प्रान्तीय शासन, न्याय व्यवस्था और भूमि प्रबन्ध
प्रान्तीय शासन
¯ शासन की सुविधा के लिए साम्राज्य अनेक प्रान्तों में विभाजित था।
¯ अकबर ने जागीरदारी प्रथा को समाप्त कर दिया था और प्रान्तों पर केन्द्र के कड़े नियंत्रण को स्थापित किया था।
¯ अकबर के काल में सम्पूर्ण साम्राज्य पन्द्रह अथवा अठारह प्रान्तों में विभक्त था।
¯ प्रान्त का प्रमुख सूबेदार होता था जो नाजिम या सिपहसलार भी कहलाता था। वह प्रान्तों में सम्राट के समान ही व्यवहार करता था। प्रान्तीय सेना व नागरिक प्रशासन उसके अधिकार में थे। यह न्याय विभाग का भी प्रधान था।
¯ साधारणतः राज परिवार के सदस्यों व विश्वासपात्रों को ही सम्राट सूबेदार नियुक्त करता था।
¯ सूबेदार की सहायता के लिए अन्य अनेक अधिकारी होते थे, जिनमें दीवान, बख्शी व काजी प्रमुख थे।
स्थानीय शासन
¯ प्रत्येक प्रान्त कई सरकारों या जिलों में विभाजित था और प्रत्येक सरकार ‘महाल’ अर्थात परगनों में और प्रत्येक महाल कई ग्रामों में विभक्त था।
¯ सरकार का शासन फौजदार के नियन्त्रण में था, वह सैनिक व असैनिक अर्थात नागरिक दोनों प्रकार की व्यवस्था का प्रमुख था।
¯ जैसा कि उसके पद से पता चलता है, वह मुख्यतः सैनिक अधिकारी था।
¯ उसके तीन प्रमुख कार्य थे - पहला कार्य, जिले में शान्ति व व्यवस्था स्थापित करना, चोरी, डकैती, व लूटमार करने वालों से सुरक्षा प्रदान करना था। दूसरा कार्य, सैनिक अधिकारी के रूप में एक छोटी-सी सुसज्जित सेना रखना। तीसरा कार्य, कर वसूल करने में सहायता करना था।
स्मरणीय तथ्य
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¯ जिले के अधिकारियों में एक अमलगुजार था जो मालगुजारी एकत्रित करता था और उसका सहायक वितिक्ची या लेखक होता था।
¯ जिले का एक अन्य अधिकारी खजानदार या खजांची कहलाता था जो जिले की आय को केन्द्रीय खजाने में जमा करता था।
¯ जिले परगनों या महालों में विभक्त थे। परगना निम्नतम प्रशासनिक इकाई थी।
¯ इसमें चार प्रमुख अधिकारी शिकदार, आमिल, फोतेदार तथा कारकुन होते थे।
¯ शिकदार परगने का प्रमुख अधिकारी था। वह शान्ति व्यवस्था स्थापित करता था तथा खजाने के धन की व्यवस्था करता था।
¯ दूसरा अधिकारी आमिल था। उसका कार्य कर नियत करना व मालगुजारी एकत्रित करना था।
¯ फोतेदार परगने का खजांची था।
¯ कारकुन परगने के क्लर्क थे जो भू-राजस्व सम्बन्धी जानकारी का विवरण रखते थे।
¯ नगरों का प्रबन्ध एक कोतवाल के हाथ में होता था और ग्रामों के प्रबन्ध की व्यवस्था ग्राम पंचायत करती थीं।
सैनिक प्रबन्ध
¯ अब जागीरदारों का स्थान मनसबदारों ने ले लिया।
¯ राज्य की ओर से भर्ती किए गए सैनिकों पर आधारित सेना दाखली सेना कहलाती थी और राज्य की ओर से ही इन्हें वेतन प्राप्त होता था, किन्तु इस सेना का संचालन मनसबदार करते थे।
¯ सम्राट द्वारा स्वयं भर्ती किए गए सैनिकों पर आधारित सेना अच्छी सेना कहलाती थी।
¯ इनका अलग विभाग होता था और वेतन देने के लिए अलग बख्शी होता था।
¯ इस सेना में सब घुड़सवार होते थे।
¯ दो प्रकार के घुड़सवार होते थे - पहला बरगिर, जिसको घोड़े व शस्त्रादि सरकार से मिलते थे। दूसरा सिलेदार जिनके अपने घोड़े व शस्त्रादि होते थे।
¯ घोड़ों को दागा जाता था और सैनिकों के हुलिये रजिस्टर में लिखे जाते थे।
¯ जब शाहबाज खाँ मीर बख्शी था उस समय जागीरदारी प्रथा समाप्त करके मनसबदारों को सेना में रखने का अधिकार प्राप्त हो गया।
¯ सबसे छोटा मनसबदार दस सैनिक रखता था और सबसे बड़ा दस हजार सैनिक रखने वाला मनसबदार था।
न्याय व्यवस्था
¯ प्रति गुरुवार को विधिवत अदालत में बड़े-बड़े मुकदमों का फैसला होता था। मृत्यु दण्ड की सजा के लिए प्रान्तों से मुकदमें बादशाह के पास आते थे।
¯ सम्राट के बाद प्रमुख काजी होता था।
¯ प्रमुख काजी बादशाह की सलाह से प्रान्तों, जिलों व नगरों के काजियों को नियुक्त करता था।
¯ परगनों में भी काजी होते थे।
¯ ग्रामों में काजियों की आवश्यकता न थी, क्योंकि वहाँ पर यह कार्य ग्राम पंचायत करती थीं।
¯ काजियों की सहायता के लिए मुफ्ती होते थे, जो मुस्लिम कानूनों की व्याख्या करते थे तथा फतवा देते थे।
¯ फौजदारी मुकदमें काजी के अतिरिक्त मीर आदिल व प्रान्तीय गवर्नर भी करते थे।
¯ इस काल में न्याय व प्रशासनिक विभाग अलग-अलग न थे।
स्मरणीय तथ्य
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¯ दण्ड व्यवस्था अब भी कठोर ही थी। अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था और जुर्मानों की धन राशि बहुत अधिक होती थी।
¯ विद्रोह करने वाले तथा हत्या करने वाले अपराधियों को मृत्यु दण्ड दिया जाता था, कई बार उन्हें जेल होती थी।
मनसबदारी व्यवस्था
¯ मनसबदारी व्यवस्था की प्रथा मुगल काल की विशेषता थी।
मनसबदारों की नियुक्ति: मनसब अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है पद दर्जा या उपाधि।
¯ राज्य का प्रत्येक अधिकारी किसी-न-किसी श्रेणी का मनसबदार होता था।
¯ मनसबदारों की नियुक्ति सम्राट स्वयं करता था और आवश्यकतानुसार उन्हें पद से हटा सकता था। यह पद वंशानुगत नहीं था।
¯ प्रत्येक व्यक्ति की योग्यतानुसार उसे मनसब प्राप्त होता था।
¯ मनसबदारों को निश्चित वेतन मिलता था। इस वेतन में से मनसबदार अपनी सेना का खर्च वहन करते थे, अर्थात् सैनिक के वेतन, अस्त्र - शस्त्रोंकी व्यवस्था तथा घोड़ों की खरीद व उन पर होने वाला खर्च करते थे।
¯ यद्यपि प्रारम्भ में मनसबदारी का निम्नतम दर्जा दस तथा सर्वोच्च दर्जा दस हजार का था, किन्तु बाद में अकबर ने सर्वोच्च दर्जा बारह हजार बना दिया था।
¯ प्रारम्भ में पाँच हजार के ऊपर मनसब शाही घराने को प्राप्त होते थे किन्तु बाद में राजा मानसिंह व मिर्जा अजीज आदि को सात हजार का मनसब प्रदान किया गया था।
जात तथा सवार: प्रारम्भ में अकबर ने प्रत्येक मनसब के लिए एक श्रेणी निर्धारित की थी, किन्तु शासन के उत्तरार्ध में उसने पांच हजार से नीचे के मनसबदारों की तीन श्रेणियां कर दी थीं और अधिकांश मनसबदारों को दो पद - जात व सवार प्राप्त हो गए थे।
¯ इर्विन का मत है कि जात घुड़सवारों की निश्चित संख्या प्रगट करता है जो मनसबदार रखता था और सवार उसके लिए प्रतिष्ठा सूचक था।
¯ अब्दुल अजीज का कहना है कि जात पद प्राप्त करने के लिए मनसबदार को एक निश्चित संख्या में हाथी, घोड़े तथा सामान ढोने की गाड़ी रखना आवश्यक था। घुड़सवार व पैदल सैनिक इसमें न आते थे। ‘सवार’ से पता चलता था कि मनसबदार के अधीन कितने घुड़सवार थे।
तीन श्रेणियाँ: पाँच हजार और उससे नीचे के मनसबदारों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया था।
¯ प्रथम श्रेणी का मनसबदार वह होता था, जिसका ‘सवार’ व ‘जात’ दर्जा समान होता था, अर्थात जब 5000 जात के मनसबदार का सवार दर्जा भी 5000 होता था तो वह 5000 का प्रथम श्रेणी का मनसबदार होता था।
¯ द्वितीय श्रेणी का मनसबदार वह होता था जिसका ‘सवार’ दर्जा उसके जात दर्जे से आधा या उससे अधिक हो। अर्थात जब 5000 जात का मनसबदार 2500 या उससे अधिक का ‘सवार’ दर्जा रखता था, तब वह 5000 का द्वितीय श्रेणी का मनसबदार कहलाता था।
¯ तृतीय श्रेणी का मनसबदार वह होता था जिसका ‘सवार’ दर्जा उसके जात दर्जे के आधे से कम होता था। अर्थात् जब 5000 जात का मनसबदार का ‘सवार’ दर्जा 2500 से कम होता था, तब वह 5000 की तृतीय श्रेणी का मनसबदार कहलाता था।
¯ मनसबदार यद्यपि धन सरकार से प्राप्त करते थे, किन्तु सैनिकों को स्वयं वेतन देते थे। अतः सैनिक अपने को सम्राट के नहीं मनसबदार के प्रति भक्ति रखते थे।
¯ बहुत कम मनसबदार अपने पदानुसार सैनिक रखते थे। कम सेना रखकर अधिक सेना का धन सरकार से वसूल करते थे। उनकी सेनाओं के प्रशिक्षण की भी कोई व्यवस्था न थी। यह दोष अकबर के ही काल से दिखाई देने लगा था।
¯ विभिन्न मनसबदारों की सेना में तालमेल न था। प्रत्येक मनसबदार की सेना की व्यवस्था पृथक थी; अतः साम्राज्य की सेना में एकरुपता स्थापित न हो सकी।
भूमि प्रबन्ध
¯ भूमि प्रबन्ध में अकबर की सहायता ख्वाजा अब्दुल मजीद, मुजफ्फर तुरबती तथा राजा टोडरमल ने की।
¯ सर्वप्रथम सुधारों की योजना ख्वाजा अब्दुल मजीद ने लागू की जब वह दीवान बनाया गया। उसने सरकारों में अनुमान के आधार पर लगान निश्चित करने का प्रयास किया।
¯ दूसरी बार कर निर्धारण तब हुआ जब मुजफ्फर तुरबती दीवान बना।
¯ 1573 ई. में गुजरात विजय के उपरान्त अकबर ने राजा टोडरमल को वहां भूमि प्रबन्ध के लिए भेजा।
¯ राजा टोडरमल शेरशाह के काल में भी माल मंत्री रह चुके थे, अतः अपने अनुभवों का उपयोग करके वहाँ भूमि का उत्तम प्रबंध किया।
¯ अकबर टोडरमल के भूमि प्रबन्ध से बहुत प्रसन्न हुआ। अब उसने बंगाल व बिहार को छोड़कर शेष सम्पूर्ण साम्राज्य में टोडरमल द्वारा स्थापित भूमि प्रबन्ध को लागू कर दिया।
¯ सम्पूर्ण साम्राज्य 182 परगनों में विभाजित कर दिया गया।
¯ प्रत्येक परगना एक अफसर के अधीन कर दिया गया जो ‘करोड़ी’ कहलाता था क्योंकि प्रत्येक परगने से एक करोड़ वार्षिक भूमि-कर प्राप्त होता था।
¯ अकबर ने 1582 ई. में राजा टोडरमल को दीवाने-अशरफ बनाया। अब टोडरमल ने भूमि सुधार की अपनी विस्तृत योजना लागू की, जिसका वर्णन नीचे किया गया हैः
(1) भूमि की ठीक-ठीक नाप करवाई: अब तक भूमि की नाप सन की रस्सी से होती थी, जो भींगने पर सिकुड़ जाती थी और गर्मी में फैल जाती थी। इस दोष को दूर करने के लिए टोडरमल ने जरीबों से भूमि की पैमाइश अर्थात् नाप करवाई। जरीब बाँसों में लोहे के छल्ले डालकर बनाई जाती थी, जिसके घटने या बढ़ने की सम्भावना नहीं थी। इस नाप को पटवारी के कागजों पर स्थायी रूप से लिख दिया गया।
(2) भूमि का वर्गीकरण: टोडरमल ने प्रति बीघा औसत उपज का निश्चय करने के लिए भूमि को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित कियाः
(क) पोलज भूमि: यह अत्यन्त उर्वरक भूमि थी जिसमें वर्ष में दो फसलें होती थीं और जमीन कभी परती नहीं छोड़ी जाती थी।
(ख) परौती भूमि: यह द्वितीय श्रेणी की भूमि थी और कुछ समय तक कृषि करने के उपरान्त उसकी उर्वरा शक्ति कम हो जाती थी। अतः इसे कुछ समय के लिए परती छोड़ दी जाती थी अर्थात् कुछ समय तक इस पर कृषि नहीं की जाती थी।
(ग) चाचर भूमि: यह तृतीय श्रेणी की भूमि थी और इसकी उर्वरा शक्ति बहुत कम थी। इसे तीन चार वर्ष के लिए परती छोड़ना पड़ता था।
(घ) बंजर भूमि: इसकी उर्वरा शक्ति बहुत कम थी और पाँच-छः या अधिक वर्षों तक परती छोड़ना पड़ता था क्योंकि इसे अपनी उर्वरा शक्ति प्राप्त करने में काफी समय लगता था।
(ङ) औसत उपज ज्ञात की: प्रथत तीन प्रकार की भूमि को अलग-अलग तीन भागों में पुनः विभाजित किया गया - बढ़िया, मध्यम व घटिया। तीनों भागों की कुल उपज की औसत उपज निकाल ली जाती थी और उस आधार पर ही सरकार उस भूमि पर अपना भाग निश्चित कर देती थी।
(3) राज्य का भाग (लगान) निश्चित कियाः विभिन्न प्रकार की भूमि की औसत उपज ज्ञात करके टोडरमल ने उस औसत उपज का 1/3 भाग लगान के रूप में राज्य का भाग निश्चित किया।
(4) लगान नकद या अनाज के रूप में : सरकार ने किसानों को छूट दे दी कि वे इच्छानुसार नकद या अनाज के रूप में लगान दे सकते थे, परन्तु सरकार नकद लगान लेना अधिक पसन्द करती थी। लगान को नकद मूल्य में परिणत करने के लिए दस वर्षों के भावों का औसत निकाल दिया गया और उसी आधार पर राज्य का भाग निश्चित किया गया। अकाल अथवा अन्य प्राकृतिक प्रकोपों के समय लगान में कमी कर दी जाती थी। कभी-कभी न केवल सारा लगान माफ कर दिया जाता था बल्कि तकाबी भी बांटी जाती थी।
(5) भूमि कर की वसूली: लगान वसूल करने के लिए सरकार ने राजकीय कर्मचारियों की नियुक्ति की। लगान वसूल करने वाले अधिकारी आमिल कहलाते थे जिनकी सहायता के लिए वितिक्ची, पोद्दार, कानूनगो, पटवारी व मुकद्दम आदि होते थे।
¯ कर्मचारियों को आदेश प्राप्त था कि लगान वसूल करते समय सम्मानपूर्वक व्यवहार करें और जनहित का ध्यान रखें।
सामाजिक अवस्था
शासक वर्ग
¯ मुगलकाल में शासक वर्ग में उच्च वर्ग के सरदार एवं बड़े-बड़े जमींदार सम्मिलित थे।
¯ आरम्भ में इन अमीर लोगों ने अपनी योग्यता तथा स्वामिभक्ति के कारण सम्राट और राज्य दोनों की बड़ी सेवा की, परन्तु समय के साथ वे भोग-विलास, शराब, जुआ आदि व्यसनों की ओर अधिक झुक गए।
¯ मृतक सरदार के उत्तराधिकारियों को उसकी सम्पत्ति देने से पहले सरकार बकाया राशि को वसूल करना चाहती थी।
¯ चाहे बहुत-से मुगल सरदार अपनी शान-शौकतों एवं भव्य रहन-सहन में फिजूलखर्ची करते थे, परन्तु कुछ ऐसे सरदारों का भी नाम आता है (जैसे मीर जुमला) जिन्होंने व्यापार तथा वाणिज्य में रुचि ली।
मध्यम वर्ग
¯ इस वर्ग में व्यापारी लोग तथा राज्य के मध्यवर्गीय अधिकारी ही सम्मिलित थे।
¯ पश्चिमी सीमा के कुछ व्यापारी विदेशों के साथ व्यापार करने के कारण काफी धनी हो चुके थे इसलिए जैसा कि यूरोपीय यात्रियों का कहना है, वे ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत कर सकते थे।
निम्न वर्ग
¯ किसान, मजदूर, घरेलू नौकर और दुकानदार आदि इसी वर्ग में गिने जाते थे। इस वर्ग की आय बहुत कम थी और कभी-कभी उनसे बेगार या जबरदस्ती मुफ्त कार्य भी लिया जाता था।
¯ अनाज सस्ता था, इसलिए प्रायः उन्हें भूखे नहीं रहना पड़ता था।
¯ शाहजहां के समय तक इन लोगों का जीवन फिर भी कुछ अच्छा रहा, परन्तु उसके पश्चात् वे प्रायः दास बन कर रह गये।
रीति-रिवाज
¯ कुछ अमीरों को छोड़कर जिनमें शराब का खुब प्रचलन था, बाकी सब लोग साधारण भोजन करते थे।
¯ भारतीय लोग अतिथियों का बड़ा सत्कार करते थे और विदेशियों के प्रति उनका व्यवहार बहुत अच्छा था।
¯ हिन्दू-मुसलमान दोनों को ज्योतिष तथा जादू-टोना में बहुत विश्वास था।
¯ वक्तियोंका समाज में कोई विशेष स्थान नहीं था। नारी विलास-भोग की वस्तु समझी जाती थी।
¯ मुस्लिम समाज में दास प्रथा, पर्दा प्रथा, अन्धविश्वास तथा अज्ञानता आदि कई कुरीतियाँ थीं।
¯ हिन्दू-समाज में सती-प्रथा, बाल-विवाह, दहेज-प्रथा और विधवा-विवाह न होना आदि कई कुरीतियाँ थीं।
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1. प्रान्तीय शासन क्या होता है? |
2. न्याय व्यवस्था क्या होती है और मुग़ल साम्राज्य में यह कैसे काम करती थी? |
3. भूमि प्रबन्ध क्या है और क्या मुग़ल साम्राज्य में इसका प्रभाव था? |
4. मुग़ल साम्राज्य में कौन-कौन से प्रान्तीय शासक थे? |
5. मुग़ल साम्राज्य में न्यायिक अदालत कैसे संचालित की जाती थी? |
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