‘नागर शैली’
नागर शैली का मंदिर चैपहला या वर्गाकार होता है। हिमालय से विन्ध्याचल के बीच में इसी शैली के मंदिर पाये जाते है। साधारणतः मध्य प्रदेश इसका केन्द्र रहा है। इसी प्रकार एक ओर बंगाल और उड़ीसा, दूसरी ओर गुजरात और महाराष्ट्र तक इस शैली का विस्तार रहा है। वैसे, इस शैली का क्षेत्राीय नामकरण भी हुआ है। उड़ीसा में ‘कलिंग’, गुजरात में ‘लाट’ और हिमालय क्षेत्रा में ‘पर्वतीय’ कहा गया है।
‘द्रविड़ शैली’
द्रविड़, शैली और भौगोलिक क्षेत्रा दोनों का पर्याय है। इस शैली का क्षेत्रा कृष्णा नदी से लेकर कुमारी अन्तरीप तक है। इसमें गर्भगृह के ऊपर का भाग सीधा पिरामिडनुमा होता है। उनमें कितनी ही मंजिल होती हैं। आंगन का मुख्य द्वार, जिसे गोपुरम कहते है, इतना ऊँचा होता है कि अनेक बार वह प्रधान मंदिर के शिखर तक को छिपा लेता है।
‘बेसर शैली’
नागर और द्रविड़ शैलियों का मिश्रित रूप ही बेसर शैली कहलाता है। विन्यास (खाका) में यह द्रविड़ शैली का होता है और क्रिया अथवा रूप में नागर शैली का। शैली का प्रसार विन्धाचल से कृष्णा के बीच में हुआ है, पर इन शैलियों के प्रसार का अनुबंध अनुल्लंघनीय नहीं है। नागर शैली के कुछ मंदिर दक्षिण में भी मिले हैं और द्रविड़ शैली के उत्तर में। वृन्दावन का विशाल वैष्णव मंदिर द्रविड़ शैली का ही है।
मौर्यकालीन स्थापत्य - मौर्यकालीन स्थापत्यकला को निम्न भागों में बाँटा जाता है - राजप्रासाद, शैल गुहाएं, लाट और स्तंभ शीर्ष, एकाश्म वेदिका, स्तूप आदि।
ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि प्राचीन शैली के आधार पर निर्मित नगर महापथों द्वारा चार खंडों में विभक्त था। बीच में उद्यानों के मध्य अनेक भवनों सहित विशाल राजप्रासाद निर्मित था। इसके ध्वंसावशेष से ज्ञात होता है कि यह विशेषतः काष्ठ निर्मित था। चन्द्रगुप्त मौर्य की भांति अशोक ने भी एक राजप्रासाद का निर्माण कराया था, जिसमें पत्थर का प्रयोग, दीवालों और तोरणों की व्यवस्था, चिन्ताकर्षक नक्काशी तथा सुन्दर मूत्र्तियां उत्कीर्ण थीं। इस तरह मौर्यकाल में भवन के निर्माण में काष्ठ का प्रयोग बहुलता से किया गया था। मौर्यकला की सर्वोत्कृष्ट कृतियां अशोक के एकाश्म प्रस्तर स्तंभ है। प्रत्येक स्तंभ को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-लाट और स्तंभ शीर्ष। लाट एक शुंडाकार दंड है जिसकी लंबाई 40 फुट से 50 फुट तक है। स्तंभ-शीर्ष लाट की चोटी पर स्थापित रहता है। यह तीन अंगों में विभक्त हेाता है - उल्टा कमल और घंटा, आधार पीठिका, पशु और कभी-कभी पशुओं के ऊपर स्थापित धर्मचक्र। इसके निर्माण में लाल बलुए पत्थर का प्रयोग किया गया है।
शुंग-सातवाहनकालीन स्थापत्य - इस काल में स्थापत्यकला का पर्याप्त विकास हुआ। इस काल की कला की निम्नलिखित विशेषताएं थीं -
(क) मौर्यकालीन स्थापत्य में लकड़ी, कच्ची ईंटों और मिट्टी का प्रयोग होता था, किन्तु शुंग काल में उसके निर्माण में पत्थर का प्रयोग किया गया।
(ख) इस काल की कला से लोक जीवन का दर्शन होता है।
(ग) शुंग-सातवाहन काल में शैलड्डकृत गुफाओं का व्यापक पैमाने पर निर्माण हुआ।
कुषाण कालीन स्थापत्य - वस्तुतः कुषाण काल में मूत्र्तिकला के क्षेत्रा में उल्लेखनीय कार्य हुआ। परन्तु अनेक धर्मों के विकास के कारण स्मारकों का बहुसंख्या में निर्माण हुआ। अशोक की भांति कनिष्क ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अनेक बौद्ध स्तूप और विहार निर्मित कराए थे।
‘गुप्तकालीन मंदिर’
गुप्तकालीन मंदिरों में सबसे भव्य और महत्वपूर्ण मंदिर देवगढ़ (झांसी के पास) और भीतरगांव के हैं। इन मंदिरों में रामायण, महाभारत और पुराणों की विषय-वस्त का उपयोग पहली बार हुआ। देवगढ़ का मंदिर दशावतार का है और पत्थरों से बना है। मंदिर की दीवारों पर सर्वत्रा रामायण के दृश्य हैं। द्वारपालों के स्थानों पर गंगा-यमुना की मूर्ति है। भीतरगांव का विष्णु मंदिर कानपुर जिले में है। यह ईटों का बना नक्काशीदार है। मध्यप्रदेश में भभूरा का शिवमंदिर भीतरगांव के मंदिर से मिलता-जुलता है। गर्भगृह इसका वर्गाकार है जो पहले दीवार से घिरा था और दोनों के बीच प्रदक्षिणा-मार्ग बना था जिससे सामने का मंडप जुड़ा था। भभूरा के मंदिर का सबसे अद्भूत और अभिराम अवशेष उसका आयताकार ऊँचा लाल पत्थर का पट्ट है।
भारत की प्रसिद्ध मस्जिदें
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भारतीय मुसलमानों के प्रमुख त्यौहार
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चालुक्य कला - बेसर शैली को चालुक्य शैली भी कहा जाता है। चालुक्य तथा होयसलकालीन मंदिरों की दीवारों, छतों तथा इसके स्तंभों, द्वारों आदि का अलंकरण बड़ा सजीव तथा मोहक है। चालुक्य और होयसल राज्य के अनेक मंदिर आज भी अपनी विशिष्टता के लिए मशहूर हैं। पट्कदल के दो मंदिर अपने ऐश्वर्य में असाधारण है। इनमें एक लोकेश्वर शिव का है दूसरा पापनाथ का। दोनों का निर्माण आठवीं शताब्दी में हुआ है। लोकेश्वर शिव का मंदिर कांची के कैलाशनाथ मंदिर के सदृश्य बना हुआ है। उसका निर्माण चालुक्य राजा विक्रमादित्य की रानी ने 740 ई. के लगभग कराया था। मंदिर विशाल, प्रदक्षिणा पथ और मंडप से संयुक्त है। इसका शिखर पांच मंजिल का है। चैखटों और स्तंभों पर नाग-नागिन एवं रामायण के दृश्य खुदे हैं। इस मंदिर को ‘विरूपाक्ष’ मंदिर भी कहा जाता है। इस मंदिर का वास्तुकार गंग था जिसको ‘त्रिभुनाचार्य’ की उपाधि मिली। इस मंदिर की गणना भारत के भव्यतम मंदिरों में होती है। पापनाथ का मंदिर विशुद्ध बेसर शैली की है।
पल्लव शैली के मंदिर - पल्लव शैली का जन्म द्रविड़ शैली से ही हुआ। पल्लव स्थापत्य को चार राजाओं का सर्वाधिक संरक्षण प्राप्त था, फलतः शैलियों ने भी इन राजाओं के नाम का प्रतिनिधित्व किया। इनमें प्रथम शैली ‘महेन्द्र वर्मन शैली’ है। इस शैली के मंदिर-निर्माण कार्य में ईंट, लकड़ी, पत्थर आदि का उपयोग होता था। इस शैली के मंदिरों का स्तंभ चैकोरे और बीच में अठपहले होते थे। द्वार पर द्वारपालों का निरूपण हुआ था। इस शृंखला की द्वितीय शैली ‘नरसिंह वर्मन’ या ‘मामल्लध्शैली’ है। इस शैली के अन्तर्गत कन्दराओं के सुन्दरीकरण पर खासा ध्यान दिया गया। इसके अन्तर्गत एक ही पत्थर से कटे हुए स्वतंत्रा स्तंभों की शैली चलाई। झरोखों के मेहराबों पर काफी ध्यान दिया गया। मंदिर के ऊपर के खण्ड के अधिकांश कला मामल्लध्पुरम में ही केन्द्रित हैं। मामल्लध्शैली का ही विकसित रूप ‘महेन्द्र वर्मन’ शैली कहलाया। इसका सबसे अच्छा उदाहरण ‘रथ पांच’ है। इसमें पांच रथ एक ही पत्थर को काटकर अलग-अलग ढंग से बनाया गया है। इसमें द्रौपदी और गणेश रथ को मिलाकर ‘सात पगोडा’ भी कहते है। वैसे, इस मंदिर का नाम पांच पांडव है मगर वास्तविक रूप में यह शैव मंदिर है। कन्दरा कला के स्थान पर एक स्वतंत्रा शैली का जन्म राजसिंह वर्मन द्वारा किया गया, इसे ही ”राजसिंह वर्मन शैली“ कहते हैं। इस शैली मेंस्थापत्यकला की सभी विशिष्टताएं एक साथ प्रकट होती हैं। कांचीपुरम का कैलाशनाथ और मामल्लध्पुरम का सागरतटीय मंदिर इसी नयी परम्परा का उदाहरण है। कैलाशनाथ मंदिर एक वृहत्त आयताकार प्रांगण मेंस्थित है। इसका गर्भगृह पिरामिड के आकार का और मंडप की छत समतल है। सागरतटीय मंदिर का निचला मंजिल वर्गाकार है तथा शीर्षभाग पिरामिडाकार है जो ऊँचाई के साथ छोटे होते जाते हैं और अन्त में छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़ों से बने हैं। पल्लव शैली मूलतः बौद्ध चैत्योंमें ही विकसित हुई पर शीघ्र ही उसने अपना द्रविड़ रूप स्पष्ट कर लिया। फलतः पल्लवों की शैलियोंको हम द्रविड़ शैली की विकसित हो रही अवस्थायेंकह सकते हैं।
चोलकालीन वास्तुकलायें - चोलोंने पल्लवोंकी स्थापत्य-परम्परा को आगे बढ़ाया। दक्षिण मेंअनेक प्रकार के मंदिरोंका निर्माण हुआ। चोलकालीन मंदिरोंने द्रविड़ वास्तुकला को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। राजराज प्रथम का तंजौर का शिव मंदिर जिसे राजराजेश्वर मंदिर भी कहा जाता है, यह द्रविड़ शैली का एक जाज्वल्यमान नमूना है। इसका आधार 82 वर्ग फुट है एवं ऊँचाई 192 फुट है। इसके भव्य विमान पर तेरह खंडों (तल्लो) में पिरामिडनुमा ऊपर उठता शीर्ष है जिस पर मनमोहक स्तूपिका स्थापित है। उपरोक्त वर्णित राजराज के शिव मंदिर से कम भव्य परंतु अधिक सुन्दर तंजौर नगर का ही सुब्रह्मण्यम मंदिर है जिसका शिखर भी उच्चतम एवं कलात्मक ढंग से अलंकृत है। अपनी नवीन राजधानी गंगईकोंड चोलपुरम मेंराजेन्द्र प्रथम द्वारा निर्मित मंदिर चोल वास्तुकला का अन्य प्रभावशाली उदाहरण है। उसका विशाल आकार, ठोस पाषाण का विराट लिंग और पाषाण में उत्कीर्ण मनोरम आकृतियां, इसकी असाधारण विशेषताएं हैं। इसमेंनिर्मित विमान तथा मंडप बहुत वृहत्त है। वृहदेश्वर मंदिर की अपेक्षा इसमेंअलंकरण अधिक है। दारसुरम मेंऐरावतेश्वर तथा त्रिभुवन मेंत्रिभुवनेश्वर के मंदिर भी इसी शैली मेंनिर्मित उत्कृष्ट कला के नमूने है। राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्रथम द्वारा बनवाया गया कैलाश मंदिर (एलोरा में), प्राचीन भारतीय वास्तु एवं तक्षण कला का भारत भर मेंशायद सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। यह समूचा मंदिर गिरिपाश्र्व से तराशा गया है। कैलाश मंदिर के प्रांगण की लंबाई 276 फुट और चैड़ाई 154 फुट है। मंदिर के चार खंड और कई प्रकोष्ठ हैं और इसका शिखर भी कई तलोंसे मिलकर बना है। यह भी द्रविड़ शैली का उदाहरण है।
स्थानीय शैलियोंका उदय
भारतीय इतिहास के मध्यकाल मेंराजपूत शक्तियोंका उदय हुआ, इसमें विदेशी एवं स्थानीय जातियोंका समावेश था। पूर्वकालिक वर्ग के रूप मेंगुर्जर-प्रतिहार, पाल, परमार, कलचूरी आदि थे। उत्तर कालीन वर्ग मेंसेन, गढ़वाल, चैहान (चाहुमान), चंदेल, गंग, सोलंकी आदि थे। इन लोगोंमें आपसी प्रतिस्पर्धा और विद्वेष बना रहा। पर इनमेंसे प्रत्येक ने स्थानीय कला को संरक्षण प्रदान किया। इस काल की प्रमुख विशेषता है - स्थानीय परिवेश के साथ कलाओं का विकसित होना। इस युग मेंवास्तुकला की उन्नति उड़ीसा, राजस्थान व गुजरात में अधिक हुई। कश्मीर एवं पर्वतीय हिमाचल ने भी मंदिर निर्माण में अपना योगदान दिया।
‘उड़ीसा के मंदिर’
भारत के उत्कृष्ट नागर मंदिर उड़ीसा के हैं जिसमें भुवनेश्वर, पुरी और कोणार्क के मंदिर काफी महत्वपूर्ण हैं। संसार के किसी देश के एक भू-भाग मेंगुणात्मक एवं परिमाणात्मक रूप से ऐसे मंदिर निर्माण के उदाहरण नहीं मिलते हैं। इस आधार पर उड़ीसा को मंदिरोंका देश कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उड़ीसा के मंदिरोंमेंप्राचीनतम परशुरामेश्वर का मंदिर आठवीं सदी के मध्य या संभवतः आरंभ का है। परशुरामेश्वर का मंदिर यद्यपि बहुत विशाल नहीं है, परन्तु इसको अति सुन्दर ढंग से अलंकृत किया गया है। गर्भगृह त्रि-रथ विन्यास विधि से बना है। त्रि-रथ विन्यास विधि में पाभाग (आधार), जांघ (सीधी खड़ दीवार का भाग), बंरड (ऊपरी शिखर के बीच का भाग) रहते हैं। यह मंदिर मात्रा 44 फुट ऊँचा है। परशुरामेश्वर से थोड़ी दूरी पर मुक्तेश्वर का मंदिर है। यह मंदिर मात्रा 35 फुट ऊँचा है। गर्भगृह मात्रा साढ़े सात फुट का है। फरग्यूसन ने इसे ”उड़ीसा शैली का रत्न“ कहा है। मुक्तेश्वर के बाद उड़ीसा के मंदिरों मेंपरिवर्तन होता है। शिखर काफी विशाल हो जाता है मगर उसका ऊपरी भाग मधुमक्खियोंके छत्ते की भाँति अलंकृत रहता है। उड़ीसा शैली (नागर शैली का ही रूप) का सर्वश्रेष्ठ मंदिर भुवनेश्वर का ‘लिंगराज’ मंदिर है। उड़ीसा के अधिकांश मंदिरोंके समान लिंगराज का मंदिर चार विशाल कक्षों के क्रम मेंनिर्मित है - एक पूजा कक्ष, एक नृत्य कक्ष, एक सभा कक्ष (जगमोहन) तथा एक देवालय है। देवालय के ऊपर विशाल शिखर है और अन्य कक्षों पर छोटे-छोटे शिखर हैं जो आगे बढ़कर देवालय के शिखर से मिल जाते हैं। भारत के मंदिरोंमेंसंभवतः यह सबसे शालीन और गौरवशाली है। यह मंदिर लगभग 1000 ई. के आस-पास का है। उड़ीसा के मंदिरोंमेंप्रधान तीन और मंदिर है - पुरी का वैष्णव जगन्नाथ मंदिर, कोणार्क का सूर्य मंदिर और भुवनेश्वर का बैताल-देउल मंदिर। पुरी का वैष्णव-जगन्नाथ मंदिर जो बना तो था बाहरवीं सदी मेंमगर उसमें पूजा आज भी होती है और हिन्दुओंके चार धामोंमेंउसकी भी गणना है। जगन्नाथ मंदिर लिंगराज मंदिर की तरह विशाल है। चारांे दिशाओंमें चार द्वार है, प्रधान द्वारा पूरब की ओर था, जहाँ एक ही पत्थर का बना आज ‘अरूण-स्तंभ’ खड़ा है। कला की दृष्टि से यह मंदिर काफी निम्न श्रेणी का है। ‘कोणार्क का मंदिर’ (काला पैगोडा) सूर्य देवता का मंदिर है जो भारत के सबसे विशाल एवं भव्य मंदिरों मेंसे एक था तथा जो भुवनेश्वर के मंदिरों से कहीं बड़ा था। इस मंदिर का 200 फीट से अधिक ऊँचा शिखर बहुत दिन हुए गिर गया परंतु उसका विशाल सभा भवन अब भी है। इसका निर्माण राजा नरसिंह देव ने 1236 से 1264 के बीच कराया था। संभवतः निर्माण की कुछ समस्याओंके कारण मंदिर कभी पूरा न हो सका जिसका परिणाम हुआ कि जगमोहन तो बन गया, पर उसके पीछे रेखा शिखर स्थूल ही बनकर रह गया। इसके निर्माण की योजना उड़ीसा के अन्य मंदिरों की ही भाँति है। संपूर्ण मंदिर एक रथ का प्रतिनिधित्व करता है। जैसे सूर्य देवता आकाश मेंभ्रमण कर रहे हों। प्रवेश द्वार तक पहुँचने के लिए चैड़ी सीढ़ियोंसे होकर जाना होता है जिसके दोनों ओर उछलते हुए घोड़े बने हैं। मंदिर का आंगन स्वतंत्रा रूप से स्थित सुन्दर एवं दृढ़ मूत्र्तियों से अलंकृत है। कामसूत्रा के सभी ‘बंध’ एवं रतिक्रिया के जितने भी संभावित आसन सोचे जा सकते हैं वे सारे, कलाकारोंकी छेनी से वहाॅं बनाये गये हैं। उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि कोणार्क का मंदिर इन मूत्र्तियोंके वास्तविक अलंकरण का उद्देश्य समझाने के लिए अनेक स्पष्टीकरण किए हुए है। उपरोक्त तथ्योंसे स्पष्ट होता है कि कोणार्क का मंदिर एक सफल तांत्रिक संप्रदाय का केन्द्र था। उड़ीसा कपरकोटे के भीतर और सभा मंडप के पीछे अपना गर्भगृह लिए ऊँचे आधार पर यह मंदिर खड़ा है। इसका गर्भगृह 25 फुट लंबा और 18 फुट चैड़ा है। शिखर उड़ीसा के मंदिरों के शिखरों से भिन्न प्रकार का प्रायः पीपानुमा है जो दक्षिण के द्रविड़ मंदिरों का आभास उत्पन्न कराता है।
‘राजस्थान में मंदिर’
राजस्थान के मंदिर गुजरात और पश्चिमी भारत के मंदिरों से शैली में अधिक मिलते हैं। यहाँ अनेक कालों के मंदिर के अवशेष मिले हैं। सबसे पुराने मन्दिर जयपुर के पास बैराम में पाये गये हैं जो मौर्यकालीन माने जाते हैं। ओसिया का सूर्य मंदिर भी काफी महत्वपूर्ण था। राजस्थान के मंदिरों में दिलवाड़ा का जैन मंदिर सर्वश्रेष्ठ है। माउंटआबू के लगभग 4000 फुट ऊँचे पर्वत पर, शांत और शीतल वातावरण में इस जैन मंदिर का निर्माण हुआ है। पास ही दिलवाड़ा का वह छोटा-सा गांव है जिसके नाम पर इस मंदिर का लोकप्रिय नाम पड़ा है। इस परिसर में चार प्रधान मंदिर हैं। इसमें से दो-विमल वसही ओर लून वसही अपने अद्भूत अलंकरणों से जगतप्रसिद्ध हैं। इनका निर्माण विमल और तेजपाल ने चालुक्य राजा भीम द्वितीय के समय कराया। इन दोनों मंदिरों में से प्रथम, जैन तीर्थंकर ऋषभनाथ का है। मंदिर चतुष्कोणीय प्रंागण में खड़ा है जिसमें प्रवेश दो हाॅलों से होकर होता है जिसमें एक आयताकार है दूसरा वर्गाकार। इन मंदिरों में दो मंडप एवं एक सभागृह है। तीनों का निर्माण काल एक नहीं है।
काले पत्थरों से निर्मित गर्भगृह प्राचीनतम् है जबकि सफेद संगमरमरों से बने हाॅल और स्तूप बाद के हैं।
”चालुक्य सोलंकी कला“
गुजरात में मंदिरों का निर्माण चालुक्य सोलंकी राजाओं के द्वारा हुआ। वस्तुतः वहाँ के नरेश उनके मंत्रिगण और समृद्ध सेठ सभी वास्तु निर्माता थे। गुजरात में विशेषकर काठियावाड़ में नागर और बेसर दोनों शैलियों के मंदिर बने हैं। इस प्रकार का एक मंदिर काठियावाड़ के बरवा पहाड़ियों में गोप नामक स्थान पर आज भी खड़ा है। यह उस क्षेत्रा का सबसे प्राचीन छोटा-सा मंदिर है जिसके दो आधार हैं। मंदिर सादा और अलंकार रहित है। गुजरात में आगे चलकर नागर शैली का दूसरा नाम सोलंकी शैली भी पड़ गया। गुजरात का नीलकंठ महादेव मंदिर इस विद्या का पूर्ण उदाहरण है जो भाग्यवश पूर्णतः सुरक्षित भी है। इसमें सामने सभा मंडप भी है और पीछे गर्भगृह से जुड़ा गूढ़मंडप भी। दीवारों, स्तंभों और गुंबज की भीतरी छत सभी अत्यंत आकर्षक अलंकरणों से सुसज्जित है। इसी शैली के कुछ मंदिरों में घुम्ली का एवं सेजकपुर का नवलखा मंदिर काफी प्रसिद्ध है। दोनों काठियावाड़ में हैं। दोनों ही पर्याप्त अलंकृत हैं और अपनी आरंभिक अवस्था में निश्चय ही सोलंकी परिवार के विशिष्ट देवालय रहे होंगे। गुजरात के मंदिरों में सबसे प्रमुख सोमनाथ का शिव मंदिर है। हालाँकि, यह मंदिर बार-बार मानव बर्बरता से विनष्ट होकर बनता रहा है। 1025 ई. में महमूद गजनी ने इसे तोड़ा और अपार संपत्ति लूटकर ले गया था। कुमारपाल ने इसे फिर से ग्यारहवीं सदी के मध्य बनवाया। यह मंदिर बेसर शैली का उदाहरण है।
‘खजुराहो के मंदिर’
मध्य प्रदेश के वास्तुकला को गुप्त राजाओं के बाद चंदेलों के समय काफी प्रोत्साहन मिला। खजुराहो का मंदिर चंदेल नागर शैली का एक अच्छा उदाहरण है। खजुराहो के मंदिर उड़ीसा के मंदिरों की भाँति अनेक देवताओं का परिवार लिए मंडपों आदि से जुड़े नहीं हैं। इनका भवन एक है जिसके गर्भगृह, अंतराल, मंडप और अर्द्ध मंडप अंग है। खजुराहो के मंदिरों को घेरनेवाले अन्यत्रा मंदिरों के विपरीत, कोई परकोटा नहीं है। शिव मंदिरों में प्रधान कंडरिया महादेव और विश्वनाथ मंदिर है। वैष्णव मंदिरों में रामचंद्र तथा चतुर्भुज और जैन मंदिरों में प्रधान पाश्र्वनाथ हैं। कंडरिया महादेव और विश्वनाथ मंदिर खजुराहो के वास्तु में अनमोल हैं। दोनों प्रायः एक-से हैं, अन्तर दोनों में बस इतना है कि कंडरिया महादेव का मंदिर विश्वनाथ से अधिक ऊँचा है। परमार लोग भी कला के प्रति काफी संवेदनशील थे। मंदसौर से धार को जाने वाले अनेक मार्गों पर परमारों द्वारा बनवाये गये विशाल मंदिर आज भी खड़े है। राजा भोज द्वारा निर्मित सरस्वती विद्यालय, भोजनशाला आज भी धार में मस्जिद के रूप में खड़ा है।
‘पर्वतीय मंदिर’
कश्मीर आरंभ से ही काफी महत्त्वपूर्ण रहा है। कश्मीर के वास्तुकला में ललितादित्य का काफी योगदान रहा है। उसके द्वारा निर्मित ‘मार्तण्ड’ नाम का सूर्य मंदिर काफी प्रसिद्ध है जिसके खण्डहर अतीत का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। यह मंदिर 220 फुट लंबा और 142 फुट चैड़ा है और इसकी बाहरी दीवार खंभों की हैं। आगे इस मंदिर की सूर्य पूजा की विशिष्ट क्रियाओं के लिए एक मंडप भी बना है जो बाद के मंदिरों में नहीं है। इस पर गंधार कला का काफी प्रभाव है। हिमालय और विंध्याचल के बीच अनेक नागर शैली के मंदिर हैं। कंागड़ा, चंबा, कुलू और कुमाऊँ क्षेत्रा में अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ था। कांगड़ा के मसरूर में नागर शैली की अनेक मंदिरें कतार में खड़ी हैं। ये सभी मंदिरें आठवीं सदी में पत्थरों को काटकर बनायी गई हैं। इसके अतिरिक्त कुछ मंदिरें ईंट एवं पत्थरों से भी बने हैं। इसमें एक प्रसिद्ध मंदिर वैद्यनाथ (शिव का) का मंदिर है। इसकी छत सपाट और उसके चारों ओर उडीसा के बेताल-देउल मंदिर की भाँति रेखा-शिखर हैं। कुल्लू का हटकाविशेश्वर मंदिर भी काफी कलात्मक ढंग से बनाया गया है। उसके तीन ओर अनेक मूत्र्तियाँ बनी हैं जिसमें विशिष्ट दुर्गा, विष्णु और गणेश हैं। इसी परंपरा में गढ़वाल के बद्रीनाथ और केदारनाथ में भी देवमंदिर बने। आज यह हिन्दुओं के चार महत्वपूर्ण तीर्थों में एक है। पूर्व मध्यकाल तक वास्तुकला की प्रासंगिकता अधिकांशतः मंदिरों तक है। हालांकि कुछ राजाओं ने सुन्दर पत्थर के प्रासाद एवं प्रवेश द्वार बनवाये मगर इसकी संख्या गुणात्मक एवं परिणात्मक दोनों ही दृष्टिकोण से कम है। हाँ, मध्यकाल में आकर यही वास्तुकला का मुख्य ध्येय रहा है।
‘सल्तनत कालीन वास्तुकला’
मध्यकाल के आरंभिक सुल्तान और शासकों ने भी वास्तुकला के विकास पर पर्याप्त ध्यान दिया। मुसलमान अपने साथ निश्चित स्वरूप वाले बहुआयामी कलाओं को लाये थे और ये कलायें भौगोलिक व पर्यावरणीय लिबास से ढकी थी। भारतीय कलायें इनसे रू-ब-रू होकर, एक द्विआयामी धारा में बहने लगी। बाद में चलकर दोनों के बीच सीमा निर्धारित करना असंभव नहीं अपितु कठिन अवश्य हो गया। दो कलाओं का स्वरूप इस प्रकार था - मुस्लिम कला की विशेषताएं, विशाल भवन, विराट गोल गुम्बद, ऊँची मीनारें, खुले आंगन एवं साफ और सुथरी दीवारें थीं। भारत की गोद में प्रकृति शांत भाव से विश्राम करती रही है। फलतः भारतीय कलाओं में विशालता, विस्तार, मनोरम पुष्प, पत्ती, लता आदि की बहुलता है। भारत में गुलाम वंश के सुल्तान कुतुबद्दीन ऐबक ने प्रथम मुस्लिम वास्तुकला का परिचय ‘कुव्वत-उल-इस्लाम’ मस्जिद बनाकर दिया। इसका निर्माण दिल्ली विजय की स्मृति में किया गया था। इसके भीतर एक खुला चतुष्कोणीय आंगन है जो चारो ओर से दलान से घिरा है। इसी से मिलता-जुलता ‘अढ़ाई दिन का झापड़ा’ अजमेर में बनवाया गया था। इन दोनों में हिन्दू-इस्लामी स्थापत्य कला की मजबूती और सौंदर्य की समन्वित विशेषताएं पहली बार उभर कर आती हैं। कुतुब-मीनार भी मुस्लिम स्थापत्य का एक अच्छा नमूना है। हालांकि मीनार का उद्देश्य इबादत के लिए बुलाए जाने से है मगर इसकी ऊँचाई (72.5 मी.) उद्देश्य को स्पष्ट नहीं कर पाती है। अतः इसके निर्माण का उद्देश्य एक नए शासक वर्ग की शक्ति के एक विजय-स्तंभ से था। ‘इल्तुतमिश का मकबरा’ अपने उद्देश्य को स्पष्ट करता है। इसकी दीवारें व फर्श ‘कुरान-ए-शरीफ’ की पवित्रा आयतों से सुशोभित है। इसका निर्माण भी कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद (दिल्ली) के परिसर में हुआ है। अलाउद्दीन खिलजी ने नई दिल्ली में ही ‘जमात-ए-खाना’ मस्जिद का निर्माण कराया। यह प्रथम मस्जिद है जो पूर्णतः इस्लामी कला का प्रतिनिधित्व करता है। तुगलक काल में इसका विस्तार हुआ। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा निर्मित ‘अलाई दरवाजा’ भी अच्छा कलात्मक नमूना पेश करता है। यह लाल पत्थर का है किन्तु कहीं-कहीं संगमरमर का भी प्रयोग किया गया है। इसमें एक वर्गाकार कमरा है, जिसकी छत गुम्बदनुमा है और इसके चारों ओर मेहराबदार प्रवेश द्वार है। तुगलकों की वास्तुकला में समकालीन राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक समस्याओं की झलक मिलती है। सजावट की अपव्ययी प्रदर्शन और अन्दरूनी भाग की सुन्दरता ने पुरानी रूढ़िवादी सादगी को स्थान दिया। तुगलकों द्वारा लाल बलुआ पत्थर के स्थान पर स्थानीय भूरे पत्थर का उपयोग हुआ। ग्यासुद्दीन तुगलक और मोहम्मद तुगलक का स्थापत्य कला के क्षेत्रा में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं है। फिरोजशाह तुगलक ने फिरोजशाह कोटला और वहीं पर आठ सार्वजनिक मस्जिदें, एक निजी मस्जिद व तीन महल बनवाये। अफगान कला की अत्यधिक महत्वपूर्ण मस्जिदों में दिल्ली की बड़ी गुम्बद मस्जिद, मेरठ की मस्जिद तथा जमाली-कमाली मस्जिद है। ये मस्जिदें दिल्ली में ही हैं। यह पाँच विविध रूपों वाली मेहराबों से बनी हैं जिसमें कि मध्य मेहराब आकार में सबसे बड़ी है। मस्जिद के ऊपर तीन समानुपातिक गुंबद है फलतः इन्हें पंचमुखी कहा जाता है।
मस्जिद के अतिरिक्त मदरसे, किले, महलों और खानकाहों का निर्माण हुआ।
ईसाइयों के पर्व
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यहूदियों का त्यौहार
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मामलुक सुल्तानों ने भी इसका खासा ध्यान रखा। अलाउद्दीन खिलजी के अन्य स्मारकों में सीरी का नगर, हौज-ए-अलाई और हौज खास का तालाब है। ये सभी वास्तुकला के अच्छे उदाहरण हैं। मुहम्मद तुगलक ने भी आदिलाबाद में छोटा किला बनवाने का प्रयास किया। दिल्ली में सीरी की दीवारों को पुरानी दिल्ली से जोड़ा और एक नगर का नाम जहाँपनाह रखा। फीरोजशाह तुगलक को भी दुर्गों व महलों को बनाने का श्रेय प्राप्त है। सिकन्दर लोदी ने अपनी नई राजधानी आगरा को काफी खूबसूरत ढंग से सजाया था।
बंगाल और जौनपुर
प्रान्तीय शासकों ने भी वास्तुकला के विकास में काफी ध्यान दिया। खास तौर पर जौनपुर और बंगाल का महत्व काफी है। जौनपुर का ‘अटाला मस्जिद’ अपनी उत्तम वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है। इसकी बाह्य रूपरेखा भारत की अन्य मस्जिदों की तरह है। इसका निर्माण कार्य इब्राहीम शाह शर्की के समय पूरा हुआ। इस्लाम की बहुत थोड़ी सी मस्जिदें ऐसी हैं जिनका अनुपात इतना प्रभावशाली हो या जिसकी शैली इतनी आकर्षक हो जितनी अटाला मस्जिद की है। बंगाल की ‘अदीना मस्जिद’ भी वास्तुकला का एक जीवन्त उदाहरण है। सिकन्दरशाह ने ‘अदीना मस्जिद’ का निर्माण अपनी नयी राजधानी पांडुआ में कराया। पूर्वी भारत में यह मस्जिद अपने प्रकार की एक विचित्रा वस्तु मानी जाती थी तथापि इसका नक्शा उत्तम कोटि का नहीं था।
मुगल वास्तुकला
मुगलकालीन वास्तुकला भारतीय सांस्कृतिक निधि का अद्वितीय भंडार है। कला प्रेमी मुगल सम्राटों ने ईरानी और हिन्दू शैली के समन्वय से विकासपूर्ण ‘मुगल शैली’ का निर्माण किया। अकबर के शासन-काल तक ईरानी शैली का मुख्यतः प्रभाव रहा किन्तु इसके बाद भारतीय निर्माणकला मूलतः भारतीय हो गई और स्पष्ट रूप से इसमें ईरानी शैली जैसी चीज नहीं रह गई थी। मुगलकालीन स्थापत्यकला की प्रमुख विशेषताएं गोल गुम्बद पतले, स्तंभ और विशाल खुले द्वार है। बाबर भारत के स्थापत्य कला को बड़ा निम्न स्तर का मानता था। ग्वालियर के किले को छोड़कर उसने किसी भी इमारत को नहीं सराहा। अपने अल्पकालीन शासन के दौरान उसने पानीपत में ‘काबुल बाग’ और सांभल में ‘जामा-मस्जिद’ का निर्माण कराया। हुमायूं अपने भाग्य के दुर्भेद्य चक्र में फँसा रहा फलतः वास्तुकला पर विशेष ध्यान नहीं दे सका। मगर उसने दिल्ली में एक महल (दीन-ए-पनाह) और फतेहाबाद (हरियाणा) में एक मस्जिद बनवाया। ये दोनों ईरानी शैली के हैं।
शेरशाह ने भारत के तमाम वास्तुकला के सम्मिश्रण से सासाराम (बिहार) में एक मस्जिद बनवाया जिसमें क्रमशः बौद्ध-स्तूप, हिन्दू मंदिर और मुस्लिम कलाओं का सीधा प्रभाव है। आगे चलकर यह मस्जिद शेरशाह का मकबरा बन गया। मुगलों के आरंभिक भवनों में हुमायूं का मकबरा सबसे महत्त्वपूर्ण है। यह ‘चारबाग शैली’ का प्रथम मकबरा है जिसका निर्माण भारत में हुआ। मकबरे की आकृति इसी शैली से प्रभावित है और इसका गुम्बद भी ईरानी पद्धति से बना है। फतेहपुर सीकरी में अकबर का महल उल्लेखनीय है। यहाँ की सर्वोच्च इमारत ‘बुलंद दरवाजा’ है, जिसकी ऊँचाई भूमि से 176 फुट है। इसी दरवाजे से होकर शेख सलीम चिश्ती की दरगाह में प्रवेश करना होता है। बाईं ओर जामा मस्जिद और सामने शेख का मजार है। जामा मस्जिद को ‘शान-ए-फतहपुर’ कहा जाता है। फतेहपुर सीकरी की अन्य इमारतंे हैं - बीरबल का महल, पंच महल, दीवान-ए-खास, रानी जोधाबाई का महल आदि। इन भवनों का निर्माण मुख्य रूप से लाल-बलुआ पत्थर से हुआ है। इसके अतिरिक्त अकबर ने आगरा, इलाहाबाद, अजमेर तथा लाहौर में सुदृढ़ दुर्ग भी बनवाए और उन दुर्गों के भीतर उसने राजप्रासाद, साधारण वासस्थान, कार्यालय आदि बनवाए। जहाँगीर का काल स्थापत्य कला की दृष्टि से काफी सामान्य रहा। उसके द्वारा निर्मित सिकन्दरा में स्थित अकबर का मकबरा काफी प्रसिद्ध है। एत्मादुदौला के महल का महत्व यह है कि इसमें पहले-पहल संगमरमर के ऊपर पच्चीकारी का काम किया गया है। शाहजहाँ का काल मुगल स्थापत्य कला का स्वर्णयुग था। शाहजहाँ के काल की वास्तुकला दो संस्कृतियों के पारस्परिक संपर्कों का प्रतिफलन है। इसका विकास पहले से ही होता चला आ रहा था, परन्तु शाहजहाँ के काल में अपनी चरम अवस्था को प्राप्त किया। अकबर के फतेहपुर सीकरी की भाँति शाहजहाँ ने 1638 ई. में दिल्ली में अपने नाम पर ‘शाहजहानाबाद’ नामक एक नगरी की स्थापना की तथा वहाँ अनेक सुसज्जित भवनों का निर्माण किया। ‘शाहजहानाबाद’ के इन प्रमुख भवनों में ‘लाल किला’ है। इसका निर्माण काफी सुनियोजित ढंग से किया गया। इसकी लंबाई 3100 फुट तथा चैड़ाई 1650 फुट है। इसका मुख्य प्रवेश द्वार ‘लाहौरी द्वार’ वास्तुकला की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इसके अंदर एक प्रमुख भवन ‘नौबतखाना’ है, जिसके सामने ‘दीवाने-ए-आम’ स्थित है। इसके उत्तरी भाग में ‘दीवान-ए-आम’ और ‘रंग-महल’ है जो अत्यधिक आकर्षक है। शाहजहाँ को संगमरमर अत्यधिक प्रिय था। अतः प्रत्येक भवन में कुछ न कुछ संगमरमर का उपयोग किया गया है। दिल्ली के लाल किले के बाहर जामा मस्जिद है जो इस काल की बड़ी मस्जिदों में गिनी जाती है, परन्तु कला की दृष्टि से यह बहुत उत्कृष्ट नहीं है। इसमें तीन प्रवेश द्वार हैं, जिनमें पूर्वी प्रवेश द्वार से बादशाह नमाज पढ़ने आया करता था तथा अन्य दो प्रवेश-द्वारों से सामान्य प्रजा आया करती थी। शाहजहाँ के समय का सबसे सुन्दर वास्तुकला का नमूना उसकी बीवी मुमताज बेगम की समाधि विश्व-विख्यात ‘ताजमहल’ है। यह आगरा मंे यमुना नदी के तट पर सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों के बीच में खड़ा है। ताजमहल की स्थापत्य-कला शैली के संबंध में पर्सी ब्राउन का विचार है कि ”इसका निर्माण दिल्ली में निर्मित हुमायूं के मकबरे तथा ‘खानखाना के मकबरे’ की शैली के आदर्श पर हुआ था।“ ताजमहल 22 फुट ऊँचे चबूतरे पर स्थित है - एक मुमताज महल बेगम की तथा दूसरी शाहजहाँ की। इन समाधियों को रंग-बिरंगे पत्थरों की सहायता से बने हुए फूल-पत्तियों द्वारा सुसज्जित एवं अलंकृत किया गया है। ताजमहल के ऊपरी भाग पर एक सुन्दर तथा सुडौल गुम्बद स्थित है तथा प्रत्येक मीनार की ऊँचाई 137 फुट है। इसके प्रवेश द्वार पर पवित्रा कुरान की आयत लिखी हुई है। इसमें मकराना (राजस्थान) से लाये गये संगमरमर का उपयोग हुआ है। इसकी भव्यता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसके निर्माण में लगातार सत्राह वर्ष लगे एवं तीन करोड़ रुपये से अधिक का व्यय हुआ था। औरंगजेब के समय भवन निर्माण के कार्य में कोई खास विकास नहीं हुआ। इसके अनेक कारण थे। प्रथम तो यह कि उसकी ललित कलाओं के प्रति रूचि न थी। दूसरा उसका संपूर्ण जीवन विद्रोहियों के दमन करने में व्यतीत हुआ। दिल्ली के किले के अन्दर औरंगजेब ने संगमरमर की एक मस्जिद का निर्माण करवाया और इसका नाम ‘मोती मस्जिद’ रखा। यह मस्जिद शाहजहाँ द्वारा निर्मित आगरे की मोती मस्जिद जैसी नहीं है। औरंगजेब के काल की दूसरी महत्त्वपूर्ण मस्जिद ”लाहौर की बादशाही मस्जिद“ है इसकी स्थापत्यकला शैली दिल्ली की ”जामा मस्जिद’’ की भाँति है किन्तु उतनी सुन्दर एवं वैभवशाली नहीं है। औरंगजेब ने औरंगाबाद में अपनी पत्नी राबिया-उद-दौरानी के मकबरे का निर्माण करवाया था। इसकी स्थापत्य शैली ताजमहल पर आधारित है। फलतः इसे द्वितीय ताजमहल भी कहा जाता है। किन्तु ताज वाली सुन्दरता इसमें नहीं है। बाद के मुगल शासकों ने इस पर ध्यान नहीं दिया।
मुगल सम्राट के हिन्दू-मुस्लिम मनसबदारों, राजपूताना और मध्य भारत के राजपूत शासकों, बीजापुर और गोलकुंडा के सुल्तानों, धार्मिक संप्रदायों के नेताओं तथा सेठ-साहूकारों ने भी इस काल में अनेक इमारतें बनवायी किन्तु उनमें से अधिकांश काल एवं शत्राुओं के आघातों के कारण नष्ट-भ्रष्ट हो गयी है। जो बच गयी है, उनमें मानमन्दिर (ग्वालियर), गोविंददेव का मंदिर (वृन्दावन), हवामहल (जयपुर), जन्तर-मन्तर (दिल्ली, उज्जैन, जयपुर, मथुरा), गोलगुम्बज (बीजापुर) और अमृतसर का सिक्ख मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
1857 ई. के विद्रोह के पश्चात् अंग्रेजों ने वास्तुकला पर ध्यान दिया। अंग्रेजों ने बंगला (कोठी), चर्च व कार्यालय तक ही अपने आपको सीमित रखा। अंग्रेजों ने अपनी वास्तुकला की यात्रा ग्रीक व रोमन शैली से आरंभ की मगर स्थानीय स्वरूप को भी प्रश्रय दिया जैसे कि गुम्बद व स्ंतभों का उपयोग। कलकत्ता से दिल्ली राजधानी के स्थानान्तरण के पश्चात् वास्तुकला में काफी बदलाव आया। दिल्ली शहर को बिल्कुल नए ढंग से बसाया गया। इसमें महान् वास्तुविद् वाल्लेयर जार्ज का योगदान सबसे अधिक है। आधुनिक राष्ट्रपति भवन एवं पुराने सेंट स्टीफेन काॅलेज की वास्तुकला सराहने योग्य है। उपरोक्त सभी भवनों पर भारतीय वास्तुशैली का भी प्रभाव पड़ा है। मुगलकाल के विपरीत इन भवनों को सरल व सामान्य ढंग से बनाया गया है। आजादी के बाद वास्तुकला का विकास नयी-नयी खोजों के साथ होता रहा।
‘नागर शैली’
नागर शैली का मंदिर चैपहला या वर्गाकार होता है। हिमालय से विन्ध्याचल के बीच में इसी शैली के मंदिर पाये जाते है। साधारणतः मध्य प्रदेश इसका केन्द्र रहा है। इसी प्रकार एक ओर बंगाल और उड़ीसा, दूसरी ओर गुजरात और महाराष्ट्र तक इस शैली का विस्तार रहा है। वैसे, इस शैली का क्षेत्राीय नामकरण भी हुआ है। उड़ीसा में ‘कलिंग’, गुजरात में ‘लाट’ और हिमालय क्षेत्रा में ‘पर्वतीय’ कहा गया है।
‘द्रविड़ शैली’
द्रविड़, शैली और भौगोलिक क्षेत्रा दोनों का पर्याय है। इस शैली का क्षेत्रा कृष्णा नदी से लेकर कुमारी अन्तरीप तक है। इसमें गर्भगृह के ऊपर का भाग सीधा पिरामिडनुमा होता है। उनमें कितनी ही मंजिल होती हैं। आंगन का मुख्य द्वार, जिसे गोपुरम कहते है, इतना ऊँचा होता है कि अनेक बार वह प्रधान मंदिर के शिखर तक को छिपा लेता है।
‘बेसर शैली’
नागर और द्रविड़ शैलियों का मिश्रित रूप ही बेसर शैली कहलाता है। विन्यास (खाका) में यह द्रविड़ शैली का होता है और क्रिया अथवा रूप में नागर शैली का। शैली का प्रसार विन्धाचल से कृष्णा के बीच में हुआ है, पर इन शैलियों के प्रसार का अनुबंध अनुल्लंघनीय नहीं है। नागर शैली के कुछ मंदिर दक्षिण में भी मिले हैं और द्रविड़ शैली के उत्तर में। वृन्दावन का विशाल वैष्णव मंदिर द्रविड़ शैली का ही है।
मौर्यकालीन स्थापत्य - मौर्यकालीन स्थापत्यकला को निम्न भागों में बाँटा जाता है - राजप्रासाद, शैल गुहाएं, लाट और स्तंभ शीर्ष, एकाश्म वेदिका, स्तूप आदि।
ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि प्राचीन शैली के आधार पर निर्मित नगर महापथों द्वारा चार खंडों में विभक्त था। बीच में उद्यानों के मध्य अनेक भवनों सहित विशाल राजप्रासाद निर्मित था। इसके ध्वंसावशेष से ज्ञात होता है कि यह विशेषतः काष्ठ निर्मित था। चन्द्रगुप्त मौर्य की भांति अशोक ने भी एक राजप्रासाद का निर्माण कराया था, जिसमें पत्थर का प्रयोग, दीवालों और तोरणों की व्यवस्था, चिन्ताकर्षक नक्काशी तथा सुन्दर मूत्र्तियां उत्कीर्ण थीं। इस तरह मौर्यकाल में भवन के निर्माण में काष्ठ का प्रयोग बहुलता से किया गया था। मौर्यकला की सर्वोत्कृष्ट कृतियां अशोक के एकाश्म प्रस्तर स्तंभ है। प्रत्येक स्तंभ को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-लाट और स्तंभ शीर्ष। लाट एक शुंडाकार दंड है जिसकी लंबाई 40 फुट से 50 फुट तक है। स्तंभ-शीर्ष लाट की चोटी पर स्थापित रहता है। यह तीन अंगों में विभक्त हेाता है - उल्टा कमल और घंटा, आधार पीठिका, पशु और कभी-कभी पशुओं के ऊपर स्थापित धर्मचक्र। इसके निर्माण में लाल बलुए पत्थर का प्रयोग किया गया है।
शुंग-सातवाहनकालीन स्थापत्य - इस काल में स्थापत्यकला का पर्याप्त विकास हुआ। इस काल की कला की निम्नलिखित विशेषताएं थीं -
(क) मौर्यकालीन स्थापत्य में लकड़ी, कच्ची ईंटों और मिट्टी का प्रयोग होता था, किन्तु शुंग काल में उसके निर्माण में पत्थर का प्रयोग किया गया।
(ख) इस काल की कला से लोक जीवन का दर्शन होता है।
(ग) शुंग-सातवाहन काल में शैलड्डकृत गुफाओं का व्यापक पैमाने पर निर्माण हुआ।
कुषाण कालीन स्थापत्य - वस्तुतः कुषाण काल में मूत्र्तिकला के क्षेत्रा में उल्लेखनीय कार्य हुआ। परन्तु अनेक धर्मों के विकास के कारण स्मारकों का बहुसंख्या में निर्माण हुआ। अशोक की भांति कनिष्क ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अनेक बौद्ध स्तूप और विहार निर्मित कराए थे।
‘गुप्तकालीन मंदिर’
गुप्तकालीन मंदिरों में सबसे भव्य और महत्वपूर्ण मंदिर देवगढ़ (झांसी के पास) और भीतरगांव के हैं। इन मंदिरों में रामायण, महाभारत और पुराणों की विषय-वस्त का उपयोग पहली बार हुआ। देवगढ़ का मंदिर दशावतार का है और पत्थरों से बना है। मंदिर की दीवारों पर सर्वत्रा रामायण के दृश्य हैं। द्वारपालों के स्थानों पर गंगा-यमुना की मूर्ति है। भीतरगांव का विष्णु मंदिर कानपुर जिले में है। यह ईटों का बना नक्काशीदार है। मध्यप्रदेश में भभूरा का शिवमंदिर भीतरगांव के मंदिर से मिलता-जुलता है। गर्भगृह इसका वर्गाकार है जो पहले दीवार से घिरा था और दोनों के बीच प्रदक्षिणा-मार्ग बना था जिससे सामने का मंडप जुड़ा था। भभूरा के मंदिर का सबसे अद्भूत और अभिराम अवशेष उसका आयताकार ऊँचा लाल पत्थर का पट्ट है।
भारत की प्रसिद्ध मस्जिदें
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भारतीय मुसलमानों के प्रमुख त्यौहार
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चालुक्य कला - बेसर शैली को चालुक्य शैली भी कहा जाता है। चालुक्य तथा होयसलकालीन मंदिरों की दीवारों, छतों तथा इसके स्तंभों, द्वारों आदि का अलंकरण बड़ा सजीव तथा मोहक है। चालुक्य और होयसल राज्य के अनेक मंदिर आज भी अपनी विशिष्टता के लिए मशहूर हैं। पट्कदल के दो मंदिर अपने ऐश्वर्य में असाधारण है। इनमें एक लोकेश्वर शिव का है दूसरा पापनाथ का। दोनों का निर्माण आठवीं शताब्दी में हुआ है। लोकेश्वर शिव का मंदिर कांची के कैलाशनाथ मंदिर के सदृश्य बना हुआ है। उसका निर्माण चालुक्य राजा विक्रमादित्य की रानी ने 740 ई. के लगभग कराया था। मंदिर विशाल, प्रदक्षिणा पथ और मंडप से संयुक्त है। इसका शिखर पांच मंजिल का है। चैखटों और स्तंभों पर नाग-नागिन एवं रामायण के दृश्य खुदे हैं। इस मंदिर को ‘विरूपाक्ष’ मंदिर भी कहा जाता है। इस मंदिर का वास्तुकार गंग था जिसको ‘त्रिभुनाचार्य’ की उपाधि मिली। इस मंदिर की गणना भारत के भव्यतम मंदिरों में होती है। पापनाथ का मंदिर विशुद्ध बेसर शैली की है।
पल्लव शैली के मंदिर - पल्लव शैली का जन्म द्रविड़ शैली से ही हुआ। पल्लव स्थापत्य को चार राजाओं का सर्वाधिक संरक्षण प्राप्त था, फलतः शैलियों ने भी इन राजाओं के नाम का प्रतिनिधित्व किया। इनमें प्रथम शैली ‘महेन्द्र वर्मन शैली’ है। इस शैली के मंदिर-निर्माण कार्य में ईंट, लकड़ी, पत्थर आदि का उपयोग होता था। इस शैली के मंदिरों का स्तंभ चैकोरे और बीच में अठपहले होते थे। द्वार पर द्वारपालों का निरूपण हुआ था। इस शृंखला की द्वितीय शैली ‘नरसिंह वर्मन’ या ‘मामल्लध्शैली’ है। इस शैली के अन्तर्गत कन्दराओं के सुन्दरीकरण पर खासा ध्यान दिया गया। इसके अन्तर्गत एक ही पत्थर से कटे हुए स्वतंत्रा स्तंभों की शैली चलाई। झरोखों के मेहराबों पर काफी ध्यान दिया गया। मंदिर के ऊपर के खण्ड के अधिकांश कला मामल्लध्पुरम में ही केन्द्रित हैं। मामल्लध्शैली का ही विकसित रूप ‘महेन्द्र वर्मन’ शैली कहलाया। इसका सबसे अच्छा उदाहरण ‘रथ पांच’ है। इसमें पांच रथ एक ही पत्थर को काटकर अलग-अलग ढंग से बनाया गया है। इसमें द्रौपदी और गणेश रथ को मिलाकर ‘सात पगोडा’ भी कहते है। वैसे, इस मंदिर का नाम पांच पांडव है मगर वास्तविक रूप में यह शैव मंदिर है। कन्दरा कला के स्थान पर एक स्वतंत्रा शैली का जन्म राजसिंह वर्मन द्वारा किया गया, इसे ही ”राजसिंह वर्मन शैली“ कहते हैं। इस शैली मेंस्थापत्यकला की सभी विशिष्टताएं एक साथ प्रकट होती हैं। कांचीपुरम का कैलाशनाथ और मामल्लध्पुरम का सागरतटीय मंदिर इसी नयी परम्परा का उदाहरण है। कैलाशनाथ मंदिर एक वृहत्त आयताकार प्रांगण मेंस्थित है। इसका गर्भगृह पिरामिड के आकार का और मंडप की छत समतल है। सागरतटीय मंदिर का निचला मंजिल वर्गाकार है तथा शीर्षभाग पिरामिडाकार है जो ऊँचाई के साथ छोटे होते जाते हैं और अन्त में छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़ों से बने हैं। पल्लव शैली मूलतः बौद्ध चैत्योंमें ही विकसित हुई पर शीघ्र ही उसने अपना द्रविड़ रूप स्पष्ट कर लिया। फलतः पल्लवों की शैलियोंको हम द्रविड़ शैली की विकसित हो रही अवस्थायेंकह सकते हैं।
चोलकालीन वास्तुकलायें - चोलोंने पल्लवोंकी स्थापत्य-परम्परा को आगे बढ़ाया। दक्षिण मेंअनेक प्रकार के मंदिरोंका निर्माण हुआ। चोलकालीन मंदिरोंने द्रविड़ वास्तुकला को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। राजराज प्रथम का तंजौर का शिव मंदिर जिसे राजराजेश्वर मंदिर भी कहा जाता है, यह द्रविड़ शैली का एक जाज्वल्यमान नमूना है। इसका आधार 82 वर्ग फुट है एवं ऊँचाई 192 फुट है। इसके भव्य विमान पर तेरह खंडों (तल्लो) में पिरामिडनुमा ऊपर उठता शीर्ष है जिस पर मनमोहक स्तूपिका स्थापित है। उपरोक्त वर्णित राजराज के शिव मंदिर से कम भव्य परंतु अधिक सुन्दर तंजौर नगर का ही सुब्रह्मण्यम मंदिर है जिसका शिखर भी उच्चतम एवं कलात्मक ढंग से अलंकृत है। अपनी नवीन राजधानी गंगईकोंड चोलपुरम मेंराजेन्द्र प्रथम द्वारा निर्मित मंदिर चोल वास्तुकला का अन्य प्रभावशाली उदाहरण है। उसका विशाल आकार, ठोस पाषाण का विराट लिंग और पाषाण में उत्कीर्ण मनोरम आकृतियां, इसकी असाधारण विशेषताएं हैं। इसमेंनिर्मित विमान तथा मंडप बहुत वृहत्त है। वृहदेश्वर मंदिर की अपेक्षा इसमेंअलंकरण अधिक है। दारसुरम मेंऐरावतेश्वर तथा त्रिभुवन मेंत्रिभुवनेश्वर के मंदिर भी इसी शैली मेंनिर्मित उत्कृष्ट कला के नमूने है। राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्रथम द्वारा बनवाया गया कैलाश मंदिर (एलोरा में), प्राचीन भारतीय वास्तु एवं तक्षण कला का भारत भर मेंशायद सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। यह समूचा मंदिर गिरिपाश्र्व से तराशा गया है। कैलाश मंदिर के प्रांगण की लंबाई 276 फुट और चैड़ाई 154 फुट है। मंदिर के चार खंड और कई प्रकोष्ठ हैं और इसका शिखर भी कई तलोंसे मिलकर बना है। यह भी द्रविड़ शैली का उदाहरण है।
स्थानीय शैलियोंका उदय
भारतीय इतिहास के मध्यकाल मेंराजपूत शक्तियोंका उदय हुआ, इसमें विदेशी एवं स्थानीय जातियोंका समावेश था। पूर्वकालिक वर्ग के रूप मेंगुर्जर-प्रतिहार, पाल, परमार, कलचूरी आदि थे। उत्तर कालीन वर्ग मेंसेन, गढ़वाल, चैहान (चाहुमान), चंदेल, गंग, सोलंकी आदि थे। इन लोगोंमें आपसी प्रतिस्पर्धा और विद्वेष बना रहा। पर इनमेंसे प्रत्येक ने स्थानीय कला को संरक्षण प्रदान किया। इस काल की प्रमुख विशेषता है - स्थानीय परिवेश के साथ कलाओं का विकसित होना। इस युग मेंवास्तुकला की उन्नति उड़ीसा, राजस्थान व गुजरात में अधिक हुई। कश्मीर एवं पर्वतीय हिमाचल ने भी मंदिर निर्माण में अपना योगदान दिया।
‘उड़ीसा के मंदिर’
भारत के उत्कृष्ट नागर मंदिर उड़ीसा के हैं जिसमें भुवनेश्वर, पुरी और कोणार्क के मंदिर काफी महत्वपूर्ण हैं। संसार के किसी देश के एक भू-भाग मेंगुणात्मक एवं परिमाणात्मक रूप से ऐसे मंदिर निर्माण के उदाहरण नहीं मिलते हैं। इस आधार पर उड़ीसा को मंदिरोंका देश कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उड़ीसा के मंदिरोंमेंप्राचीनतम परशुरामेश्वर का मंदिर आठवीं सदी के मध्य या संभवतः आरंभ का है। परशुरामेश्वर का मंदिर यद्यपि बहुत विशाल नहीं है, परन्तु इसको अति सुन्दर ढंग से अलंकृत किया गया है। गर्भगृह त्रि-रथ विन्यास विधि से बना है। त्रि-रथ विन्यास विधि में पाभाग (आधार), जांघ (सीधी खड़ दीवार का भाग), बंरड (ऊपरी शिखर के बीच का भाग) रहते हैं। यह मंदिर मात्रा 44 फुट ऊँचा है। परशुरामेश्वर से थोड़ी दूरी पर मुक्तेश्वर का मंदिर है। यह मंदिर मात्रा 35 फुट ऊँचा है। गर्भगृह मात्रा साढ़े सात फुट का है। फरग्यूसन ने इसे ”उड़ीसा शैली का रत्न“ कहा है। मुक्तेश्वर के बाद उड़ीसा के मंदिरों मेंपरिवर्तन होता है। शिखर काफी विशाल हो जाता है मगर उसका ऊपरी भाग मधुमक्खियोंके छत्ते की भाँति अलंकृत रहता है। उड़ीसा शैली (नागर शैली का ही रूप) का सर्वश्रेष्ठ मंदिर भुवनेश्वर का ‘लिंगराज’ मंदिर है। उड़ीसा के अधिकांश मंदिरोंके समान लिंगराज का मंदिर चार विशाल कक्षों के क्रम मेंनिर्मित है - एक पूजा कक्ष, एक नृत्य कक्ष, एक सभा कक्ष (जगमोहन) तथा एक देवालय है। देवालय के ऊपर विशाल शिखर है और अन्य कक्षों पर छोटे-छोटे शिखर हैं जो आगे बढ़कर देवालय के शिखर से मिल जाते हैं। भारत के मंदिरोंमेंसंभवतः यह सबसे शालीन और गौरवशाली है। यह मंदिर लगभग 1000 ई. के आस-पास का है। उड़ीसा के मंदिरोंमेंप्रधान तीन और मंदिर है - पुरी का वैष्णव जगन्नाथ मंदिर, कोणार्क का सूर्य मंदिर और भुवनेश्वर का बैताल-देउल मंदिर। पुरी का वैष्णव-जगन्नाथ मंदिर जो बना तो था बाहरवीं सदी मेंमगर उसमें पूजा आज भी होती है और हिन्दुओंके चार धामोंमेंउसकी भी गणना है। जगन्नाथ मंदिर लिंगराज मंदिर की तरह विशाल है। चारांे दिशाओंमें चार द्वार है, प्रधान द्वारा पूरब की ओर था, जहाँ एक ही पत्थर का बना आज ‘अरूण-स्तंभ’ खड़ा है। कला की दृष्टि से यह मंदिर काफी निम्न श्रेणी का है। ‘कोणार्क का मंदिर’ (काला पैगोडा) सूर्य देवता का मंदिर है जो भारत के सबसे विशाल एवं भव्य मंदिरों मेंसे एक था तथा जो भुवनेश्वर के मंदिरों से कहीं बड़ा था। इस मंदिर का 200 फीट से अधिक ऊँचा शिखर बहुत दिन हुए गिर गया परंतु उसका विशाल सभा भवन अब भी है। इसका निर्माण राजा नरसिंह देव ने 1236 से 1264 के बीच कराया था। संभवतः निर्माण की कुछ समस्याओंके कारण मंदिर कभी पूरा न हो सका जिसका परिणाम हुआ कि जगमोहन तो बन गया, पर उसके पीछे रेखा शिखर स्थूल ही बनकर रह गया। इसके निर्माण की योजना उड़ीसा के अन्य मंदिरों की ही भाँति है। संपूर्ण मंदिर एक रथ का प्रतिनिधित्व करता है। जैसे सूर्य देवता आकाश मेंभ्रमण कर रहे हों। प्रवेश द्वार तक पहुँचने के लिए चैड़ी सीढ़ियोंसे होकर जाना होता है जिसके दोनों ओर उछलते हुए घोड़े बने हैं। मंदिर का आंगन स्वतंत्रा रूप से स्थित सुन्दर एवं दृढ़ मूत्र्तियों से अलंकृत है। कामसूत्रा के सभी ‘बंध’ एवं रतिक्रिया के जितने भी संभावित आसन सोचे जा सकते हैं वे सारे, कलाकारोंकी छेनी से वहाॅं बनाये गये हैं। उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि कोणार्क का मंदिर इन मूत्र्तियोंके वास्तविक अलंकरण का उद्देश्य समझाने के लिए अनेक स्पष्टीकरण किए हुए है। उपरोक्त तथ्योंसे स्पष्ट होता है कि कोणार्क का मंदिर एक सफल तांत्रिक संप्रदाय का केन्द्र था। उड़ीसा कपरकोटे के भीतर और सभा मंडप के पीछे अपना गर्भगृह लिए ऊँचे आधार पर यह मंदिर खड़ा है। इसका गर्भगृह 25 फुट लंबा और 18 फुट चैड़ा है। शिखर उड़ीसा के मंदिरों के शिखरों से भिन्न प्रकार का प्रायः पीपानुमा है जो दक्षिण के द्रविड़ मंदिरों का आभास उत्पन्न कराता है।
‘राजस्थान में मंदिर’
राजस्थान के मंदिर गुजरात और पश्चिमी भारत के मंदिरों से शैली में अधिक मिलते हैं। यहाँ अनेक कालों के मंदिर के अवशेष मिले हैं। सबसे पुराने मन्दिर जयपुर के पास बैराम में पाये गये हैं जो मौर्यकालीन माने जाते हैं। ओसिया का सूर्य मंदिर भी काफी महत्वपूर्ण था। राजस्थान के मंदिरों में दिलवाड़ा का जैन मंदिर सर्वश्रेष्ठ है। माउंटआबू के लगभग 4000 फुट ऊँचे पर्वत पर, शांत और शीतल वातावरण में इस जैन मंदिर का निर्माण हुआ है। पास ही दिलवाड़ा का वह छोटा-सा गांव है जिसके नाम पर इस मंदिर का लोकप्रिय नाम पड़ा है। इस परिसर में चार प्रधान मंदिर हैं। इसमें से दो-विमल वसही ओर लून वसही अपने अद्भूत अलंकरणों से जगतप्रसिद्ध हैं। इनका निर्माण विमल और तेजपाल ने चालुक्य राजा भीम द्वितीय के समय कराया। इन दोनों मंदिरों में से प्रथम, जैन तीर्थंकर ऋषभनाथ का है। मंदिर चतुष्कोणीय प्रंागण में खड़ा है जिसमें प्रवेश दो हाॅलों से होकर होता है जिसमें एक आयताकार है दूसरा वर्गाकार। इन मंदिरों में दो मंडप एवं एक सभागृह है। तीनों का निर्माण काल एक नहीं है।
काले पत्थरों से निर्मित गर्भगृह प्राचीनतम् है जबकि सफेद संगमरमरों से बने हाॅल और स्तूप बाद के हैं।
”चालुक्य सोलंकी कला“
गुजरात में मंदिरों का निर्माण चालुक्य सोलंकी राजाओं के द्वारा हुआ। वस्तुतः वहाँ के नरेश उनके मंत्रिगण और समृद्ध सेठ सभी वास्तु निर्माता थे। गुजरात में विशेषकर काठियावाड़ में नागर और बेसर दोनों शैलियों के मंदिर बने हैं। इस प्रकार का एक मंदिर काठियावाड़ के बरवा पहाड़ियों में गोप नामक स्थान पर आज भी खड़ा है। यह उस क्षेत्रा का सबसे प्राचीन छोटा-सा मंदिर है जिसके दो आधार हैं। मंदिर सादा और अलंकार रहित है। गुजरात में आगे चलकर नागर शैली का दूसरा नाम सोलंकी शैली भी पड़ गया। गुजरात का नीलकंठ महादेव मंदिर इस विद्या का पूर्ण उदाहरण है जो भाग्यवश पूर्णतः सुरक्षित भी है। इसमें सामने सभा मंडप भी है और पीछे गर्भगृह से जुड़ा गूढ़मंडप भी। दीवारों, स्तंभों और गुंबज की भीतरी छत सभी अत्यंत आकर्षक अलंकरणों से सुसज्जित है। इसी शैली के कुछ मंदिरों में घुम्ली का एवं सेजकपुर का नवलखा मंदिर काफी प्रसिद्ध है। दोनों काठियावाड़ में हैं। दोनों ही पर्याप्त अलंकृत हैं और अपनी आरंभिक अवस्था में निश्चय ही सोलंकी परिवार के विशिष्ट देवालय रहे होंगे। गुजरात के मंदिरों में सबसे प्रमुख सोमनाथ का शिव मंदिर है। हालाँकि, यह मंदिर बार-बार मानव बर्बरता से विनष्ट होकर बनता रहा है। 1025 ई. में महमूद गजनी ने इसे तोड़ा और अपार संपत्ति लूटकर ले गया था। कुमारपाल ने इसे फिर से ग्यारहवीं सदी के मध्य बनवाया। यह मंदिर बेसर शैली का उदाहरण है।
‘खजुराहो के मंदिर’
मध्य प्रदेश के वास्तुकला को गुप्त राजाओं के बाद चंदेलों के समय काफी प्रोत्साहन मिला। खजुराहो का मंदिर चंदेल नागर शैली का एक अच्छा उदाहरण है। खजुराहो के मंदिर उड़ीसा के मंदिरों की भाँति अनेक देवताओं का परिवार लिए मंडपों आदि से जुड़े नहीं हैं। इनका भवन एक है जिसके गर्भगृह, अंतराल, मंडप और अर्द्ध मंडप अंग है। खजुराहो के मंदिरों को घेरनेवाले अन्यत्रा मंदिरों के विपरीत, कोई परकोटा नहीं है। शिव मंदिरों में प्रधान कंडरिया महादेव और विश्वनाथ मंदिर है। वैष्णव मंदिरों में रामचंद्र तथा चतुर्भुज और जैन मंदिरों में प्रधान पाश्र्वनाथ हैं। कंडरिया महादेव और विश्वनाथ मंदिर खजुराहो के वास्तु में अनमोल हैं। दोनों प्रायः एक-से हैं, अन्तर दोनों में बस इतना है कि कंडरिया महादेव का मंदिर विश्वनाथ से अधिक ऊँचा है। परमार लोग भी कला के प्रति काफी संवेदनशील थे। मंदसौर से धार को जाने वाले अनेक मार्गों पर परमारों द्वारा बनवाये गये विशाल मंदिर आज भी खड़े है। राजा भोज द्वारा निर्मित सरस्वती विद्यालय, भोजनशाला आज भी धार में मस्जिद के रूप में खड़ा है।
‘पर्वतीय मंदिर’
कश्मीर आरंभ से ही काफी महत्त्वपूर्ण रहा है। कश्मीर के वास्तुकला में ललितादित्य का काफी योगदान रहा है। उसके द्वारा निर्मित ‘मार्तण्ड’ नाम का सूर्य मंदिर काफी प्रसिद्ध है जिसके खण्डहर अतीत का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। यह मंदिर 220 फुट लंबा और 142 फुट चैड़ा है और इसकी बाहरी दीवार खंभों की हैं। आगे इस मंदिर की सूर्य पूजा की विशिष्ट क्रियाओं के लिए एक मंडप भी बना है जो बाद के मंदिरों में नहीं है। इस पर गंधार कला का काफी प्रभाव है। हिमालय और विंध्याचल के बीच अनेक नागर शैली के मंदिर हैं। कंागड़ा, चंबा, कुलू और कुमाऊँ क्षेत्रा में अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ था। कांगड़ा के मसरूर में नागर शैली की अनेक मंदिरें कतार में खड़ी हैं। ये सभी मंदिरें आठवीं सदी में पत्थरों को काटकर बनायी गई हैं। इसके अतिरिक्त कुछ मंदिरें ईंट एवं पत्थरों से भी बने हैं। इसमें एक प्रसिद्ध मंदिर वैद्यनाथ (शिव का) का मंदिर है। इसकी छत सपाट और उसके चारों ओर उडीसा के बेताल-देउल मंदिर की भाँति रेखा-शिखर हैं। कुल्लू का हटकाविशेश्वर मंदिर भी काफी कलात्मक ढंग से बनाया गया है। उसके तीन ओर अनेक मूत्र्तियाँ बनी हैं जिसमें विशिष्ट दुर्गा, विष्णु और गणेश हैं। इसी परंपरा में गढ़वाल के बद्रीनाथ और केदारनाथ में भी देवमंदिर बने। आज यह हिन्दुओं के चार महत्वपूर्ण तीर्थों में एक है। पूर्व मध्यकाल तक वास्तुकला की प्रासंगिकता अधिकांशतः मंदिरों तक है। हालांकि कुछ राजाओं ने सुन्दर पत्थर के प्रासाद एवं प्रवेश द्वार बनवाये मगर इसकी संख्या गुणात्मक एवं परिणात्मक दोनों ही दृष्टिकोण से कम है। हाँ, मध्यकाल में आकर यही वास्तुकला का मुख्य ध्येय रहा है।
‘सल्तनत कालीन वास्तुकला’
मध्यकाल के आरंभिक सुल्तान और शासकों ने भी वास्तुकला के विकास पर पर्याप्त ध्यान दिया। मुसलमान अपने साथ निश्चित स्वरूप वाले बहुआयामी कलाओं को लाये थे और ये कलायें भौगोलिक व पर्यावरणीय लिबास से ढकी थी। भारतीय कलायें इनसे रू-ब-रू होकर, एक द्विआयामी धारा में बहने लगी। बाद में चलकर दोनों के बीच सीमा निर्धारित करना असंभव नहीं अपितु कठिन अवश्य हो गया। दो कलाओं का स्वरूप इस प्रकार था - मुस्लिम कला की विशेषताएं, विशाल भवन, विराट गोल गुम्बद, ऊँची मीनारें, खुले आंगन एवं साफ और सुथरी दीवारें थीं। भारत की गोद में प्रकृति शांत भाव से विश्राम करती रही है। फलतः भारतीय कलाओं में विशालता, विस्तार, मनोरम पुष्प, पत्ती, लता आदि की बहुलता है। भारत में गुलाम वंश के सुल्तान कुतुबद्दीन ऐबक ने प्रथम मुस्लिम वास्तुकला का परिचय ‘कुव्वत-उल-इस्लाम’ मस्जिद बनाकर दिया। इसका निर्माण दिल्ली विजय की स्मृति में किया गया था। इसके भीतर एक खुला चतुष्कोणीय आंगन है जो चारो ओर से दलान से घिरा है। इसी से मिलता-जुलता ‘अढ़ाई दिन का झापड़ा’ अजमेर में बनवाया गया था। इन दोनों में हिन्दू-इस्लामी स्थापत्य कला की मजबूती और सौंदर्य की समन्वित विशेषताएं पहली बार उभर कर आती हैं। कुतुब-मीनार भी मुस्लिम स्थापत्य का एक अच्छा नमूना है। हालांकि मीनार का उद्देश्य इबादत के लिए बुलाए जाने से है मगर इसकी ऊँचाई (72.5 मी.) उद्देश्य को स्पष्ट नहीं कर पाती है। अतः इसके निर्माण का उद्देश्य एक नए शासक वर्ग की शक्ति के एक विजय-स्तंभ से था। ‘इल्तुतमिश का मकबरा’ अपने उद्देश्य को स्पष्ट करता है। इसकी दीवारें व फर्श ‘कुरान-ए-शरीफ’ की पवित्रा आयतों से सुशोभित है। इसका निर्माण भी कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद (दिल्ली) के परिसर में हुआ है। अलाउद्दीन खिलजी ने नई दिल्ली में ही ‘जमात-ए-खाना’ मस्जिद का निर्माण कराया। यह प्रथम मस्जिद है जो पूर्णतः इस्लामी कला का प्रतिनिधित्व करता है। तुगलक काल में इसका विस्तार हुआ। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा निर्मित ‘अलाई दरवाजा’ भी अच्छा कलात्मक नमूना पेश करता है। यह लाल पत्थर का है किन्तु कहीं-कहीं संगमरमर का भी प्रयोग किया गया है। इसमें एक वर्गाकार कमरा है, जिसकी छत गुम्बदनुमा है और इसके चारों ओर मेहराबदार प्रवेश द्वार है। तुगलकों की वास्तुकला में समकालीन राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक समस्याओं की झलक मिलती है। सजावट की अपव्ययी प्रदर्शन और अन्दरूनी भाग की सुन्दरता ने पुरानी रूढ़िवादी सादगी को स्थान दिया। तुगलकों द्वारा लाल बलुआ पत्थर के स्थान पर स्थानीय भूरे पत्थर का उपयोग हुआ। ग्यासुद्दीन तुगलक और मोहम्मद तुगलक का स्थापत्य कला के क्षेत्रा में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं है। फिरोजशाह तुगलक ने फिरोजशाह कोटला और वहीं पर आठ सार्वजनिक मस्जिदें, एक निजी मस्जिद व तीन महल बनवाये। अफगान कला की अत्यधिक महत्वपूर्ण मस्जिदों में दिल्ली की बड़ी गुम्बद मस्जिद, मेरठ की मस्जिद तथा जमाली-कमाली मस्जिद है। ये मस्जिदें दिल्ली में ही हैं। यह पाँच विविध रूपों वाली मेहराबों से बनी हैं जिसमें कि मध्य मेहराब आकार में सबसे बड़ी है। मस्जिद के ऊपर तीन समानुपातिक गुंबद है फलतः इन्हें पंचमुखी कहा जाता है।
मस्जिद के अतिरिक्त मदरसे, किले, महलों और खानकाहों का निर्माण हुआ।
ईसाइयों के पर्व
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यहूदियों का त्यौहार
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मामलुक सुल्तानों ने भी इसका खासा ध्यान रखा। अलाउद्दीन खिलजी के अन्य स्मारकों में सीरी का नगर, हौज-ए-अलाई और हौज खास का तालाब है। ये सभी वास्तुकला के अच्छे उदाहरण हैं। मुहम्मद तुगलक ने भी आदिलाबाद में छोटा किला बनवाने का प्रयास किया। दिल्ली में सीरी की दीवारों को पुरानी दिल्ली से जोड़ा और एक नगर का नाम जहाँपनाह रखा। फीरोजशाह तुगलक को भी दुर्गों व महलों को बनाने का श्रेय प्राप्त है। सिकन्दर लोदी ने अपनी नई राजधानी आगरा को काफी खूबसूरत ढंग से सजाया था।
बंगाल और जौनपुर
प्रान्तीय शासकों ने भी वास्तुकला के विकास में काफी ध्यान दिया। खास तौर पर जौनपुर और बंगाल का महत्व काफी है। जौनपुर का ‘अटाला मस्जिद’ अपनी उत्तम वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है। इसकी बाह्य रूपरेखा भारत की अन्य मस्जिदों की तरह है। इसका निर्माण कार्य इब्राहीम शाह शर्की के समय पूरा हुआ। इस्लाम की बहुत थोड़ी सी मस्जिदें ऐसी हैं जिनका अनुपात इतना प्रभावशाली हो या जिसकी शैली इतनी आकर्षक हो जितनी अटाला मस्जिद की है। बंगाल की ‘अदीना मस्जिद’ भी वास्तुकला का एक जीवन्त उदाहरण है। सिकन्दरशाह ने ‘अदीना मस्जिद’ का निर्माण अपनी नयी राजधानी पांडुआ में कराया। पूर्वी भारत में यह मस्जिद अपने प्रकार की एक विचित्रा वस्तु मानी जाती थी तथापि इसका नक्शा उत्तम कोटि का नहीं था।
मुगल वास्तुकला
मुगलकालीन वास्तुकला भारतीय सांस्कृतिक निधि का अद्वितीय भंडार है। कला प्रेमी मुगल सम्राटों ने ईरानी और हिन्दू शैली के समन्वय से विकासपूर्ण ‘मुगल शैली’ का निर्माण किया। अकबर के शासन-काल तक ईरानी शैली का मुख्यतः प्रभाव रहा किन्तु इसके बाद भारतीय निर्माणकला मूलतः भारतीय हो गई और स्पष्ट रूप से इसमें ईरानी शैली जैसी चीज नहीं रह गई थी। मुगलकालीन स्थापत्यकला की प्रमुख विशेषताएं गोल गुम्बद पतले, स्तंभ और विशाल खुले द्वार है। बाबर भारत के स्थापत्य कला को बड़ा निम्न स्तर का मानता था। ग्वालियर के किले को छोड़कर उसने किसी भी इमारत को नहीं सराहा। अपने अल्पकालीन शासन के दौरान उसने पानीपत में ‘काबुल बाग’ और सांभल में ‘जामा-मस्जिद’ का निर्माण कराया। हुमायूं अपने भाग्य के दुर्भेद्य चक्र में फँसा रहा फलतः वास्तुकला पर विशेष ध्यान नहीं दे सका। मगर उसने दिल्ली में एक महल (दीन-ए-पनाह) और फतेहाबाद (हरियाणा) में एक मस्जिद बनवाया। ये दोनों ईरानी शैली के हैं।
शेरशाह ने भारत के तमाम वास्तुकला के सम्मिश्रण से सासाराम (बिहार) में एक मस्जिद बनवाया जिसमें क्रमशः बौद्ध-स्तूप, हिन्दू मंदिर और मुस्लिम कलाओं का सीधा प्रभाव है। आगे चलकर यह मस्जिद शेरशाह का मकबरा बन गया। मुगलों के आरंभिक भवनों में हुमायूं का मकबरा सबसे महत्त्वपूर्ण है। यह ‘चारबाग शैली’ का प्रथम मकबरा है जिसका निर्माण भारत में हुआ। मकबरे की आकृति इसी शैली से प्रभावित है और इसका गुम्बद भी ईरानी पद्धति से बना है। फतेहपुर सीकरी में अकबर का महल उल्लेखनीय है। यहाँ की सर्वोच्च इमारत ‘बुलंद दरवाजा’ है, जिसकी ऊँचाई भूमि से 176 फुट है। इसी दरवाजे से होकर शेख सलीम चिश्ती की दरगाह में प्रवेश करना होता है। बाईं ओर जामा मस्जिद और सामने शेख का मजार है। जामा मस्जिद को ‘शान-ए-फतहपुर’ कहा जाता है। फतेहपुर सीकरी की अन्य इमारतंे हैं - बीरबल का महल, पंच महल, दीवान-ए-खास, रानी जोधाबाई का महल आदि। इन भवनों का निर्माण मुख्य रूप से लाल-बलुआ पत्थर से हुआ है। इसके अतिरिक्त अकबर ने आगरा, इलाहाबाद, अजमेर तथा लाहौर में सुदृढ़ दुर्ग भी बनवाए और उन दुर्गों के भीतर उसने राजप्रासाद, साधारण वासस्थान, कार्यालय आदि बनवाए। जहाँगीर का काल स्थापत्य कला की दृष्टि से काफी सामान्य रहा। उसके द्वारा निर्मित सिकन्दरा में स्थित अकबर का मकबरा काफी प्रसिद्ध है। एत्मादुदौला के महल का महत्व यह है कि इसमें पहले-पहल संगमरमर के ऊपर पच्चीकारी का काम किया गया है। शाहजहाँ का काल मुगल स्थापत्य कला का स्वर्णयुग था। शाहजहाँ के काल की वास्तुकला दो संस्कृतियों के पारस्परिक संपर्कों का प्रतिफलन है। इसका विकास पहले से ही होता चला आ रहा था, परन्तु शाहजहाँ के काल में अपनी चरम अवस्था को प्राप्त किया। अकबर के फतेहपुर सीकरी की भाँति शाहजहाँ ने 1638 ई. में दिल्ली में अपने नाम पर ‘शाहजहानाबाद’ नामक एक नगरी की स्थापना की तथा वहाँ अनेक सुसज्जित भवनों का निर्माण किया। ‘शाहजहानाबाद’ के इन प्रमुख भवनों में ‘लाल किला’ है। इसका निर्माण काफी सुनियोजित ढंग से किया गया। इसकी लंबाई 3100 फुट तथा चैड़ाई 1650 फुट है। इसका मुख्य प्रवेश द्वार ‘लाहौरी द्वार’ वास्तुकला की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इसके अंदर एक प्रमुख भवन ‘नौबतखाना’ है, जिसके सामने ‘दीवाने-ए-आम’ स्थित है। इसके उत्तरी भाग में ‘दीवान-ए-आम’ और ‘रंग-महल’ है जो अत्यधिक आकर्षक है। शाहजहाँ को संगमरमर अत्यधिक प्रिय था। अतः प्रत्येक भवन में कुछ न कुछ संगमरमर का उपयोग किया गया है। दिल्ली के लाल किले के बाहर जामा मस्जिद है जो इस काल की बड़ी मस्जिदों में गिनी जाती है, परन्तु कला की दृष्टि से यह बहुत उत्कृष्ट नहीं है। इसमें तीन प्रवेश द्वार हैं, जिनमें पूर्वी प्रवेश द्वार से बादशाह नमाज पढ़ने आया करता था तथा अन्य दो प्रवेश-द्वारों से सामान्य प्रजा आया करती थी। शाहजहाँ के समय का सबसे सुन्दर वास्तुकला का नमूना उसकी बीवी मुमताज बेगम की समाधि विश्व-विख्यात ‘ताजमहल’ है। यह आगरा मंे यमुना नदी के तट पर सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों के बीच में खड़ा है। ताजमहल की स्थापत्य-कला शैली के संबंध में पर्सी ब्राउन का विचार है कि ”इसका निर्माण दिल्ली में निर्मित हुमायूं के मकबरे तथा ‘खानखाना के मकबरे’ की शैली के आदर्श पर हुआ था।“ ताजमहल 22 फुट ऊँचे चबूतरे पर स्थित है - एक मुमताज महल बेगम की तथा दूसरी शाहजहाँ की। इन समाधियों को रंग-बिरंगे पत्थरों की सहायता से बने हुए फूल-पत्तियों द्वारा सुसज्जित एवं अलंकृत किया गया है। ताजमहल के ऊपरी भाग पर एक सुन्दर तथा सुडौल गुम्बद स्थित है तथा प्रत्येक मीनार की ऊँचाई 137 फुट है। इसके प्रवेश द्वार पर पवित्रा कुरान की आयत लिखी हुई है। इसमें मकराना (राजस्थान) से लाये गये संगमरमर का उपयोग हुआ है। इसकी भव्यता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसके निर्माण में लगातार सत्राह वर्ष लगे एवं तीन करोड़ रुपये से अधिक का व्यय हुआ था। औरंगजेब के समय भवन निर्माण के कार्य में कोई खास विकास नहीं हुआ। इसके अनेक कारण थे। प्रथम तो यह कि उसकी ललित कलाओं के प्रति रूचि न थी। दूसरा उसका संपूर्ण जीवन विद्रोहियों के दमन करने में व्यतीत हुआ। दिल्ली के किले के अन्दर औरंगजेब ने संगमरमर की एक मस्जिद का निर्माण करवाया और इसका नाम ‘मोती मस्जिद’ रखा। यह मस्जिद शाहजहाँ द्वारा निर्मित आगरे की मोती मस्जिद जैसी नहीं है। औरंगजेब के काल की दूसरी महत्त्वपूर्ण मस्जिद ”लाहौर की बादशाही मस्जिद“ है इसकी स्थापत्यकला शैली दिल्ली की ”जामा मस्जिद’’ की भाँति है किन्तु उतनी सुन्दर एवं वैभवशाली नहीं है। औरंगजेब ने औरंगाबाद में अपनी पत्नी राबिया-उद-दौरानी के मकबरे का निर्माण करवाया था। इसकी स्थापत्य शैली ताजमहल पर आधारित है। फलतः इसे द्वितीय ताजमहल भी कहा जाता है। किन्तु ताज वाली सुन्दरता इसमें नहीं है। बाद के मुगल शासकों ने इस पर ध्यान नहीं दिया।
मुगल सम्राट के हिन्दू-मुस्लिम मनसबदारों, राजपूताना और मध्य भारत के राजपूत शासकों, बीजापुर और गोलकुंडा के सुल्तानों, धार्मिक संप्रदायों के नेताओं तथा सेठ-साहूकारों ने भी इस काल में अनेक इमारतें बनवायी किन्तु उनमें से अधिकांश काल एवं शत्राुओं के आघातों के कारण नष्ट-भ्रष्ट हो गयी है। जो बच गयी है, उनमें मानमन्दिर (ग्वालियर), गोविंददेव का मंदिर (वृन्दावन), हवामहल (जयपुर), जन्तर-मन्तर (दिल्ली, उज्जैन, जयपुर, मथुरा), गोलगुम्बज (बीजापुर) और अमृतसर का सिक्ख मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
1857 ई. के विद्रोह के पश्चात् अंग्रेजों ने वास्तुकला पर ध्यान दिया। अंग्रेजों ने बंगला (कोठी), चर्च व कार्यालय तक ही अपने आपको सीमित रखा। अंग्रेजों ने अपनी वास्तुकला की यात्रा ग्रीक व रोमन शैली से आरंभ की मगर स्थानीय स्वरूप को भी प्रश्रय दिया जैसे कि गुम्बद व स्ंतभों का उपयोग। कलकत्ता से दिल्ली राजधानी के स्थानान्तरण के पश्चात् वास्तुकला में काफी बदलाव आया। दिल्ली शहर को बिल्कुल नए ढंग से बसाया गया। इसमें महान् वास्तुविद् वाल्लेयर जार्ज का योगदान सबसे अधिक है। आधुनिक राष्ट्रपति भवन एवं पुराने सेंट स्टीफेन काॅलेज की वास्तुकला सराहने योग्य है। उपरोक्त सभी भवनों पर भारतीय वास्तुशैली का भी प्रभाव पड़ा है। मुगलकाल के विपरीत इन भवनों को सरल व सामान्य ढंग से बनाया गया है। आजादी के बाद वास्तुकला का विकास नयी-नयी खोजों के साथ होता रहा।
‘नागर शैली’
नागर शैली का मंदिर चैपहला या वर्गाकार होता है। हिमालय से विन्ध्याचल के बीच में इसी शैली के मंदिर पाये जाते है। साधारणतः मध्य प्रदेश इसका केन्द्र रहा है। इसी प्रकार एक ओर बंगाल और उड़ीसा, दूसरी ओर गुजरात और महाराष्ट्र तक इस शैली का विस्तार रहा है। वैसे, इस शैली का क्षेत्राीय नामकरण भी हुआ है। उड़ीसा में ‘कलिंग’, गुजरात में ‘लाट’ और हिमालय क्षेत्रा में ‘पर्वतीय’ कहा गया है।
‘द्रविड़ शैली’
द्रविड़, शैली और भौगोलिक क्षेत्रा दोनों का पर्याय है। इस शैली का क्षेत्रा कृष्णा नदी से लेकर कुमारी अन्तरीप तक है। इसमें गर्भगृह के ऊपर का भाग सीधा पिरामिडनुमा होता है। उनमें कितनी ही मंजिल होती हैं। आंगन का मुख्य द्वार, जिसे गोपुरम कहते है, इतना ऊँचा होता है कि अनेक बार वह प्रधान मंदिर के शिखर तक को छिपा लेता है।
‘बेसर शैली’
नागर और द्रविड़ शैलियों का मिश्रित रूप ही बेसर शैली कहलाता है। विन्यास (खाका) में यह द्रविड़ शैली का होता है और क्रिया अथवा रूप में नागर शैली का। शैली का प्रसार विन्धाचल से कृष्णा के बीच में हुआ है, पर इन शैलियों के प्रसार का अनुबंध अनुल्लंघनीय नहीं है। नागर शैली के कुछ मंदिर दक्षिण में भी मिले हैं और द्रविड़ शैली के उत्तर में। वृन्दावन का विशाल वैष्णव मंदिर द्रविड़ शैली का ही है।
मौर्यकालीन स्थापत्य - मौर्यकालीन स्थापत्यकला को निम्न भागों में बाँटा जाता है - राजप्रासाद, शैल गुहाएं, लाट और स्तंभ शीर्ष, एकाश्म वेदिका, स्तूप आदि।
ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि प्राचीन शैली के आधार पर निर्मित नगर महापथों द्वारा चार खंडों में विभक्त था। बीच में उद्यानों के मध्य अनेक भवनों सहित विशाल राजप्रासाद निर्मित था। इसके ध्वंसावशेष से ज्ञात होता है कि यह विशेषतः काष्ठ निर्मित था। चन्द्रगुप्त मौर्य की भांति अशोक ने भी एक राजप्रासाद का निर्माण कराया था, जिसमें पत्थर का प्रयोग, दीवालों और तोरणों की व्यवस्था, चिन्ताकर्षक नक्काशी तथा सुन्दर मूत्र्तियां उत्कीर्ण थीं। इस तरह मौर्यकाल में भवन के निर्माण में काष्ठ का प्रयोग बहुलता से किया गया था। मौर्यकला की सर्वोत्कृष्ट कृतियां अशोक के एकाश्म प्रस्तर स्तंभ है। प्रत्येक स्तंभ को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-लाट और स्तंभ शीर्ष। लाट एक शुंडाकार दंड है जिसकी लंबाई 40 फुट से 50 फुट तक है। स्तंभ-शीर्ष लाट की चोटी पर स्थापित रहता है। यह तीन अंगों में विभक्त हेाता है - उल्टा कमल और घंटा, आधार पीठिका, पशु और कभी-कभी पशुओं के ऊपर स्थापित धर्मचक्र। इसके निर्माण में लाल बलुए पत्थर का प्रयोग किया गया है।
शुंग-सातवाहनकालीन स्थापत्य - इस काल में स्थापत्यकला का पर्याप्त विकास हुआ। इस काल की कला की निम्नलिखित विशेषताएं थीं -
(क) मौर्यकालीन स्थापत्य में लकड़ी, कच्ची ईंटों और मिट्टी का प्रयोग होता था, किन्तु शुंग काल में उसके निर्माण में पत्थर का प्रयोग किया गया।
(ख) इस काल की कला से लोक जीवन का दर्शन होता है।
(ग) शुंग-सातवाहन काल में शैलड्डकृत गुफाओं का व्यापक पैमाने पर निर्माण हुआ।
कुषाण कालीन स्थापत्य - वस्तुतः कुषाण काल में मूत्र्तिकला के क्षेत्रा में उल्लेखनीय कार्य हुआ। परन्तु अनेक धर्मों के विकास के कारण स्मारकों का बहुसंख्या में निर्माण हुआ। अशोक की भांति कनिष्क ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अनेक बौद्ध स्तूप और विहार निर्मित कराए थे।
‘गुप्तकालीन मंदिर’
गुप्तकालीन मंदिरों में सबसे भव्य और महत्वपूर्ण मंदिर देवगढ़ (झांसी के पास) और भीतरगांव के हैं। इन मंदिरों में रामायण, महाभारत और पुराणों की विषय-वस्त का उपयोग पहली बार हुआ। देवगढ़ का मंदिर दशावतार का है और पत्थरों से बना है। मंदिर की दीवारों पर सर्वत्रा रामायण के दृश्य हैं। द्वारपालों के स्थानों पर गंगा-यमुना की मूर्ति है। भीतरगांव का विष्णु मंदिर कानपुर जिले में है। यह ईटों का बना नक्काशीदार है। मध्यप्रदेश में भभूरा का शिवमंदिर भीतरगांव के मंदिर से मिलता-जुलता है। गर्भगृह इसका वर्गाकार है जो पहले दीवार से घिरा था और दोनों के बीच प्रदक्षिणा-मार्ग बना था जिससे सामने का मंडप जुड़ा था। भभूरा के मंदिर का सबसे अद्भूत और अभिराम अवशेष उसका आयताकार ऊँचा लाल पत्थर का पट्ट है।
भारत की प्रसिद्ध मस्जिदें
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भारतीय मुसलमानों के प्रमुख त्यौहार
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चालुक्य कला - बेसर शैली को चालुक्य शैली भी कहा जाता है। चालुक्य तथा होयसलकालीन मंदिरों की दीवारों, छतों तथा इसके स्तंभों, द्वारों आदि का अलंकरण बड़ा सजीव तथा मोहक है। चालुक्य और होयसल राज्य के अनेक मंदिर आज भी अपनी विशिष्टता के लिए मशहूर हैं। पट्कदल के दो मंदिर अपने ऐश्वर्य में असाधारण है। इनमें एक लोकेश्वर शिव का है दूसरा पापनाथ का। दोनों का निर्माण आठवीं शताब्दी में हुआ है। लोकेश्वर शिव का मंदिर कांची के कैलाशनाथ मंदिर के सदृश्य बना हुआ है। उसका निर्माण चालुक्य राजा विक्रमादित्य की रानी ने 740 ई. के लगभग कराया था। मंदिर विशाल, प्रदक्षिणा पथ और मंडप से संयुक्त है। इसका शिखर पांच मंजिल का है। चैखटों और स्तंभों पर नाग-नागिन एवं रामायण के दृश्य खुदे हैं। इस मंदिर को ‘विरूपाक्ष’ मंदिर भी कहा जाता है। इस मंदिर का वास्तुकार गंग था जिसको ‘त्रिभुनाचार्य’ की उपाधि मिली। इस मंदिर की गणना भारत के भव्यतम मंदिरों में होती है। पापनाथ का मंदिर विशुद्ध बेसर शैली की है।
पल्लव शैली के मंदिर - पल्लव शैली का जन्म द्रविड़ शैली से ही हुआ। पल्लव स्थापत्य को चार राजाओं का सर्वाधिक संरक्षण प्राप्त था, फलतः शैलियों ने भी इन राजाओं के नाम का प्रतिनिधित्व किया। इनमें प्रथम शैली ‘महेन्द्र वर्मन शैली’ है। इस शैली के मंदिर-निर्माण कार्य में ईंट, लकड़ी, पत्थर आदि का उपयोग होता था। इस शैली के मंदिरों का स्तंभ चैकोरे और बीच में अठपहले होते थे। द्वार पर द्वारपालों का निरूपण हुआ था। इस शृंखला की द्वितीय शैली ‘नरसिंह वर्मन’ या ‘मामल्लध्शैली’ है। इस शैली के अन्तर्गत कन्दराओं के सुन्दरीकरण पर खासा ध्यान दिया गया। इसके अन्तर्गत एक ही पत्थर से कटे हुए स्वतंत्रा स्तंभों की शैली चलाई। झरोखों के मेहराबों पर काफी ध्यान दिया गया। मंदिर के ऊपर के खण्ड के अधिकांश कला मामल्लध्पुरम में ही केन्द्रित हैं। मामल्लध्शैली का ही विकसित रूप ‘महेन्द्र वर्मन’ शैली कहलाया। इसका सबसे अच्छा उदाहरण ‘रथ पांच’ है। इसमें पांच रथ एक ही पत्थर को काटकर अलग-अलग ढंग से बनाया गया है। इसमें द्रौपदी और गणेश रथ को मिलाकर ‘सात पगोडा’ भी कहते है। वैसे, इस मंदिर का नाम पांच पांडव है मगर वास्तविक रूप में यह शैव मंदिर है। कन्दरा कला के स्थान पर एक स्वतंत्रा शैली का जन्म राजसिंह वर्मन द्वारा किया गया, इसे ही ”राजसिंह वर्मन शैली“ कहते हैं। इस शैली मेंस्थापत्यकला की सभी विशिष्टताएं एक साथ प्रकट होती हैं। कांचीपुरम का कैलाशनाथ और मामल्लध्पुरम का सागरतटीय मंदिर इसी नयी परम्परा का उदाहरण है। कैलाशनाथ मंदिर एक वृहत्त आयताकार प्रांगण मेंस्थित है। इसका गर्भगृह पिरामिड के आकार का और मंडप की छत समतल है। सागरतटीय मंदिर का निचला मंजिल वर्गाकार है तथा शीर्षभाग पिरामिडाकार है जो ऊँचाई के साथ छोटे होते जाते हैं और अन्त में छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़ों से बने हैं। पल्लव शैली मूलतः बौद्ध चैत्योंमें ही विकसित हुई पर शीघ्र ही उसने अपना द्रविड़ रूप स्पष्ट कर लिया। फलतः पल्लवों की शैलियोंको हम द्रविड़ शैली की विकसित हो रही अवस्थायेंकह सकते हैं।
चोलकालीन वास्तुकलायें - चोलोंने पल्लवोंकी स्थापत्य-परम्परा को आगे बढ़ाया। दक्षिण मेंअनेक प्रकार के मंदिरोंका निर्माण हुआ। चोलकालीन मंदिरोंने द्रविड़ वास्तुकला को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। राजराज प्रथम का तंजौर का शिव मंदिर जिसे राजराजेश्वर मंदिर भी कहा जाता है, यह द्रविड़ शैली का एक जाज्वल्यमान नमूना है। इसका आधार 82 वर्ग फुट है एवं ऊँचाई 192 फुट है। इसके भव्य विमान पर तेरह खंडों (तल्लो) में पिरामिडनुमा ऊपर उठता शीर्ष है जिस पर मनमोहक स्तूपिका स्थापित है। उपरोक्त वर्णित राजराज के शिव मंदिर से कम भव्य परंतु अधिक सुन्दर तंजौर नगर का ही सुब्रह्मण्यम मंदिर है जिसका शिखर भी उच्चतम एवं कलात्मक ढंग से अलंकृत है। अपनी नवीन राजधानी गंगईकोंड चोलपुरम मेंराजेन्द्र प्रथम द्वारा निर्मित मंदिर चोल वास्तुकला का अन्य प्रभावशाली उदाहरण है। उसका विशाल आकार, ठोस पाषाण का विराट लिंग और पाषाण में उत्कीर्ण मनोरम आकृतियां, इसकी असाधारण विशेषताएं हैं। इसमेंनिर्मित विमान तथा मंडप बहुत वृहत्त है। वृहदेश्वर मंदिर की अपेक्षा इसमेंअलंकरण अधिक है। दारसुरम मेंऐरावतेश्वर तथा त्रिभुवन मेंत्रिभुवनेश्वर के मंदिर भी इसी शैली मेंनिर्मित उत्कृष्ट कला के नमूने है। राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्रथम द्वारा बनवाया गया कैलाश मंदिर (एलोरा में), प्राचीन भारतीय वास्तु एवं तक्षण कला का भारत भर मेंशायद सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। यह समूचा मंदिर गिरिपाश्र्व से तराशा गया है। कैलाश मंदिर के प्रांगण की लंबाई 276 फुट और चैड़ाई 154 फुट है। मंदिर के चार खंड और कई प्रकोष्ठ हैं और इसका शिखर भी कई तलोंसे मिलकर बना है। यह भी द्रविड़ शैली का उदाहरण है।
स्थानीय शैलियोंका उदय
भारतीय इतिहास के मध्यकाल मेंराजपूत शक्तियोंका उदय हुआ, इसमें विदेशी एवं स्थानीय जातियोंका समावेश था। पूर्वकालिक वर्ग के रूप मेंगुर्जर-प्रतिहार, पाल, परमार, कलचूरी आदि थे। उत्तर कालीन वर्ग मेंसेन, गढ़वाल, चैहान (चाहुमान), चंदेल, गंग, सोलंकी आदि थे। इन लोगोंमें आपसी प्रतिस्पर्धा और विद्वेष बना रहा। पर इनमेंसे प्रत्येक ने स्थानीय कला को संरक्षण प्रदान किया। इस काल की प्रमुख विशेषता है - स्थानीय परिवेश के साथ कलाओं का विकसित होना। इस युग मेंवास्तुकला की उन्नति उड़ीसा, राजस्थान व गुजरात में अधिक हुई। कश्मीर एवं पर्वतीय हिमाचल ने भी मंदिर निर्माण में अपना योगदान दिया।
‘उड़ीसा के मंदिर’
भारत के उत्कृष्ट नागर मंदिर उड़ीसा के हैं जिसमें भुवनेश्वर, पुरी और कोणार्क के मंदिर काफी महत्वपूर्ण हैं। संसार के किसी देश के एक भू-भाग मेंगुणात्मक एवं परिमाणात्मक रूप से ऐसे मंदिर निर्माण के उदाहरण नहीं मिलते हैं। इस आधार पर उड़ीसा को मंदिरोंका देश कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उड़ीसा के मंदिरोंमेंप्राचीनतम परशुरामेश्वर का मंदिर आठवीं सदी के मध्य या संभवतः आरंभ का है। परशुरामेश्वर का मंदिर यद्यपि बहुत विशाल नहीं है, परन्तु इसको अति सुन्दर ढंग से अलंकृत किया गया है। गर्भगृह त्रि-रथ विन्यास विधि से बना है। त्रि-रथ विन्यास विधि में पाभाग (आधार), जांघ (सीधी खड़ दीवार का भाग), बंरड (ऊपरी शिखर के बीच का भाग) रहते हैं। यह मंदिर मात्रा 44 फुट ऊँचा है। परशुरामेश्वर से थोड़ी दूरी पर मुक्तेश्वर का मंदिर है। यह मंदिर मात्रा 35 फुट ऊँचा है। गर्भगृह मात्रा साढ़े सात फुट का है। फरग्यूसन ने इसे ”उड़ीसा शैली का रत्न“ कहा है। मुक्तेश्वर के बाद उड़ीसा के मंदिरों मेंपरिवर्तन होता है। शिखर काफी विशाल हो जाता है मगर उसका ऊपरी भाग मधुमक्खियोंके छत्ते की भाँति अलंकृत रहता है। उड़ीसा शैली (नागर शैली का ही रूप) का सर्वश्रेष्ठ मंदिर भुवनेश्वर का ‘लिंगराज’ मंदिर है। उड़ीसा के अधिकांश मंदिरोंके समान लिंगराज का मंदिर चार विशाल कक्षों के क्रम मेंनिर्मित है - एक पूजा कक्ष, एक नृत्य कक्ष, एक सभा कक्ष (जगमोहन) तथा एक देवालय है। देवालय के ऊपर विशाल शिखर है और अन्य कक्षों पर छोटे-छोटे शिखर हैं जो आगे बढ़कर देवालय के शिखर से मिल जाते हैं। भारत के मंदिरोंमेंसंभवतः यह सबसे शालीन और गौरवशाली है। यह मंदिर लगभग 1000 ई. के आस-पास का है। उड़ीसा के मंदिरोंमेंप्रधान तीन और मंदिर है - पुरी का वैष्णव जगन्नाथ मंदिर, कोणार्क का सूर्य मंदिर और भुवनेश्वर का बैताल-देउल मंदिर। पुरी का वैष्णव-जगन्नाथ मंदिर जो बना तो था बाहरवीं सदी मेंमगर उसमें पूजा आज भी होती है और हिन्दुओंके चार धामोंमेंउसकी भी गणना है। जगन्नाथ मंदिर लिंगराज मंदिर की तरह विशाल है। चारांे दिशाओंमें चार द्वार है, प्रधान द्वारा पूरब की ओर था, जहाँ एक ही पत्थर का बना आज ‘अरूण-स्तंभ’ खड़ा है। कला की दृष्टि से यह मंदिर काफी निम्न श्रेणी का है। ‘कोणार्क का मंदिर’ (काला पैगोडा) सूर्य देवता का मंदिर है जो भारत के सबसे विशाल एवं भव्य मंदिरों मेंसे एक था तथा जो भुवनेश्वर के मंदिरों से कहीं बड़ा था। इस मंदिर का 200 फीट से अधिक ऊँचा शिखर बहुत दिन हुए गिर गया परंतु उसका विशाल सभा भवन अब भी है। इसका निर्माण राजा नरसिंह देव ने 1236 से 1264 के बीच कराया था। संभवतः निर्माण की कुछ समस्याओंके कारण मंदिर कभी पूरा न हो सका जिसका परिणाम हुआ कि जगमोहन तो बन गया, पर उसके पीछे रेखा शिखर स्थूल ही बनकर रह गया। इसके निर्माण की योजना उड़ीसा के अन्य मंदिरों की ही भाँति है। संपूर्ण मंदिर एक रथ का प्रतिनिधित्व करता है। जैसे सूर्य देवता आकाश मेंभ्रमण कर रहे हों। प्रवेश द्वार तक पहुँचने के लिए चैड़ी सीढ़ियोंसे होकर जाना होता है जिसके दोनों ओर उछलते हुए घोड़े बने हैं। मंदिर का आंगन स्वतंत्रा रूप से स्थित सुन्दर एवं दृढ़ मूत्र्तियों से अलंकृत है। कामसूत्रा के सभी ‘बंध’ एवं रतिक्रिया के जितने भी संभावित आसन सोचे जा सकते हैं वे सारे, कलाकारोंकी छेनी से वहाॅं बनाये गये हैं। उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि कोणार्क का मंदिर इन मूत्र्तियोंके वास्तविक अलंकरण का उद्देश्य समझाने के लिए अनेक स्पष्टीकरण किए हुए है। उपरोक्त तथ्योंसे स्पष्ट होता है कि कोणार्क का मंदिर एक सफल तांत्रिक संप्रदाय का केन्द्र था। उड़ीसा कपरकोटे के भीतर और सभा मंडप के पीछे अपना गर्भगृह लिए ऊँचे आधार पर यह मंदिर खड़ा है। इसका गर्भगृह 25 फुट लंबा और 18 फुट चैड़ा है। शिखर उड़ीसा के मंदिरों के शिखरों से भिन्न प्रकार का प्रायः पीपानुमा है जो दक्षिण के द्रविड़ मंदिरों का आभास उत्पन्न कराता है।
‘राजस्थान में मंदिर’
राजस्थान के मंदिर गुजरात और पश्चिमी भारत के मंदिरों से शैली में अधिक मिलते हैं। यहाँ अनेक कालों के मंदिर के अवशेष मिले हैं। सबसे पुराने मन्दिर जयपुर के पास बैराम में पाये गये हैं जो मौर्यकालीन माने जाते हैं। ओसिया का सूर्य मंदिर भी काफी महत्वपूर्ण था। राजस्थान के मंदिरों में दिलवाड़ा का जैन मंदिर सर्वश्रेष्ठ है। माउंटआबू के लगभग 4000 फुट ऊँचे पर्वत पर, शांत और शीतल वातावरण में इस जैन मंदिर का निर्माण हुआ है। पास ही दिलवाड़ा का वह छोटा-सा गांव है जिसके नाम पर इस मंदिर का लोकप्रिय नाम पड़ा है। इस परिसर में चार प्रधान मंदिर हैं। इसमें से दो-विमल वसही ओर लून वसही अपने अद्भूत अलंकरणों से जगतप्रसिद्ध हैं। इनका निर्माण विमल और तेजपाल ने चालुक्य राजा भीम द्वितीय के समय कराया। इन दोनों मंदिरों में से प्रथम, जैन तीर्थंकर ऋषभनाथ का है। मंदिर चतुष्कोणीय प्रंागण में खड़ा है जिसमें प्रवेश दो हाॅलों से होकर होता है जिसमें एक आयताकार है दूसरा वर्गाकार। इन मंदिरों में दो मंडप एवं एक सभागृह है। तीनों का निर्माण काल एक नहीं है।
काले पत्थरों से निर्मित गर्भगृह प्राचीनतम् है जबकि सफेद संगमरमरों से बने हाॅल और स्तूप बाद के हैं।
”चालुक्य सोलंकी कला“
गुजरात में मंदिरों का निर्माण चालुक्य सोलंकी राजाओं के द्वारा हुआ। वस्तुतः वहाँ के नरेश उनके मंत्रिगण और समृद्ध सेठ सभी वास्तु निर्माता थे। गुजरात में विशेषकर काठियावाड़ में नागर और बेसर दोनों शैलियों के मंदिर बने हैं। इस प्रकार का एक मंदिर काठियावाड़ के बरवा पहाड़ियों में गोप नामक स्थान पर आज भी खड़ा है। यह उस क्षेत्रा का सबसे प्राचीन छोटा-सा मंदिर है जिसके दो आधार हैं। मंदिर सादा और अलंकार रहित है। गुजरात में आगे चलकर नागर शैली का दूसरा नाम सोलंकी शैली भी पड़ गया। गुजरात का नीलकंठ महादेव मंदिर इस विद्या का पूर्ण उदाहरण है जो भाग्यवश पूर्णतः सुरक्षित भी है। इसमें सामने सभा मंडप भी है और पीछे गर्भगृह से जुड़ा गूढ़मंडप भी। दीवारों, स्तंभों और गुंबज की भीतरी छत सभी अत्यंत आकर्षक अलंकरणों से सुसज्जित है। इसी शैली के कुछ मंदिरों में घुम्ली का एवं सेजकपुर का नवलखा मंदिर काफी प्रसिद्ध है। दोनों काठियावाड़ में हैं। दोनों ही पर्याप्त अलंकृत हैं और अपनी आरंभिक अवस्था में निश्चय ही सोलंकी परिवार के विशिष्ट देवालय रहे होंगे। गुजरात के मंदिरों में सबसे प्रमुख सोमनाथ का शिव मंदिर है। हालाँकि, यह मंदिर बार-बार मानव बर्बरता से विनष्ट होकर बनता रहा है। 1025 ई. में महमूद गजनी ने इसे तोड़ा और अपार संपत्ति लूटकर ले गया था। कुमारपाल ने इसे फिर से ग्यारहवीं सदी के मध्य बनवाया। यह मंदिर बेसर शैली का उदाहरण है।
‘खजुराहो के मंदिर’
मध्य प्रदेश के वास्तुकला को गुप्त राजाओं के बाद चंदेलों के समय काफी प्रोत्साहन मिला। खजुराहो का मंदिर चंदेल नागर शैली का एक अच्छा उदाहरण है। खजुराहो के मंदिर उड़ीसा के मंदिरों की भाँति अनेक देवताओं का परिवार लिए मंडपों आदि से जुड़े नहीं हैं। इनका भवन एक है जिसके गर्भगृह, अंतराल, मंडप और अर्द्ध मंडप अंग है। खजुराहो के मंदिरों को घेरनेवाले अन्यत्रा मंदिरों के विपरीत, कोई परकोटा नहीं है। शिव मंदिरों में प्रधान कंडरिया महादेव और विश्वनाथ मंदिर है। वैष्णव मंदिरों में रामचंद्र तथा चतुर्भुज और जैन मंदिरों में प्रधान पाश्र्वनाथ हैं। कंडरिया महादेव और विश्वनाथ मंदिर खजुराहो के वास्तु में अनमोल हैं। दोनों प्रायः एक-से हैं, अन्तर दोनों में बस इतना है कि कंडरिया महादेव का मंदिर विश्वनाथ से अधिक ऊँचा है। परमार लोग भी कला के प्रति काफी संवेदनशील थे। मंदसौर से धार को जाने वाले अनेक मार्गों पर परमारों द्वारा बनवाये गये विशाल मंदिर आज भी खड़े है। राजा भोज द्वारा निर्मित सरस्वती विद्यालय, भोजनशाला आज भी धार में मस्जिद के रूप में खड़ा है।
‘पर्वतीय मंदिर’
कश्मीर आरंभ से ही काफी महत्त्वपूर्ण रहा है। कश्मीर के वास्तुकला में ललितादित्य का काफी योगदान रहा है। उसके द्वारा निर्मित ‘मार्तण्ड’ नाम का सूर्य मंदिर काफी प्रसिद्ध है जिसके खण्डहर अतीत का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। यह मंदिर 220 फुट लंबा और 142 फुट चैड़ा है और इसकी बाहरी दीवार खंभों की हैं। आगे इस मंदिर की सूर्य पूजा की विशिष्ट क्रियाओं के लिए एक मंडप भी बना है जो बाद के मंदिरों में नहीं है। इस पर गंधार कला का काफी प्रभाव है। हिमालय और विंध्याचल के बीच अनेक नागर शैली के मंदिर हैं। कंागड़ा, चंबा, कुलू और कुमाऊँ क्षेत्रा में अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ था। कांगड़ा के मसरूर में नागर शैली की अनेक मंदिरें कतार में खड़ी हैं। ये सभी मंदिरें आठवीं सदी में पत्थरों को काटकर बनायी गई हैं। इसके अतिरिक्त कुछ मंदिरें ईंट एवं पत्थरों से भी बने हैं। इसमें एक प्रसिद्ध मंदिर वैद्यनाथ (शिव का) का मंदिर है। इसकी छत सपाट और उसके चारों ओर उडीसा के बेताल-देउल मंदिर की भाँति रेखा-शिखर हैं। कुल्लू का हटकाविशेश्वर मंदिर भी काफी कलात्मक ढंग से बनाया गया है। उसके तीन ओर अनेक मूत्र्तियाँ बनी हैं जिसमें विशिष्ट दुर्गा, विष्णु और गणेश हैं। इसी परंपरा में गढ़वाल के बद्रीनाथ और केदारनाथ में भी देवमंदिर बने। आज यह हिन्दुओं के चार महत्वपूर्ण तीर्थों में एक है। पूर्व मध्यकाल तक वास्तुकला की प्रासंगिकता अधिकांशतः मंदिरों तक है। हालांकि कुछ राजाओं ने सुन्दर पत्थर के प्रासाद एवं प्रवेश द्वार बनवाये मगर इसकी संख्या गुणात्मक एवं परिणात्मक दोनों ही दृष्टिकोण से कम है। हाँ, मध्यकाल में आकर यही वास्तुकला का मुख्य ध्येय रहा है।
‘सल्तनत कालीन वास्तुकला’
मध्यकाल के आरंभिक सुल्तान और शासकों ने भी वास्तुकला के विकास पर पर्याप्त ध्यान दिया। मुसलमान अपने साथ निश्चित स्वरूप वाले बहुआयामी कलाओं को लाये थे और ये कलायें भौगोलिक व पर्यावरणीय लिबास से ढकी थी। भारतीय कलायें इनसे रू-ब-रू होकर, एक द्विआयामी धारा में बहने लगी। बाद में चलकर दोनों के बीच सीमा निर्धारित करना असंभव नहीं अपितु कठिन अवश्य हो गया। दो कलाओं का स्वरूप इस प्रकार था - मुस्लिम कला की विशेषताएं, विशाल भवन, विराट गोल गुम्बद, ऊँची मीनारें, खुले आंगन एवं साफ और सुथरी दीवारें थीं। भारत की गोद में प्रकृति शांत भाव से विश्राम करती रही है। फलतः भारतीय कलाओं में विशालता, विस्तार, मनोरम पुष्प, पत्ती, लता आदि की बहुलता है। भारत में गुलाम वंश के सुल्तान कुतुबद्दीन ऐबक ने प्रथम मुस्लिम वास्तुकला का परिचय ‘कुव्वत-उल-इस्लाम’ मस्जिद बनाकर दिया। इसका निर्माण दिल्ली विजय की स्मृति में किया गया था। इसके भीतर एक खुला चतुष्कोणीय आंगन है जो चारो ओर से दलान से घिरा है। इसी से मिलता-जुलता ‘अढ़ाई दिन का झापड़ा’ अजमेर में बनवाया गया था। इन दोनों में हिन्दू-इस्लामी स्थापत्य कला की मजबूती और सौंदर्य की समन्वित विशेषताएं पहली बार उभर कर आती हैं। कुतुब-मीनार भी मुस्लिम स्थापत्य का एक अच्छा नमूना है। हालांकि मीनार का उद्देश्य इबादत के लिए बुलाए जाने से है मगर इसकी ऊँचाई (72.5 मी.) उद्देश्य को स्पष्ट नहीं कर पाती है। अतः इसके निर्माण का उद्देश्य एक नए शासक वर्ग की शक्ति के एक विजय-स्तंभ से था। ‘इल्तुतमिश का मकबरा’ अपने उद्देश्य को स्पष्ट करता है। इसकी दीवारें व फर्श ‘कुरान-ए-शरीफ’ की पवित्रा आयतों से सुशोभित है। इसका निर्माण भी कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद (दिल्ली) के परिसर में हुआ है। अलाउद्दीन खिलजी ने नई दिल्ली में ही ‘जमात-ए-खाना’ मस्जिद का निर्माण कराया। यह प्रथम मस्जिद है जो पूर्णतः इस्लामी कला का प्रतिनिधित्व करता है। तुगलक काल में इसका विस्तार हुआ। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा निर्मित ‘अलाई दरवाजा’ भी अच्छा कलात्मक नमूना पेश करता है। यह लाल पत्थर का है किन्तु कहीं-कहीं संगमरमर का भी प्रयोग किया गया है। इसमें एक वर्गाकार कमरा है, जिसकी छत गुम्बदनुमा है और इसके चारों ओर मेहराबदार प्रवेश द्वार है। तुगलकों की वास्तुकला में समकालीन राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक समस्याओं की झलक मिलती है। सजावट की अपव्ययी प्रदर्शन और अन्दरूनी भाग की सुन्दरता ने पुरानी रूढ़िवादी सादगी को स्थान दिया। तुगलकों द्वारा लाल बलुआ पत्थर के स्थान पर स्थानीय भूरे पत्थर का उपयोग हुआ। ग्यासुद्दीन तुगलक और मोहम्मद तुगलक का स्थापत्य कला के क्षेत्रा में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं है। फिरोजशाह तुगलक ने फिरोजशाह कोटला और वहीं पर आठ सार्वजनिक मस्जिदें, एक निजी मस्जिद व तीन महल बनवाये। अफगान कला की अत्यधिक महत्वपूर्ण मस्जिदों में दिल्ली की बड़ी गुम्बद मस्जिद, मेरठ की मस्जिद तथा जमाली-कमाली मस्जिद है। ये मस्जिदें दिल्ली में ही हैं। यह पाँच विविध रूपों वाली मेहराबों से बनी हैं जिसमें कि मध्य मेहराब आकार में सबसे बड़ी है। मस्जिद के ऊपर तीन समानुपातिक गुंबद है फलतः इन्हें पंचमुखी कहा जाता है।
मस्जिद के अतिरिक्त मदरसे, किले, महलों और खानकाहों का निर्माण हुआ।
मामलुक सुल्तानों ने भी इसका खासा ध्यान रखा। अलाउद्दीन खिलजी के अन्य स्मारकों में सीरी का नगर, हौज-ए-अलाई और हौज खास का तालाब है। ये सभी वास्तुकला के अच्छे उदाहरण हैं। मुहम्मद तुगलक ने भी आदिलाबाद में छोटा किला बनवाने का प्रयास किया। दिल्ली में सीरी की दीवारों को पुरानी दिल्ली से जोड़ा और एक नगर का नाम जहाँपनाह रखा। फीरोजशाह तुगलक को भी दुर्गों व महलों को बनाने का श्रेय प्राप्त है। सिकन्दर लोदी ने अपनी नई राजधानी आगरा को काफी खूबसूरत ढंग से सजाया था।
बंगाल और जौनपुर
प्रान्तीय शासकों ने भी वास्तुकला के विकास में काफी ध्यान दिया। खास तौर पर जौनपुर और बंगाल का महत्व काफी है। जौनपुर का ‘अटाला मस्जिद’ अपनी उत्तम वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है। इसकी बाह्य रूपरेखा भारत की अन्य मस्जिदों की तरह है। इसका निर्माण कार्य इब्राहीम शाह शर्की के समय पूरा हुआ। इस्लाम की बहुत थोड़ी सी मस्जिदें ऐसी हैं जिनका अनुपात इतना प्रभावशाली हो या जिसकी शैली इतनी आकर्षक हो जितनी अटाला मस्जिद की है। बंगाल की ‘अदीना मस्जिद’ भी वास्तुकला का एक जीवन्त उदाहरण है। सिकन्दरशाह ने ‘अदीना मस्जिद’ का निर्माण अपनी नयी राजधानी पांडुआ में कराया। पूर्वी भारत में यह मस्जिद अपने प्रकार की एक विचित्रा वस्तु मानी जाती थी तथापि इसका नक्शा उत्तम कोटि का नहीं था।
मुगल वास्तुकला
मुगलकालीन वास्तुकला भारतीय सांस्कृतिक निधि का अद्वितीय भंडार है। कला प्रेमी मुगल सम्राटों ने ईरानी और हिन्दू शैली के समन्वय से विकासपूर्ण ‘मुगल शैली’ का निर्माण किया। अकबर के शासन-काल तक ईरानी शैली का मुख्यतः प्रभाव रहा किन्तु इसके बाद भारतीय निर्माणकला मूलतः भारतीय हो गई और स्पष्ट रूप से इसमें ईरानी शैली जैसी चीज नहीं रह गई थी। मुगलकालीन स्थापत्यकला की प्रमुख विशेषताएं गोल गुम्बद पतले, स्तंभ और विशाल खुले द्वार है। बाबर भारत के स्थापत्य कला को बड़ा निम्न स्तर का मानता था। ग्वालियर के किले को छोड़कर उसने किसी भी इमारत को नहीं सराहा। अपने अल्पकालीन शासन के दौरान उसने पानीपत में ‘काबुल बाग’ और सांभल में ‘जामा-मस्जिद’ का निर्माण कराया। हुमायूं अपने भाग्य के दुर्भेद्य चक्र में फँसा रहा फलतः वास्तुकला पर विशेष ध्यान नहीं दे सका। मगर उसने दिल्ली में एक महल (दीन-ए-पनाह) और फतेहाबाद (हरियाणा) में एक मस्जिद बनवाया। ये दोनों ईरानी शैली के हैं।
शेरशाह ने भारत के तमाम वास्तुकला के सम्मिश्रण से सासाराम (बिहार) में एक मस्जिद बनवाया जिसमें क्रमशः बौद्ध-स्तूप, हिन्दू मंदिर और मुस्लिम कलाओं का सीधा प्रभाव है। आगे चलकर यह मस्जिद शेरशाह का मकबरा बन गया। मुगलों के आरंभिक भवनों में हुमायूं का मकबरा सबसे महत्त्वपूर्ण है। यह ‘चारबाग शैली’ का प्रथम मकबरा है जिसका निर्माण भारत में हुआ। मकबरे की आकृति इसी शैली से प्रभावित है और इसका गुम्बद भी ईरानी पद्धति से बना है। फतेहपुर सीकरी में अकबर का महल उल्लेखनीय है। यहाँ की सर्वोच्च इमारत ‘बुलंद दरवाजा’ है, जिसकी ऊँचाई भूमि से 176 फुट है। इसी दरवाजे से होकर शेख सलीम चिश्ती की दरगाह में प्रवेश करना होता है। बाईं ओर जामा मस्जिद और सामने शेख का मजार है। जामा मस्जिद को ‘शान-ए-फतहपुर’ कहा जाता है। फतेहपुर सीकरी की अन्य इमारतेहैं - बीरबल का महल, पंच महल, दीवान-ए-खास, रानी जोधाबाई का महल आदि। इन भवनों का निर्माण मुख्य रूप से लाल-बलुआ पत्थर से हुआ है। इसके अतिरिक्त अकबर ने आगरा, इलाहाबाद, अजमेर तथा लाहौर में सुदृढ़ दुर्ग भी बनवाए और उन दुर्गों के भीतर उसने राजप्रासाद, साधारण वासस्थान, कार्यालय आदि बनवाए। जहाँगीर का काल स्थापत्य कला की दृष्टि से काफी सामान्य रहा। उसके द्वारा निर्मित सिकन्दरा में स्थित अकबर का मकबरा काफी प्रसिद्ध है। एत्मादुदौला के महल का महत्व यह है कि इसमें पहले-पहल संगमरमर के ऊपर पच्चीकारी का काम किया गया है। शाहजहाँ का काल मुगल स्थापत्य कला का स्वर्णयुग था। शाहजहाँ के काल की वास्तुकला दो संस्कृतियों के पारस्परिक संपर्कों का प्रतिफलन है। इसका विकास पहले से ही होता चला आ रहा था, परन्तु शाहजहाँ के काल में अपनी चरम अवस्था को प्राप्त किया। अकबर के फतेहपुर सीकरी की भाँति शाहजहाँ ने 1638 ई. में दिल्ली में अपने नाम पर ‘शाहजहानाबाद’ नामक एक नगरी की स्थापना की तथा वहाँ अनेक सुसज्जित भवनों का निर्माण किया। ‘शाहजहानाबाद’ के इन प्रमुख भवनों में ‘लाल किला’ है। इसका निर्माण काफी सुनियोजित ढंग से किया गया। इसकी लंबाई 3100 फुट तथा चैड़ाई 1650 फुट है। इसका मुख्य प्रवेश द्वार ‘लाहौरी द्वार’ वास्तुकला की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इसके अंदर एक प्रमुख भवन ‘नौबतखाना’ है, जिसके सामने ‘दीवाने-ए-आम’ स्थित है। इसके उत्तरी भाग में ‘दीवान-ए-आम’ और ‘रंग-महल’ है जो अत्यधिक आकर्षक है। शाहजहाँ को संगमरमर अत्यधिक प्रिय था। अतः प्रत्येक भवन में कुछ न कुछ संगमरमर का उपयोग किया गया है। दिल्ली के लाल किले के बाहर जामा मस्जिद है जो इस काल की बड़ी मस्जिदों में गिनी जाती है, परन्तु कला की दृष्टि से यह बहुत उत्कृष्ट नहीं है। इसमें तीन प्रवेश द्वार हैं, जिनमें पूर्वी प्रवेश द्वार से बादशाह नमाज पढ़ने आया करता था तथा अन्य दो प्रवेश-द्वारों से सामान्य प्रजा आया करती थी। शाहजहाँ के समय का सबसे सुन्दर वास्तुकला का नमूना उसकी बीवी मुमताज बेगम की समाधि विश्व-विख्यात ‘ताजमहल’ है। यह आगरा मंे यमुना नदी के तट पर सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों के बीच में खड़ा है। ताजमहल की स्थापत्य-कला शैली के संबंध में पर्सी ब्राउन का विचार है कि ”इसका निर्माण दिल्ली में निर्मित हुमायूं के मकबरे तथा ‘खानखाना के मकबरे’ की शैली के आदर्श पर हुआ था।“ ताजमहल 22 फुट ऊँचे चबूतरे पर स्थित है - एक मुमताज महल बेगम की तथा दूसरी शाहजहाँ की। इन समाधियों को रंग-बिरंगे पत्थरों की सहायता से बने हुए फूल-पत्तियों द्वारा सुसज्जित एवं अलंकृत किया गया है। ताजमहल के ऊपरी भाग पर एक सुन्दर तथा सुडौल गुम्बद स्थित है तथा प्रत्येक मीनार की ऊँचाई 137 फुट है। इसके प्रवेश द्वार पर पवित्रा कुरान की आयत लिखी हुई है। इसमें मकराना (राजस्थान) से लाये गये संगमरमर का उपयोग हुआ है। इसकी भव्यता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसके निर्माण में लगातार सत्राह वर्ष लगे एवं तीन करोड़ रुपये से अधिक का व्यय हुआ था। औरंगजेब के समय भवन निर्माण के कार्य में कोई खास विकास नहीं हुआ। इसके अनेक कारण थे। प्रथम तो यह कि उसकी ललित कलाओं के प्रति रूचि न थी। दूसरा उसका संपूर्ण जीवन विद्रोहियों के दमन करने में व्यतीत हुआ। दिल्ली के किले के अन्दर औरंगजेब ने संगमरमर की एक मस्जिद का निर्माण करवाया और इसका नाम ‘मोती मस्जिद’ रखा। यह मस्जिद शाहजहाँ द्वारा निर्मित आगरे की मोती मस्जिद जैसी नहीं है। औरंगजेब के काल की दूसरी महत्त्वपूर्ण मस्जिद ”लाहौर की बादशाही मस्जिद“ है इसकी स्थापत्यकला शैली दिल्ली की ”जामा मस्जिद’’ की भाँति है किन्तु उतनी सुन्दर एवं वैभवशाली नहीं है। औरंगजेब ने औरंगाबाद में अपनी पत्नी राबिया-उद-दौरानी के मकबरे का निर्माण करवाया था। इसकी स्थापत्य शैली ताजमहल पर आधारित है। फलतः इसे द्वितीय ताजमहल भी कहा जाता है। किन्तु ताज वाली सुन्दरता इसमें नहीं है। बाद के मुगल शासकों ने इस पर ध्यान नहीं दिया।
मुगल सम्राट के हिन्दू-मुस्लिम मनसबदारों, राजपूताना और मध्य भारत के राजपूत शासकों, बीजापुर और गोलकुंडा के सुल्तानों, धार्मिक संप्रदायों के नेताओं तथा सेठ-साहूकारों ने भी इस काल में अनेक इमारतें बनवायी किन्तु उनमें से अधिकांश काल एवं शत्राुओं के आघातों के कारण नष्ट-भ्रष्ट हो गयी है। जो बच गयी है, उनमें मानमन्दिर (ग्वालियर), गोविंददेव का मंदिर (वृन्दावन), हवामहल (जयपुर), जन्तर-मन्तर (दिल्ली, उज्जैन, जयपुर, मथुरा), गोलगुम्बज (बीजापुर) और अमृतसर का सिक्ख मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
1857 ई. के विद्रोह के पश्चात् अंग्रेजों ने वास्तुकला पर ध्यान दिया। अंग्रेजों ने बंगला (कोठी), चर्च व कार्यालय तक ही अपने आपको सीमित रखा। अंग्रेजों ने अपनी वास्तुकला की यात्रा ग्रीक व रोमन शैली से आरंभ की मगर स्थानीय स्वरूप को भी प्रश्रय दिया जैसे कि गुम्बद व स्ंतभों का उपयोग। कलकत्ता से दिल्ली राजधानी के स्थानान्तरण के पश्चात् वास्तुकला में काफी बदलाव आया। दिल्ली शहर को बिल्कुल नए ढंग से बसाया गया। इसमें महान् वास्तुविद् वाल्लेयर जार्ज का योगदान सबसे अधिक है। आधुनिक राष्ट्रपति भवन एवं पुराने सेंट स्टीफेन काॅलेज की वास्तुकला सराहने योग्य है। उपरोक्त सभी भवनों पर भारतीय वास्तुशैली का भी प्रभाव पड़ा है। मुगलकाल के विपरीत इन भवनों को सरल व सामान्य ढंग से बनाया गया है। आजादी के बाद वास्तुकला का विकास नयी-नयी खोजों के साथ होता रहा।
भारतीय मूर्तिकला
भारत में मूर्तिकला का इतिहास स्थापत्यकला से भी पुराना है। हड़प्पा संस्कृति से भी मूर्तियां प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुई हैं। इस काल में मूत्र्तियों का निर्माण धार्मिक एवं मनोरंजन के उद्देश्य से होता था। सिंधु घाटी के कलाकार धातु पिघलाना और दो धातुओं के संयोग से मिश्रित धातु बनाना जानते थे। मोहनजोदड़ो से जो एक मूत्र्ति मिली है, वह तांबे की है। हड़प्पा से एक पुरुष नर्तक की पाषाण मूत्र्ति प्राप्त हुई है जो कला की दृष्टि से काफी उन्नत हैं। सिंधु सभ्यता से काफी संख्या में मृण्य मूत्र्तियां प्राप्त हुई हैं। सिंधु घाटी के नगरों के पश्चात्, अशोक स्तंभों के शीर्ष, जिसमें से कुछ संभवतः उसके राज्यों के पूर्व निर्मित हुए थे, मूर्तिकला के प्रमुख प्रारंभिक उदाहरण है। सारनाथ स्तंभ के सिंह तथा रामपुरवा स्तंभ के वृषभ, यथार्थवादी मूर्तिकारों की कृतियां है जिस पर यूनानी एवं ईरानी परम्परा का प्रभाव है। मौर्यकाल की एक बड़ी शालीन और अत्यन्त सुन्दर और विशाल नारी मूर्ति जो दीदारगंज याक्षिणी या चबरधारिणी कहलाती है, पटना संग्रहालय के प्रवेश द्वार में प्रतिष्ठित है। मौर्यकालीन मूर्तियों की सबसे बड़ी विशेषता है - चिकनी और चमकदार पाॅलिश।
गान्धार कला की मूर्तियां
(i) काल्पनिक दृश्यों का प्रभाव मूर्तियों पर पड़ा है।
(ii) बुद्ध की मूर्तियों में धोती, चादर, पगड़ी, शरीर पर आभूषण तथा पैरों मंे चप्पल का निर्माण।
(iii) बुद्ध के जीवन की चार प्रमुख घटनाओं का निर्माण प्रतिमाओं के रूप में किया गया है, जैसे - (क )बुद्ध का जन्म मायादेवी की प्रतिमा से, (ख) बोधगया में ज्ञान की प्राप्ति को बुद्ध की ध्यानावस्थित प्रतिमा से,
(ग) सारनाथ में धर्मचक्रप्रवर्तन को बुद्ध की प्रवाचक की प्रतिमा से तथा (घ) महापरिनिर्वाण को बुद्ध की शयनावस्था की प्रतिमा से दर्शाया गया है।
(i) बुद्ध की मूंछ एवं दाढ़ी से युक्त प्रतिमाएं बनायी गयी है।
(ii) बुद्ध का प्रभामण्डल सादा है।
(iii) वस्त्रों पर लहरियां पड़ी हुई है।
मथुरा कला की मूर्तियां
मध्यकाल की मूर्तिकला
गुप्तकाल के अन्त और प्रायः सातवीं सदी तक मूर्तियों की शैली राष्ट्रीय थी, जिस पर बाहरी तत्वों का भी स्पष्ट प्रभाव था। मगर सातवीं शताब्दी के बाद उन्होंने स्थानीय नाम से अपने-आप को परिभाषित किया। इस काल की मूर्तियां विशेषतः मानवीय हैं, पुरुष- स्त्रियों की, देवी-देवियों की। इस काल की अधिकतर मूर्तियां काले या ‘काष्टी-पत्थर’ की बनी है। धातु की मूर्तियां अधिकतर अष्टधातु की बनी हैं। सोना और चांदी की मूर्तियां कम संख्या में बनी हैं। इस काल की मूर्तियों की विषय-वस्तु काफी व्यापक हो गयी। मुख्य रूप से पौराणिक आख्यान, ऐतिहासिक-काव्यगत रामायण-महाभारत के विषय, नृत्य गायन के मूर्तन, मिथुन और मैथुन पाषाण-चित्राण, प्रसाधन और गृहस्थों के घरेलू मूर्तन, युद्ध और योद्धाओं के दृश्य पर मूर्तियां बनी।
दक्षिण भारतीय मूर्तिकला
दक्षिण भारत में मूर्तियों का निर्माण व्यापक पैमाने पर नवीं सदी के मध्य से आरंभ होकर सत्राहवीं सदी तक चलता रहा। उत्तर भारत में, आरंभ में, धातु मूर्तियों का अभाव रहा है। मगर इसके विपरीत, दक्षिण भारत में आरंभ से धातु की मूर्तियां प्रचुर मात्रा में मिली हैं। खासकर, पल्लव काल में धातु की मूर्तियों का निर्माण प्रचुर मात्रा में हुआ है। पल्लव काल की चतुर्भुज खड़ी शिवमूर्ति (कांसे की) मिसौरी (संयुक्त राज्य अमेरिका) के कंसास सिटी के नेल्सन म्यूजियम में रखी है। इस मूर्ति का निर्माण तंजोर में हुआ था। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि यह मूर्ति भाव-शून्यता को प्रदर्शित करती है। यहां की मूर्तियों की विषय-वस्तु शिव, उनके परिवार, अलवार संतों एवं नयनार संतों से जुड़ा है। दक्षिण भारत की धातु मूर्तियों में प्रधान और असाधारण क्षमता वाली मूर्ति नटराज शिव की है।
ईसाइयों के पर्व
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यहूदियों का त्यौहार
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भारतीय हस्तशिल्प कला
हाथीदांत - देश के कलात्मक विकास में हाथीदांत से बनी वस्तुओं का काफी महत्त्व रहा है। हाथीदांत से बनी वस्तुओं का साक्ष्य हमें सैधव सभ्यता से ही प्राप्त होता है। इसमें अलंकरण के विशेष गुण थे। आभूषणों में इसका प्रयोग बड़े ही आकर्षक ढंग से किया जा सकता था एवम् इसकी कटाई द्वारा इसे आभूषणों में परिवर्तित भी किया जा सकता था। इस तरह यह धन तथा शुभ-शकुन दोनों की विषय-वस्तु बन गया। साथ ही इसको सुसज्जा के लिए भी प्रयोग किया जा सकता था। इसे काटकर लकड़ी पर जोड़ दिए जाने पर यह केवल लकड़ी की सतह को रूपांतरित ही नहीं करता अपितु उसे बहुमूल्य भी बना देता है।
विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अर्थशाó’ में हाथीदांत के लिए गहन जंगलों का सावधानीपूर्वक विकास करने पर बल दिया गया था, जिससे हाथियों की नस्ल में वृद्धि हो सके। चन्द्रगुप्त तथा सम्राट अशोक के काल में हाथीदांत कला नक्काशी, फलकों, पट्टों, उच्च प्रतिच्छायाओं पर, बड़ी आकृतियां अन्य उत्कृष्ट रूपों में चरमोत्कर्ष पर पहुंची। श्रृंगकाल में यह राजभवनों तथा विशिष्ट वर्गों की सीमाओं से निकलकर देश के सभी भागों में व्याप्त हो गई। ये वस्तुएं अब घरेलू उपयोग तथा धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयोग होने लगीं। कुषाण काल में, भारत में मध्य एशिया, विशेषतः पश्चिम से जोड़ने वाले सिल्क मार्ग द्वारा हाथीदांत से बनी वस्तुओं का क्षेत्रा और अधिक विस्तृत हुआ। आगे चलकर गुप्तकाल में हाथीदांत से बनी अनेक उत्कृष्ट मूत्र्तियों का प्रादूर्भाव हुआ, जिसमें महात्मा बुद्ध की आकर्षक मूत्र्ति के अतिरिक्त अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की मूत्र्तियाँ भी थीं। मुगलकाल में हाथीदांत के प्रयोग पर अत्यधिक ध्यान दिया गया। जहांगीर के संस्मरणों से ज्ञात होता है कि हाथीदांत कला में पारंगत शिल्पकारों को बड़ी संख्या में राजदरबारों में नियुक्त किया जाता था। इस कला के अन्य अनेक विलक्षण उदाहरण आज भी, अमृतसर के स्वर्णमंदिर में दर्शन द्वारों, बीकानेर के गण मंदिरों के द्वारों, उदयपुर, जयपुर एवम् मैसूर के राजभवनों तथा देश के अन्य अनेक स्मारकीय भवनों में अलंकृतियों के रूप में देखे जा सकते है।
काष्ठ कार्य - आरंभ से ही भारत में प्राकृतिक संसाधनों का विपुल भंडार रहा है। यहाँ लकड़ी की अनेक किस्में उपलब्ध हैं तथा प्रत्येक किस्म की निजी संरचनात्मक क्षमता अथवा गुण होते है। सभ्यता के उषाकाल में ही मनुष्य के भीतर का कलाकार इस सामग्री को कोई ठोस रूप अथवा आकार देने के लिए उत्कंठित हुआ। तदुपरान्त, शीघ्र ही इससे एक अद्भूत सौन्दर्य जगत का निर्माण हुआ। आस-पास के वातावरण काष्ठ शिल्प में मूर्तियों के निर्माण तथा वास्तुशिल्प के प्रयुक्त होने पर यह अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया। भारत में सदैव मूर्तियों का निजी जगत रहा है। जिसमें विज्ञान, सौन्दर्य बोध तथा समाज विज्ञान आदि विषय से संबंधित कृतियां होती थीं। आकृति निर्माण के संबंध में धार्मिक तत्व भी होते थे। मूर्ति निर्माण में महत्वपूर्ण तथ्यों का ध्यान रखा जाता था। आंतरिक भावों या मनोवैज्ञानिक तथ्यों का तो विशेष रूप से ध्यान रखा जाता था। इसमें कल्पना को मूर्त रूप देनेवाले तत्वों जैसे आकार, संतुलन, गुणधर्म तथा विशिष्टता के प्रतीकों के निर्धारण के नियम निश्चित होते थे। शिल्पकार की निर्मित कृति से अपेक्षित था कि वह उस भाव को अभिव्यक्त करने में समर्थ हो जो भाव संपूर्ण मूर्ति को स्पंदित एवम् गतिमान बनानेवाली लय से अनुप्रमाणित हो। यहां तक कि नरसिंह की अर्धसिंह तथा अर्धमानव रूपी अलौकिक एवम् विलक्षण प्रतिमा से परिचित प्रतीकों द्वारा उसका असामान्य रूप अभिव्यक्त होता है, जिसमें सिंह रूप में उसकी पाश्विक प्रवृत्ति तथा नर रूप में उसकी मानवीय प्रवृत्ति की झलक विद्यमान है।
हिमाचल प्रदेश में कुल्लू, कांगड़ा, चम्बा, किन्नौर तथा कश्मीर के भवनों तथा मंदिरों में काष्ठ-कार्य की उत्कृष्टता के कुछ प्राचीन उदाहरण आज भी उपलब्ध है। यहाँ घरों की ऊपरी मंजिल के छज्जों के प्रत्येक खंड को सूक्ष्म नक्काशी द्वारा सुसज्जित किया जाता था जो अत्यंत मनोहारी प्रतीत होता था। दरवाजों तथा खिड़कियों पर भी नक्काशी देखने को मिलती है। आज भी प्राचीन नगरों में उत्कृष्ठ काष्ठ-कला के नमूने व्यापक रूप से दिखाई दे जाते है। काष्ठ-नक्काशी के प्राचीनतम उदाहरणों में से एक महाराष्ट्र की ‘कार्ले’ गुफाओं में दृष्टिगोचर होता है। जहां लटकते हुए कमल के आकार वाले झूमर तथा झालर-सी बनाई गई है, जिसमें पाश्र्व अवलंब पर हाथी तथा घोड़ों की आकृतियों के रूप में नक्काशी की गई है।
धातु से निर्मित वस्तुएं - हस्तशिल्प में धातु से निर्मित वस्तुओं का आरंभिक साक्ष्य मोहनजोदड़ो से प्राप्त (3 हजार ईसा पूर्व) नृत्यांगना की आकृति है। दिल्ली के कुतुबमीनार के निकट खड़ा गुप्तकालीन लौह-स्तंभ तथा उड़ीसा के कोणार्क सूर्य मंदिर की कड़ियां भारतीय शिल्पकारों द्वारा धातु के निर्भीक एवम् सफल प्रयोग के रूप में आज भी देखे जा सकते है। प्राचीन मत्स्य-पुराण में विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूत्र्ति के लिए विभिन्न? प्रकार के संयोजनों एवम् सम्मिश्रणों का वर्णन मिलता है। जैसे तांबा और जस्ता के सम्मिश्रण से पीतल अथवा तांबा तथा रांगा के संयोग से कांस्य इत्यादि के रूप में मिश्र-धातुओं का निर्माण किया जाता था। तांबे तथा रांगे के संयोग से बनी कांस्य धातु ने संभवतः प्रतिमा-निर्माण की प्रमुख सामग्री के रूप में स्थान ले लिया था। आठ-धातुओं के सम्मिश्रण ‘अष्टधातु’ तथा पांच धातुओं के संयोग से बने ‘पंचलौह’ जैसी विविध प्रकार की धातुओं का प्रयोग प्रतिमा के सार्वभौम संबंध को स्थापित करने के लिए किया गया।
धातु से निर्मित वस्तुओं में से सबसे आकर्षक एवम् मोहक वस्तु खिलौना है। इसका निर्माण प्रचुर मात्रा में होता है तथा प्रत्येक क्षेत्रा की निजी विशेषताओं से युक्त होते है। धातु से बनी अन्य वस्तुओं में दीपदानों की गणना श्रेष्ठ कृति में होती है।
वस्त्रा कला - शिल्पकारिता में सूती वó एवं रेशमी वó कला अत्यधिक उत्कृष्ट रहे है। इसका इतिहास भी काफी प्राचीन रहा है। हड़प्पा-काल के रेशम के धागे प्राप्त हुए है। प्राचीन मिश्रवासी कफन के लिए उच्चकोटि के भारतीय मलमल का आयात करते थे। ऋग्वेद में उस काल के कपड़ों का महत्त्वपूर्ण विवरण उपलब्ध है। अनेक प्राचीन ग्रंथों में विभिन्न प्रकार की वस्त्रा सामग्री का विस्तृत रूप से वर्णन मिलता है। जैसे कौटिल्य के ‘अर्थशाó’ में तो, प्रयुक्त होने वाले भिन्न-भिन्न वस्त्रों की नामसूची भी दी गई है।
भारतीय बुनाई में कालीन का स्थान प्रमुख है। भारत में, वातावरण के कारणों से, विशेषतः सूत से फर्श ढकने की परम्परा अत्यधिक प्राचीन है। मुगलकाल में, ऊनी सूत से बने कालीन के प्रचुर उत्पादन ने महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। आज भी भारत में व्यापक पैमाने पर खूबसूरत कालीन का निर्माण किया जाता है। कालीनों की डिजाइनें इंडोपर्शियन, मध्य एशिया, तुर्की यहां तक की फ्रांस से भी सम्बद्ध हो सकती है। आजकल कालीनों का निर्माण निर्यात की दृष्टि से भी किया जाता है।
आभूषण - भारतीयों का आभूषण-प्रेम अति प्राचीन है। इसका निरन्तर विकास हड़प्पा सभ्यता से ही हुआ है। अथर्ववेद तथा यजुर्वेद में भी विभिन्न प्रकार के आभूषणों का वर्णन मिलता है। इन ग्रंथों में वर्णित आभूषणों में से प्रत्येक आज भी प्रचलित है। इसमें सोना, चाँदी, कांस्य, तांबा, अष्टधातु तथा इसके अलंकरण के लिए बहुमूल्य पत्थरों एवम् कांच का प्रयोग किया जाता था। माणिक, शंख, मोती, हाथीदांत, कांच तथा विभिन्न प्रकार के अन्य बहुमूल्य पत्थरों का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में किया जाता था।
लोक आभूषणों के अलंकरण में प्रयोग की जानेवाली प्राकृतिक वस्तुओं का भी उल्लेख मिलता है। बीज, सीपी, फूल-पत्तियों, सरस फल तथा गिरीदार फलों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया गया। स्वर्ण अथवा चांदी से बने आभूषणों को भी इसी तरह सुसज्जित किया जाता है जैसे, कंगन पर चमेली की कली अथवा गलहार पर चंपक फूल या पक्षी का रूप देने के लिए पत्तियों को परस्पर गूंथ दिया जाता है।
प्रमुख सांस्कृतिक संस्थाएं
एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ताकृ सुप्रसिद्ध भारतविद् विलियम जोन्स (1747.94) ने एशिया के सामाजिक तथा सांस्कृतिक इतिहास, पुरावशेष, कला, विज्ञान तथा साहित्य की खोज के उद्देश्य से 1784 में एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता की नींव रखी थी। सोसायटी के पास लगभग 1 लाख 75 हजार पुस्तकों का संग्रह है।
साहित्य अकादमी - भारतीय साहित्य का विकास करने तथा उसके स्तर को ऊंचा करने के लिए सभी भारतीय भाषाओं में साहित्य को परिपोषित करने तथा उनमें समन्वय स्थपित करके देश में सांस्कृतिक एकता स्थापित करने के लिए साहित्य अकादमी की स्थापना सरकार द्वारा 1954 में की गयी। इस अकादमी के क्षेत्राीय कार्यालय बम्बई, कलकत्ता तथा मद्रास में स्थित है।
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1. भारतीय स्थापत्यकला क्या है? |
2. भारतीय स्थापत्यकला का इतिहास क्या है? |
3. भारतीय स्थापत्यकला के प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? |
4. भारतीय स्थापत्यकला में प्रमुख स्मारक कौन-कौन से हैं? |
5. यु.पी.एस.सी भारतीय स्थापत्यकला के लिए कौन सी पुस्तकें सर्वोत्तम हैं? |
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