जीवनचक्र, जीवों के विभिन्न प्रकार, और जीवों के बारे में महत्वपूर्ण विवरण।
2. प्राणि विज्ञान क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर: प्राणि विज्ञान का महत्वपूर्ण कारण है कि इससे हमें जीवन के रहस्यों को समझने में मदद मिलती है। इसके माध्यम से हम जीवों के विभिन्न पहलुओं को अध्ययन कर सकते हैं और जीवन के विभिन्न प्रकार को समझ सकते हैं। यह हमें प्राकृतिक विश्व के साथ अधिक संवाद स्थापित करने में भी मदद करता है।
3. प्राणि विज्ञान के अंतर्गत कौन-कौन से विषय शामिल हैं?
उत्तर: प्राणि विज्ञान के अंतर्गत निम्नलिखित विषय शामिल हैं: - जीवन का आरंभिक विकास - जीवन का रचनात्मक तंत्र - आहार-शोषण - जीवनचक्र - जीवों के विभिन्न प्रकार - जीवों के बारे में महत्वपूर्ण विवरण
4. प्राणि विज्ञान के लिए UPSC में कौन से परीक्षा होती है?
उत्तर: प्राणि विज्ञान सामान्य विज्ञान विषय में UPSC (संघ लोक सेवा आयोग) के अंतर्गत आने वाले परीक्षाओं में शामिल हो सकती है। इसके लिए उम्मीदवारों को सामान्य ज्ञान और विज्ञान के प्रश्नों का अध्ययन करना चाहिए।
5. प्राणि विज्ञान के लिए UPSC परीक्षा की तैयारी के लिए कौन-कौन से संसाधन महत्वपूर्ण हैं?
उत्तर: प्राणि विज्ञान के लिए UPSC परीक्षा की तैयारी के लिए निम्नलिखित संसाधनों का उपयोग किया जा सकता है: - NCERT की पुस्तकें और नोट्स - उन्नत प्राणि विज्ञान किताबें - पिछले वर्षों के UPSC पेपर्स - ऑनलाइन संसाधनों का उपयोग, जैसे कि वेबसाइट, ब्लॉग, और वीडियो - सम्पूर्णता के साथ सामान्य विज्ञान की तैयारी के लिए निरंतर अभ्यास
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प्राणि विज्ञान (भाग - 3) - जीव विज्ञान

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