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प्राणि विज्ञान (भाग - 4) - जीव विज्ञान, सामान्य विज्ञान, UPSC | सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

पेशी तंत्र (Muscular System)
- कंकाल की विभिन्न हड्डियों को गतिशील करने हेतु बहुत-सी पेशियाँ होती है।
- इन सभी पेशियों का भार हमारे शरीर के भार का 40.50 प्रतिशत अर्थात 2/5 भाग होता है।
- पेशियाँ निम्नलिखित तीन प्रकार की होती है- (i)  रेखित या कंकाल या ऐच्छिक पेशियाँ, (ii) अरेखित या अनैच्छिक पेशियाँ और (ii) हृदयपेशियाँ।
(i) रेखित पेशियाँः ये पेशियाँ बहुत अधिक सक्रिय होती है और हमारी इच्छा के अनुसार कार्य करती है, इसीलिए इनको ऐच्छिक पेशियाँ (voluntary muscles) भी कहते है। ये पेशियाँ कंकाल से संबंधित होती है, अतः इनको कंकाल पेशियाँ (skeletal muscles) भी कहते है।
- सिर को घुमाना, पैरों को चलाना, हाथों को उठाना या नीचे की ओर लाना आदि कार्य ऐच्छिक मांसपेशियों द्वारा ही होता है।
(ii) अरेखित पेशियाँः अरेखित पेशियाँ शरीर के भीतरी अंगों- जैसे आमाशय, आँत आदि में निश्चित पेशी-स्तरों में व्यवस्थित होती है।
- ये पेशियाँ स्वयं अपनी इच्छा से काम करती है और इन पर हमारी इच्छाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसीलिए इन्हें अनैच्छिक पेशियाँ भी कहते है।
- आँख की पुतली का छोटा होना, हृदय का धड़कना, साँस लेना आदि सारी क्रियाएँ अनैच्छिक पेशियों के कारण होती है।•

  • ये हमारे शरीर को ताप और शक्ति प्रदान करने में सहायता करती है।
  • ये शरीर के विभिन्न अंगों में गति लाती है।


 

जैव विकास के सिद्धांत

(i)  लैमार्कवाद

इस सिद्धांत का प्रतिपादन 1809 ई. में लैमार्क ने अपनी पुस्तक फिलासफिक जुलोजिक ;च्ीपसवेचीपर्ब ववसवहपुनमद्ध में किया था।

इस सिद्धांत के अनुसार जीवों एवं इनके अंगों में सतत बड़े होते रहने की प्राकृतिक प्रवृत्ति होती है। जीवों पर वातावरणीय परिवर्तन का सीधा प्रभाव पड़ता है। इसके कारण जीवों में विभिन्न अंगों का उपयोग घटता-बढ़ता रहता है। अधिक उपयोग में आने वाले अंगों का विकास अधिक एवं कम उपयोग में आने वाले अंगों का विकास कम होने लगता है। इसे अंगों के कम या अधिक उपयोग का सिद्धांत भी कहते हैं। इस प्रकार जीवों द्वारा उपार्जित लक्षणों की वंशागति होती है, जिसके फलस्वरूप नयी-नयी जातियां बन जाती हैं। उदाहरण - जिराफ की गर्दन का लंबा होना।   

(ii)  डार्विनवाद

इस सिद्धांत का प्रतिपादन 1831 में चाल्र्स राबर्ट डार्विन ने किया था।

यह जैव विकास का सर्वाधिक प्रसिद्ध सिद्धांत है। इस सिद्धांत के अनुसार सभी जीवों में सन्तानोत्पत्ति की प्रचुर क्षमता पायी जाती है। अतः अधिक आबादी के कारण जीवों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु दूसरे जीवों से संघर्ष करना पड़ता है। ये संघर्ष सजातीय, अन्तरजातीय तथा पर्यावरणीय होते हैं। दो सजातीय आपस में बिल्कुल समान नहीं होते हैं। ये विभिन्नतायें इनके जनकों से इन्हें वंशानुक्रम में मिलती हैं। कुछ विभिन्नतायें जीवन संघर्ष के लिए लाभदायक सिद्ध होती हैं, जबकि कुछ हानिकारक। विभिन्नतायें वातावरणीय दशाओं के अनुकूल होने पर जीव बहुमुखी जीवन संघर्ष में सफल होते हैं।

(iii)  नवडार्विनवाद

यह डार्विनवाद का ही संशोधित रूप है।

डार्विन के पश्चात् इसके समर्थकों द्वारा डार्विनवाद को जीनवाद के ढांचे में ढाल दिया गया। इसे ही नवडार्विनवाद की संज्ञा दी गयी।

(iv)  उत्परिवर्तन

यह सिद्धांत प्रसिद्ध जैवशास्त्री ह्यूगोडि ब्राइज ने प्रतिपादित किया।

इस सिद्धांत के अनुसार, नयी जीव जातियों की उत्पत्ति लक्षणों में छोटी-छोटी एवं स्थिर विभिन्नताओं के प्राकृतिक चयन द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी संचय एवं क्रमिक विकास के फलस्वरूप नहीं होती बल्कि यह उत्परिवर्तनों के फलस्वरूप होती है।



(iii) हृदय-पेशियाँः इस प्रकार की पेशियों की कोशिकाएँ शाखित होती है। इनमें ऐच्छिक पेशियों की तरह धारियाँ होती है, लेकिन ये पेशियाँ हमारे इच्छानुसार कार्य नहीं करतीं।
पेशियों के कार्य
• पेशियाँ हड्डियों में गति पैदा करती है। इसके फलस्वरूप मनुष्य चल सकता है अथवा कोई कार्य कर सकता है।
• ये हमारे शरीर को ढँककर सुंदर बना देती है। इनके बिना मनुष्य का शरीर अस्थिपंजर का ढाँचा होता है।

जनन (Reproduction)
- स्तनधारियों में जननांग पृथक होते है और सामान्यतया निषेचन तथा सम्पूर्ण भ्रूण परिवर्द्धन मादा के गर्भाशय में होता है।
- अतः स्पर्म गर्भाशय में पहुँचाने के लिये नर के पास स्पंजी अन्तर्भेदी अंग या शिश्न (Penis) होते है।
मादा जननांग
- वृक्क के ठीक पीछे उदर-गुहा में दो अंडाशय  (Ovaries) जुड़े रहते हैं।
- जर्मिनल एपिथिलियल ऊत्तक एक क्रम से असंख्य अंडज का निर्माण करते है।
- जर्मिनल एपिथिलियल कोशिकाओं के समूह वृद्धि कर ‘फाॅलिकल्स’ (follicles) का निर्माण करते है जिनमें से कोई एक कोशिका अंडज बनाती है।
- परिपक्व फाॅलिकल को ”ग्राफियन फाॅलिकल“ (Graffian follicle) कहते है जो अंडाशय सतह पर आकर अंडज को निकालते है, बचे हुए फाॅलिकल कोशिका पीले रंग के ‘काॅर्पस ल्यूटियम’ में बदल जाते है।
- यही काॅर्पस ल्यूटियम प्रोजेस्ट्राॅन नामक हाॅरमोन का स्त्रवण करती है।
- प्रत्येक अंडाशय अंडाकार रचना है जिसके नजदीक एक झिल्लीदार फैली हुई ‘कीप’ होती है जो नीचे की ओर ‘अंडज नली’ (Oviduct) में खुलती है।
- अंडज नली पीछे की ओर दो प्रकार की रचनाओं में विभक्त होती है-
(i) फैलोपियन पाइप: संकरा, ग्रंथिमय तथा पेशीय होती है।
(ii) गर्भाशय: मोटी, पेशीय और ग्रंथिमय।
- दोनों ओर की गर्भाशय जुड़कर एक संयुक्त नली बनाती है जिसे ‘वेजाइना’ (vulva) कहते है।
- वेजाइना के अग्रभाग में मूत्रशय रहती है, जिसकी गर्दन वेजाइना से जुड़कर एक छोटी, छिद्रयुक्त ‘वल्वा’ (vulva) का निर्माण करती है।
- वल्वा के ठीक नीचे ‘बर्थोलिन ग्रंथि’ रहती है जिसका काम है वेजाइना के मुँह को लसीदार बनाये रखना।
- वल्वा के ठीक ऊपर ‘क्लाइटोरिस’ नामक रचना होती है जो नर के ‘पेनिस’ के समतुल्य है, और इसका ऊपरी भाग बेहद संवेदनशील होता है।

नर जननांग
- वृषण (Testes) एक अंडाकार रचना है, जिसकी उत्पत्ति वृक्क के पास होती है और अधिकांश स्तनधारियों में (हाथी तथा जलीय स्तनधारियों को छोड़कर) जन्म से पहले देह-गुहा से बाहर निकल आती है।
- इसका कारण है कि वृषण के विकास के लिए जितने तापक्रम की जरूरत होती है उससे कहीं अधिक शरीर का तापक्रम रहता है।
- बाहर आकर यह बालों से आच्छादित त्वचा वाले अण्डकोष की थैली में आ जाते है।
- दोनों वृषण स्पर्म का निर्माण करते है जो जमा होकर मूत्रशय के ग्रीवा के पास बनी थैली (Seminal vesicle) में आते है।
- यहाँ जमा स्पर्म पेनिस के द्वारा मूत्रद्वार नली के रास्ते बाहर निकलता है।
-  सेमिनल वेसिकल के आधार पर प्रोस्ट्रेट ग्रंथि रहती है जो असंख्य नलिका द्वारा मूत्रद्वार नली में खुलती है जिसका काम है मूत्रद्वार नली को लसीदार बनाये रखना तथा मूत्र के कारण हुए अम्लीय पथ को क्षारीय करना।
- शिश्न एक बेलनाकार स्पंजी और असंख्य रक्त नलिका से युक्त रचना है।
- इसके ऊपरी छोर पर ढीली त्वचा लटकती रहती है जिसे ”प्रीप्यूस“(Prepuce) कहते है।
- प्रीप्यूस से ढकी पेनिस के भाग को ‘ग्लांस पेनिस’  (Glans penis) कहते है।
 

हृदय में पाये जाने वाले वाल्व (valves)

वाल्व का नाम

में मिलता है

यूस्टेचियन वाल्व

दायाँ अलिंद

ट्राइकस्पिड वाल्व

दायाँ अलिंद और बायाँ निलय के द्वार पर

बाइकस्पिड या मित्तल वाल्व

बायाँ अलिंद और बायाँ निलय के द्वार पर

स्तनधारियों में पाये जाने वाले वाल्व झिल्लीदार होते है किंतु उभयचर प्राणियों (जैसे मेढ़क) में यह पेशीय होती है।



निषेचन  (Fertilization)
- निषेचन की क्रिया फैलोपियन ट्यूब (fallopian tube) में होती है।
- निषेचित अंडज को युग्मनज (Zygote) कहा जाता है।
- निषेचन के तीसरे दिन युग्मनज फैलोपियन ट्यूब से सरक कर गर्भाशय में आता है।
- चौथे दिन यह गर्भाशय की दीवार में स्थिर हो जाता है। अगले कुछ दिनों में गर्भाशय की दीवार तथा विकास करते हुए भ्रूण के बीच ‘प्लासेन्टा’ (Placenta) स्थापित हो जाता है जिसके द्वारा भ्रूण अपने माता से पोषण ग्रहण करते है।
- गर्भाशय में भ्रूण के विकास (जन्म होने तक) की अवधि को ‘जेस्टेशन’ (Gestation) कहते है।

 

स्मरणीय तथ्य

• औसत दर्जे के मनुष्य के शरीर में  पाँच से छह लीटर तक रक्त रहता है। इसमें  5 लीटर रक्त निरन्तर गतिशील और एक लीटर आपातकालीन आवश्यकता के लिए सुरक्षित रहता है।

• 24 घंटे में  हृदय 13 हजार लीटर रक्त का आयात-निर्यात करता है। हृदय 10 वर्षों में  जितने रक्त का  आयात-निर्यात करता है, उसे यदि एक बार इकट्ठा कर लिया जाये तो उसे 400 फुट घेरे की 80 मंजिली टंकी में भरा जा सकेगा।

• एक युवा व्यक्ति के शरीर में  2500 करोड़ लाल रक्त कण होते है। वे चार महीने जीवित रहने के बाद मृत हो जाते है और उनका स्थान लेने के लिए नये रक्तकण पैदा हो जाते हैं। चार महीने की अवधि में वे सारे शरीर में  1500 चक्कर लगा लेते

• मानव हृदय 24 घंटे में  8,000 गैलन रक्त का संचार 19,200 किलोमीटर लम्बी रक्त वाहिकाओं  में  करता है। यह दूरी हांगकांग से न्यूयार्क की दूरी के बराबर होती है।

• विद्युत् आवेशित (charged) परमाणु या परमाणु-समूह को आयन (ion) कहा जाता है।

• मानव शरीर को नए ऊतकों  (tissues) के निर्माण के लिए प्रोटीन की आवश्यकता होती है।

• शरीर में  आयोडीन की कमी के कारण थायराॅयड ग्रंथि बढ़ जाती है जिसे घेघा (Goitre) कहा जाता है।

• डी. एन. ए. अणु की संरचना वाटसन, विलिक्स और क्रिक तीन वैज्ञानिकों  ने मिलकर ज्ञात की थी।

• शरीर में  जीवाणु, विषाणु या अन्य प्रकार के रोगाणुओं के संक्रमण होने पर श्वेत रक्त-कणिकाओं की संख्या प्राकृतिक सुरक्षा के रूप में  बढ़ जाती है।


भ्रूण परिवर्द्धन (Development of Embryo)
- भ्रूणीय अवस्था छठे सप्ताह से शुरू होती है जब भ्रूण में विभिन्न अंगों के निर्माण-हेतु कलिकाओं की उत्पत्ति होती है; जैसे- मस्तिष्क, फेफड़ा, हृदय, यकृत इत्यादि। अंगों (limbs) के परिवर्द्धन के लिए भी कलिकाएँ विकसित होती है।
- छठे सप्ताह के अन्त तक एक प्राथमिक, अविकसित रक्त-परिसंचरण-तंत्र (blood circulatory system) का निर्माण हो जाता है।
- अंतिम चार सप्ताहों में गर्भ पूरी तरह शिशु में विकसित हो जाता है।
- चालीसवें सप्ताह के पूरे होने पर गर्भ या शिशु मां के उदर से बाहर आ जाता है अर्थात् शिशु का जन्म हो जाता है।
- गर्भाशय में गर्भ उलटी अवस्था में रहता है अर्थात् सिर नीचे की ओर और पैर ऊपर की ओर।
 

भ्रूण का पोषण (Nutrition in embryo)
- माँ के गर्भाशय में विकसित हो रहा भ्रूण अपना भोजन तथा आवश्यक आॅक्सीजन अपनी माँ से ही प्राप्त करता है। 
- भ्रूण के किसी परिधीय भाग से अँगुली की तरह की रचनाएँ निकल आती है। ये ही रचनाएँ आगे चलकर अपरा (placenta) का निर्माण करती हैं। 
- अपरा में रक्त-केशिकाओं (blood capillaries) का जाल होता है। 
- अपरा की रक्त-वाहिनियों के द्वारा भ्रूण अपना भोजन और आॅक्सीजन गर्भाशय की भित्ति में  मौजूद रक्त-वाहिनियों से प्राप्त करता है।

 

चिकित्साशास्त्र से सम्बंधित खोज/आविष्कार

खोज का नाम

वैज्ञानिक

इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफ

आइन्योवन

अंतःस्त्रव विज्ञान

वेलिस और स्टर्लिंग

एन्टी टाक्सीन

बेहरिंग और कितासातो

लिंग हार्मोन

इयूगन स्टेनाच

एन्टीजन

लैंडस्टीनर

मधुमेह का इंसूलिन

बेंटिंग एवं बेस्ट

पेनीसीलिनी

एलेक्जेन्डर फ्लेमिंग

डी.डी.टी.

पाल मूलर

स्ट्रेप्टोमाइसीन

सेलमन वैक्समैन

एल.एस.डी.

हाफमैन

गर्भ निरोधक गोलियाँ

पिनकस

पोलियो का मुखीय टीका

एलबर्ट सेबिन

किडनी मशीन

कोल्फ

निम्न तापीय शल्य-चिकित्सा

हेनरी स्वेन

ओपन हार्ट सर्जरी

वाल्टन लिलेहक

पोलियो टीका

जोनस साल्क

कृत्रिम हृदय का प्रयोग

 

(शल्य चिकित्सा के दौरान)

माइकेल डी बाके

हृदय प्रतिरोपण शल्य चिकित्सा

क्रिश्चियन बर्नाड

प्रथम परखनली शिशु

स्टेप्टो और एडवर्डस

कैंसर के जीन

राबर्ट वीनवर्ग

जेनेटिक कोड

डा. हरगोविन्द खुराना

कालाजार बुखार की

ब्रह्मचारी

चिकित्सा यू.एन.

 

वंशानुक्रम के नियम

जाॅन ग्रेगर मेंडल

प्राकृतिक चयन का सिद्धान्त

चाल्र्स डार्विन

बैक्टीरिया

ल्यूवेन हाॅक

रक्त परिसंचरण

विलियम हार्वे

टीका लगाना

एडवर्ड जेनर

स्टेथेस्कोप

रेने लिंक

क्लोरोफाॅर्म

जेम्स सिमसन

रेबीज टीका

लुई पास्चर

कुष्ट के जीवाणुु

हनसन

हैजे और तपेदिक के रोगाणु

राबर्ट कोच

मलेरिया के रोगाणु

लावेरान

डिप्थीरिया के जीवाणु

क्लेब्स एवं बजर्निक

एस्प्रीन

ड्रेसर

मनोविज्ञान

सिग्मंड फ्रायड


 

खनिज लवण की कमी के कुप्रभाव

खनिज

स्रोत

कार्य

हीनता जन्य रोग

1. कैल्सियम

दूध और दूग्ध उत्पाद, पत्ते वाली सब्जी, मछली आदि

हड्डी की वृद्धि एवं मजबूती

हड्डी कमजोर होना

2. लोहा

यकृत, मांस, अंडा, हरी सब्जी आदि

रक्त बनने में

एनीमिया

3. आयोडीन

मछली, शैवाल, आयोडीनयुक्त नमक आदि

थाइरोक्सिन हाॅरमोन बनने में

घेघा, क्रेटिनीज्म

4. फाॅस्फोरस

अनाज, दाल, दूध आदि

हड्डी एवं दाँत बनने में

हड्डी एवं दाँतों का कमजोर होना

5. मैग्नेशियम

अनाज एवं पत्ता  वाली सब्जी आदि

पेशियों एवं तंत्रिका तंत्र को नियमित करना; अनेक एन्जाइम का उद्दीपक

पेशियों एवं तंत्रिका तंत्र का अनियमित कार्य करना, पाचन सुगमता से न होना

6. क्लोरीन

साधारण नमक, केले, सब्जी आदि

आमाशय की गतिविधि का नियंत्रण

देह उत्तक का निर्जलीकरण

7. सोडियम व पोटाशियम

फल, खासकर केला, सब्जी आदि

शरीर में जलीय संतुलन बनाए रखना

निर्जलीकरण, उच्च रक्त  चाप, वृक्क की क्षति

 

चिकित्सा शास्त्र के क्षेत्र में ऐतिहासिक घटनाएँ

आविष्कार

तिथि

आविष्कारकर्ता

देश

आयुर्वेद पाश्चात्य चिकित्सा

2000-1000 ई.पू.

आत्रोय

भारत

पद्धति

460-370 ई.पू

हिपोक्रेटस

यूनान

योग

200-100 ई.पू.

पतंजलि

भारत

अष्टांग हृदय

पू. 550 ई.

वाग्मट

भारत

सिद्धयोग

पू. 750 ई.

वृदकुट

भारत

शरीर-विज्ञान

1316 ई.

मोडिनो

इटली

कीमियो रसायन चिकित्सा

1493-1541

परासेल्सस           

स्विट्जरलैण्ड

 

गर्भवती स्त्री एवं गर्भ को होने वाले खतरे
- लगभग अट्ठाईस सप्ताह बाद गर्भाशय में गर्भ गति (move) करने लगता है। इस समय गर्भ का भार लगभग 1kg. होता है।
- गर्भ के गतिशील होने के पहले यदि गर्भ किसी दशा में गर्भाशय से बाहर आ जाता है तो उसे गर्भपात (abortion) कहते है।
- गर्भपात कई कारणों से होता है; जैसे- गर्भ का त्रुटिपूर्ण परिवर्द्धन, गर्भ को पोषक तत्त्वों का ठीक से प्राप्त न होना, माँ की बीमारी या माँ के रक्त में हार्मोनों की मात्र में कमी इत्यादि।
- एक्सरे से भी गर्भ को काफी हानि पहुँच सकती है। इसके अलावा, गर्भवती स्त्री द्वारा अनेक दवाओं के खाये जाने से भी गर्भ को नुकसान पहुँच सकता है।
- कुछ बीमारियाँ, जो सामान्य अवस्था में खतरनाक नहीं होती, वे गर्भवती स्त्रीयों के लिए अत्यधिक खतरनाक होती है; जैसे- इन्फ्लुएन्जा, खसरा आदि वायरस द्वारा उत्पन्न बीमारियाँ।
- गर्भवती मादा को रुबैला वायरस का संक्रमण (infection) होने पर भ्रूण की मृत्यु तक हो सकती है या गर्भपात हो जाता है।
- हिपैटिटीस यकृत का एक रोग होता है। सामान्य स्त्री में यह अच्छा हो जाता है, पर गर्भवती स्त्री को यह रोग होने पर जच्चा और बच्चा अर्थात् माँ और गर्भ दोनों की मृत्यु हो सकती है।
 

विभिन्न भोज्य पदार्थों में लोहे की प्रतिशत मात्र

भोज्य पदार्थ          

लोहा (मिली ग्राम)

मेथी (सब्जी)

16 .9

पुदीना

15 .6

पालक

10 .9

तिल

10 .5

हरी धनिया

10 .8

चना

9 .8

पोहा

8 .0

आटा

5 .3

मूँगफली (छिलके वाली)

8 .5

एक वयस्क व्यक्ति को एक दिन में लगभग 20 मिलीग्राम लोहा आवश्यक होता है। लोहे का अभिशोषण केवल 10% ही होता है।

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FAQs on प्राणि विज्ञान (भाग - 4) - जीव विज्ञान, सामान्य विज्ञान, UPSC - सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi

1. प्राणि विज्ञान क्या है?
उत्तर: प्राणि विज्ञान जीव विज्ञान के एक भाग है जो जीवों के विज्ञानिक अध्ययन को समझने और वर्णन करने के लिए उपयोगी होता है। यह शरीर के रचना, कार्य, जीवों के संचार और उत्पादन, जीवों के विकास और प्रजनन के माध्यम से जीवों के बारे में विज्ञानिक ज्ञान को समझने का अध्ययन करता है।
2. सामान्य विज्ञान क्या है?
उत्तर: सामान्य विज्ञान विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के बारे में सामान्य ज्ञान को समझने का एक भाग है। यह प्राकृतिक विज्ञान, भूगोल, भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, आधुनिक विज्ञान, इतिहास और सामान्य ज्ञान के अन्य क्षेत्रों के तत्वों को शामिल करता है।
3. UPSC क्या है?
उत्तर: UPSC (संघ लोक सेवा आयोग) भारतीय संघ के लिए राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न पदों की भर्ती करने वाला संगठन है। यह आयोग न्यायिक, प्रशासनिक और शासकीय नौकरियों की भर्ती के लिए जिम्मेदार होता है। UPSC द्वारा आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं में सिविल सेवा परीक्षा (CSE), रक्षा सेवा परीक्षा (CDS), आईएएस, आईपीएस, आईएफएस, आईएसएस, आईएसआईएफएसआईएस, आईएसआईएफएस, आईएसआईएफएसआईएस, आईएसआईएसआईएस, आईएसआईएसआईएस, आईएसआईएसआईएस, आईएसआईएसआईएस आदि शामिल होते हैं।
4. प्राणि विज्ञान क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर: प्राणि विज्ञान मानव समाज के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे हम जीवों के बारे में ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और उनकी रक्षा, संरक्षण और सुधार करने के लिए कार्य कर सकते हैं। इसके माध्यम से हम जीवों के संरचना, कार्य, विकास, उत्पादन और प्रजनन के बारे में समझ पाते हैं और इसे उनके लिए उपयोगी उपचार और लक्षणों की पहचान में मदद मिलती है।
5. UPSC परीक्षा की तैयारी कैसे करें?
उत्तर: UPSC परीक्षा की तैयारी के लिए निम्नलिखित चरणों का पालन करें: 1. सिलेबस की गहराई से समझें और पहले से ही निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार अध्ययन करें। 2. अच्छे स्त्रोतों से पुस्तकें, अध्ययन सामग्री और नोट्स प्राप्त करें। 3. पिछले वर्षों के प्रश्न पत्रों का अध्ययन करें और मॉडल प्रश्न पत्रों का अभ्यास करें। 4. समय प्रबंधन कौशल विकसित करें और नियमित रूप से अभ्यास करें। 5. संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) की आधिकारिक वेबसाइट पर नवीनतम अधिसूचनाएं और अपडेट प्राप्त करें। 6. मॉक टेस्ट और पूर्व-परीक्षा में भाग लें ताकि आप अपनी तैयारी की प्रगति को माप सकें।
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