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Indian Society and Social Issues (भारतीय समाज और सामाजिक मुद्दे): December 2022 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly PDF Download

जनजातीय विकास रिपोर्ट 2022

चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत ग्रामीण आजीविका फाउंडेशन (Bharat Rural Livelihood Foundation- BRLF) द्वारा जनजातीय विकास रिपोर्ट 2022 जारी की गई, जिसके बारे में संगठन का दावा है कि यह वर्ष 1947 के बाद से अपनी तरह की पहली रिपोर्ट है।

  • संघ और राज्य सरकारों के सहयोग से नागरिक समाज की कार्रवाई का विस्तार करने के लिये, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने वर्ष 2013 में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त समाज के रूप में BRLF की स्थापना की थी।

रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु

  • जनजातीय आबादी:
    • वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत का जनजातीय समुदाय देश की जनसंख्या का 8.6% हैं। परंतु आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी वे देश के विकास के पदानुक्रम में सबसे निचले पायदान पर हैं।
    • देश के 80% जनजातीय समुदाय मध्य भारत में हैं।
    • 257 अनुसूचित जनजातीय ज़िलों में से, 230 (90%) ज़िले या तो वनक्षेत्र या पहाड़ी अथवा रेगिस्तानी क्षेत्र में आते हैं।
  • जनजातीय समुदाय सबसे ज़्यादा वंचित:
    • बात चाहे स्वच्छता, शिक्षा, पोषण की हो या पीने के पानी तक पहुँच की, स्वतंत्रता के 70 वर्ष बाद भी आदिवासी सबसे ज़्यादा वंचित हैं।
  • जनजातीय क्षेत्रों में अशांति और संघर्ष:
    • जनजातीय क्षेत्रों में भी अशांति और संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। यह एक कारण है कि कई सरकारी कल्याणकारी योजनानाएँ और नीतियाँ इन क्षेत्रों में शुरू नहीं हो पा रही हैं। इस क्षेत्र का संकट दोनों पक्षों को प्रभावित करता है।
  • सबसे कठोर स्थानों परम विस्थापन :
    • रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के स्वदेशी समुदायों को जलोढ़ मैदानों और उपजाऊ नदी घाटियों से दूर पहाड़ियों, जंगलों और शुष्क भूमि जैसी देश की सबसे कठोर परिस्थितियों में विस्थापित कर दिया गया है
  • 1980 में वन संरक्षण अधिनियम:
    • 1980 में वन संरक्षण अधिनियम के लागू होने के बाद, संघर्ष को पर्यावरण संरक्षण और स्थानीय आदिवासी समुदायों की ज़रूरतों के बीच देखा जाने लगा, जिससे लोगों और जंगलों के बीच दूरियाँ बढ़ने लगी हैं।
    • वर्ष 1988 की राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार स्थानीय लोगों की घरेलू आवश्यकताओं को पहली बार स्पष्ट रूप से मान्यता दी गई थी।
    • नीति में आदिवासियों के प्रथागत अधिकारों की रक्षा करने और वनों की सुरक्षा बढाने के लिये आदिवासियों को जोड़ने पर ज़ोर दिया है। लेकिन जनोन्मुखी दृष्टिकोण की ओर बढ़ रहा आंदोलन ज़मीनी हकीकत से मेल नहीं खा पाया है।
  • सुझाव:
    • जनजातीय समुदायों के लिये नीतियाँ बनाने के लिये उनकी विशेष विशेषताओं को समझना महत्त्वपूर्ण है।
    • ऐसे कई आदिवासी समुदाय हैं जो अलगाव पसंद करते हैं। वे शर्मीले हैं और वे बाहरी दुनिया से संपर्क नही रखते हैं। देश के नीति निर्माताओं और नेताओं को इस विशेषता को समझने और फिर आदिवासियों के कल्याण की दिशा में काम करने की आवश्यकता है ताकि वे उनसे बेहतर तरीके से जुड़ सकें।

द फ्यूचर ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर: FAO

चर्चा में क्यों?

खाद्य एवं कृषि संगठन (Food and Agriculture Organization- FAO) की नई रिपोर्ट, द फ्यूचर ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर - ड्राइवर्स और ट्रिगर्स फॉर ट्रांसफॉर्मेशन के अनुसार, अगर कृषि और खाद्य प्रणाली भविष्य में भी वर्तमान जैसी ही रही तो आने वाले समय में विश्व को निरंतर ही खाद्य असुरक्षा  की समस्या का सामना करना पड़ेगा।

  • इस रिपोर्ट का उद्देश्य कृषि और खाद्य प्रणालियों के स्थायी, लचीले और समावेशी भविष्य के लिये रणनीतिक सोच तथा कार्यों को प्रेरित करना है।

रिपोर्ट के निष्कर्ष:

  • कृषि एवं खाद्य प्रणाली के वाहक:
    • सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरण से जुड़े ऐसे 18 कारक हैं, जोाखाद्य प्रसंस्करण और खाद्य खपत सहित कृषि खाद्य प्रणालियों के भीतर होने वाली विभिन्न गतिविधियों से अंतर्संबंधित होने के साथ उन्हें आकार देने का काम करते हैं।
    • गरीबी और असमानताएंँ, भू-राजनीतिक अस्थिरता, संसाधनों की कमी एवं क्षरण और जलवायु परिवर्तन कुछ प्रमुख चालक हैं जिसका प्रबंधन खाद्य एवं कृषि का भविष्य तय करेगा।
  • खाद्य असुरक्षा पर चिंता:
    • यदि कृषि खाद्य प्रणाली समान बनी रहती है तो भविष्य में विश्व लगातार खाद्य असुरक्षा, घटते संसाधनों और अस्थिर आर्थिक विकास का सामना करेगा।
    • कृषि खाद्य लक्ष्यों सहित सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) को पूरा करने के लिये विश्व "ऑफ ट्रैक" है।
    • कई SDGs सही ट्रैक पर नहीं हैं और इसे तभी हासिल किया जा सकता है, जब कृषि खाद्य प्रणाली को उन वैश्विक प्रतिकूलताओं का सामना करने के लिये सही तरीके से रूपांतरित किया जाए जो बढ़ती संरचनात्मक असमानताओं और क्षेत्रीय असमानताओं के कारण खाद्य सुरक्षा और पोषण को कमज़ोोर करती हैं।
    • वर्ष 2050 तक विश्व में 10 बिलियन लोगों के लिये भोजन की आवश्यकता होगी तथा यह एक अभूतपूर्व चुनौती होगी, यदि वर्तमान रुझानों को बदलने के लिये महत्त्वपूर्ण प्रयास नहीं किये गए।
  • भविष्य के परिदृश्य:
    • कृषि खाद्य प्रणालियों के लिये भविष्य के चार परिदृश्य होंगे जो खाद्य सुरक्षा, पोषण और समग्र स्थिरता के मामले में विविध परिणाम देते हैं।
    • इसके अलावा, यह घटनाओं और संकटों पर प्रतिक्रिया करके निरंतर हस्तक्षेप की परिकल्पना करता है।
    • समायोजित भविष्य, जहाँ कुछ कदम टिकाऊ कृषि खाद्य प्रणालियों की ओर धीमी, अनिश्चित गति से प्रभावित  होते हैं।
    • रेस टू द बाॅटम, जो विश्व को उसके सबसे खराब और अव्यवस्थित रूप में चित्रित करता है।
    • स्थिरता के लिये ट्रेड ऑफ करना, जहाँ अल्पकालिक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के विकास हेतु कृषि-खाद्य सामाजिक आर्थिक और पर्यावरण प्रणालियों की समग्रता, लचीलापन और स्थिरता के लिये व्यापार किया जाता है।।
  • सुझाव:
    • निर्णय निर्माताओं को अल्पकालिक ज़रूरतों से परे सोचने की ज़रूरत है। दृष्टि की कमी, टुकड़ों में दृष्टिकोण और त्वरित सुधार हर किसी के लिये उच्च लागत पर आएंगे
    • वर्तमान स्वरुप को बदलने की तत्काल आवश्यकता है ताकि कृषि खाद्य प्रणालियों के लिये एक अधिक टिकाऊ और लचीला भविष्य बनाया जा सके।
    • ‘ट्रिगर्स ऑफ ट्रांसफॉर्मेशन' पर काम करने की आवश्यकता है:
    • बेहतर शासन।
    • आलोचनात्मक और सूचित उपभोक्ता।
    • बेहतर आय और धन वितरण।
    • अभिनव प्रौद्योगिकियांँ और दृष्टिकोण।
    • हालाँकि एक व्यापक परिवर्तन एक कीमत पर आएगा और इसके लिये विपरीत उद्देश्यों के व्यापार-बंद की आवश्यकता होगी, जिन्हें सरकारों, नीति निर्माताओं और उपभोक्ताओं को प्रतिमान बदलाव के प्रतिरोध से निपटने के दौरान संबोधित और संतुलित करना होगा।

खाद्य और कृषि संगठन

  • परिचय:
    • खाद्य और कृषि संगठन की स्थापना वर्ष 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ के तहत की गई थी, यह संयुक्त राष्ट्र की एक विशेष एजेंसी है।
    • प्रत्येक वर्ष विश्व में 16 अक्तूबर को विश्व खाद्य दिवस मनाया जाता है। यह दिवस FAO की स्थापना की वर्षगाँठ की याद में मनाया जाता है।
    • यह संयुक्त राष्ट्र के खाद्य सहायता संगठनों में से एक है जो रोम (इटली) में स्थित है। इसके अलावा विश्व खाद्य कार्यक्रम और कृषि विकास के लिये अंतर्राष्ट्रीय कोष (IFAD) भी इसमें शामिल हैं।
  • FAO की पहलें:
    • विश्व स्तरीय महत्त्वपूर्ण कृषि विरासत प्रणाली (GIAHS)।
    • विश्व में मरुस्थलीय टिड्डी की स्थिति पर नज़र रखना।
    • FAO और WHO के खाद्य मानक कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के मामलों के संबंध में कोडेक्स एलेमेंट्रिस आयोग (CAC) उत्तरदायी निकाय है।
    • खाद्य और कृषि के लिये प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज़ पर अंतर्राष्ट्रीय संधि को वर्ष 2001 में FAO के 31वें सत्र में अपनाया गया था।
  • फ्लैगशिप पब्लिकेशन (Flagship Publications):
    • वैश्विक मत्स्य पालन और एक्वाकल्चर की स्थिति (SOFIA)।
    • विश्व के वनों की स्थिति (SOFO)।
    • वैश्विक खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति (SOFI)
    • खाद्य और कृषि की स्थिति (SOFA)।
    • कृषि कोमोडिटी बाज़ार की स्थिति (SOCO)।

IMR, MMR और कुपोषण से निपटने में भारत की प्रगति

चर्चा में क्यों?

भारत के महापंजीयक (RGI) द्वारा प्रस्तुत आँकड़े वर्ष 2005 के बाद भारत की मातृ और शिशु मृत्यु दर (MMR और IMR) में गिरावट की गति में वृद्धि दर्शाते हैं।

  • दुर्भाग्य से, पोषण एक प्रमुख क्षेत्र है जो किसी भी बड़ी प्रगति से दूर है।

भारत का महापंजीयक (Registrar General of India):

  • वर्ष 1961 में भारत का महापंजीयक की स्थापना गृह मंत्रालय के तहत भारत सरकार द्वारा की गई थी। यह भारत की जनगणना और भारतीय भाषा सर्वेक्षण सहित भारत के जनसांख्यिकीय सर्वेक्षणों के परिणामों की व्यवस्था, संचालन तथा विश्लेषण करता है।
  • प्रायः एक सिविल सेवक को ही रजिस्ट्रार के पद पर नियुक्त किया जाता है जिसकी रैंक संयुक्त सचिव पद के समान होती है।
  • RGI का कार्यालय मुख्य रूप से निम्नलिखित के संचालन हेतु ज़िम्मेदार है:
  • आवास और जनसंख्या गणना
    • सिविल पंजीकरण प्रणाली (CRS)
    • नमूना पंजीकरण प्रणाली (SRS)
    • राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (NPR)
    • मातृभाषा सर्वेक्षण

MMR और IMR को कम करने में प्रगति

  • गिरावट के रुझान:
    • RGI के कार्यालय द्वारा जारी एक विशेष बुलेटिन के अनुसार, भारत का MMR वर्ष 2001-03 के दौरान 301 की तुलना में वर्ष 2018-2020 में 97 था।
  • IMR भी वर्ष 2005 में 58 की तुलना में घटकर 27 (वर्ष 2021 तक) हो गया है।
    • इस संदर्भ में ग्रामीण-शहरी अंतराल भी कम हो गया है।
  • NHM और NRHM की भूमिका: पिछले कुछ वर्षों से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) शिशु और मातृ मृत्यु दर में कमी के मामले में देश के लिये गेम चेंजर रहे हैं।
    • प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की एक सार्वजनिक प्रणाली के माध्यम से सुलभ और सस्ती स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिये वर्ष 2005 में NRHM शुरू किया गया था।
    • NHM को भारत सरकार द्वारा वर्ष 2013 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (2005 में लॉन्च) और राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (2013 में लॉन्च) को एकीकृत करते हुए लॉन्च किया गया था।

Indian Society and Social Issues (भारतीय समाज और सामाजिक मुद्दे): December 2022 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthlyकुपोषण से निपटने का परिदृश्य

  • परिचय:
    • कुपोषण वह स्थिति है जो तब विकसित होती है जब शरीर विटामिन, खनिज और अन्य पोषक तत्त्वों से वंचित हो जाता है, जिससे उसे स्वस्थ ऊतक तथा अंग के कार्य को बनाए रखने की आवश्यकता होती है।
    • कुपोषण उन लोगों में होता है जो या तो अल्पपोषित होते हैं या अधिक पोषित होते हैं।
  • NFHS 5 के निष्कर्ष:
    • राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5, 2019-21 की रिपोर्ट के अनुसार- 5 वर्ष से कम उम्र के 35.5 प्रतिशत बच्चे अविकसित हैं, 19.3 प्रतिशत कमज़ोर हैं और 32.1 प्रतिशत कम वजन वाले हैं।
    • मेघालय में अविकसित बच्चों की संख्या सबसे अधिक (46.5%) है, इसके बाद बिहार (42.9%) का स्थान है।
    • महाराष्ट्र में 25.6% चाइल्ड वेस्टिंग/बच्चों में निर्बलता सबसे अधिक हैं, इसके बाद गुजरात (25.1%) का स्थान है।
    • NFHS-4 की तुलना में, NFHS -5 में अधिकांश राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में अधिक वजन या मोटापे की व्यापकता में वृद्धि हुई है।
    • राष्ट्रीय स्तर पर, यह महिलाओं के बीच 21% से बढ़कर 24% और पुरुषों के बीच 19% से 23% हो गया।
    • भारत के सभी राज्यों में 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों (58.6 से 67%), महिलाओं (53.1 से 57%) में एनीमिया की स्थिति बिगड़ गई है।
  • सरकार की पहलों की अक्षमता:
    • पोषण अभियान, हालांँकि अभिनव है, अभी भी संस्थागत विकेंद्रीकृत सार्वजनिक कार्रवाई चुनौती को संबोधित नहीं कर पा रहा है।
    • पोषण के लिये की गई पहल विखंडित बनी हुई है; स्थानीय पंचायतों और असंबद्ध वित्तीय संसाधनों वाले समुदायों की संस्थागत भूमिका अभी भी पिछड़ रही है।
  • अन्य मुद्दे:
    • गरीबी, अल्पपोषण, कम कार्य क्षमता, कम कमाई और गरीबी का दुष्चक्र।
    • मलेरिया और खसरा जैसे संक्रमण तीव्र कुपोषण को जन्म देते हैं और मौजूदा पोषण संबंधी कमी को बढ़ाते हैं।
    • किसी परिवार की BPL स्थिति निर्धारित करने में अवैज्ञानिकता और अंतर-राज्य-भिन्नता के परिणामस्वरूप भूख की अवैज्ञानिकता पहचान होती है।
    • सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी (प्रच्छन भूख) के प्रति लापरवाही और पोषण तथा स्तनपान के बारे में माताओं के बीच अपर्याप्त ज्ञान।

कुपोषण से निपटने के लिये पहल

  • पोषण अभियान: भारत सरकार ने 2022 तक "कुपोषण मुक्त भारत" सुनिश्चित करने के लिये राष्ट्रीय पोषण मिशन (NNM) या पोषण अभियान शुरू किया है।
  • एनीमिया मुक्त भारत अभियान: 2018 में शुरू किये गए, मिशन का उद्देश्य एनीमिया की गिरावट की वार्षिक दर को एक से तीन प्रतिशत तेज़ करना है।
  • राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), 2013: इसका उद्देश्य अपनी संबद्ध योजनाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से सबसे कमज़ोर वर्गों के लिये खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करना है।
  • प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना (PMMVY): गर्भवती महिलाओं के प्रसव के लिये बेहतर सुविधाओं का लाभ उठाने के लिये उनके बैंक खातों में सीधे 6,000 रुपए हस्तांतरित किये जाते हैं।
  • एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) योजना: यह 1975 में शुरू की गई थी और इस योजना का उद्देश्य 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों और उनकी माताओं को भोजन, पूर्वस्कूली शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल, टीकाकरण, स्वास्थ्य जांच और रेफरल सेवाएँ प्रदान करना है।
  • ईट राइट इंडिया और फिट इंडिया मूवमेंट स्वस्थ भोजन और स्वस्थ जीवन शैली को बढ़ावा देने के लिये कुछ अन्य पहल हैं।

पोषण की सफलता के लिये पुनर्गठन सिद्धांत

  • ज़मीनी स्तर के प्रशासन (ग्राम पंचायत, ग्राम सभा और अन्य सामुदायिक संगठनों) को शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, कौशल और विविध आजीविका की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है।
  • विकेंद्रीकृत वित्तीय संसाधनों के साथ ग्राम-विशिष्ट योजना प्रक्रिया का संचालन करना।
  • मूल्यांकन (और तदनुसार वृद्धि) (A) घरेलू दौरे सुनिश्चित करने के लिये क्षमता विकास के साथ अतिरिक्त देखभाल करने वालों की आवश्यकता और (B) पोषण में परिणामों के लिये आवश्यक निगरानी की तीव्रता
  • कदन्न सहित स्थानीय भोजन की विविधता को प्रोत्साहित करना।
  • तीव्र व्यवहार संचार।
  • सामुदायिक संबंध और माता-पिता की भागीदारी के साथ प्रत्येक आंँगनवाड़ी केंद्र में मासिक स्वास्थ्य दिवसों को संस्थागत बनाना।
  • सशक्तीकरण के लिये और कौशल के माध्यम से विविध आजीविका के लिये हर गांँव में किशोर लड़कियों के लिये एक मंच बनाना।

निष्कर्ष

  • एक विषय के रूप में पोषण के लिये संपूर्ण सरकार और पूरे समाज के दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। प्रौद्योगिकी सबसे अच्छा एक साधन हो सकती है और निगरानी भी स्थानीय हो सकती है। पंचायत और सामुदायिक संगठन आगे बढ़ने का सबसे अच्छा तरीका हैं।

मुस्लिम महिलाओं हेतु न्यूनतम विवाह योग्य आयु में वृद्धि

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से राष्ट्रीय महिला आयोग (National Commission for Women- NCW) द्वारा मुस्लिम महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु को अन्य धर्मों के लोगों के समान करने के लिये दायर याचिका पर जवाब देने के लिये कहा।

विवाह हेतु न्यूनतम आयु कानूनी ढाँचा

  • पृष्ठभूमि:
    • भारत में विवाह की न्यूनतम आयु पहली बार शारदा अधिनियम, 1929 के रूप में जाने जाने वाले कानून द्वारा निर्धारित की गई थी। बाद में इसका नाम बदलकर बाल विवाह प्रतिबंध अधिनियम (Child Marriage Restraint Act- CMRA), 1929 कर दिया गया।
    • वर्ष 1978 में लड़कियों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु 18 वर्ष और लड़कों के लिये 21 वर्ष करने के लिये CMRA में संशोधन किया गया था।
    • बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम (Prohibition of Child Marriages Act- PCMA), 2006 नामक नए कानून में भी यही स्थिति बनी हुई है, जिसने CMRA, 1929 का स्थान लिया है।
  • वर्तमान:
    • हिंदुओं के लिये हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 लड़कियों के लिये न्यूनतम आयु 18 वर्ष और लड़कों के लिये न्यूनतम आयु 21 वर्ष निर्धारित करता है।
    • इस्लाम में नाबालिग की शादी जो तरुण अवस्था (प्यूबर्टी) प्राप्त कर चुकी है, वैध मानी जाती है।
    • विशेष विवाह अधिनियम, 1954 और बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 भी क्रमशः महिलाओं और पुरुषों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु 18 एवं 21 वर्ष निर्धारित करते हैं।
    • शादी की नई उम्र को लागू करने के लिये इन कानूनों में संशोधन किये जाने की उम्मीद है।
    • वर्ष 2021 में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने महिलाओं के लिये विवाह की कानूनी आयु 18 से बढ़ाकर 21 वर्ष करने का प्रस्ताव दिया।

महिलाओं के कम उम्र में विवाह संबंधी मुद्दे

  • मानवाधिकारों का उल्लंघन: बाल विवाह महिलाओं के मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है और नीति निर्माताओं का इस पर ध्यान नहीं जाता है।
  • इन बुनियादी अधिकारों में शिक्षा का अधिकार, आराम और अवकाश का अधिकार, मानसिक या शारीरिक शोषण से सुरक्षा का अधिकार (बलात्कार एवं यौन शोषण सहित) शामिल हैं।
  • महिलाओं का अशक्तीकरण: चूँकि बालिकाएँ अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाती हैं, इसलिये वे आश्रित और शक्तिहीन बनी रहती हैं, जो लैंगिक समानता प्राप्त करने की दिशा में एक बड़ी बाधा के रूप में कार्य करती है।
  • संबद्ध समस्याएँ: बाल विवाह के साथ ही किशोर गर्भावस्था एवं चाइल्ड स्टंटिंग, जनसंख्या वृद्धि, बच्चों के खराब लर्निंग आउटकम और कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी की हानि जैसे परिणाम भी जुड़ जाते हैं।
  • घर में किशोर पत्नियों का निम्न दर्जा आमतौर पर उन्हें लंबे समय तक घरेलू श्रम, बदतर पोषण और एनीमिया की समस्या, सामाजिक अलगाव, घरेलू हिंसा और घरेलू विषयों में निर्णय लेने की कम शक्तियों की ओर धकेलता है।
  • कमज़ोर शिक्षा, कुपोषण और कम आयु में गर्भावस्था बच्चों के जन्म के समय कम वजन का कारण बनती है, जिससे कुपोषण का अंतर-पीढ़ी चक्र बना रहता है।

निष्कर्ष

  • विवाह संबंधी वर्तमान कानून आयु-केंद्रित हैं और किसी धर्म विशेष इसमें कोई अपवाद नहीं है और 'युवावस्था' मात्र के आधार पर वर्गीकरण का कोई वैज्ञानिक समर्थन नहीं है और न ही विवाह करने की क्षमता के साथ कोई प्रत्यक्ष संबंध है।
  • एक व्यक्ति जिसने तरुणावस्था प्राप्त कर ली है वह प्रजनन के लिये जैविक रूप से सक्षम हो सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उक्त व्यक्ति मानसिक या शारीरिक रूप से यौन क्रियाओं में संलग्न होने और बच्चे को जन्म देने के लिये पर्याप्त रूप से परिपक्व है।

विश्व मलेरिया रिपोर्ट 2022

चर्चा में क्यों?
हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा विश्व मलेरिया रिपोर्ट 2022 जारी की गई।

रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु:

  • मलेरिया के कारण हुई मौतें:
    • मलेरिया जैसी बीमारी से जूझने वाले अनेकों देश कोविड-19 महामारी के बावजूद वर्ष 2021 में मलेरिया के विरुद्ध मज़बूती से डटे रहे और इससे मलेरिया संबद्ध मामलों और मौतों में स्थिरता आई है।
    • महामारी के पहले वर्ष में मलेरिया से होने वाली मृत्यु 625,000 से घटकर वर्ष 2021 में 619,000 हो गई, लेकिन फिर भी यह वर्ष 2019 में महामारी पूर्व के वर्ष में हुई 568,000 मौतों से ही अधिक रही।
  • मलेरिया के मामले:
    • मलेरिया के मामलों में वृद्धि देखी गई लेकिन इसकी दर धीमी रही, आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2019 में 232 मिलियन मामलों, वर्ष 2020 में 247 मिलियन मामले और वर्ष में 2021 में 247 मिलियन मामले दर्ज किये गए।
  • मलेरिया जैसी बीमारी से त्रस्त देश:
    • मलेरिया जैसी बीमारी से त्रस्त देशों की संख्या 11 है, उनमे से प्रमुख कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य, घाना, भारत, नाइज़र और संयुक्त गणराज्य तंज़ानिया हैं जहाँ मलेरिया से होने वाली मौतों में गिरावट दर्ज की गई है।
    • लेकिन फिर भी इन देशों के कारण बीमारी संबंधी वैश्विक दबाव में वृद्धि होती है।
  • नियंत्रण हेतु देशों द्वारा किये जाने वाले उपाय:
    • कीटनाशक-उपचारित मच्छरदानी (Insecticide-treated bednets- ITNs) प्रमुख वेक्टर नियंत्रण उपाय हैं जिनका उपयोग स्थानिक देशों द्वारा किया जाता है।
    • वर्ष 2021 में इंटरमिटेंट प्रिवेंटिव ट्रीटमेंट इन प्रेग्नेंसी (IPTP) का प्रचलन वर्ष 2020 की तुलना में स्थिर रहा।
  • मलेरिया को समाप्त करने में बाधाएँ:
    • मलेरिया को समाप्त करने की प्रक्रिया को बाधित करने वाली बाधाओं में शामिल हैं - उत्परिवर्तन परजीवी, जिन पर रैपिड डायग्नोस्टिक टेस्ट का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, दवाओं के प्रतिरोध में वृद्धि और विशेष रूप से अफ्रीका में शहरी-अनुकूलित मच्छरों का आक्रमण।
    • मलेरिया को हराने में मदद के लिये नए उपकरण का उपयोग करने हेतु धन की तत्काल आवश्यकता है।

मलेरिया

  • परिचय:
    • मलेरिया एक मच्छर जनित रक्त रोग (Mosquito Borne Blood Disease) है।
    • जो प्लाज़्मोडियम परजीवी (Plasmodium Parasites) के कारण होता है। यह मुख्य रूप से अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और एशिया के उष्णकटिबंधीय एवं उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाता है।
    • इस रोग की रोकथाम एवं इलाज़ दोनों संभव हैं।
  • प्रसार:
    • इस परजीवी का प्रसार संक्रमित मादा एनाफिलीज़ मच्छरों (Female Anopheles Mosquitoes) के काटने से होता है।
    • मानव शरीर में प्रवेश करने के बाद यकृत कोशिकाओं के भीतर इन परजीवियों गुणात्मक वृद्धि होती है। उसके बाद लाल रक्त कोशिकाओं (Red Blood Cells- RBC) को नष्ट कर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप RBCs की क्षति होती है।
    • ऐसी 5 परजीवी प्रजातियांँ हैं जो मनुष्यों में मलेरिया संक्रमण का कारण हैं, इनमें से 2 प्रजातियाँ- प्लाज़्मोडियम फाल्सीपेरम (Plasmodium Falciparum) और प्लाज़्मोडियम विवैक्स (Plasmodium Vivax) हैं, जिनसे मलेरिया संक्रमण का सर्वाधिक खतरा विद्यमान है।
  • लक्षण:
    • मलेरिया के लक्षणों में बुखार और फ्लू जैसे लक्षण शामिल होते हैं, जिसमें ठंड लगना, सिरदर्द, मांसपेशियों में दर्द और थकान महसूस होती है।
  • मलेरिया का टीका:
    • RTS,S/AS01 जिसे मॉसक्यूरिक्स (Mosquirix) के नाम से भी जाना जाता है, एक इंजेक्शन वैक्सीन है। इस टीके को एक लंबे वैज्ञानिक परीक्षण के बाद प्राप्त किया गया है जो कि पूर्णतः सुरक्षित है। इस टीके के प्रयोग से मलेरिया का खतरा 40 प्रतिशत तक कम हो जाता है तथा इसके परिणाम अब तक के टीकों में सबसे अच्छे देखे गए हैं।
    • इसे ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन (GlaxoSmithKline- GSK) कंपनी द्वारा विकसित किया गया था तथा इसे वर्ष 2015 में यूरोपियन मेडिसिन एजेंसी (European Medicines Agency) द्वारा अनुमोदित किया गया।
    • RTS,S वैक्सीन मलेरिया परजीवी, प्लाज़्मोडियम पी. फाल्सीपेरम (Plasmodium P. Falciparum) जो कि मलेरिया परजीवी की सबसे घातक प्रजाति है, के विरुद्ध प्रतिरक्षा प्रणाली को विकसित करती है।

मलेरिया नियंत्रण के प्रयास

  • वैश्विक:
    • विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने अपनी 'ई-2025 पहल' के अंतर्गत वर्ष 2025 तक मलेरिया उन्मूलन क्षमता वाले 25 देशों की पहचान की है।
    • मलेरिया के लिये WHO की वैश्विक तकनीकी रणनीति 2016-2030 का उद्देश्य वर्ष 2020 तक मलेरिया के मामलों और मृत्यु दर को कम से कम 40%, 2025 तक कम से कम 75% और वर्ष 2015 की बेसलाइन के मुकाबले वर्ष 2030 तक कम से कम 90% तक कम करना है।
  • भारत:
    • भारत में मलेरिया उन्मूलन के प्रयास वर्ष 2015 में शुरू किये गए थे तथा वर्ष 2016 में स्‍वास्‍थ्‍य एवं परिवार कल्‍याण मंत्रालय के नेशनल फ्रेमवर्क फॉर मलेरिया एलिमिनेशन (NFME) की शुरुआत के बाद इन प्रयासों में और अधिक तेज़ी आई।
    • NFME मलेरिया के लिये WHO की वैश्विक तकनीकी रणनीति 2016–2030 (GTS) के अनुरूप है। ज्ञात हो कि वैश्विक तकनीकी रणनीति WHO के वैश्विक मलेरिया कार्यक्रम (GMP) का मार्गदर्शन करती है।
    • मलेरिया उन्मूलन के लिये राष्ट्रीय रणनीतिक योजना (2017-22) जुलाई 2017 में शुरू की गई थी जिसमें आगामी पांँच वर्षों हेतु रणनीति निर्धारित की गई है।
    • यह मलेरिया की स्थानिकता के आधार पर देश के विभिन्न हिस्सों में वर्ष-वार उन्मूलन का लक्ष्य प्रदान करता है।
    • ‘हाई बर्डन टू हाई इम्पैक्ट’ (High Burden to High Impact-HBHI) पहल का कार्यान्वयन जुलाई 2019 में चार राज्यों (पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) में शुरू किया गया था।
    • उच्च दबाव वाले क्षेत्रों में लंबे समय तक चलने वाली कीटनाशक युक्त मच्छरदानियों (LLINs) के वितरण से इन राज्यों में मलेरिया के प्रसार में कमी आई है।
    • इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) ने मलेरिया उन्मूलन अनुसंधान गठबंधन-भारत (MERA-India) की स्थापना की है जो मलेरिया नियंत्रण पर काम करने वाले भागीदारों का एक समूह है।

विचाराधीन कैदियों की दयनीय स्थिति

 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय राष्ट्रपति ने जेलों में बंद बड़ी संख्या में विचाराधीन कैदियों की दयनीय स्थिति का मुद्दा उठाया है

विचाराधीन कैदी

  • विचाराधीन कैदी वह व्यक्ति होता है जिस पर वर्तमान में मुकदमा चल रहा है या जिसे मुकदमे की प्रतीक्षा करते हुए रिमांड पर रखा गया है या एक व्यक्ति जो न्यायालय में विचाराधीन है।
  • विधि आयोग की 78वीं रिपोर्ट में 'विचाराधीन कैदी' की परिभाषा में जाँच के दौरान न्यायिक हिरासत में कैद व्यक्ति को भी शामिल किया गया है।

भारत में विचाराधीन कैदियों की स्थिति

  • राष्ट्रीय अपराध रिपोर्ट ब्यूरो (National Crime Report Bureau- NCRB) के अनुसार, पिछले 10 वर्षों में, जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या लगातार बढ़ी है और वर्ष 2021 में चरम पर पहुँच गई है।
  • वर्ष 2020 में देश के सभी जेल कैदियों में से लगभग 76% विचाराधीन थे, जिनमें से लगभग 68% या तो निरक्षर थे या स्कूल छोड़ने वाले थे।
  • दिल्ली एवं जम्मू और कश्मीर में जेलों में विचाराधीन कैदियों का उच्चतम अनुपात 91% पाया गया, इसके बाद बिहार और पंजाब में 85% तथा ओडिशा में 83% था।
  • सभी विचाराधीन कैदियों में से लगभग 27% निरक्षर पाए गए और 41% ने दसवीं कक्षा से पहले पढ़ाई छोड़ दी थी।

चुनौतियाँ

  • संसाधनहीन कैदी
    • कई गरीब और संसाधनहीन विचाराधीन कैदी हैं जिन्हें असंगत रूप से गिरफ्तार किया जा रहा है, नियमित रूप से जेलों में न्यायिक हिरासत में भेजा जा रहा है।
    • वे या तो आर्थिक संसाधनों की कमी के कारण या बाहर सामाजिक कलंक के डर से जमानत लेने और सुरक्षित करने में असमर्थ हैं।
  • जेल में हिंसा और दुर्व्यवहार:
    • जेल अक्सर लोगों के लिये खतरनाक स्थान होते हैं। यहाँ हिंसा भी स्थानिक है और दंगे आम हैं।
    • भारत में आमतौर पर जेल अधिकारियों द्वारा शारीरिक दुर्व्यवहार और न्यायेतर यातनाएँँ देखी जाती हैं।
    • जेल प्राधिकरण के किसी भी आचरण को अपराध नहीं माना जाता है, जिससे प्राधिकरण लापरवाही से कार्य करता है जिसके परिणामस्वरूप कैदियों की मौत हो सकती है।

स्वास्थ्य समस्याएँ

  • अधिकांश जेलों में भीड़भाड़ और कैदियों को सुरक्षित एवं स्वस्थ परिस्थितियों में रखने के लिये पर्याप्त जगह की कमी की समस्या है।
  • अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में लोग एक-दूसरे के साथ तंग हो जाते हैं, संक्रामक और संचारी रोग आसानी से फैल जाते हैं। उदाहरण: तपेदिक (TB) का प्रसार।
  • परिवारों की पीड़ा और सामाजिक कलंक:
    • कई बार कैदी का परिवार गरीबी में मजबूर हो जाता है और बच्चे भटक जाते हैं।
    • परिवार को सामाजिक कलंक और सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ता है, जिससे परिस्थितियाँ परिवार को अपराध और दूसरों द्वारा शोषण की ओर प्रेरित करती हैं।
    • विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग अक्सर इस स्थिति का फायदा उठाकर शेष परिवार के सदस्यों का पूरी तरह से शोषण करता है। यह बलात्कार या जबरन वेश्यावृत्ति का रूप ले सकता है।

विचाराधीन कैदियों हेतु संवैधानिक संरक्षण

  • राज्य का विषय:
    • भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 4 के तहत 'जेल/उसमें हिरासत में लिये गए व्यक्ति' राज्य का विषय है।
    • जेलों का प्रशासन और प्रबंधन संबंधित राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी है।
    • हालाँकि गृह मंत्रालय जेलों और कैदियों से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों को नियमित मार्गदर्शन तथा सलाह देता है।
  • अनुच्छेद 39A:
    • संविधान का अनुच्छेद 39A राज्य को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देता है कि कानूनी प्रणाली का संचालन समान अवसर के आधार पर न्याय को बढ़ावा देता है और विशेष रूप से उपयुक्त कानून या योजनाओं द्वारा या किसी अन्य तरीके से निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करेगा, ताकि अवसरों को सुनिश्चित किया जा सके। आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण कोई भी नागरिक न्याय प्राप्त करने से वंचित नहीं किया जाए।
    • निःशुल्क कानूनी सहायता या निःशुल्क कानूनी सेवा का अधिकार संविधान द्वारा गारंटीकृत आवश्यक मौलिक अधिकार है।
  • अनुच्छेद 21:
    • यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उचित, निष्पक्ष और न्यायपूर्ण स्वतंत्रता का आधार है, जिसके अनुसार, "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा"।

जेल सुधार संबंधी सिफारिश

  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) अमिताभ रॉय समिति ने जेलों में सुधार के लिये निम्नलिखित सिफारिशें की हैं।
  • भीड़-भाड़ संबंधी
    • तीव्र ट्रायल: समिति की सिफारिशों में भीड़भाड़ की अवांछित घटनाओं को कम करने के लिये तीव्र ट्रायल को सर्वोत्तम तरीकों में से एक माना गया है।
    • वकील व कैदी अनुपात: प्रत्येक 30 कैदियों के लिये कम-से-कम एक वकील होना अनिवार्य है, जबकि वर्तमान में ऐसा नहीं है।
    • विशेष न्यायालय: पाँच वर्ष से अधिक समय से लंबित छोटे-मोटे अपराधों से निपटने के लिये विशेष फास्ट-ट्रैक न्यायालयों की स्थापना की जानी चाहिये।
    • इसके अलावा जिन अभियुक्तों पर छोटे-मोटे अपराधों का आरोप लगाया गया है और जिन्हें ज़मानत दी गई है, लेकिन जो ज़मानत की व्यवस्था करने में असमर्थ हैं, उन्हें व्यक्तिगत पहचान (PR) बाॅॅण्ड पर रिहा किया जाना चाहिये।
    • स्थगन से बचाव: उन मामलों में स्थगन नहीं दिया जाना चाहिये, जहाँ गवाह मौजूद हैं और साथ ही प्ली बारगेनिंग की अवधारणा, जिसमें आरोपी कम सज़ा के बदले अपराध स्वीकार करता है, को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
  • कैदियों के लिये:
    • उदारता: प्रत्येक नए कैदी को जेल में अपने पहले सप्ताह के दौरान अपने परिवार के सदस्यों को एक दिन निःशुल्क फोन कॉल करने की अनुमति दी जानी चाहिये।
    • कानूनी सहायता: कैदियों को प्रभावी कानूनी सहायता प्रदान करना और कैदियों को व्यावसायिक कौशल और शिक्षा प्रदान करने हेतु आवश्यक कदम उठाना।
    • ICT का उपयोग: परीक्षण के लिये वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग का उपयोग।
    • विकल्प: अपराधियों को जेल भेजने के बजाय अदालतों को उनकी "विवेकाधीन शक्तियों" का उपयोग कर "जुर्माना और चेतावनी" भी दी जा सकती है।
    • इसके अलावा, न्यायालयों को पूर्व-परीक्षण चरण में अथवा परिस्थितियों के अनुरूप अपराधियों को परिवीक्षा (प्रोबेशन) पर रिहा करने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है।
    • वर्ष 2017 में, भारत के विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि जिन विचाराधीन कैदियों ने सात साल तक के कारावास के अपराधों के लिये अपनी अधिकतम सज़ा का एक तिहाई हिस्सा पूरा कर लिया है, उन्हें ज़मानत पर रिहा कर देना चाहिये।

आगे की राह

  • विचाराधीन कैदी कई प्रकार असफलताओं के शिकार होते हैं जिसकी शुरुआत अनुचित अपराधीकरण से शुरू होती हैं, इसके बाद अंधाधुंध गिरफ्तारियाँ, कमज़ोर जमानत संबंधी अधिकार और लोक अदालतों के माध्यम से अपर्याप्त/अस्पष्ट रूप से मामले का निपटान।
  • इस संबंध में एक समग्र विधायी सुधार की आवश्यकता है जिसका उद्देश्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विस्तार करना हो
  • आरोपी विचाराधीन कैदियों के मामले में पुलिस जाँच की समय सीमा के संबंध में CRPC की धारा 167 के प्रावधानों का पुलिस और अदालतों दोनों में सख्ती से पालन किया जाना चाहिये
  • रिमांड की समय सीमा में स्वत: वृद्धि पर नियंत्रण करना होगा जो कि केवल अधिकारियों की सुविधा के लिये दिया जाता है। प्राधिकारियों की सुविधा मात्र हेतु अनुच्छेद 21 के तहत संवैधानिक गारंटियों का अधिक्रमण नहीं किया जाना चाहिये।
  • संशोधित वैधानिक प्रावधानों को लागू करके, विचाराधीन कैदियों के अधिकारों के बारे में न्यायिक निर्णयों, गिरफ्तारी और ज़मानत देने और जेल सुधारों पर विभिन्न समितियों की सिफारिशों को लागू करके विचाराधीन कैदियों की संख्या कम करने पर ज़ोर दिया जाना चाहिये।
  • दोषियों की तुलना में कैदियों को भोजन, कपड़े, पानी, चिकित्सा सुविधाएँ, स्वच्छता, मनोरंजन और रिश्तेदारों तथा वकीलों के साथ मिलने आदि की बेहतर सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिये।
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