काली या रेगुर मिट्टी
काली या रेगुर मिट्टी एक परिपक्व मिट्टी है जो मुख्यतः दक्षिणी प्रायद्वीपीय पठार के लावा क्षेत्र में पायी जाती है।
यह मिट्टी गुजरात एवं महाराष्ट्र राज्यों के अधिकांश क्षेत्र, मध्य प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र, उड़ीसा के दक्षिण क्षेत्र, कर्नाटक राज्य के उत्तरी जिलों, आन्ध्र प्रदेश के दक्षिणी एवं समुद्रतटीय क्षेत्र, तमिलनाडु के सलेम, रामनाथपुरम, कोयम्बटूर तथा तिरुनलवैली जिलों, राजस्थान के बूंदी तथा टोंक जिलों आदि में 5 लाख वर्ग कि. मी. क्षेत्र पर विस्तृत है।
साधारणतः यह मिट्टी मृत्तिकामय, लसलसी तथा अपारगम्य होती है। इसका रंग काला तथा कणों की बनावट घनी होती है।
इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं जीवांशों की कम मात्रा पायी जाती है, जबकि चूना, पोटाश, मैग्नेशियम, एल्यूमिना एवं लोहा पर्याप्त मात्रा में मिले रहते है ।
उच्च स्थलों पर मिलने वाली काली मिट्टी निचले भागों की काली मिट्टी की अपेक्षा कम उपजाऊ होती है।
निम्न भाग वाली गहरी काली मिट्टी में गेहूँ, कपास, ज्वार, बाजरा आदि की कृषि की जाती है।
कपास की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होने के कारण इसे ‘कपास की काली मिट्टी’ भी कहा जाता है।
लाल मिट्टी
लाल मिट्टी का निर्माण जलवायविक परिवर्तनों के परिणाामस्वरूप रवेदार एवं कायान्तरित शैलों के विघटन एवं वियोजन से होता है।
ग्रेनाइट शैलों से निर्माण के कारण इसका रंग भूरा, चाकलेटी, पीला अथवा काला तक पाया जाता है। इसमें छोटे एवं बड़े दोनों प्रकार के कण पाये जाते है ।
छोटे कणों वाली मिट्टी काफी उपजाऊ होती है जबकि बड़े कणों वाली मिट्टी प्रायः उर्वरताविहीन बंजरभूमि के रूप में पायी जाती है।
इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा जीवांशों की कम मात्रा मिलती है जबकि लौहतत्त्व एल्यूमिना तथा चूना पर्याप्त मात्रा में मिलते है ।
लगभग 2 लाख वर्ग कि. मी. क्षेत्र पर विस्तृत यह मिट्टी आन्ध्र प्रदेश एवं मध्य प्रदेश राज्यों के पूर्वी भागों, छोटानागपुर का पठारी क्षेत्र, पश्चिम बंगाल के उत्तरी - पश्चिमी जिलों, मेघालय की खासी, जयन्तिया तथा गारो के पहाड़ी क्षेत्रों, नागालैण्ड, राजस्थान में अरावली पर्वत के पूर्वी क्षेत्रों तथा महाराष्ट्र, तमिलनाडु एवं कर्नाटक के कुछ क्षेत्रों में पायी जाती है।
इस मिट्टी में कपास, गेहूँ, दाल तथा मोटे अनाजों की कृषि की जाती है।
लैटराइट मिट्टी
देश के 1 लाख वर्ग कि. मी. से अधिक क्षेत्र पर विस्तृत लैटराइट मिट्टी का निर्माण मानसूनी जलवायु की आद्र्रता एवं शुष्कता के क्रमिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप उत्पन्न विशिष्ट परिस्थितियों में होता है। इस विभिन्नता से निक्षालन की प्रक्रिया अधिक क्रियाशील रहने के कारण शैलों में सिलिका की मात्रा कम पायी जाती है।
इस मिट्टी का विस्तार मुख्यतः दक्षिणी प्रायद्वीपीय पठारी क्षेत्र के उच्च भू - भागों में हुआ है।
इसके प्रमुख क्षेत्र है मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पूर्वी तथा पश्चिमी घाट पहाड़ों का समीपवर्ती क्षेत्र, बिहार में राजमहल की पहाड़ियां, कर्नाटक, केरल, उड़ीसा तथा असम राज्य के कुछ भाग।
शैलों की टूट - फूट से निर्मित होने वाली इस मिट्टी को गहरी लाल लैटराइट, सफेद लैटराइट तथा भूमिगत जलवाली लैटराइट के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
गहरी लाल लैटराइट में लौह आक्साइडों तथा पोटाश की मात्रा अधिक मिलती है।
इसमें उर्वरता कम रहती है किन्तु निचले भागों में कुछ खेती की जाती है।
सफेद लैटराइट की उर्वरता सबसे कम होती है और केओलिन की अधिकता के कारण इसका रंग सफेद हो जाता है।
भूमिगत जलवाली लैटराइट मिट्टी काफी उपजाऊ होती है क्योंकि वर्षाकाल में मिट्टी के ऊपरी भाग में स्थित लौह - आक्साइड जल के साथ घुलकर नीचे चले जाते है ।
इसमें चावल, कपास, मोटे अनाज, गेहूँ, चाय, कहवा, रबड़, सिनकोना आदि पैदा होते है ।
भारत में दो और मिट्टियाँ मिलती है जिन्हें मरुस्थलीय तथा नमकीन अथवा क्षारीय मिट्टियाँ कहा जाता है।
मरुस्थलीय मिट्टी प्रायः कम वर्षा वाले शुष्क क्षेत्रों में पायी जाती है। इसका विस्तार पश्चिमी राजस्थान, गुजरात, दक्षिणी पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश के भू - भागों पर है।
यह बलुई मिट्टी है जिसके कण मोटे होते है। इसमें खनिज नमक की मात्रा अधिक मिलती है किन्तु ये जल में शीघ्रता से घुल जाते है।
इसमें आर्द्रता तथा जीवांशों की मात्रा कम पायी जाती है। जल की प्राप्ति हो जाने पर यह मिट्टी उपजाऊ हो जाती है तथा इसमें सिंचाई द्वारा गेहूँ, कपास, ज्वार - बाजरा एवं अन्य मोटे अनाजों की कृषि की जाती है। सिंचाई की सुविधा के अभाव वाले क्षेत्रों में इस मिट्टी में कृषि कार्य नहीं किया जा सकता है।
नमकीन एवं क्षारीय मिट्टियाँ शुष्क तथा अर्द्धशुष्क भागों एवं दलदली क्षेत्रों में मिलती है।
इसे विभिन्न स्थानों पर थूर, ऊसर, कल्लर, रेह, करेल, राँकड़, चोपन आदि नामों से जाना जाता है।
इसकी उत्पत्ति शुष्क एवं अर्ध - शुष्क भागों में जल तल के ऊँचा होने एवं जलप्रवाह के दोषपूर्ण होने के कारण होती है।
यह मिट्टी प्रायः उर्वरता से रहित होती है क्योंकि इसमें सोडियम, कैल्सियम तथा मैग्नेशियम की मात्रा अधिक होती है जबकि जीवांश आदि नहीं मिलते।
भारत की 47 प्रतिशत मिट्टी में जिंक, 11 प्रतिशत में लोहा एवं 5 प्रतिशत मिट्टी में मैगनीज की कमी देखी गयी है।
सामान्यतः मृदा में खनिज पदार्थ ;45.50 प्रतिशत), कार्बनिक पदार्थ (5 प्रतिशत), मृदा जल (25 प्रतिशत) तथा मृदा वायु पाये जाते हैं। मृदा के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं।
पौधे आवश्यक खनिज पदार्थ मृदा से ही ग्रहण करते हैं।
पौधे अपनी जड़ों से आवश्यक जल मृदा से ही अवशोषित करते हैं।
मृदा द्वारा ही पौधों को जरूरी आॅक्सीजन व नाइट्रोजन उपलब्ध कराया जाता है।
मृदा पौधों की जड़ों को मजबूती से पकड़कर जमीन पर खड़ा रहने में सुदृढ़ आधार प्रदान करती है।
मृदा में कार्बनिक पदार्थ ह्यूमस विद्यमान होता है जो पौधों की वृद्धि में सहायक होता है।
पौधों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान करने वाली मृदा असंख्य छोटे - छोटे कणों की बनी होती है, जिनके बीच - बीच में खाली स्थान होते हैं, जिन्हें रंध्राकाश कहा जाता है।
इन्हीं रन्ध्राकाशों में वायु और जल मौजूद होते हैं जबकि पादप पोषक रंध्राकाशों में विद्यमान जल में घुले हुए होते हैं। पौधे अपनी जड़ों के मूल रोमों द्वारा जल में घुले हुए पादप पोषकों को अवशोषित करते रहते हैं। यह विदित है कि पौधों को पोषक तत्त्वों की आपूर्ति मृदा द्वारा ही होती है।
भारत के द्वीप
|
वनस्पति
‘वनस्पति’ शब्द का अर्थ पेड़ - पौधों की विभिन्न जातियों के समुच्चय से है जो किसी विशेष प्राकृतिक परिस्थितियों में अपना अस्तित्व रखते है।
‘वन’ शब्द साधारणतः लोगों या प्रशासकों द्वारा पेड़ - पौधों एवं झाड़ियों से आच्छादित बड़े क्षेत्रों के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
वनस्पति जाति की मूल उत्पत्ति
पुरा वनस्पतिशास्त्रियों का कहना है कि हमारा समस्त हिमालय एवं प्रायद्वीपीय क्षेत्र देशीय एवं स्थानीय वनस्पति जाति से आच्छादित है, जबकि विशाल मैदान व थार के मरुस्थल के पौधे सामान्यतः बाहर से लाये गये है।
भारत में पाये जाने वाले पौधों का करीब 40ः हिस्सा विदेशी है, जो साइनो - तिब्बती क्षेत्रों से आये है। इन वनस्पति को वोरियल वनस्पति - जाति कहते है।
उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों से जो वनस्पति यहाँ आयी है, उसे पुरा उष्ण कटिबंधीय कहते है।
थार के मरुस्थल की वनस्पति का जन्म स्थान उत्तरी अफ्रीका माना जाता है।
उत्तरी - पूर्वी भारत की वनस्पति - जाति का उत्पत्ति स्थान इण्डो - मलेशिया माना जाता है।
प्राकृतिक वनस्पति पर प्रभाव डालने वाले भौगोलिक कारक
वनस्पति पर सबसे ज्यादा प्रभाव जलवायु डालता है। वर्षा की मात्रा और तापमान जलवायु के दो प्रमुख तत्व है जो प्राकृतिक वनस्पति पर प्रभाव डालते है।
धरातलीय दशा का भी वनों पर प्रभाव पड़ता है। ऊँचाई के अनुसार वनों का रूप बदल जाता है।
हिमालय पर्वत क्षेत्र में समुद्र तल से ऊँचाई तथा तापमान ने वनस्पति प्रदेश निर्धारित किए है। वहाँ वर्षा की मात्रा इतनी प्रभावी नहीं होती।
1200 से 1800 मीटर की ऊँचाई पर ओक, बर्च, चीड़, पापलर, पाईन, खरसिया आदि वृक्ष पाये जाते है।
1800 से 3000 मीटर की ऊँचाई पर देवदार, सिल्वर फर, स्प्रूस, मेपिल श्वेत पाइन, ब्लूपाइन वृक्ष पाये जाते है।
3000 से 4500 मीटर की ऊँचाई पर घास, बर्च, बोना, जूनीपर प्रकार की वनस्पति मिलती है।
इस प्रकार भारत में जलवायु और भूमि संबंधी विशेषतायें वनस्पति के प्रकार निर्धारित करती है। इसी के कारण भारत में उष्ण और शीतोष्ण कटिबंधीय दोनों प्रकार की ही वनस्पतियाँ पायी जाती है।
देश के कुल वनों का 7ः शीतोष्ण वन तथा शेष 93ः उष्ण कटिबंधीय वन है
कुछ भारतीय पर्वत शिखरों की ऊँचाई |
भारत की कुछ प्रमुख नदियों की लम्बाई |
वन
वन, नवीकरण के योग्य संसाधन हैं और ये आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। पर्यावरण की गुणवत्ता सुधारने में भी वनों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।
देश - भर में 695.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को वन के रूप में अधिसूचित किया गया है, जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 20.64 प्रतिशत वास्तविक वन क्षेत्र है।
इसमें से सघन वन औसत धने वन 10.32 (क्राउन डेन्सिटी 40% 11 प्रतिशत है, खुला वन (क्राउन डेन्सिटी 10 - 40 प्रतिशत) 8.76 प्रतिशत है और कच्छ वनस्पति क्षेत्र 0.14 प्रतिशत है।
वनों के प्रकार (Type of Forests)
विभिन्न विशेषताओंके आधार पर वनस्पतिशास्त्रियों ने वनोंका वर्गीकरण किया है।
स्वामित्व के आधार पर
राजकीय वन: पूर्णतः सरकारी नियन्त्राण वाले वन जो 717 लाख हेक्टेयर भूमि पर विस्तृत है जो कुल वनोंका 96.11ः है।
संस्थानीय वन: यह प्रायः स्थानीय नगरपालिकाओंएवं जिला परिषदोंके नियंत्राण में है। इनका क्षेत्रफल केवल 20 लाख हेक्टेयर है जो कुल वनोंका 2.68ः है।
व्यक्तिगत वन: यह व्यक्तिगत लोगों के अधिकार में है। इसका क्षेत्रफल केवल 9 लाख हेक्टेयर है।
प्रशासनिक आधार पर
सुरक्षित वन: यह वन 394 लाख हेक्टेयर भूमि में फैले है, तथा कुल वनोंका 52.% है।
इन वनोंको काटना और इनमें पशुओंको चराना मना है। भूमि के कटाव को रोकने, बाढ़ोंको रोकने, मरुस्थल के प्रसार को रोकने और जलवायु व अन्य भौतिक कारणोंसे ऐसा किया गया है।
संरक्षित वन: यह वन 233 लाख हेक्टेयर भूमि अर्थात् कुल वनोंके 31.2% भू - भाग पर विस्तृत है।
इनमेंलोगोंको अपने पशुओंको चराने तथा लकड़ी काटने की सुविधा तो दी जाती है, किन्तु उन पर कड़ा नियंत्राण रखा जाता है ताकि वनोंको नुकसान न पहुँचे और वन कहीं धीरे - धीरे समाप्त न हो जाये।
अवर्गीकृत वन: कुल वनोंका 16% अर्थात् 119 लाख हेक्टेयर भू - भाग पर विस्तृत है। ये ऐसे वन है जिनका वर्गीकरण अभी तक नहीं किया गया है।
इनमेंलकड़ी काटने और पशुओं को चराने पर सरकार की ओर से कोई रोक नहीं है।
विदोहन (Exploitation) के आधार पर
व्यवसाय के लिए उपलब्ध वन: इस प्रकार के वन 430 लाख हेक्टेयर भूमि पर फैले है। यह कुल वनोंका 57.64% है। इन वनोंको काम मेंलाया जा रहा है।
सम्भावित उपलब्ध वन: ये वन भावी उपयोग के लिए सुरक्षित रखे गये है।
इन वनोंका विस्तार 163 लाख हेक्टेयर भूमि पर है जो कुल वनोंका 21.85% है।
अन्य वन: ये वन 153 लाख हेक्टेयर भूमि पर फैले है, जिनके उपयोग के लिए कोई नियन्त्राण नहीं है। इनमें अप्राप्य वन भी शामिल है।
इस प्रकार के वन कुल वनोंका 20.51ः है।
वृक्षों की पत्ती के आधार पर
कोणधारी वन: 48 लाख हेक्टेयर भूमि पर यह वन विस्तृत है जो कुल वनों का 6.43% है। यह शीतोष्ण वन है।
चैड़ी पत्ती वाला वन: इन वृक्षों का कुल क्षेत्रफल 69.8 लाख हेक्टेयर है, अर्थात् कुल वनोंका 93.57% है।
ये उष्ण कटिबंधीय वन है। इनमेंमानसून वन सबसे अधिक है। साल, सागवान के वन अधिक महत्वपूर्ण है।
भौगोलिक आधार पर (Tropical Evergreen Forests)
उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन (Tropical Evergreen Forests) इस प्रकार के वन उन प्रदेशोंमेंपाये जाते है जहाँ वर्षा 200 से.मी. या उससे अधिक पड़ती है तथा आद्र्रता की मात्रा वर्षभर 70% से अधिक पायी जाती है और तापमान 24॰C से अधिक रहता है।
महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, अण्डमान निकोबार, लक्षद्वीप समूह, पश्चिम बंगाल और असम मेंऐसे वन पाये जाते है।
ये सघन और सदैव हरे - भरे रहते है। वृक्षोंकी ऊँचाई 50 मी. तक पाई जाती है।
उष्ण कटिबंधीय पतझड़ वन (Tropical Deciduous Forests) :
इस प्रकार के वन 100 से 200 से. मी. वर्षा वाले क्षेत्र में पाये जाते है। ये मानसून वन कहलाते है। ग्रीष्मकाल में ये अपनी पत्तियाँ गिरा देते है।
ये वन पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, असम राज्यों में पाये जाते है। व्यावसायिक दृष्टि से इन वनों का काफी महत्व है। यह लगभग 7 लाख वर्ग कि. मी. में फैला है।
इसमें साल और सागौन के वृक्ष काफी महत्वपूर्ण है। सागौन के वृक्ष महाराष्ट्र और कर्नाटक में सबसे अधिक पाये जाते है।
अन्य प्रमुख वृक्ष शीशम, चन्दन, कुसुम, पलास, हल्दू, आँवला, शहतूत, बाँस, कत्था व पैडुक है।
इन वनों से लकड़ी के साथ - साथ अनेक उपयोगी पदार्थ भी प्राप्त होते है¯जैसे तेल, वार्निश, चमड़ा रंगने का पदार्थ इत्यादि।
उष्ण कटिबंधीय शुष्क वन(Tropical Dry Forests) :
इस प्रकार के वन 50 से 100 से. मी. वर्षा वाले क्षेत्र में पाये जाते है। इन वृक्षों की लम्बाई 6 से 9 मीटर तक होती है तथा जड़ें काफी गहरी होती है।
पूर्वी राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वन उन भागों में पाये जाते हैं, जहाँ भूमि कुछ अनुपजाऊ होती है।
दक्षिण भारत के शुष्क भागों में भी इस प्रकार के वन मिलते है। आम, महुआ, बरगद, शीशम, हल्दू, कीकर, बबूल इनके प्रमृख वृक्ष है।
तराई प्रदेशों में सवाना प्रकार की घास उगती है, जिसे सवाई, मँूज, हाथी व काँस घास के नाम से जानते है।
मरुस्थलीय और अर्द्ध - मरुस्थलीय वन(Desert and Semi - Desert Forests) :
इस प्रकार के वन 50 से. मी. से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में मिलते है। ये वृक्ष छोटी - छोटी झाड़ियों के रूप में होते है।
वृक्षों की जड़ें लंबी होती है। वर्षा की कमी के कारण वृक्षों में पत्तियाँ छोटी और काँटेदार होती है।
इनका प्रमुख वृक्ष बबूल है। इसके अलावा खेजड़ा, खैर, खजूर, रामबाँस, नागफनी भी प्रमुख वृक्ष है।
ये वन दक्षिण - पश्चिम, हरियाणा, पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात तथा कर्नाटक के वृष्टिछाया प्रदेश में पाये जाते है।
पर्वतीय वन (Mountain Forests) - ये वन ऊँचाई और वर्षा के अनुसार उपोष्ण प्रादेशीय और शीतोष्ण प्रादेशीय प्रकार के होते है।
पूर्वी हिमालय में पश्चिमी हिमालय की अपेक्षा वर्षा अधिक होती है। दोनों प्रकार की वनस्पतियों में भिन्नता पाई जाती है।
पूर्वी हिमालय में दालचीनी, अमूरा, साल, ओक, लारेल, मेपिल, एलडर, बर्च, सिल्वर फर, पाइन, स्प्रूस और जूनीपन आदि वृक्ष प्रमुख है।
वहीं पश्चिमी हिमालय में साल, सेमल, ढाक, शीशम, जामुन, बेर, चीड़, देवदार, नीला पाइन, एल्ब आर्मद वृक्ष महत्वपूर्ण है।
अल्पाइन वन;(Alpine Forests) - इस प्रकार के वन हिमालय पर्वत पर 2400 मीटर से अधिक ऊँचाई पर मिलते है। यह पूर्णतया कोणधारी वृक्ष हैं।
इसका विस्तार 2400 से 3600 मीटर के बीच की ऊँचाई में मिलता है। इसमें ओक, में पिल, सिल्वर फर, पाइन, जूनीपर प्रमुख वृक्ष है। जहाँ पर घास व फल वाले पौधे भी उगते है।
हिमालय के पूर्वी भागों में इनका अधिक विस्तार पाया जाता है। 3600 मीटर से 4800 मीटर की ऊँचाई तक टुण्ड्रा प्रकार की वनस्पति मिलती है, अर्थात् छोटी झाड़ियाँ व काई उत्पन्न होती है।
4800 मीटर से ऊपर वनस्पति के कोई चिन्ह नहीं मिलते, क्योंकि यहाँ हर समय बर्फ जमी रहती है। हिमालय पर 4800 मीटर ऊँचाई की सीमा को हिम रेखा कहते है।
ज्वारीय वन(Tidal Forests) - गंगा, ब्रह्मपुत्रा, महानदी, गोदावरी, कृष्णा नदियों के डेल्टा प्रदेश में मैनग्रोव व सुन्दरी वृक्ष मिलते है। गंगाब्रह्मपुत्रा डेल्टा के वनों को सुन्दर वन कहते है क्योंकि यहाँ का प्रधान वृक्ष सुन्दरी है।
समुद्र तटीय वन(Coastal Forests) - जहाँ समुद्री तट पर रेतीला किनारा मिलता है, वहाँ इस प्रकार के वन पाये जाते है। इनमें बहुधा केसूरिना वृक्ष उत्पन्न होते है। कहीं - कहीं पतझड़ की किस्म वाले वन तथा सदाबहार वन भी मिलते है। ताड़ व नारियल यहाँ के प्रमुख वृक्ष है।
नदी तट के वन (Riverine Forests)-यह वन विशाल मैदान की नदियों के किनारे खादर प्रदेशों में पाये जातेहै। प्रमुख वृक्ष खैर, झाऊ तथा इमलीहै।
‘राष्ट्रीय वन’ नीति द्वारा यह निश्चित किया गया है कि वनों का प्रतिशत 33.3 कर दिया जाय। इस दिशा में प्रयास जारी है।
हाल ही में उपग्रह के चित्रा से यह पता चला है कि देश की कुल भूमि के केवल 10% भू-भाग पर अच्छे वन पाये जातेहै।
सरकारी आंकड़े के 695.5 लाख हेक्टेयर वन में केवल 300 लाख हेक्टेयर पर ही वास्तविक वन है।
देश के कुल वनों का 22% भाग केवल मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में पाया जाता है। इसके बाद महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश राज्यों का स्थान आता है।
वास्तव में पठारी राज्यों में देश के कुल वनों का 60% से अधिक भाग पड़ता है। इसके बाद उत्तरी-पूर्वी राज्यों का स्थान आता है।
राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे मैदानी राज्य देश के केवल 16% वन रखतेहै।
भारत में प्रति व्यक्ति वनों का औसत केवल 0.2 हेक्टेयर है जबकि ब्राजील में यह 8.6 हेक्टेयर, आस्ट्रेलिया में 5.1 हेक्टेयर, स्वीडन में 3.2 हेक्टेयर तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में 1.8 हेक्टेयर है।
‘राष्ट्रीय वन नीति’ के अनुसार वास्तविक रूप से हिमालय पर्वत और दक्षिणी पठार एवं पहाड़ी क्षेत्रों की कुल भूमि के 60ः भू-भाग पर तथा मैदानों की 20ः भूमि पर वनों का विस्तार होना चाहिए।
वन नीति और कानून
संशोधित वन नीति, 1988 का मुख्य आधार वनों की सुरक्षा, संरक्षण और विकास है। इसके मुख्य लक्ष्य हैंः
पारिस्थितिकीय संतुलन के संरक्षण और पुनःस्थापन द्वारा पर्यावरण स्थायित्व को बनाए रखना,
प्राकृतिक संपदा का संरक्षण,
नदियों, झीलों और जलधाराओं के आवाजाही के क्षेत्र में भूमि कटाव और मृदा अपरोदन पर नियंत्राण,
राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों में तथा तटवर्ती क्षेत्रों में रेत के टीलों के विस्तार को रोकना,
व्यापक वृक्षारोपण और सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों के जरिए वन और वृक्ष के आच्छादन में महत्वपूर्ण बढ़ोतरी,
ग्रामीण और आदिवासी जनसंख्या के लिए ईंधन की लकड़ी, चारा तथा अन्य छोटी-मोटी वन-उपज आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कदम उठाना,
राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वन-उत्पादों में वृद्धि,
वन-उत्पादनों के सही उपयोग को बढ़ावा देना और लकड़ी का अनुकूल विकल्प खोजना, और
इन उद्देश्यों की प्राप्ति और मौजूदा वनों पर पड़ रहे दबाव को न्यूनतम करने हेतु जन साधारण, विशेषकर महिलाओं का अधिकतम सहयोग हासिल करना।
वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के प्रावधानों के अंतर्गत वन भूमि को गैर-वन भूमि में बदले जाने से पूर्व केंद्र सरकार की अनुमति की आवश्यकता होती है। इस अधिनियम को लागू किए जाने के बाद से वन-भूमि के अपवर्तन की दर घटकर वर्ष 1980 के पहले 1ण्43 लाख हेक्टेयर प्रतिवर्ष के मुकाबले लगभग 25ए000 हेक्टेयर प्रतिवर्ष हो गई है।
वन्य जीवन
भारतीय वन्य जीवन बोर्ड, जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्राी हैं, वन्य जीवन संरक्षण की अनेक परियोजनाओं के अमलीकरण की निगरानी और निर्देशन करने वाला शीर्ष सलाहकार संघ है।
इस समय संरक्षित क्षेत्र के अंतर्गत 84 राष्ट्रीय उद्यान और 447 अभयारण्य आते हैं, जो देश के सकल भौगोलिक क्षेत्र का 45ः हैं।
वन्य जीवन (सुरक्षा), अधिनियम, 1972 जम्मू और कश्मीर को छोड़कर (इसका अपना अलग अधिनियम है), शेष सभी राज्यों में स्वीकार किया जा चुका है।
दुर्लभ और खत्म होती जा रही प्रजातियों के व्यापार पर इस अधिनियम ने रोक लगा दी है।
बाघ संरक्षण परियोजना के कारण अब बाघों की संख्या देश में 2226 हो गई है।
स्मरणीय तथ्य
|
स्मरणीय तथ्य |
137 docs|10 tests
|
1. भारतीय भूगोल क्या है? |
2. भारत की भौगोलिक स्थिति क्या है? |
3. भारत में कौन-कौन सी जलवायु मिलती है? |
4. भारत में कौन-कौन सी पर्यावरणीय समस्याएं हैं? |
5. भारत में कौन-कौन सी जलसंसाधनें हैं? |
|
Explore Courses for UPSC exam
|