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मृदा के रासायनिक गुण - भारतीय भूगोल | Revision Notes for UPSC Hindi PDF Download

मृदा के रासायनिक गुण 

  • मृदा में मुख्य रूप से सिलिकन (28%), कैल्शियम (3 - 5%), मैगनीशियम (2.2 - 5%), पोटाशियम (20 - 25%), सोडियम (2- 5%), एल्युमिनियम (8%), आॅक्सीजन (47%) एवं लोहा (4.5%) तथा गौण रूप से बोरन, मैंगनीज, माॅलिब्डेनम, जस्ता, तांबा, कोबाल्ट, आयोडीन, फ्लोरिन आदि के यौगिक मौजूद होते है।
  • मृदा जीव: मृदा में पादप व जन्तुओं के रूप में अनेक सूक्ष्म व बड़े क्रियाशील प्राणी पाये जाते है । सूक्ष्म पादपों में बैक्टीरिया, कवक, शैवाल आदि पाये जाते है , जबकि बड़े जीवों के रूप में कृमि, कीट, चूहे एवं नीमेटोड्स पाये जाते है।

 
मृदा में सूक्ष्म जीवों का महत्व 

  • मृदा में कार्बनिक पदार्थों का परिवर्तन एवं विघटन
  • नाइट्रोजन स्थिरीकरण
  • कार्बनिक पदार्थों का विघटन अनेक रूपों में, यथा खनिजीकरण, एमीनीकरण, अमोनीकरण, नाइट्रीकरण, सल्फर का आॅक्सीकरण, लोहे के रूपान्तरण, सूक्ष्म पोषक तत्वों का रूपान्तरण आदि।
  • नाइट्रीकरण: अमोनिया के नाइट्रोजन का नाइट्रेट में रूपान्तरण नाइट्रीकरण कहलाता है।
  • नाइट्रोसोमोनास    नाइट्रोबैक्टर NH3    NO2 NO3 अमोनिया नाइट्राइट नाइट्रेट
  • कृषि नाइट्रोजन स्थिरीकरण: वायुमंडलीय मुक्त नाइट्रोजन को नाइट्रेट में परिवर्तित करने की क्रिया नाइट्रोजन स्थिरीकरण कहलाती है। नाइट्रोजन स्थिरीकरण दो तरह अर्थात् सहजीविता एवं असहजीविता से संभव है।
  • असहजीवी नाइट्रोजन स्थिरीकरण: इस प्रकार का  नाइट्रोजन स्थिरीकरण एजोटोबैक्टर एवं क्लोस्ट्रीडियम नामक असहजीवी जीवाणुओं द्वारा होता है।
  • सहजीवी नाइट्रोजन स्थिरीकरण: सहजीवी नाइट्रोजन स्थिरीकरण राइजोबियम जीवाणुओं द्वारा किये जाते है । राइजोबियम जीवाणु निम्नलिखित है - राइजोबियम मेलिलोटी, आर. ट्राइफोली, आर लेग्यूमिनोसेरम आदि।
  • कुछ सूक्ष्म जीवाणु एक ओर जहाँ नाइट्रोजन स्थिरीकरण जैसे महत्वपूर्ण कार्य करते है , वहीं दूसरी ओर कई सूक्ष्म जीवाणु विनाइट्रीकरण द्वारा नाइट्रेट को नाइट्रोजन में परिवर्तित भी कर देते है
विभिन्न फसलें

     फसल       

  उचित तापक्रम  डिग्री से.ग्रे.  

   वार्षिक वर्षा  सेमी.    

 मृदा

                               उत्पादन क्षेत्र

1. धान 

  20-35   

 100 

  भारी मृदा, सीवेज द्वारा जल की धारण शक्ति अच्छी हो    अधिक क्षति न हो तथा जल 

   उत्तर प्रदेश (गोरखपुर  वाराणसी, आजमगढ़,इलाहाबाद, लखनऊ मण्डल) मध्य प्रदेश, बिहार,  पं. बंगाल, केरल, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र के तटीय भाग,तमिलनाडु आदि

2.  ज्वार   

22.5-35   

40-60   

हल्की मृदा (दोमट)   

महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात, पं. मध्य प्रदेश।

3.  बाजरा   

25-35   

30-50   

बलुई दोमट   

राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, उत्तर.प्रदेश. एवं तमिलनाडु।

4. मक्का 

30-45   

50-60   

जीवांश युक्त अच्छे जल-निकास   वाली दोमट मृदा   

उत्तर प्रदेश. राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब,गुजरात, जम्मू एवं कश्मीर।

5.    गेहूँ   

16-25   

25-150   

अच्छे जल निकास वाली उपजाऊ   दोमट या चिकनी मिट्टी 

पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, बिहार।

6. चना   

16-25   

65-95   

हल्की एल्युवियल मृदा, पानी    धारण की अच्छी क्षमता, जल  निकास की समुचित व्यवस्था  

मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब एवं  बिहार।

7. अरहर 

25.35 पाला सेप्रभावित

75-100   

उचित जल निकास वाली उपजाऊ   दोमट मृदा जिसका पी-एच मान उदासीन हो।  

 उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि।

8. मूँगफली 

22.5-30   

60-130   

बलुई दोमट मिट्टी या अच्छे जल   

गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट,ª कर्नाटक,  उत्तर प्रदेश।             

9. सरसो  

16.25   

30-75   

मध्यम उपजाऊ, उदासीन अथवा हल्की क्षारीय दोमट मिट्टी      

राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश।

10. कपास

30-40   

75-120   

अच्छे जल निकास वाली उपजाऊ काली मिट्टी     

महाराष्ट्र, गुजरात, पं. मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, तमिलनाडु।

11.   जूट   

25-32.5   

100-150   

 रेतीली दोमट मिट्टी   

पं. बंगाल, बिहार, असम, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश।

12.   गन्ना   

20-35   

60-250   

अच्छी जल निकास वाली उपजाऊ  भारी मिट्टी    

उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब एवं महाराष्ट्र। 

13. आलू

15-30   ओला और  पाला हानिकारक

50-120   

उचित जल निकास वाली उपजाऊ,   जीवांश युक्त रेतीली दोमट मिट्टी 

उत्तर प्रदेश, असम, बिहार, उड़ीसा।

    14.  तम्बाकू 

8o-30o

   50-100 

उचित जल निकास वाली भारी मृदा  पाला

उपजाऊ, कम जैविक पदार्थयुक्त,   आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात एवं बिहार, हरियाणा।


 

 

फसलों के प्रमुख कीट

नाम

       क्षति

   रोकथाम

1. धान की गन्धी

दूधिया बालियों के रस चूसते है ।

10% बी. एच. सी.

2. धानका बंका

पत्तियों को खाने के साथ-साथ पत्तियों का खोल बनाती है ।

10% बी. एच. सी. इन्डोसल्फान

3. तना छेदक (धान एवं मक्का)

ये तने को छेदकर अन्दर ही अन्दर खाती है ।

कार्बोफ्यूरान 30%, फास्फेमिडान

4. कपास का फुदका

पत्तियों के रस को चूसते है ।

मिथाइल डेमेटान

5. दीमक तथा मुझिया (गेहूँ)

रात्रि में उगते पौधों को जमीन के पास से काटती है ।

एल्ड्रिन, बी. एच. सी.

6. चने का फली छेदक

ये फली के अन्दर दाने को खाती है ।

इन्डोसल्फान, मैलाथियान

7. गन्ने का दीमक

गन्ने की आँखों को क्षति पहुँचाते है ।

एल्ड्रिन 5%

8. पायरिला (गन्ना)

पत्तियों की निचली सतह से रस चूसता है।

बी. एच. सी. 10% मैलाथियान, थापोडान

9. माॅहूं (सरसों)

शिशु तथा प्रौढ़ दोनों पत्तियों तथा फूल से रस चूसते है जिससे फल नहीं लगते है ।

मिथाइल डेमेटान

10. हिस्पा (धान)

कीट तथा लारवा पत्तियों को खुरचकर खाता है जिससे पत्तियों पर सफेद समान्तर रेखाएं बन जाती है ।

बी. एच. सी. का 50% घोल, इन्डोसेल्फान, पैराथियान

11. धान की बाल काटने वाला कीट (सैनिक कीट)

कीट की सूड़ियाँ रातोरात धान की बालियाँ देती है । काटकर गिरा

लोरोपाइरोफास, पैराथियान या इन्डोसल्फान का घोल सन्ध्या को बालियों पर छिड़कना।

12. सरसों की आरा मक्खी

पत्तियाँ खाती है ।

10% बी. एच. सी. चूर्ण या 2%  पैराथियान धूल का प्रयोग

13. व्हाइट मूव

आलू के कन्द (tuber) को प्रभावित करता है।

फोरेट ग्रेन्यूल का प्रयोग करना चाहिए।

14. गन्ना भेदक

गन्ने को भेदकर अन्दर ही अन्दर गूदा खाता है।

बी. एच. सी. या थायोडान का छिड़काव करना चाहिए।

15. मक्का का लाल मुडली

पौधे को काटकर खाता है। यह कोमल अवस्था में खाता है।

बी. एच. सी. या  पैराथियान का  छिड़काव


  शुष्क-कृषि

  • ऐसे स्थान जहाँ 40 से 120 सेंटीमीटर के बीच वर्षा होती है एवं जल संरक्षण की गंभीर समस्या रहती है, वहां उन्नत कृषि क्रियाओं द्वारा जल-संरक्षण करते हुये फसल उत्पादन करना शुष्क कृषि कहलाता है।


शुष्क कृषि क्षेत्रों की समस्यायें

  • शुष्क कृषि क्षेत्रा में वर्षा की अनिश्चितता हमेशा बनी रहती है। इस क्षेत्रा की प्रमुख समस्यायें निम्नलिखित है -
  • इस क्षेत्रा की भूमि कठोर एवं ऊँची-नीची होती है।
  • जल संचय की समस्या।
  • लवणों की सान्द्रता अधिक होने से मृदा का पी. एच. मान अधिक हो जाता है।
  • ऐसे क्षेत्रा में कार्बनिक पदार्थ तथा सूक्ष्म जीवाणुओं की कमी रहती है।
  • अधिक तापमान के कारण इस क्षेत्रा में वनस्पति कम पायी जाती है।


पौधोें के लिए आवश्यक पोषक तत्त्व

  • इन पोषक तत्त्वों की पौधों के पोषण एवम् विकास में अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है।
  • हवा अथवा पानी से
  • कार्बन (C)
  • इड्रोजन (H)
  • आॅक्सीजन (O)
  • भूमि से

नाइट्रोजन: पौधे की वृद्धि में सहायता करता है तथा हरे रंग को बढ़ाता है। यह फास्फोरस तथा पोटाश के प्रयोग का नियंत्राण करता है और इसकी कमी से वृद्धि रूक जाती है, पौधा पीला होने लगता है तथा उत्पादन कम हो जाता है

  • फाॅस्फोरस: पौधे को मजबूत बनाता है। यह फसल के गुण को बढ़ाता है। यह नये कोशिकाओं का निर्माण करता है और जड़ की वृद्धि करता है। दलहनी फसलों के लिए इसकी विशेष रूप से आवश्यकता होती है, क्योंकि सहजीवी जीवाणुओं के लिए यह तत्त्व नितांत आवश्यक है।
  • पोटैशियम: ये पौधों में कार्बन स्वाँगीकरण क्रिया में सहायक होता है। इसकी कमी से गन्ने, चुकन्दर और आलू में स्टार्च कम बनता है। पर्णहरित बनने के लिए पोटैशियम की आवश्यकता होती है।
  • कैल्सियम: इसकी कमी से  पौधों की जड़ छोर से मरने लगती है या इसकी वृद्धि नहीं हो पाती है।
  • गंधक: पौधे के तनों को मजबूती देता है। प्याज, लहसुन, गोभी, मूली, हल्दी तथा मूंगफली, चना आदि में इसकी अधिक आवश्यकता होती है। इसकी कमी से नये पत्ते पीले होने लगते है। जड़ तथा तना असाधारण रूप से लम्बे हो जाते है।
  • मैग्नीशियम: इसकी अनुपस्थिति में पर्णहरित नहीं बनता है। तिलहनों में इसकी विशेष रूप से आवश्यकता होती है। इसकी कमी से फसलों के अनुसार पत्तों पर धब्बे हो जाते है। जैसे - कपास के पत्तों में गुलाबी-लाल धारियां, सोयाबीन में पीली धारियां तथा आंवले में भूरे धब्बे आते है।
  • शाकनाशी दो प्रकार के होते हैः
    • वरणात्मक एवं                    
    • अवरणात्मक।
       
  • वरणात्मक शाकनाशी किसी जाति विशेष के पादपों को ही नष्ट करने में सक्षम होते है एवं दूसरे पादपों को कोई हानि नहीं पहुंचाते है, जैसे - 2, 4-डी। वरणात्मक शाकनाशी को निम्नलिखित उपवर्गों में विभाजित किया जा सकता हैः
  • संस्पर्श वरणात्मक शाकनाशी: ये शाकनाशी खर-पतवारों के उन्हीं भागों को नष्ट करते है, जो इनके सम्पर्क में आते है। उदाहरणतः पोटाशियम सायनेट (KCN)।
  • स्थानान्तरित वरणात्मक शाकनाशी: इस प्रकार के शाकनाशी पत्तियों अथवा जड़ों द्वारा अवशोषित होकर पौधों के सभी भागों में स्थानान्तरित हो जाते है तथा सम्पूर्ण पादपों को नष्ट कर देते है। जैसे 2,4-डी, 4-डी बी, 2,4,5 - टी-एम.सी.पी.ए. आदि।
  • मृदा-निर्जीवकारी वरणात्मक शाकनाशी: इसका प्रयोग खर-पतवारों के उगने से पूर्व ही किया जाता है ताकि वह निकलने से पूर्व ही नष्ट हो जाये। उदाहरण-टेफ्लान, टेफाजिन अथवा सिमेजिन।
  • अवरणात्मक शाकनाशी सम्पर्क में आनेवाली सभी वनस्पतियों को क्षति पहुंचाते है। अतः इसका प्रयोग फसलों के बीच खर-पतवारों को नष्ट करने में नहीं किया जाना चाहिए। 

     इसे भी तीन उपवर्गों में विभाजित किया जा सकता हैः
  • संस्पर्श अवरणात्मक शाकनाशी: यथाथिपेराक्वेट अथवा ग्रामाक्सोन।
  • स्थानांतरित अवरणात्मक शाकनाशी: यथाथिथायोसायनेट, एमीट्रोल।मृदा-निर्जीवकारी 
  • अवरणात्मक शाकनाशी: यथाथिक्लोरोपिकरिन, ब्रोमोसिल

 

                   स्मरणीय तथ्य
 1954 - 55  -    कृषि-आर्थिक अनुसंधान अध्ययन योजना शुरू की गई।
 1958   - अखिल भारतीय भूमि एवं मृदा उपयोग सर्वेक्षण कार्यालय की स्थापना।
 1963 - राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम की स्थापना।
 1965  -    आणंद (गुजरात) में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड की स्थापना।
 1966  -  अधिक उपज देने वाली किस्मों के कार्यक्रम से हरित क्रांति की शुरुआत।
 1968   -   बगलौर में मछली पालन के लिए सेंट्रल इन्स्टीट्यूट आॅफ कोस्टल इंजीनियरिंग की स्थापना।
 1969  -   हेसरगट्टा में सेंट्रल फ्रोजन सीमेन् प्रोडक्शन टेªनिंग इन्स्टीट्यूट की स्थापना।
 1970   -   पहली बार कृषि-जनगणना कराई गई।
 1974  -   पशु बीमा योजना लागू।
 1983  -   राष्ट्रीय भूमि उपयोग एवं संरक्षण बोर्ड की स्थापना।
 1988   -    डेयरी विकास से संबंधित टेक्नोलाॅजी मिशन की शुरुआत (अगस्त)।
 1991   -    डेयरी और पशुपालन विभाग का गठन (1 फरवरी)
            -   विश्व बैंक की सहायता से समन्वित जलसंभर विकास परियोजना की शुरुआत।
 1993   -   देश के सात राज्यों-महाराष्ट्र, केरल, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में ”कृषि क्षेत्रा में महिलाएं” योजना की शुरुआत।
             -    व्यापक फसल बीमा योजना लागू।
 1994.95   -    पूर्वोत्तर में सात राज्यों के झूम खेती क्षेत्रों में जलसंभर विकास परियोजना से संबंधित योजना शुरू।
 1998   -    राष्ट्रीय कृषि टेक्नोलाॅजी परियोजना की शुरुआत।
            - किसानों के लिए क्रेडिट कार्ड योजना शुरू की गई

 

                     राज्यवार ऊसर मृदा का विस्तार
 राज्य                   क्षेत्रापफल           राज्य                          क्षेत्रापफल
 उत्तर प्रदेश           12.95            कर्नाटक                            4.04
 गुजरात                12.14          मध्य प्रदेश                           2.42
 पश्चिम बंगाल        8.50          आन्ध्र प्रदेश                           0.24
 राजस्थान             7.25             दिल्ली                                0.16
 पंजाब                   6.88              केरल                                 0.16
 महाराष्ट्र               5.35             बिहार                                    04
 हरियाणा              5.25           तमिलनाडु                                 04
 उड़ीसा                  4.02

 

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FAQs on मृदा के रासायनिक गुण - भारतीय भूगोल - Revision Notes for UPSC Hindi

1. मृदा के रासायनिक गुण क्या होते हैं?
उत्तर: मृदा के रासायनिक गुण विभिन्न प्रकार के तत्वों और यौगिकों के मौजूद होने पर आधारित होते हैं। इनमें आयरन, कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटैशियम, फॉस्फोरस, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन, और अन्य तत्व शामिल हो सकते हैं। ये रासायनिक गुण मृदा की उपयोगीता, खाद्य मानक, पीएच वैल्यू, तापमान शक्ति, और अन्य मानकों के लिए महत्वपूर्ण होते हैं।
2. मृदा के रासायनिक गुण क्यों महत्वपूर्ण होते हैं?
उत्तर: मृदा के रासायनिक गुण महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि वे मृदा की उपयोगीता, खाद्य मानक, पीएच वैल्यू, तापमान शक्ति, और अन्य मानकों के लिए आधार बनाते हैं। ये गुण मृदा के उपयोग क्षेत्र, जैसे कि कृषि, इंडस्ट्री, औद्योगिक विकास, और पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
3. कौन से तत्व मृदा के रासायनिक गुणों में शामिल हो सकते हैं?
उत्तर: मृदा के रासायनिक गुणों में आयरन, कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटैशियम, फॉस्फोरस, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन, और अन्य तत्व शामिल हो सकते हैं। ये तत्व मृदा के विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाओं और विशेषताओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
4. मृदा के रासायनिक गुणों का अध्ययन किस विषय में किया जाता है?
उत्तर: मृदा के रासायनिक गुणों का अध्ययन मृदा विज्ञान के अंतर्गत किया जाता है। मृदा विज्ञान में मृदा की विशेषताएँ, उपयोगीता, भूमिका, और उसके रासायनिक गुणों के बारे में अध्ययन किया जाता है। यह विषय कृषि, इंजीनियरिंग, पर्यावरण विज्ञान, और अन्य डिस्किप्लिनों के अंतर्गत भी आता है।
5. मृदा के रासायनिक गुणों का महत्व क्या है?
उत्तर: मृदा के रासायनिक गुणों का महत्व इसलिए है क्योंकि वे मृदा की उपयोगीता, खाद्य मानक, पीएच वैल्यू, तापमान शक्ति, और अन्य मानकों के मानों के आधार बनाते हैं। इन गुणों के अधिकारी ज्ञान के बिना, मृदा का सही उपयोग नहीं किया जा सकता है, जिससे कि कृषि उत्पादन, इंजीनियरिंग परियोजनाएँ, और पर्यावरण संरक्षण प्रयास सफल नहीं हो सकते हैं।
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