भारत की भौगोलिक स्थिति, विस्तार और इसका लाभ
➤ भारत की भौगोलिक स्थिति
- विश्व में भारत क्षेत्रफल में सातवां बड़ा (2.2%) और जनसंख्या में दूसरा बड़ा (16%)देश है। भारत का क्षेत्रफल इंग्लैंड से 12 गुना और जापान से 8 गुना बड़ा है। लेकिन कनाडा का 1/3 है। भारत का अक्षांशीय विस्तार 804’ से 3706’ उत्तर और देशांतरीय विस्तार 6807’ से 97025’ पूर्व है। भारत का कुल क्षेत्रफल 32,87,782 वर्ग किमी. है। यह उत्तर-दक्षिण 3214 किमी. और पूर्व-पश्चिम 2933 किमी. में फैला है। कर्क रेखा इसके मध्य से गुजरती है। भारत के तटीय सीमा की कुल लंबाई 6200 किमी. और स्थलीय सीमा की लंबाई 15,200 किमी. है।
- भारत और इसके दक्षिण एशिया के पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान आपस में मिलकर भारतीय उपमहाद्वीप का निर्माण करते हैं क्योंकि उत्तर में जहाँ यह हिमालय पर्वत से पृथक है वहीं दक्षिण में हिन्द महासागर इसे प्रायद्वीपीय स्वरूप प्रदान करता है।
भारत की भौगोलिक स्थिति और विस्तार का लाभ
हिमालय पर्वत के दक्षिण एवं हिन्द महासागर के उत्तर में स्थित भारत की भौगोलिक स्थिति बहुत ही उपयोगी है-
- व्यापारिक: भारत के दक्षिण में स्थित हिन्द महासागर तीन महाद्वीपों एशिया, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया को आपस में जोड़ता है तथा स्वेज नहर मार्ग से यह यूरोप और उत्तरी अफ्रीका से भी संबंधित है। इस प्रकार भारत वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय समुद्री मार्ग के संगम पर स्थित है। इससे भारतीय व्यापारिक संबंध में काफी वृद्धि हुई है।
- मत्स्य खनन: भारत का हिन्द महासागर में 200 मील तक समाकलित आर्थिक क्षेत्र (ई. ई. जेड.) के विस्तार और हिन्द महासागर में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा नोडुल्स खनन के लिए प्रदत्त 1.5 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र से मत्स्य पकड़ने और समुद्री खनन में काफी प्रगति हुई है।
- जलवायु: हिन्द महासागर भारत को मानसूनी जलवायु प्रदान करता है जो भारतीय जन-जीवन और अर्थव्यवस्था को संचालित करता है।
- ऊर्जा: ज्वारीय ऊर्जा, तरंग ऊर्जा, समुद्री तापमान में अंतर से उत्पन्न ऊर्जा के रूप में भारत के तटवर्ती क्षेत्रं में पर्याप्त विभव मौजूद है।
- भू-राजनीतिक: हिन्द महासागर में सर्वाधिक केन्द्रीय स्थिति के कारण भारत का भू-राजनीतिक महत्व बढ़ गया है। वर्तमान में भारत, आस्ट्रेलिया और द. अफ्रीका हिन्द महासागर के तटवर्ती देशों का संघ बनाने के लिए प्रयासरत है।
भारत की भूगर्भिक संरचना
- भारत की भूगर्भिक संरचना विलक्षण है, क्योंकि यहाँ प्रीकैम्ब्रियन (Precambrian) काल से लेकर वर्तमान होलोसिन काल तक का विस्तृत निक्षेप मिलता है। भारत की भूगर्भिक संरचना न केवल देश में पाये जाने वाले चट्टानों और खनिजों के वितरण को निर्धारित करती है बल्कि संरचना और उच्चावच में प्रत्यक्ष संबंध भी स्थापित करती है।
➤ भारतीय भूगर्भिक इतिहास की प्रमुख विशेषताएं निम्न हैं
- आद्य महाकल्प और धारवाड़ समूह- धरातल पर सर्वाधिक प्राचीन, अवशेष रहित, कायान्तरित शैलों से निर्मित समूह। प्रायद्वीपीय भाग में 1 लाख 87 हजार वर्ग किमी. क्षेत्र में विस्तृत इस काल की खदान चट्टानों में कीमती खनिज-लौह अयस्क, मैंगनीज, तांबा, लैड, सोना आदि का भंडार पाया जाता है।
- कुडप्पा क्रम की चट्टान- धारवाड़ समूह से निर्मित सर्वाधिक पुरानी अवसादी चट्टानें, जीवांश रहित। आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में विस्तृत। इन चट्टानों में धात्विक खनिज के भंडार पाये जाते है।
- विन्ध्य क्रम- बलुआ पत्थर, चूना पत्थर, शैल अवसादी चट्टानों से निर्मित। विस्तार-कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश और राजस्थान से प. बिहार तक।
- कैम्ब्रियन से मध्य कार्बोनिफेरस- इस काल की चट्टानें पश्चिमी हिमालय में कश्मीर, हिमांचल प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पूरी तरह विकसित है। कैम्ब्रियन चट्टानें चीका, स्लेट, चूना पत्थर और क़्वार्टज से बनी हुई है जो हिमांचल प्रदेश में स्पीती घाटी में विशेष रूप से पायी जाती हैं।
- गोंडवाना समूह- कार्बोनिफेरस काल में हिम युग का आविर्भाव हुआ और नदी घाटियों में पूर्व वनस्पतियों के दबने से कोयला का निर्माण हुआ। भारत का 98 प्रतिशत कोयला इसी काल का है।
- दक्कन ट्रैप- क्रिटेशियस काल से इयोसीन काल तक प्रायद्वीपीय भारत के उ.-प. भागों में बड़े पैमाने पर ज्वालामुखी क्रिया हुई और दरारी उद्भेदन के फलस्वरूप 5 लाख वर्ग किमी. से अधिक क्षेत्र पर क्षारीय लावा का विस्तार हो गया। इस क्षेत्र में कालांतर में बैसाल्ट चट्टानों के अपरदन से उपजाऊ “रेगुर” या ‘काली कपास मिट्टी’ का निर्माण हुआ।
- टर्शियरी समूह- इस काल में वृहत् पर्वत निर्माणकारी घटनाओं के कारण हिमालय की उत्पत्ति हुई। टेथिस के तलछटों में मोड़ और पर्वत के रूप में उत्थान टर्शियरी से प्लीस्टोसीन काल तक विभिन्न चरणों में पूरा हुआ। भारत ने अपना वर्तमान स्वरूप इसी काल में धारण किया। इस काल के जमावों में कोयला-लिगनाइट और पेट्रोलियम का भंडार पाया जाता है।
- प्लीस्टोसीन और होलोसीन समूह- प्लीस्टोसीन काल में करेवा जलाशय से कश्मीर की घाटी और पीरपंजाल का निर्माण हुआ। दक्षिण भारत की नदियों के प्राचीनतम् कांप इस काल के ही है। गंगा-सतलज मैदान का पुराना जलोढ़ मैदान बांगर मध्य प्लीस्टोसीन काल में और नया बाढ़ मैदान खादर ऊपरी प्लीस्टोसीन और आधुनिक काल में बना है। पूर्वी तट पर डेल्टा का निर्माण भी आधुनिक काल का है।
इस प्रकार भारत का भूगर्भिक इतिहास पृथ्वी के सबसे प्राचीनतम अरावली पर्वत, विश्व के सबसे ऊंचे और आधुनिक मोड़दार हिमालय पर्वत श्रेणी और अत्याधुनिक समय के बने वृहद् मैदान को प्रदर्शित करता है।
➤ भारत का भू आकृतिक विभाजन और प्रत्येक भाग की संरचनात्मक विशेषता एवं महत्व
- भारत के 4 प्रमुख भू-आकृतिक भागों में बांटा गया है
(1) हिमालय पर्वत श्रेणी,
(2) उत्तर भारतीय मैदान,
(3) प्रायद्वीपीय पठार और
(4) तटवर्ती मैदान।
हिमालय पर्वत श्रेणी
हिमालय पर्वतमाला सिंधु नदी के मोड़ से ब्रह्मपुत्र नदी के मोड़ तक 2400 किमी. की पूर्व-पश्चिम लंबाई में चापाकार में फैला हुआ है। इसकी चैड़ाई 150 से 400 किमी. और औसत ऊँचाई 2000 मी. है। किन्त यह पूर्वी भाग में 1500 मी. और मध्यवर्ती भाग में 8000 मी. ऊंचा है। इसका कुल विस्तार लगभग 5 लाख वर्ग किमी. क्षेत्रफल में है। यह एक नवीन पर्वतमाला है जो उस विशाल पर्वत प्रणाली का भाग है जो मध्य एशिया से मध्य यूरोप तक फैली हुई है।
हिमालय को 4 प्रादेशिक भागों में बांटा गया है
(i) पंजाब हिमालय- सिंधु से सतलुज के बीच 560 कि.मी. की लंबाई में विस्तार।
(ii) कुमायूँ हिमालय- सतलुज से काली नदी तक 320 किमी. की लंबाई में विस्तार।
(iii) नेपाल हिमालय- काली और तीस्ता के बीच 800 कि.मी. की लंबाई में विस्तार।
(iv) असम हिमालय- तीस्ता और दिहांग के मध्य 720 कि.मी. की लंबाई में।
➤ हिमालय का समानान्तर विभाजन
- हिमालय पर्वतमाला अपने अनुदैध्र्य अक्ष पर समानान्तर पर्वतमालाओं के तीन मुख्य अनुक्रम में अवस्थित है जो विवर्तनिक अनुदैध्र्य घाटियों द्वारा पृथक होती है।
(i) वृहत् हिमालय या हिमाद्री- नंगा पर्वत से नमचाबरवा तक 2400 कि.मी. की लंबाई और औसत ऊंचाई 6000 मी. है। प्रमुख चोटी-एवरेस्ट-8848 मी. कंचनजंघा-8598 मी. है।
(ii) मध्य हिमालय या हिमाचल- औसत 80 कि.मी. चौड़ाई और 3700 से 4500 मी. की ऊँचाई। हिमालय के सभी स्वास्थ्यवर्धक स्थान इसी पर्वतक्रम में मिलते हैं।
(iii) उपहिमालय या शिवालिक- औसत चैड़ाई 10 से 50 किमी. और ऊँचाई 900 से 1200 मी. है।
➤ हिमालय का महत्व
- पर्यटन स्थल के रूप में,
- सालों भर प्रवाहित नदियों का स्त्रोत,
- वृहद् मैदान की उपजाऊ मृदा का स्त्रोत,
- जैव विविधता का प्रचुर भंडार,
- जलापूर्ति और जलविद्युत का स्त्रोत,
- खनिजों का भंडार,
- प्राकृतिक अवरोधक या सीमा का कार्य,
- जलवायविक प्रभाव-भारत को उष्ण कटिबंधीय मानूसनी चरित्रा प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका।
उत्तरी भारतीय मैदान
- उत्तर भारत का विशाल मैदान विश्व का सबसे अधिक उपजाऊ और घनी जनसंख्या वाला भू-भाग है। पूर्व-पश्चिम दिशा में इसकी लंबाई 2400 किमी. तथा कुल क्षेत्रफल 7 लाख वर्ग कि.मी. है। इसमें कांप की औसत मोटाई 1300 से 1400 मी. तक है।
संरचना- मिट्टी की विशेषता व ढाल के आधार पर विशाल मैदान को 5 भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
(i) भावर प्रदेश- हिमालय के पर्वतपदीय क्षेत्रों में कंकड़ पत्थरों से ढका भाग भावर कहलाता है। इसकी औसत चैड़ाई 10-15 कि.मी. है।
(ii) तराई प्रदेश- भावर के दक्षिण चिकनी मिट्टी, कंकड़, रेत से निर्मित 15-30 कि.मी. की चैड़ाई में फैला प्रदेश।
(iii) बाँगर प्रदेश- गंगा-सतलज मैदान का पुराना बाढ़ का मैदान। रेह, भूड़, कांकड़, बारिन्द आदि बाँगर प्रदेश की प्रमुख विशेषताएं हैं।
(iv) खादर प्रदेश- गंगा-सतलज मैदान का नवीन बाढ़ का मैदान या कछारी प्रदेश।
(v) डेल्टाई प्रदेश- गंगा-ब्रह्मपुत्र का विशाल डेल्टा प. बंगाल और बांगलादेश में विस्तृत है।
➤ विशाल मैदान का उपविभाज
- उत्तर के विशाल मैदान का धरातलीय विशेषता के आधार पर 4 उपभागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
- पंजाब-हरियाणा का मैदान- सतलुज, व्यास व रावी नदियों से निर्मित, 1.75 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैला मैदान।
- राजस्थान का मैदान- अरावली के पश्चिम 1.75 लाख वर्ग किमी. क्षेत्रफल पर फैला मैदान। बलुआ टीलों और नीस एवं ग्रेनाइट निर्मित सतह। प्रमुख नदी-लूनी।
- गंगा का मैदान- उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल राज्यों के 3.57 लाख वर्ग कि.मी. भू-भाग पर फैला कांप निर्मित मैदान। इस मैदान को तीन उप विभागों में बांटा गया है-
(i) ऊपरी गंगा का मैदान- औसत ऊँचाई 100 से 300 मीटर,
(ii) मध्य गंगा का मैदान- औसत ऊँचाई 75 से 30 मीटर,
(iii) निम्न गंगा का मैदान- औसत ऊँचाई 30 मीटर से कम। - ब्रह्मपुत्र का मैदान या असम घाटी- मेघालय पठार और हिमालय पर्वत के बीच 80 कि.मी. चैड़ाई में फैला लम्बा और संकीर्ण मैदान।
➤ विशाल मैदान का महत्व
- कृषि के लिए उपजाऊ भूमि (भारत का खाद्यान्न भंडार),
- मैदानी नदियों द्वारा सिंचाई और पीने के लिए जल की प्राप्ति,
- भूमिगत जल का भंडार,
- सभ्यता की जन्मभूमि,
- नगर और ग्रामीण अधिवासों का बसाव,
- जल, स्थल और रेल यातायात के विकास में महत्वपूर्ण।
- संक्षेप में, भारत का वृहद मैदान भारत की आत्मा है। यह देश का सबसे उन्नत भू-भाग है। भारत की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने में इसका बहुत बड़ा हाथ है। यह कृषि, व्यापार, उद्योग व यातायात की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
प्रायद्वीपीय पठारी प्रदेश
सतलज, गंगा, ब्रह्मपुत्र मैदान के दक्षिण संपूर्ण प्रायद्वीप को समेटते हुए प्रायद्वीपीय पठार विस्तृत, प्राचीन तथा कठोर चट्टानों द्वारा सृजित, अपरदनात्मक प्रक्रम द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों वाला पठारी प्रदेश है। 600 से 900 मी. की औसत ऊँचाई वाला यह पठार एक अनियमित त्रिकोण का निर्माण करता है जिसका आधार दिल्ली और राजमहल की पहाड़ियों के मध्य और शीर्ष कन्याकुमारी है। अरावली, पंजाब में किराना की पहाड़ियाँ, राजमहल तथा शिलाँग की पहाड़ियाँ इस प्रायद्वीपीय पठार की उत्तरी सीमा बनाती है।
➤ संरचना और उच्चावच
- भू संरचनात्मक सभ्यता के आधार पर मोटे तौर पर इस पठारी प्रदेश को तीन उप प्रदेशों में विभाजित किया जा सकता है
(i) केन्द्रीय उच्च प्रदेश-यह क्षेत्र अरावली सतपुड़ा पर्वत श्रेणी और गंगा के मैदान के मध्य स्थित है। इसकी औसत ऊँचाई 300 से 700 मी. है। अरावली की पहाड़ियां, मालवा पठार, बुन्देलखंड का पठार, कैमूर विंध्य शृंखला, सतपुड़ा, महादेव, मैकाल, बराकर, राजमहल की पहाड़ियां तथा नर्मदा और ताप्ती की भ्रंशित्थ द्रोणी इस पठारी प्रदेश के उच्चावच के प्रमुख भूस्वरूप का निर्माण करते हैं।
(ii) पूर्वी पठारी प्रदेश-प्रायद्वीपीय भाग के उत्तर-पूर्व में स्थित इस पठारी प्रदेश में बघेलखंड का पठार, सोनपार की पहाड़ियां, रामगढ़ की पहाड़ियां, छोटानागपुर का पठार, रांची का पठार, हजारीबाग का पठार, गढ़घात की पहाड़ियां, छत्तीसगढ़ का मैदान, दण्डकारण्य प्रदेश, शिलांग का पठार और मिकिर एवं रेंगमा पहाड़ियां प्रमुख भू आकृतिक स्वरूप का निर्माण करती हैं। शिलांग का पठार जो उत्तर-पूर्व में पठार की सीमा बनाती है, प्रायद्वीपीय पठार से गंगा के जलोढ़ के दबे होने के कारण असंबद्ध है।
(iii) दक्कन का पठार-त्रिभुजाकार आकृति वाले इस पठारी प्रदेश के उत्तर में सतपुड़ा, प. में पश्चिमी घाट तथा पूर्व में पूर्वी घाट पर्वत श्रेणी स्थित हैं। इसकी औसत ऊँचाई 600 मी. है। ग्रेनाइट और नीस निर्मित नीलगिरि, अन्नामलाई, पालनी, कार्डोमम समूह, दक्कन का लावा पठार, अपरदित लक्षणों एवं जलोढ़ डेल्टाई मैदान वाली महानदी, गोदावरी, कृष्णा, पेन्नार, कावेरी नदी घाटियाँ तथा प्राचीनतम शैलों से निर्मित तेलांगना का पठार, बस्तर की पहाड़ियाँ, नल्लामलाई, वेलिका डा, पालका डा, पंचमलाई, शिवराय और जावदी श्रेणियाँ आदि दक्कन पठार के प्रमुख भू आकृतिक स्वरूपों का निर्माण करते हैं। इस प्रकार प्रायद्वीपीय भारत की संरचना और उच्चावच में घनिष्ठ संबंध पाया जाता है।
➤ प्रायद्वीपीय पठार का महत्व
- खनिज संपदा का भंडार,
- उपजाऊ रेगुर मिट्टी और बागानी कृषि के लिए लैटराइट मिट्टी का स्त्रोत,
- इस क्षेत्र में प्रवाहित नदियों द्वारा सिंचाई और जल विद्युत की सुविधा।
तटवर्ती मैदान
भारत की तटरेखा 6100 कि.मी. लंबी है। यह प. में कच्छ के रन से लेकर पूर्व में गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा तक फैली है।
संपूर्ण तटवर्ती मैदान को 2 भागों में बांटा जाता है
- प. तटीय मैदान,
- पूर्वी तटीय मैदान।
पश्चिमी तटीय मैदान
यह मैदान पश्चिमी घाट के पश्चिम में कच्छ की खाड़ी से लेकर कुमारी अन्तरीप तक औसतन् 64 किमी. की चैड़ाई में फैला हुआ है। इसमें मालाबार तट अधिक कटा-फटा हुआ है। पश्चिमी तटीय
➤ मैदान को चार भागों में बांटा जाता है
- कच्छ तट,
- काठियावाड़ तट,
- कोंकण तट-दमन से गोआ तक,
- मालाबार तट-गोआ से केरल तक।
पूर्वी तटीय मैदान
यह स्वर्णरेखा नदी से कुमारी अन्तरीप तक फैला है। यह पश्चिमी तट की अपेक्षा अधिक चैड़ा और कई प्रमुख डेल्टाओं से सुसज्जित है।
➤ इस तट को 2 भागों में बांटा गया है
- कोरोमंडल तट और
- उत्तरी सरकार तट।
➤ तटवर्ती मैदान की प्रमुख विशेषताएं
- कम चौड़ा, कम कटा-फटा होना जिससे प्राकृतिक बंदरगाहों का कम पाया जाना,
- पश्चिमी तट के पास महाद्वीपीय मग्न तट की अधिक चौड़ाई।
➤ तटवर्ती मैदान का महत्व
- पर्यटन केन्द्र,
- खनिजों का भंडार-थोरियम, नमक,
- बागानी कृषि का विकास,
- प्राकृतिक बंदरगाह और व्यापारिक केन्द्र,
- मत्स्य केन्द्र,
- औद्योगिक महत्व-नमक और मत्स्य परिष्करण उद्योग।
➤ प्लेट टेक्टाॅनिक सिद्धांत के अनुसार हिमालय की उत्पत्ति
- पृथ्वी पर पर्वत निर्माण क्रिया के अन्तिम चरण में टेथिस सागर में निक्षेपित अवसादों के वलन से वर्तमान हिमालय और इससे सम्बद्ध पर्वतीय शृंखलाओं का निर्माण हुआ है।
- अल्पाइन एवं हिमालय पर्वतों के निर्माण अवस्थाओं की व्याख्या प्लेट-विवर्तनिकी के सिद्धांत के आधार पर की जाती है। पर्वत निर्माण की घटनाएँ प्लेटों की गति से सम्बद्ध रही हैं। पर्वत निर्माण के प्लेट- विवर्तनिकी सिद्धांत ने पहले ही भू-अभिनति के सिद्धांत को विस्थापित कर दिया है। प्लेटों के आपसी टकराव के कारण उनमें तथा ऊपर की महाद्वीपीय चट्टानों में प्रतिबलों का एकत्राण होता है, जिनके फलस्वरूप वलन, भ्रंशन और आग्नेय क्रियायें होती हैं। हिमालय पर्वतमालाओं का निर्माण उस समय हुआ जब भारतीय प्लेट उत्तर की ओर खिसकी तथा यूरेशियन प्लेट को धक्का दिया। इसके फलस्वरूप 6.5-7.0 करोड़ वर्ष पहले टेथिस सिकुड़ने लगा। लगभग 3.0 से 6.0 करोड़ वर्ष पहले भारतीय एवं यूरेशियन प्लेट आपस में बहुत निकट आ गई। परिणामस्वरूप टेथिस क्षेपकारों में विभंगित होने लगा। लगभग 2.0 से 3.0 करोड़ वर्ष पहले हिमालय पर्वतमाला उभरने लगी।
- हिमालय का उत्थान तीन चरणों में पूरा हुआ
(i) पहली अवस्था में केन्द्रीय हिमालयी पक्ष का उत्थान हुआ जिसकी रचना मुख्यतः ओलिगोसीन युग की पुरानी रवेदार तथा अवसादी चट्टानों से हुई थी।
(ii) दूसरा स्थान इओसीन युग में हुआ जिसके अंतर्गत पश्चिमी पाक के पोटवार क्षेत्र में एक बेसिन में निक्षेपित अवसादों का आवलन हुआ।
(iii) उत्तर प्लीयोसीन युग में शिवालिक का वलन की तृतीय अवस्था का द्योतक है।
प्रायद्वीपीय पठार और हिमालय पर्वत
➤ भारतीय पठार
- यह पठार भू-पृष्ठीय शैलों का एक खंड है जो बहुत प्राचीन है।
- यह एक उत्खंड के रूप में खड़ा है।
- इस प्रदेश में प्राचीन वलन पर्वत जैसे अरावली स्थित है।
- पठार का उच्चावच उत्खंड तथा भू-भ्रंश घाटियों का बना है।
- पठार का धरातल एक ऊबड़-खाबड़ प्रदेश है जिसमें नदियों ने गहरी घाटियां बनाई है।
➤ हिमालय पर्वत
- हिमालय पर्वत नवीन मोड़दार पर्वत है।
- हिमालय पर्वत में वलन पाये जाते है।
- इस प्रदेश में नवीन पर्वत श्रेणियां अपने ऊंचे-ऊंचे शिखर के लिए जगत प्रसिद्ध है।
- हिमालय पर्वत के उच्चावच में तीन समानांतर पर्वत श्रेणियां है जिनके बीच-बीच में घाटियां पाई जाती है।
- हिमालय प्रदेशों में नदियों द्वारा निर्मित संकरी घाटियां तथा U-आकार की घाटियां पाई जाती है।
➤ पूर्वी तटीय मैदान और पश्चिमी तटीय मैदान
➤ पूर्वी तटीय मैदान
- पूर्वी घाट और बंगाल की खाड़ी के बीच स्थित अपेक्षतया अधिक चैड़ा तटीय मैदान।
- पूर्वी तटीय मैदान का निर्माण महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी इत्यादि नदियों के निक्षेपण कार्य द्वारा हुआ है।
- इसमें महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी इत्यादि नदिया ने उपजाऊ डेल्टाओं का निर्माण किया है।
- पूर्वी समुद्री तट बहुत कम कटा-फटा है, जिससे यहाँ प्राकृतिक बन्दरगाहों का अभाव है।
- पूर्वी तट के निकट कहीं-कहीं बालू के टीले मिलते है, जिनसे चिल्का, कोल्लेरू और पूलीकट जैसी लैगून झीलों का निर्माण हुआ है।
- पूर्वी तटीय मैदान अपेक्षतया शुष्क है और इसके अधिकांश भाग (विशेषकर दक्षिणी भाग) में शीत ऋतु में उत्तर-पूर्वी मानसून पवनों द्वारा वर्षा होती है।
➤ पश्चिमी तटीय मैदान
- पश्चिमी घाट और अरब सागर के बीच स्थित संकरा तटीय मैदान।
- पश्चिमी तटीय मैदान का निर्माण अधिकतर समुद्री निक्षेपों द्वारा हुआ है।
- इसमें पश्चिमी घाट की पश्चिमी ढाल पर द्रुत गति से बहने वाली छोटी नदियों ने किसी भी डेल्टा का निर्माण नहीं किया है।
- पश्चिमी समुद्री तट अपेक्षतया अधिक कटा-फटा है, जिससे यहाँ प्राकृतिक बन्दरगाहें पाई जाती है।
- पश्चिमी तट के निकट अनेक बालू के टीले मिलते है, जिससे यहाँ भी अनेक लैगून झीलें बन गई है जो वर्षा ऋतु में आपस में मिल जाती है।
- पूर्वी तटीय मैदान की अपेक्षा पश्चिमी तटीय मैदान अधिक आर्द्र है और यहाँ ग्रीष्म ऋतु में दक्षिण-पश्चिमी मानसून पवनों द्वारा वर्षा होती है।
हिमालय की नदियों और प्रायद्वीपीय नदियों के अपवाह तंत्र
➤ हिमालय की नदियां
- हिमालय की नदियों का बेसिन तथा जल ग्रहण क्षेत्र बहुत बड़ा है।
- हिमालय की नदियाँ विशाल गार्ज से होकर बहती है।
- हिमालय की नदियों के दो जल स्रोत है-वर्षा तथा हिम। इसलिए ये नदियां सदा- नीरा है।
- इन नदियों के मार्ग में कम जलप्रपात होने के कारण जल विद्युत उत्पन्न करने की संभावना कम है।
- इन नदियों में नौका चालक एवं नहरों द्वारा सिंचाई की सुविधाएं अधिक है।
- हिमालय की नदियों का पर्वतीय मार्ग काफी टेड़ा-मेढ़ा होता है तथा मैदान में ये विसर्प बनाती हैं और अक्सर अपना मार्ग बदल देती है।
- हिमालय की अधिकांश नदियां पूर्ववर्ती नदियां है। ये नदियां हिमालय की उत्पत्ति से भी पहले की है। इस प्रकार ये हिमालय के ढाल के अनुरूप नहीं बहतीं।
- गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमालय अपवाह तंत्र का निर्माण करती हैं।
➤ प्रायद्वीपीय नदियाँ
- प्रायद्वीपीय नदियों का बेसिन तथा जल ग्रहण क्षेत्र काफी छोटा है।
- प्रायद्वीपीय नदियां उथली घाटियों में बहती है।
- प्रायद्वीपीय नदियों का जल स्त्रोत केवल वर्षा है इसलिए शुष्क ऋतुओं में ये प्रायः सूख जाती है।
- प्रायद्वीपीय नदियों के मार्ग में अधिक जलप्रपात होने के कारण ये जल विद्युत पैदा करने में सक्षम है।
- इन नदियों में नौका चालन एवं नहरों द्वारा सिंचाई की सुविधाएं कम है।
- प्रायद्वीपीय नदियां कठोर चट्टानों के आधार पर जलोढ़ की कमी के कारण विसर्प नहीं बनातीं तथा प्रायः सीधे मार्गों में बहती है।
- प्रायद्वीपीय नदियों की चौड़ी और लगभग संतुलित एवं उथली घाटियां यह संकेत देती है कि वे हिमालय की नदियों से काफी पहले से अस्तित्व में रही है और प्रायद्वीपीय ढाल के अनुरूप बहती है अर्थात् ये अनुवर्ती नदियाँ है।
- नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी आदि नदियाँ प्रायद्वीपीय भारत के अपवाह तंत्र का निर्माण करती हैं।
➤ पश्चिमी तट पर नदियां डेल्टा नहीं बनाती है, क्यों?
- पश्चिमी तट पर बहने वाली प्रमुख नदियाँ नर्मदा और ताप्ती हैं। इनके अतिरिक्त अनेक छोटी-छोटी नदियाँ पश्चिमी घाट से निकलकर अरब सागर में गिरती हैं। यद्यपि ये नदियाँ पश्चिमी घाट से पर्याप्त मात्रा में तलछट बहाकर लाती हैं, परन्तु ये डेल्टा नहीं बनातीं।
इसके निम्नलिखित कारण है
(i) ये नदियाँ संकरे मैदान से बहकर आती हैं, अतः इनका वेग तीव्र होता है।
(ii) तट के पास इन नदियों की ढाल प्रवणता अधिक होने के कारण ये तीव्र वेग से बहती हैं जिससे इनके मुहानों पर तटछट का निक्षेप नहीं हो पाता।
➤ “वृद्धगंगा” या “दक्षिण गंगा”
- जिस प्रकार हिमालय पर्वत की नदियों में गंगा सबसे बड़ी नदी है, ठीक उसी प्रकार प्रायद्वीपीय नदियों में गोदावरी सबसे बड़ी नदी है। इसके अलावा जिस प्रकार गंगा को उत्तरी भारत में पवित्र नदी माना जाता है, ठीक उसी प्रकार दक्षिणी भारत में गोदावरी को पवित्र नदी माना जाता है। अतः अपने विशाल आकार एवं विस्तार तथा पवित्रता के कारण गोदावरी को “वृद्ध गंगा” कहा जाता है।