I. राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड का लक्ष्य
II. समन्वित बंजर भूमि विकास परियोजना
III. अनुदान सहायता योजना
Iv. जन पौधशाला योजना
राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड का लक्ष्य
राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड को राष्ट्रीय वनरोपण तथा जैव विकास बोर्ड के रूप में पुनर्गठित किया गया है। इन बोर्डों को जो दायित्व सौंप गए है, व ऐसा समन्वित एवं परस्पर निर्भर भूमि प्रबंध के माध्यम से ही पूर हो सकते है, जिसमें निम्नलिखित लक्ष्यों पर ध्यान दिया जाएगाः
(क) भू-संसाधनों के आधार में पौष्टिक तत्वों एवं नमी की उपलब्धता की दृष्टि से उर्वरा शक्ति फिर से पैदा करने;
(ख) बायोमास की प्रति वर्ष प्रति हेक्टयर उत्पादकता में वृद्धि करने
(ग) रोजगार के अधिक अवसर जुटाकर सम्बन्धित लाभार्थी लोगों के लिए अधिक आय पैदा करने।
समन्वित बंजर भूमि विकास परियोजना
मृदा तथा नमी संरक्षण, गली-प्लानिंग, चेक डैम, जल उपयोग ढांच जैस छोट इंजीनियरी यंत्र तैयार करने।
ढलानदार खेत बनानेे, तटबंध बनानेे, क्यारियां बनानेे, पेड़-पौधों से हदबंदी करने जैस उपाय करके मृदा तथा नमी की रक्षा करनेा।
बहु-उद्देश्यीय पेड़, झाड़ियां, घास, फलियां आदि उगाना तथा चारागाह विकसित करने।
प्राकृतिक रूप से भूमि उपजाऊ बनाने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने।
कृषि वानिकी, बागवानी और वैज्ञानिक ढंग से पशुपालन को बढ़ावा देना।
लकड़ी के स्थान पर अन्य वस्तुओं के उपयोग तथा ईंधन लकड़ी के संरक्षण के उपाय करने।
टेक्टनोलोजी के प्रसार के उपाय करनेा।
अनुदान सहायता योजना
यह योजना पूरी तरह केन्द्र प्रायोजित है। इसके अंतर्गत प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से वृक्षारोपण एवं बंजर भूमि विकास से जुड़ी गतिविधियां चलान के लिए पंजीकृत स्वयंसेवी संस्थाओं, सहकारी समितियों, महिला मंडलों, युवा मंडलों तथा इसी प्रकार के अन्य संगठनों को अनुदान सहायता दी जाती है।
इनमें छोट कार्यक्रमों का क्रियान्वयन, जागरूकता लाना, प्रशिक्षण या जानकारी का प्रसार, भूमि को फिर से उपजाऊ बनाने के लिए लोगों को संगठित करने आदि कार्य शामिल हो सकत है। ये परियोजनाएं सार्वजनिक या निजी भूमि पर चलाई जा सकती है।
जिन योजनाओं में स्वयंसेवी योगदान तथा जन सहयोग अधिक होगा, उन्हें वरीयता दी जाती है। संबंधित राज्य सरकार के परामर्श से परियोजना की समीक्षा के बाद राशि सीध स्वयंसेवी संगठन को दी जाती है। इनके क्रियान्वयन पर नजर रखन के उद्देश्य से विभिन्न स्तरों पर इनका मूल्यांकन विभागीय अधिकारियों तथा बाहरी विशेषज्ञों द्वारा कराया जाता है।
जन पौधशाला योजना
जन पौधशाला योजना से उद्देश्य इस प्रकार है-
(क) ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से ग्रामीण निर्धनों, महिलाओं तथा अपेक्षित वर्गो को व्यक्तिगत स्तर पर या स्कूल, सहकारी समिति जैस संगठनों के माध्यम स स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के लिए पौधशालाएं विकसित करने का कार्य आम लोगों तक लाना।
(ख) जन पौधशालाएं विकसित करनेे, अपेक्षित प्रजातियों की अच्छी किस्म की स्थानीय तौर पर मिलन वाली पौध लोगों को उनक आस-पास ही उपलब्ध कराना।
(ग) बेकार हो गई कृषि भूमि पर लाभकारी गतिविधि के रूप में कृषि वानिकी को बढ़ावा देना और इस प्रकार रोजगार के अवसरों तथा आय में वृद्धि करने।
यह योजना राज्यों को स्थानांतरित कर दी गई है।
पशुपालन
1. भारत में पशु संसाधन
भारत में पशुपालन कृषि का एक प्रमुख उपभाग है जिसका ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान है।
इससे वृहद् पैमाने पर पशु उत्पादों की प्राप्ति होती है,
बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार मिलता है,
पशु उत्पाद अनेक उद्योगों को कच्चा माल प्रदान करते हैं,
पशु अपशिष्ट से ऊर्जा स्त्रोतों की प्राप्ति होती है,
पशु उत्पाद राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं पोषाहार कार्यक्रम का विस्तृत आधार स्तंभ तैयार करते हैं।
भारत में विश्व के सभी देशों से अधिक संख्या में मवेशी हैं। दुनिया की कुल भैंसों का 57 प्रतिशत और गाय-बैलों का 16 प्रतिशत भारत में है। 2012 की मवेशी गणना के अनुसार देश में करीब 51.20 करोड़ थी। इस प्रकार स्वतंत्रता के बाद भैंसों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई है। 1951 के बाद से कुक्कुटों की संख्या में भी पर्याप्त बढ़ोतरी हुई है। 2012 की मवेशी गणना के अनुसार देश में करीब 18.5 करोड़ गाय-बैंल तथा 9.8 करोड़ भैंस हैं।
2. भारत में पशुओं की समस्या
भारत की कृषि अर्थव्यवस्था में पशुधन का अत्यन्त महत्व है। प्रति हेक्टेयर पशुओं की संख्या, नस्ल, दुग्ध उत्पादन, मांस आदि की दृष्टि से पशुधन सम्बन्धी अनेक समस्यायें है।
(i) पशुओं की अधिक संख्या,
(ii) अच्छे तथा व्यवस्थित चारागाहों की कमी,
(iii) पशुओं के लिए पौष्टिक भोजन का अभाव,
(iv) अच्छे नस्ल के पशुओं का अभाव, तथा
(v) पशुओं की अनेक बीमारियाँ आदि पशुुधन सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण समस्यायें है।
3. भारत में पशु सुधार कार्यक्रम
भारत में अर्थ-व्यवस्था कृषि प्रधान है, जिस कारण पशु की परिस्थिति की व्यवस्था, आर्थिक प्रगति, सन्तुलित विकास, राष्ट्रीय स्वास्थ्य आदि तथ्यों का ध्यान देना आवश्यक है। चारागाहों का विकास, चारे के लिए उत्तम घासों का उत्पादन, भूसा, चना-ज्वार-खली तथा बिनौला पशुओं को देना, नस्ल में सुधार, दुग्ध उद्योग का विकास आदि पशुओं के लिए अत्यन्त आवश्यक है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् ने देश के विभिन्न भागों में पशुुधन सुधार हेत कई कार्यक्रम प्रारम्भ किए है;
(i) मूल ग्राम खंड योजना,
(ii) गोशाला विकास योजना,
(iii) गोसदन योजना,
(iv) जलवासी पशु प्रजनन योजना,
(v) कुक्कुट तथा मधुमक्खी पालन योजना,
(vi) पशुुधन संयोजन योजना आदि।
4. आॅपरेशन फ्लड
आॅपरेशन फ्लड I
1970 से 1981 तक, 10 राज्यों में लागू
मुंबई, कलकत्ता, दिल्ली, मद्रास में 4 मदर डेयरी स्थापित की गई।
आॅपरेशन फ्लड II
1978 से 1985 तक
राष्ट्रीय दुग्ध ग्रीड का निर्माण
आॅपरेशन फ्लड III
1985 से 1994 तक संचालित
वर्तमान में आॅपरेशन फ्लड देश में फैले 174 मिल्क शेडों में कार्यान्वित की जा रही है।
आॅपरेशन फ्लड के परिणाम
दुग्ध उत्पादन जहाँ 1951 में 1.7 करोड़ टन था, 1993 में बढ़कर 5.8 करोड़ टन हो गया और इसके सन् 2015.16 तक बढ़कर 15.55 करोड़ टन हो गया।
कुक्कुट पालन
कुक्कुट पालन ग्रामीण तथा अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों की जनसंख्या के कमजोर वर्गों को अतिरिक्त आमदनी प्रदान करने का एक महत्वपूर्ण जरिया बन गया है। सरकार के अनुसंधान तथा विकासात्मक प्रयासों एवं संगठित निजी क्षेत्र के कारण कुक्कुट पालन में अच्छी बढ़ोतरी हुई है। देश में कुल पशुओं की संख्या में पशुवध का अनुपात मवेशियों के मामले में 6 प्रतिशत, भैसों के लिए 10 प्रतिशत, सूअरों के लिए 99 प्रतिशत, भेड़ों के लिए 33 प्रतिशत और बकरियों के मामले में 39 प्रतिशत है।
वानिकी
सामाजिक वानिकी
सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों में निजी क्षेत्र को अधिक करीब और गहरायी से शामिल किया जाना चाहिए। निजी क्षेत्र को इस दिशा में प्रेरित करने के लिए वित्तीय उपाय ही पर्याप्त नहीं हैं बल्कि वृ़क्षारोपण में निवेश के लिए उसे आकर्षित करने के अन्य उपाय भी जरूरी है। यह जरूरी है कि देश में बंजर तटवर्ती क्षेत्रों और अन्य विस्तृत बंजर भू-भागों की पैदावार पर स्वाभाविक अधिकार लीजधारी कम्पनियों का होना चाहिए। ऐसे प्रोत्साहन कुछ कर संबंधी रियायतों के मुकाबले निश्चय ही अधिक सफल हो सकते हैं।
किसी भी हालत में लागत-लाभ विश्लेषण के दौरान पारिस्थितिकी और रोजगार में सुधार के लाभों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए, भले ही उनसे लागत-लाभ अनुपात पर प्रतिकूल असर पड़ता हो। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय कृषि आयोग ने सिफारिश की थी कि घाटियों का परिष्कार और विकास किया जाये, हालांकि लागत-लाभ अनुपात पर इसका असर पड़ रहा था। अतः लागत की दृष्टि से कारगरता का मूल्यांकन व्यापक पैमानों के आधार पर किया जाना चाहिए और इस तरह का विश्लेषण करते समय 10.20 वर्षों की अवधि को ध्यान में रखना चाहिए।
वास्तव में, भावी परिदृश्य में सामाजिक वानिकी की दिशा में अधिक प्रभावी कदम उठाने होंगे ताकि भूमि के संरक्षण के लिए जल और कटाव की वजह से मिट्टी की होने वाली क्षति को रोका जा सके। हमें अपने सीमित भूमि संसाधनों पर बायो-मास अधिक से अधिक पैदा करना होगा, ताकि समुदाय में सभी संबद्ध पक्षों को उसमें हिस्सेदारी मिल सके। इस दिशा में किए गए वर्तमान प्रयास भविष्य की वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के अन्तर्गत डेयरी उद्योग का विकास भी शामिल है जो रोजगार के सर्वाधिक अवसर उपलब्ध कराने वाले उद्योगों में से एक है। इसी तरह रेशम से रेशमी कपड़े बुनना भी इसके अन्तर्गत आता है, जहां रोजगार के व्यापक अवसर उपलब्ध हैं। सामाजिक वानिकी लघु, उद्योग और कुटीर उद्योगों की भी मदद करती है। जैसे साबुन बनाना, लघु उद्योग के तहत् कागज की लुगदी बनाने वाली फैक्टरियां, फर्नीचर उद्योग और तेल निकालना, इनसे लोगों को अपने आवास के निकट काम हासिल करने में मदद मिलती है।
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1. बंजर भूमि विकास, पशुपालन एंव वानिकी क्या है? |
2. बंजर भूमि का विकास क्यों महत्वपूर्ण है? |
3. पशुपालन क्यों एक महत्वपूर्ण आय स्रोत है? |
4. वानिकी क्यों महत्वपूर्ण है? |
5. भारत में बंजर भूमि विकास, पशुपालन एवं वानिकी के लिए कौन-कौन सी योजनाएं हैं? |
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