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Politics and Governance (राजनीति और शासन): October 2023 UPSC Current Affairs | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

न्यायिक नियुक्तियों में देरी चिंता का विषय: सर्वोच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका में नई प्रतिभाओं की नियुक्तियों में हो रही देरी को लेकर चिंता जताई है। इसका प्रमुख कारण उच्च न्यायालयों में न्यायतंत्र का हिस्सा बनने के लिये चयनित उम्मीदवारों ने उच्च न्यायालय कॉलेजियम की सिफारिशों पर कार्रवाई करने में सरकार द्वारा किये जा रहे विलंब के परिणामस्वरूप अपने आवेदन वापस ले लिये हैं।

  • भारत के महान्यायवादी को 9 अक्टूबर, 2023 तक लंबित न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरणों पर अपडेट प्रदान करने का निर्देश दिया गया था।

न्यायिक नियुक्तियों में देरी को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की चिंताएँ

  • नियुक्ति में विलंबता तथा प्रतिभाओं को अवसर प्रदान करने में चूक:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के पास 10 महीने से अधिक समय से लंबित 70 उच्च न्यायालय कॉलेजियम सिफारिशों के बैकलॉग को लेकर चिंता जताई है।
    • सिफारिशों को संसाधित करने में इतनी देरी के कारण न्यायपालिका के भीतर प्रतिभाओं की कमी हो गई है, क्योंकि संभावित उम्मीदवार सरकारी निष्क्रियता के कारण अपनी उम्मीदवारी वापस ले रहे हैं।
    • विधि के क्षेत्र में प्रतिभाशाली कई लोग इन विलंबों के कारण उत्पन्न अनिश्चितता के कारण भी अपने आवेदन वापस ले रहे हैं।
  • नामों का विवादास्पद पृथक्करण: 
    • कॉलेजियम-अनुशंसित सूचियों से नामों को अलग करने की सरकार की कार्य-प्रणाली गंभीर चिंता का विषय है।
    • कॉलेजियम द्वारा स्पष्ट मनाही के बावजूद सरकार ने नामों को अलग करना जारी रखा, जिससे कॉलेजियम के निर्देशों का विरोध हुआ।
    • इस विवादास्पद कार्य-प्रणाली के परिणामस्वरूप उम्मीदवारों को अपनी उम्मीदवारी वापस लेनी पड़ी है।
  • नियुक्तियों और रिक्त पदों का बैकलॉग:
    • उच्च न्यायालय कॉलेजियम की सिफारिशों के व्यापक बैकलॉग ने देश भर में कई न्यायिक पदों को रिक्त छोड़ दिया है।
    • प्रक्रिया ज्ञापन कॉलेजियम द्वारा दोहराए गए नामों की शीघ्र नियुक्ति का आदेश देता है, लेकिन इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया जा रहा है, जिससे और विलंब हो रहा है।

Politics and Governance (राजनीति और शासन): October 2023 UPSC Current Affairs | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

  • विशिष्ट लंबित मामले:
    • मणिपुर उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति लंबित है, जिससे अनिश्चितता बनी हुई है।
    • इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित 26 तबादलों पर सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है।

भारत में न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ

  • भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI):
    • भारत के राष्ट्रपति CJI और अन्य SC न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं।
    • जहाँ तक CJI का सवाल है, निवर्तमान CJI अपने उत्तराधिकारी की सिफारिश करते हैं।
    • वर्ष 1970 के दशक के अधिक्रमण विवाद के बाद से यह सख्ती से वरिष्ठता के आधार पर किया गया है।
  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश:
    • SC के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा CJI और सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के ऐसे अन्य न्यायाधीशों से परामर्श के बाद की जाती है, जिन्हें वह आवश्यक समझते हैं।
    • CJI और सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों का एक पैनल, जिसे कॉलेजियम के नाम से जाना जाता है, राष्ट्रपति को SC जज के रूप में नियुक्त होने वाले उम्मीदवारों के नामों की सिफारिश करते हैं।
  • उच्च न्यायालयों (HC) के मुख्य न्यायाधीश और HC के न्यायाधीश:
    • HC के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा CJI और संबंधित राज्य के राज्यपाल के परामर्श के बाद की जाती है।
    • उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सिफारिश CJI और दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों वाले कॉलेजियम द्वारा की जाती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से भी परामर्श किया जाता है।
    • उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को उच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिये किसी नाम की सिफारिश करने से पहले अपने दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श करना भी आवश्यक है।

आगे की राह

  • सरकार को नियुक्तियों के बैकलॉग को खत्म करने और रिक्त न्यायिक पदों को तुरंत भरने के लिये लंबित उच्च न्यायालय कॉलेजियम सिफारिशों के प्रसंस्करण में तेज़ी लानी चाहिये।
  • सरकार को कॉलेजियम की सिफारिशों से नामों को अलग करने की प्रथा बंद करनी चाहिये और न्यायाधीशों की नियुक्ति में कॉलेजियम के निर्देशों का पालन करना चाहिये।
  • न्यायिक नियुक्तियों और तबादलों की प्रगति पर नज़र रखने एवं रिपोर्ट करने हेतु एक पारदर्शी प्रणाली स्थापित करना। अनुचित विलंब या गैर-अनुपालन के लिये ज़िम्मेदार व्यक्तियों को दोषी ठहराना।

लोकसभा में नैतिकता और पारदर्शिता सुधार

अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की सांसद (सांसद) महुआ मोइत्रा के खिलाफ लोकसभा आचार समिति की हालिया कार्यवाही ने एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक बहस छेड़ दी है। ये कार्यवाही एक वरिष्ठ सांसद निशिकांत दुबे द्वारा दर्ज कराई गई एक शिकायत के जवाब में शुरू की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि सुश्री मोइत्रा ने व्यवसायी के हितों को बढ़ावा देने के लिए संसद में विशिष्ट प्रश्न उठाने के बदले में एक व्यवसायी से धन प्राप्त किया था। लोकसभा अध्यक्ष ने शिकायत को जांच और रिपोर्ट के लिए आचार समिति को भेज दिया।Politics and Governance (राजनीति और शासन): October 2023 UPSC Current Affairs | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

निष्कासन और दुराचार के उदाहरण

  • यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि यदि किसी सांसद को संसद में प्रश्न उठाने के लिए धन प्राप्त होता है, तो यह विशेषाधिकार का उल्लंघन और सदन की अवमानना है। इस तरह की शिकायतें आम तौर पर विशेषाधिकार समिति के दायरे में आती हैं, जो एक जांच करती है और सांसद के खिलाफ कार्रवाई के लिए सिफारिशों के साथ निष्कर्ष प्रस्तुत करती है। गंभीर मामलों में, सांसदों को लोकसभा से निष्कासित कर दिया गया है।
  • इसका सबसे पहला उदाहरण 1951 में हुआ जब अस्थायी संसद के सांसद H.G. मुद्गल को सवाल उठाकर और उस संगठन को प्रभावित करने वाले विधेयक में संशोधन का प्रस्ताव देकर वित्तीय लाभ के बदले में एक व्यावसायिक संघ के हितों को बढ़ावा देने का दोषी पाया गया था।
  • सदन की एक विशेष समिति ने निर्धारित किया कि उनका आचरण सदन की गरिमा के लिए अपमानजनक था और इसके सदस्यों से अपेक्षित मानकों के साथ असंगत था। उन्होंने निष्कासित होने से पहले इस्तीफा देने का फैसला किया, हालांकि अनुशंसित कार्रवाई उनका निष्कासन था।
  • 2005 में, एक निजी चैनल द्वारा किए गए एक स्टिंग ऑपरेशन ने 10 लोकसभा सांसदों को सवाल उठाने के लिए पैसे स्वीकार करने का खुलासा किया। एक विशेष समिति ने उन्हें एक सदस्य के अनुचित आचरण का दोषी पाया और उनके निष्कासन की सिफारिश की, जिसे बाद में सदन ने स्वीकार कर लिया। सभी 10 सांसदों को निष्कासित कर दिया गया।
  • ये उदाहरण बताते हैं कि सांसदों द्वारा संसदीय कार्य के लिए धन स्वीकार करने की शिकायतों को आम तौर पर विशेषाधिकार समिति या ऐसे उद्देश्यों के लिए गठित विशेष समितियों को भेजा जाता है।
  • हालाँकि, महुआ मोइत्रा के मामले को नैतिकता समिति को भेज दिया गया है, भले ही आरोप संसदीय कर्तव्यों का पालन करने के लिए अवैध संतुष्टि से संबंधित है।

नैतिकता समिति की भूमिका

  • 2000 में स्थापित लोकसभा की आचार समिति को सांसदों के अनैतिक आचरण से संबंधित शिकायतों की जांच करने का काम सौंपा गया है। इसने सांसदों के लिए एक आचार संहिता भी तैयार की है, लेकिन 'अनैतिक आचरण' शब्द को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। अतः समिति के पास यह निर्धारित करने का अधिकार है कि आचरण का कोई विशिष्ट कार्य अनैतिक है या नहीं।
  • अतीत में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जहां नैतिकता समिति ने कदाचार के मुद्दों को संबोधित किया है। उदाहरण के लिए, एक सांसद ने एक संसदीय दौरे के दौरान अपनी करीबी महिला साथी का प्रतिरूपण अपनी पत्नी के रूप में किया, जिससे समिति ने उन्हें अनैतिक आचरण का दोषी पाया। सजा के तौर पर उन्हें तीस बैठकों से निष्काषित कर दिया गया था और उन्हें उस लोकसभा के शेष कार्यकाल के लिए किसी भी साथी या पति या पत्नी को आधिकारिक दौरों पर ले जाने से रोक दिया गया था।
  • नैतिकता समिति ने विभिन्न कदाचार के मामलों को निपटाया है। गंभीर दुराचार के मामलों, विशेष रूप से आपराधिक अपराधों से जुड़े मामलों को आमतौर पर विशेषाधिकार समिति या विशेष समितियों को भेजा जाता है, न कि नैतिकता समिति को।

आपराधिक पहलू

  • ऐसे मामलों में जहां सांसदों पर अवैध लाभ स्वीकार करने का आरोप लगाया जाता है, जैसा कि सुश्री मोइत्रा के मामले में हुआ, यह विशेषाधिकार का उल्लंघन है और आपराधिक कानून के दायरे में आता है। रिश्वत लेना एक आपराधिक अपराध है, जिसकी जांच आम तौर पर सरकारी आपराधिक जांच एजेंसियों द्वारा की जाती है।
  • संसदीय समितियाँ आपराधिक जाँच में शामिल नहीं होती हैं; उनकी भूमिका यह निर्धारित करना है कि क्या एक सांसद का आचरण संसदीय ढांचे के भीतर विशेषाधिकार का उल्लंघन या सदन की अवमानना के बराबर है।
  • यदि विशेषाधिकार का उल्लंघन स्थापित हो जाता है, तो सदन, परिसर के भीतर सांसद के कामकाज से संबंधित दंडात्मक कार्रवाई कर सकता है।
  • हालांकि, संसदीय कार्यवाही के बाहर, सांसद लागू कानूनों के तहत रिश्वत जैसे किसी भी आपराधिक कार्य के लिए लागू कानून के तहत दंडित होते हैं। विशेष रूप से, 2005 में लोकसभा से निष्कासित 10 सांसदों को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मुकदमे का सामना करना पड़ा था।

संसदीय जांच बनाम न्यायिक जांच

  • यह जानना महत्वपूर्ण है कि संसदीय जांच न्यायिक जांच से काफी अलग होती है। न्यायिक निकाय न्यायिक प्रशिक्षण वाले व्यक्तियों द्वारा संचालित विशिष्ट कानूनों और नियमों के अनुसार मामलों की जांच करते हैं, जबकि संसदीय समितियों में ऐसे सांसद होते हैं जो न्यायिक क्षेत्र के विशेषज्ञ नहीं होते हैं।
  • संसद के पास कार्यकारी शाखा की जवाबदेह साधन के रूप में जांच करने की शक्ति है । संसद के पास अपने सम्मान और गरिमा की रक्षा के लिए अपने सदस्यों को अनुशासित करने का अधिकार है।
  • संसदीय जांच सदन के नियमों में उल्लिखित एक विशिष्ट कार्यप्रणाली का पालन करती है। सामान्य प्रक्रियाओं में शिकायतकर्ता और गवाहों द्वारा प्रस्तुत लिखित दस्तावेजों की जांच, प्रासंगिक गवाहों की मौखिक जांच, यदि आवश्यक हो तो विशेषज्ञों की गवाही, सभी साक्ष्यों का विश्लेषण और संभावनाओं की प्रधानता के आधार पर निर्णय लिया जाता है।
  • संसदीय समितियाँ साक्ष्य अधिनियम से बाध्य नहीं हैं। साक्ष्य की प्रासंगिकता के बारे में निर्णय अंततः साक्ष्य अधिनियम के अधीन होने के बजाय अध्यक्ष द्वारा किए जाते हैं।

प्रश्नों की ऑनलाइन प्रस्तुति

  • प्रश्नों को ऑनलाइन जमा करने के लिए सांसदों द्वारा अपने लॉगिन विवरण और पासवर्ड साझा करने के मुद्दे ने हाल ही में ध्यान आकर्षित किया है।
  • व्यवहार में, कई सांसदों के पास व्यक्तिगत रूप से प्रश्नों का मसौदा तैयार करने का समय नहीं होता है, और इसलिए, वे इस कार्य को परिचितों के साथ साझा करते हैं। सांसदों के भारी कार्यभार को देखते हुए इस व्यवस्था को एक व्यावहारिक आवश्यकता माना जा सकता है।
  • इसके अलावा, लोकसभा को प्रश्नों के ऑनलाइन प्रस्तुत करने को विनियमित करने के लिए विशिष्ट नियम तैयार करने की आवश्यकता है। सांसद संसदीय कार्य में सहायता करने के लिए व्यक्तियों को शामिल करने के लिए स्वतंत्र हैं, और वे उन स्रोतों का खुलासा करने के लिए बाध्य नहीं हैं जिनसे वे अपने काम के लिए जानकारी प्राप्त करते हैं।
  • संविधान का अनुच्छेद 105 सांसदों को सदन में खुद को व्यक्त करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है, और यह अधिकार संसद के लिए प्रश्न उठाने या विधेयकों और प्रस्तावों का मसौदा तैयार करने के लिए जानकारी प्राप्त करने तक फैला हुआ है।
  • एक सांसद द्वारा उपयोग की जाने वाली जानकारी के स्रोतों की जांच करने में कानूनी मंजूरी की कमी हो सकती है। हालाँकि, संसद के पास विशेषाधिकार या अवमानना के किसी भी उल्लंघन के लिए अपने सदस्यों को अनुशासित करने का अधिकार है, विशेष रूप से उनके संसदीय कार्य के संदर्भ में।

निष्कर्ष

  • लोकसभा आचार समिति का कामकाज, संसदीय और आपराधिक जांच के बीच का अंतर और सांसदों के लिए आचार संहिता भारत में नैतिक और पारदर्शी संसदीय आचरण सुनिश्चित करने के सभी महत्वपूर्ण पहलू हैं। महुआ मोइत्रा से जुड़ा हालिया मामला संसदीय प्रक्रियाओं और नैतिकता समितियों की बारीकियों को समझने के महत्व पर प्रकाश डालता है।
  • जबकि संसदीय समितियाँ संसदीय नियमों और विशेषाधिकारों की सीमा के भीतर नैतिक दुराचार को संबोधित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, आपराधिक अपराध कानून प्रवर्तन एजेंसियों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। आपराधिक आचरण से निपटने के लिए आवश्यक कानूनी प्रक्रियाओं के साथ सदन की गरिमा और सम्मान की रक्षा करने की आवश्यकता को संतुलित करना एक नाजुक और जटिल कार्य है। 
  • अंततः, भारत की संसदीय प्रणाली की अखंडता इन मुद्दों पर सावधानीपूर्वक विचार करने और स्थापित नियमों और प्रक्रियाओं के अनुप्रयोग पर निर्भर करती है।

विधेयकों को धन विधेयक घोषित करने की चुनौती पर उच्चतम न्यायालय की सुनवाई

भारत के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में भारत के सर्वोच्च न्यायालय की सात-न्यायाधीशों की खंडपीठ ने केंद्र द्वारा संसद में धन विधेयक के रूप में महत्त्वपूर्ण संशोधनों को पारित करने के तरीके से संबंधित एक संदर्भ को प्राथमिकता देने के अनुरोध को संबोधित किया।

धन विधेयक के रूप में पारित चुनौतीपूर्ण संशोधन

धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA) संशोधन

  • वर्ष 2015 के बाद से धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA) में किये गए संशोधनों ने प्रवर्तन निदेशालय को व्यापक शक्तियाँ प्रदान कीं, जिसमें गिरफ्तारी करने और छापेमारी का अधिकार भी शामिल है।
  • प्राथमिक चिंता इन संशोधनों को धन विधेयक के रूप में पारित करना है, जिससे उनकी वैधता और संवैधानिकता पर सवाल उठ रहे हैं।
  • कानूनी विशेषज्ञ और याचिकाकर्त्ता सवाल करते हैं कि क्या इन महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों को संसद के दोनों सदनों से जुड़ी मानक विधायी प्रक्रिया का पालन करना चाहिये था।

वित्त अधिनियम, 2017

  • वित्त अधिनियम, 2017 को धन विधेयक के रूप में वर्गीकृत एवं पारित किया गया, जिससे इस विधायी प्रक्रिया के उचित उपयोग के विषय में चिंताएँ बढ़ गईं।
  • आरोप है कि अधिनियम का उद्देश्य राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण और केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण सहित 19 प्रमुख न्यायिक न्यायाधिकरणों में नियुक्तियों में बदलाव करना है।
  • आरोप है कि वर्ष 2017 अधिनियम को धन विधेयक के रूप में वर्गीकृत करना इन न्यायाधिकरणों पर कार्यकारी नियंत्रण बढ़ाने को लेकर जानबूझकर किया गया एक प्रयास था।
  • अधिनियम के पारित होने के साथ-साथ ऐसे बदलाव भी हुए जिनसे इन प्रमुख न्यायिक निकायों में कर्मचारियों के लिये आवश्यक योग्यता और अनुभव को कम कर दिया गया।

आधार अधिनियम, 2016

  • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2018 में सरकार के पक्ष में निर्णय सुनाया था और आधार अधिनियम को संविधान के अनुच्छेद 110 के तहत वैध धन विधेयक के रूप में मंज़ूरी दे दी थी।
  • सरकार ने तर्क दिया था, चूँकि आधार के माध्यम से वितरित सब्सिडी भारत के समेकित कोष से आती है, इसलिये कानून को वैधानिक तौर पर धन विधेयक के रूप में वर्गीकृत किया गया जिसने कानूनी और कार्यविधि संबंधी प्रश्न उठाए।  
  • धन विधेयक केवल लोकसभा के लिये होते हैं और राज्यसभा के प्रभाव को सीमित करते हैं।
  • हाल ही में CJI ने अधिक व्यापक समीक्षा के लिये कहा।

वृहद् पीठ (Larger Bench) के निहितार्थ

  • PMLA, आधार अधिनियम और ट्रिब्यूनल सुधारों की संवैधानिकता पर स्पष्टता।
  • यह निर्धारित करना कि क्या इन कानूनों को सही तरीके से धन विधेयक के रूप में वर्गीकृत किया गया था अथवा राज्यसभा की जाँच को रोकने के लिये इनका प्रयोग किया गया था।
  • इस बात का समाधान करना कि क्या ये वर्गीकरण कानूनी रूप से सही थे या निगरानी से बचने के लिये रणनीतिक चालें थीं।
  • वृहद् पीठ के बीच बहस से इस बारे में अधिक जानकारी मिल सकती है कि न्यायपालिका धन विधेयक के रूप में उपायों को नामित करने के संबंध में अध्यक्ष के निर्णयों पर किस हद तक जाँच कर सकती है।

धन विधेयक

  • धन विधेयक एक वित्तीय कानून है जिसमें विशेष रूप से राजस्व, कराधान, सरकारी व्यय और उधार से संबंधित प्रावधान शामिल हैं।

संवैधानिक आधार

  • अनुच्छेद 110 (1) किसी विधेयक को धन विधेयक समझा जाता है यदि वह अनुच्छेद 110 (1) (a) से (g) में निर्दिष्ट मामलों, विशेषकर कराधान, सरकार द्वारा उधार लेना और भारत की संचित निधि से धन के विनियोग, से संबंधित है।
  • अनुच्छेद 110(1)(g) के अनुसार “अनुच्छेद 110(1)(a)(f) में निर्दिष्ट किसी भी गतिविधि से जुड़ा कोई भी मामला” धन विधेयक हो सकता है।
  • संविधान के अनुच्छेद 110 (3) के अनुसार, “यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं”, तो उस पर लोक सभा के अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होगा।

प्रक्रिया

  • धन विधेयक को लोकसभा में प्रस्तुत किया जाना चाहिये किंतु राज्यसभा (उच्च सदन) में यह प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।
  • राज्य सभा किसी धन विधेयक पर केवल सिफारिशें कर सकती है लेकिन उसमें संशोधन करने या उसे अस्वीकार करने की शक्ति उसके पास नहीं है।
  • राष्ट्रपति किसी धन विधेयक को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है लेकिन उसे पुनर्विचार के लिये वापस नहीं कर सकता।
  • इसमें संयुक्त बैठक का कोई प्रावधान नहीं है।

दल-बदल विरोधी कानून

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्यमंत्री और अन्य विधायकों के विरुद्ध दल-बदल विरोधी प्रक्रिया को लंबा खींचने के लिये महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष को फटकार लगाई।

  • न्यायालय ने अयोग्यता की कार्यवाही की प्रगति में कमी पर असंतोष व्यक्त किया और अध्यक्ष से दो महीने के अंदर निर्णय लेने का आग्रह किया।
  • इससे पहले न्यायालय ने स्पीकर को संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता की कार्यवाही को पूरा करने के लिये एक समय-सीमा तय करने का निर्देश दिया था।

पृष्ठभूमि

  • वर्ष 2022 में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार को गिरा दिया गया और उसकी जगह दूसरी सरकार का गठन हुआ, जिसमें शिवसेना का एक गुट शामिल था। शिवसेना से अलग हुए गुट के नेता एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री बने।
  • इसके बाद ठाकरे समूह द्वारा महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल के इस्तीफे से पूर्व विश्वास प्रस्ताव के निर्णय को चुनौती देते हुए याचिकाएँ दायर की गईं।
  • अयोग्यता की स्थिति में न केवल शिवसेना विधायकों पर बल्कि मुख्यमंत्री के रूप में शिंदे के पद पर भी इसका असर पड़ेगा।

दल-बदल विरोधी कानून

  • परिचय:
    • दल-बदल विरोधी कानून एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाने पर संसद सदस्यों (सांसदों)/विधानसभा सदस्यों (विधायकों) को दंडित करता है।
    • विधायकों को दल बदलने से हतोत्साहित करके सरकारों में स्थिरता लाने के लिये संसद ने वर्ष 1985 में इसे संविधान की दसवीं अनुसूची के रूप में जोड़ा।
    • दसवीं अनुसूची - जिसे दल-बदल विरोधी अधिनियम के नाम से जाना जाता है, को 52वें संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से संविधान में शामिल किया गया था।
    • यह किसी अन्य राजनीतिक दल में दल-बदल के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की अयोग्यता के प्रावधान निर्धारित करता है।
    • यह वर्ष 1967 के आम चुनावों के बाद पार्टी छोड़ने वाले विधायकों द्वारा कई राज्य सरकारों को गिराने की प्रतिक्रिया थी।
  • इसके तहत सांसद/विधायकों को दंडित नहीं किया जाता:
    • हालाँकि, यह सांसदों/विधायकों को दल-बदल के लिये दंड के बिना किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल होने (विलय) की अनुमति देता है। साथ ही दल-बदल करने वाले सांसदों का समर्थन या उन्हें स्वीकार करने के लिये राजनीतिक दलों को दंडित नहीं किया जाता है।
    • वर्ष 1985 के अधिनियम के अनुसार, किसी राजनीतिक दल के एक-तिहाई निर्वाचित सदस्यों द्वारा 'दल-बदल' को 'विलय' माना जाता था।
    • लेकिन 91वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2003 द्वारा इसमें बदलाव कर दिया गया और अब कानून की नज़र में वैधता के लिये किसी पार्टी के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों को "विलय" के पक्ष में होना अनिवार्य है।
    • कानून के तहत अयोग्य घोषित सदस्य किसी भी राजनीतिक दल से उसी सदन की एक सीट के लिये चुनाव लड़ सकता है
    • दल-बदल के आधार पर अयोग्यता से संबंधित मामलों पर निर्णय ऐसे सदन के सभापति अथवा अध्यक्ष को प्रेषित किया जाता है, यह प्रक्रिया 'न्यायिक समीक्षा' के अधीन है।
    • हालाँकि कानून ऐसी कोई समय-सीमा नहीं निर्धारित करता है जिसके भीतर पीठासीन अधिकारी को दल-बदल मामले का फैसला करना अनिवार्य होता है।
  • दल-बदल का आधार:
    • स्वैच्छिक त्याग: यदि कोई निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ना चाहता है।
    • निर्देशों का उल्लंघन: यदि कोई निर्वाचित सदस्य अपने राजनीतिक दल अथवा ऐसा करने के लिये अधिकृत किसी भी व्यक्ति द्वारा पूर्व अनुमोदन के बिना जारी किये गए किसी आदेश के विपरीत ऐसे सदन में मतदान करता है अथवा मतदान से अनुपस्थित रहता है।
    • निर्वाचित सदस्य: यदि कोई स्वतंत्र रूप से निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है।
    • मनोनीत सदस्य: यदि कोई नामांकित सदस्य छह महीने की समाप्ति के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है।

दलबदल का राजनीतिक व्यवस्था पर प्रभाव

  • चुनावी जनादेश का उल्लंघन:
    • जो विधायक एक पार्टी के लिये चुने जाते हैं और फिर मंत्री पद या वित्तीय लाभ के प्रलोभन के कारण दूसरी पार्टी में जाना अधिक सुविधाजनक समझते हैं तथा पार्टी बदल लेते हैं, इसे दल-बदल के रूप में जाना जाता है, यह चुनावी जनादेश का उल्लंघन माना जाता है।
  • सरकार के सामान्य कामकाज़ पर प्रभाव:
    • कुख्यात "आया राम, गया राम" नारा 1960 के दशक में विधायकों द्वारा लगातार दल-बदल की पृष्ठभूमि में गढ़ा गया था।
    • दल-बदल के कारण सरकार में अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न होती है और प्रशासन प्रभावित होता है।
  • हॉर्स ट्रेडिंग को बढ़ावा:
    • दल-बदल विधायकों की खरीद-फरोख्त/हॉर्स ट्रेडिंग को बढ़ावा देता है जो स्पष्ट रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्था के जनादेश के खिलाफ है।

दल-बदल विरोधी कानून की चुनौतियाँ

  • कानून का पैराग्राफ 4:
    • दल-बदल विरोधी कानून के पैराग्राफ 4 में कहा गया है कि यदि कोई राजनीतिक दल किसी अन्य दल में विलय करता है, तो उसके सदस्य अपनी सीटें नहीं खोएंगे।
    • लेकिन इस विलय के लिये सदन में उस पार्टी के पास कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन होना ज़रूरी है। कानून यह नहीं बताता कि विलय करने वाली पार्टी का राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर आधार है या नहीं।
  • प्रतिनिधि एवं संसदीय लोकतंत्र को कमज़ोर करना:
    • कानून बनने के बाद सांसद या विधायक को पार्टी के निर्देशों का आँख मूंदकर पालन करना पड़ता है और उन्हें अपने निर्णय से वोट देने की आज़ादी नहीं होती है।
    • दल-बदल विरोधी कानून ने विधायकों को मुख्य रूप से उनके राजनीतिक दल के प्रति ज़िम्मेदार ठहराकर जवाबदेही की शृंखला को बाधित कर दिया है।
  • अध्यक्ष की विवादास्पद भूमिका:
    • दल-बदल विरोधी मामलों में सदन के सभापति या अध्यक्ष के निर्णय की समय-सीमा से संबंधित कानून में कोई स्पष्टता नहीं है।
    • कुछ मामलों में छह महीने और कुछ में तीन वर्ष भी लग जाते हैं। कुछ ऐसे मामले भी हैं जो अवधि समाप्त होने के बाद निपटाए जाते हैं।
  • विभाजन की कोई मान्यता नहीं:
    • 91वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम 2004 के कारण दल-बदल विरोधी कानून ने दल-बदल विरोधी शासन को एक अपवाद बनाया।
    • हालाँकि यह संशोधन किसी पार्टी में 'विभाजन' को मान्यता नहीं देता है बल्कि इसके बजाय 'विलय' को मान्यता देता है।
  • केवल सामूहिक दल-बदल की अनुमति:
    • यह सामूहिक दल-बदल (एक साथ कई सदस्यों द्वारा दल परिवर्तन) की अनुमति देता है लेकिन व्यक्तिगत दल-बदल (बारी-बारी से या एक-एक करके सदस्यों द्वारा दल परिवर्तन) की अनुमति नहीं देता। अतः इसमें निहित खामियों को दूर करने के लिये संशोधन की आवश्यकता है।
    • उन्होंने चिंता जताई कि यदि कोई राजनेता किसी पार्टी को छोड़ता है, तो वह ऐसा कर सकता है, लेकिन उस अवधि के दौरान उसे नई पार्टी में कोई पद नहीं दिया जाना चाहिये।
  • बहस एवं चर्चा पर प्रभाव: 
    • बहस और चर्चा को बढ़ावा देने के बजाय भारत के दल-बदल विरोधी कानून ने पार्टियों और आँकड़ों पर आधारित लोकतंत्र का निर्माण किया है।
    • इससे संसद में किसी भी कानून पर होने वाली बहस कमज़ोर हो जाती है तथा असहमति (Dissent) एवं दलबदल (Defection) के बीच अंतर नहीं रह जाता।

आगे की राह

  • कई विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि कानून केवल उन वोटों के लिये मान्य होना चाहिये जो सरकार की स्थिरता का निर्धारण करते हैं। उदाहरणतः वार्षिक बजट का अनुमोदन अथवा अविश्वास प्रस्ताव पारित होना।
  • राष्ट्रीय संविधान प्रकार्य समीक्षा आयोग (NCRWC) सहित विभिन्न आयोगों ने सिफारिश की है कि किसी सदस्य को अयोग्य घोषित करने का निर्णय पीठासीन अधिकारी के बजाय राष्ट्रपति (सांसदों के मामले में) अथवा राज्यपाल (विधायकों के मामले में) द्वारा चुनाव आयोग की सलाह पर किया जाना चाहिये।
  • होलोहन के फैसले में न्यायमूर्ति वर्मा ने कहा कि अध्यक्ष का कार्यकाल सदन में बहुमत के निरंतर समर्थन पर निर्भर है और इसलिये वह ऐसे स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकरण की आवश्यकता को पूरा नहीं करता है।
  • होलोहन के फैसले में न्यायमूर्ति वर्मा ने कहा कि अध्यक्ष ऐसे स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकरण के मानदंडों को पूरा नहीं करते हैं क्योंकि उनका कार्यकाल सदन में बहुमत के निरंतर समर्थन पर निर्भर है।

विशेष और स्थानीय कानूनों में सुधार

भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली कानून और व्यवस्था बनाए रखने, न्याय कायम रखने और व्यक्तिगत अधिकारों सहित स्वतंत्रता की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालांकि विगत कई वर्षों के दौरान भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (आईईए) में महत्वपूर्ण सुधार हुए हैं लेकिन, विशेष और स्थानीय कानून (एसएलएल) जो कि भारतीय न्याय प्रणाली के तहत एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है, अक्सर सुधार प्रक्रिया में उपेक्षित रहता है। विशेष और स्थानीय क़ानून में सुधार भारत में एक व्यापक और प्रभावी आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए आवश्यक है।
Politics and Governance (राजनीति और शासन): October 2023 UPSC Current Affairs | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

विशेष और स्थानीय क़ानून का महत्व

  • हाल ही में आपराधिक कानूनों से संबंधित विधेयकों ने लंबे समय से लंबित सुधारों के लिए लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। ये विधेयक आईपीसी, सीआरपीसी और आईईए में संहिताबद्ध मूल आपराधिक कानूनों में संशोधन पर केंद्रित हैं।
  • हालाँकि, यह संहिताकरण भारत में व्यापक आपराधिक कानून परिदृश्य का सिर्फ एक पहलू है। सबसे गंभीर अपराध और प्रक्रियाएं अक्सर विशेष और स्थानीय क़ानून के दायरे में आती हैं, जिस कारण उनमें सुधार अनिवार्य हो जाता है।
  • भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में विशेष और स्थानीय क़ानून की प्रासंगिकता मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों है। भारत में अपराध सांख्यिकी के अनुसार, 2021 में सभी संज्ञेय अपराधों में से लगभग 39.9% अपराध विशेष और स्थानीय क़ानून के तहत दर्ज किए गए थे।
  • इसके अतिरिक्त अब तक पंजीकृत लगभग 61 लाख संज्ञेय अपराधों में से, 24.3 लाख अपराधों को विशेष और स्थानीय क़ानून के तहत वर्गीकृत किया गया था। ये संख्याएँ भारत में आपराधिक अपराधों के कानूनी परिदृश्य को परिभाषित करने में विशेष और स्थानीय क़ानून द्वारा निभाई जाने वाली महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करती हैं।

विशेष और स्थानीय क़ानून में चुनौतियाँ

विशेष और स्थानीय क़ानून अनेक सारभूत और वैसे प्रक्रियात्मक मुद्दे चिन्हित करते हैं जिनमें सुधार की आवश्यकता है।

  • संदिग्धता और अस्पष्टता: सएलएल में अपराधों और शर्तों की परिभाषाओं में संदिग्धता और अस्पष्टता इसे व्यवहार में जटिल बनाती है। उदाहरण के लिए, गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (यूएपीए) और महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम, 1999 (MCOCA) 'आतंकवादी अधिनियम,' 'गैरकानूनी गतिविधि,' 'संगठित अपराध' और 'संगठित अपराध सिंडिकेट जैसे शब्द स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं हैं। स्पष्टता की यह कमी, विशेष रूप से व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रता से संबंधित गतिविधियों को अपराध घोषित करने की राज्य की शक्ति पर प्रश्नचिन्ह लगाती है।
  • प्रयोज्यता से संबंधित समस्या: एक और चिंता का विषय कुछ एसएलआर की प्रयोज्यता है, जैसे कि यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012, नाबालिगों के बीच सहमति से यौन गतिविधियों के लिए। कुछ लोगों का तर्क है कि ये मामले आपराधिक अपराधों के बजाय नागरिक या नियामक मामलों के रूप में अधिक उपयुक्त होंगे, जो ऐसे आचरण के अपराधीकरण के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हैं।
  • प्रक्रियात्मक चुनौतियाँ: प्रक्रियात्मक रूप से, विशेष और स्थानीय क़ानून ने सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत उचित प्रक्रिया मूल्यों को कमजोर करके चिंताएँ बढ़ा दी हैं। यूएपीए की धारा 43 ए के तहत तलाशी और जब्ती की बढ़ी हुई शक्तियां और मकोका (MCOCA) की धारा 18 के तहत पुलिस अधिकारियों द्वारा दर्ज किए गए बयानों की स्वीकार्यता इसके प्रमुख उदाहरण हैं। इसके अलावा, विशेष और स्थानीय क़ानून में यूएपीए की धारा 43(D)(5), नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 की धारा 37 और धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA) 2002 की धारा 45 जैसे कड़े प्रावधान जमानत प्राप्त करना लगभग असंभव बना देते हैं। ये प्रक्रियात्मक मुद्दे आपराधिक न्याय प्रणाली में निष्पक्षता और न्याय के सिद्धांतों को चुनौती देते हैं।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: आपराधिक कानूनों का विकास

  • विशेष और स्थानीय क़ानून सुधार की आवश्यकता को समझने के लिए, भारत में आपराधिक कानूनों के ऐतिहासिक विकास पर विचार करना आवश्यक है। 1860 में तैयार किए गए भारतीय दंड संहिता की कल्पना उस समय के सभी आपराधिक अपराधों के लिए एक व्यापक और समेकित ढांचा प्रदान करने के लिए की गई थी। आईपीसी का उद्देश्य एक कानूनी डाइजेस्ट होना था जिसमें उस युग के सभी आपराधिक कानून शामिल हों।
  • पिछले कुछ वर्षों में, कानूनी परिदृश्य में काफी बदलाव आया है। व्यापक संहिताकरण की मूल अवधारणा से हटकर, विशिष्ट मुद्दों और अपराधों को संबोधित करने के लिए कई विशेष और स्थानीय क़ानून अधिनियमित किए गए हैं। जबकि आईपीसी को अपने कुछ अपराधों में पुरातन नैतिक मानकों और औपनिवेशिक जड़ों को बनाए रखने के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा है, यद्यपि यह बड़े पैमाने पर, संहिताकरण का एक सफल प्रयास भी रहा है।
  • विभिन्न सरकारों ने भिन्न-भिन्न कारणों से विशेष और स्थानीय क़ानून पर भरोसा किया है, और इससे आईपीसी की मूल दृष्टि में विचलन देखा गया है। संहिताकरण की भावना को बनाए रखने और विशेष और स्थानीय क़ानून द्वारा उत्पन्न चुनौतियों का समाधान करने के लिए, उन्हें आईपीसी और सीआरपीसी के व्यापक कानूनी ढांचे में एकीकृत करना अनिवार्य है।

दंड संहिता में विशेष और स्थानीय क़ानून का एकीकरण

  • मौजूदा कानूनी ढांचे में विशेष और स्थानीय क़ानून को शामिल करना भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में व्यापक सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। सभी विशेष और स्थानीय क़ानून जो कुछ व्यवहारों को अपराध घोषित करते हैं या अपराधीकरण करने की कोशिश करते हैं, उन्हें दंड संहिता के अलग अध्याय के रूप में जगह मिलनी चाहिए।
  • यह एकीकरण केवल ठोस पहलुओं तक सीमित नहीं होना चाहिए। अपराधों की रिपोर्टिंग, गिरफ्तारी, जांच, अभियोजन, परीक्षण, साक्ष्य और जमानत सहित विशेष और स्थानीय क़ानून के प्रक्रियात्मक पहलुओं को भी सीआरपीसी के ढांचे के भीतर शामिल किया जाना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि संपूर्ण कानूनी प्रणाली में निष्पक्षता और न्याय के सिद्धांत लगातार कायम रहेंगे।
  • वर्तमान समय में चल रही सुधार परियोजना में विशेष और स्थानीय क़ानून के इन मूल और प्रक्रियात्मक पहलुओं को शामिल न करना एक महत्वपूर्ण सीमा है जिसे सुधारों की दूसरी पीढ़ी में संबोधित किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

  • निष्कर्षतः, भारत में एक व्यापक और न्यायपूर्ण आपराधिक न्याय प्रणाली सुनिश्चित करने के लिए विशेष और स्थानीय कानूनों (एसएलएल) में सुधार अनिवार्य है। ये कानून, जो संज्ञेय अपराधों के एक महत्वपूर्ण प्रतिशत के लिए जिम्मेदार हैं, वास्तविक और प्रक्रियात्मक दोनों तरह की चुनौतियाँ पेश करते हैं जिन्हें संबोधित करने की आवश्यकता है।
  • भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के व्यापक कानूनी ढांचे में विशेष और स्थानीय क़ानून का एकीकरण संहिताकरण की भावना को बनाए रखने और निष्पक्षता और न्याय के सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। जैसे-जैसे भारत विकसित हो रहा है और नई कानूनी चुनौतियों को अपना रहा है, सुधारों की दूसरी पीढ़ी को वर्तमान कानूनी ढांचे में अंतराल को पाटने और अधिक न्यायसंगत और कुशल आपराधिक न्याय प्रणाली सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

संसद में प्रश्न पूछना

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय दंड संहिता (IPC)दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम (IEA) में निहित वास्तविक आपराधिक कानून में सुधार के लिये कई विधेयक पेश किये गए हैं, किंतु विशेष और स्थानीय कानूनों (SLLs) पर अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया गया है। 

विशेष और स्थानीय कानून (SLL)

  • परिचय:
    • SLL विशेष रूप से किसी विशेष राज्य अथवा स्थानीय क्षेत्र के भीतर क्षेत्र-विशेष, सांस्कृतिक अथवा कानूनी मामलों के समाधान के लिये बनाए गए हैं। 
    • वे भारतीय दंड संहिता (IPC) में उल्लिखित सामान्य कानूनों तथा विनियमों से भिन्न हैं।
    • यह उन आपराधिक गतिविधियों को सूचीबद्ध करता है जिन्हें राज्य सरकार विशेष मुद्दों के संबंध में तैयार करती है।
  • महत्त्व:
    • SLL भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली का एक अभिन्न हिस्सा है, इनमें सबसे मुख्य अपराधों तथा कार्यवाहियों को शामिल किया जाता है। वे भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में सार्थक भूमिका निभाते हैं।
    • वर्ष 2021 में पंजीकृत सभी संज्ञेय अपराधों में से लगभग 39.9% SLL के अंतर्गत थे।
    • संज्ञेय अपराधों में एक अधिकारी न्यायालय के वारंट की मांग किये बिना किसी संदिग्ध के मामले का संज्ञान ले सकता है तथा उसे गिरफ्तार कर सकता है, यदि उसके पास "विश्वास करने का कारण" है कि उस व्यक्ति ने अपराध किया है और संतुष्ट है कि कुछ निश्चित आधारों पर गिरफ्तारी आवश्यक है। 
    • गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर अधिकारी को न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा हिरासत की पुष्टि करनी होगी। 

भारत में विशेष और स्थानीय कानूनों में सुधार की आवश्यकता

  • अस्पष्ट परिभाषाएँ:
    • कुछ SLL, जैसे कि गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967, अपराधों की अपर्याप्त और अस्पष्ट परिभाषाओं तथा 'आतंकवादी कृत्य,' 'गैर-कानूनी गतिविधि' एवं 'संगठित अपराध' जैसे शब्दों से ग्रस्त हैं।
    • ये अस्पष्टताएँ कानून की उचित प्रक्रिया को प्रभावित करते हुए दुरुपयोग और गलत व्याख्या का कारण बन सकती हैं।
  • कानूनी प्रक्रिया में परिवर्तनशीलता:
    • SLL के परिणामस्वरूप व्यक्तियों या समूहों के लिये उनकी भौगोलिक स्थिति के आधार पर अलग-अलग व्यवहार हो सकता है, जिससे न्याय और कानूनी सुरक्षा तक पहुँच में असमानताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
    • कानूनी स्थिरता की कमी व्यक्तियों और व्यवसायों के लिये अनिश्चितता उत्पन्न कर सकती है, जिससे कानूनी अधिकारों तथा दायित्वों को वहन करना कठिन हो जाता है।
  • चिंतनशीलता की कमी:
    • चिंतनशील विचारों की अनुपस्थिति अक्षमताओं और अनिश्चितताओं को जन्म दे सकती है।
    • उदाहरण के लिये यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 की नाबालिगों के बीच सहमति से यौन गतिविधियों पर लागू होने के कारण आलोचना की गई है, जिससे इस तरह के आचरण को अपराध घोषित करने के बारे में चिंताएँ बढ़ गई हैं।
    • सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने पी. मोहनराज बनाम मेसर्स शाह ब्रदर्स इस्पात लिमिटेड, 2021 के मामले में नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (NI Act), 1881 की धारा 138 को 'आपराधिक भेड़िये' के भेष में 'सिविल भेड़' के रूप में संदर्भित किया। 
    • NI अधिनियम की धारा 138, धन की कमी के कारण चेक बाउंस होने के संबंध में आपराधिक प्रावधान प्रदान करती है।
  • नियत प्रक्रिया को कमज़ोर करना:
    • SLL ने उचित प्रक्रिया मूल्यों में गड़बड़ी की है, जिसका उदाहरण तलाशी और ज़ब्ती के दौरान बढ़ी हुई शक्तियाँ तथा पुलिस अधिकारियों द्वारा दर्ज किये गए बयानों की स्वीकार्यता है।
    • यह अभियुक्तों के अधिकारों की पर्याप्त सुरक्षा नहीं करता है तथा निष्पक्षता एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा के बारे में चिंताएँ उत्पन्न करता है।
    • मज़बूत सुरक्षा उपायों की कमी कानूनी प्रक्रिया के संभावित दुरुपयोग का द्वार खोल सकती है, जिससे अभियुक्तों के अधिकार प्रभावित हो सकते हैं।
    • SLL में प्रतिबंधात्मक ज़मानती प्रावधान आरोपी के अधिकारों का उल्लंघन करते हुए जमानत प्राप्त करना लगभग असंभव बना देते हैं।
    • उदाहरण के लिये: UAPA की धारा 43(D)(5) के तहत ज़मानत प्रावधान असाधारण रूप से कड़े हैं, जिससे UAPA के तहत आरोपियों के लिये ज़मानत प्राप्त करना लगभग असंभव हो जाता है।

निष्कर्ष

  • SLL जिन व्यवहारों को अवैध बनाते हैं उन्हें दंड संहिता में अलग अध्याय के रूप में एकीकृत किया जाना चाहिये। रिपोर्टिंग, गिरफ्तारी, जाँच, अभियोजन, परीक्षण, साक्ष्य और ज़मानत के लिये अलग-अलग प्रक्रियाओं वाले SLL को आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) में शामिल किया जाना चाहिये या अपवाद के रूप में माना जाना चाहिये।
  • वर्तमान सुधार प्रक्रिया का एक प्रमुख प्रतिबंध SLL घटकों का बहिष्कार है, जो इन कमियों को दूर करने के लिये सुधारों के दूसरे चरण की मांग करता है।
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FAQs on Politics and Governance (राजनीति और शासन): October 2023 UPSC Current Affairs - भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

1. सर्वोच्च न्यायालय में न्यायिक नियुक्तियों में देरी चिंता क्यों हो सकती है?
उत्तर: न्यायिक नियुक्तियों में देरी चिंता इसलिए हो सकती है क्योंकि यह न्यायिक प्रक्रियाओं को अस्थायी रूप से रोक सकती है और न्याय के द्वारा न्यायिक सुनवाई की गई निर्णयों को देर कर सकती है।
2. लोकसभा में नैतिकता और पारदर्शिता सुधार क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर: नैतिकता और पारदर्शिता सुधार लोकसभा में महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सार्वजनिक न्याय के मूल्यों को बढ़ावा देता है, नेता-नेतृत्व का उच्चतम स्तर प्रदर्शित करता है और जनता के आदर्शों का पालन करता है।
3. उच्चतम न्यायालय की सुनवाई में धन विधेयकों को घोषित करने की चुनौती क्या हो सकती है?
उत्तर: उच्चतम न्यायालय की सुनवाई में धन विधेयकों को घोषित करने की चुनौती यह हो सकती है कि इन विधेयकों की वैधता और संवैधानिकता के मामले में विवाद हो सकता है और इसके परिणामस्वरूप न्यायिक निर्णयों को देरी हो सकती है।
4. दल-बदल विरोधी कानूनराजनीति और शासन क्या है?
उत्तर: दल-बदल विरोधी कानूनराजनीति और शासन एक राजनीतिक तकनीक है जिसमें विपक्षी दल शासन के कार्यों को बदलने की कोशिश करते हैं और अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को प्रभावी तरीके से प्रदर्शित करने का प्रयास करते हैं।
5. अक्टूबर 2023 में दल-बदल विरोधी कानूनराजनीति और शासन क्यों महत्वपूर्ण हो सकते हैं?
उत्तर: अक्टूबर 2023 में दल-बदल विरोधी कानूनराजनीति और शासन महत्वपूर्ण हो सकते हैं क्योंकि इस समय चुनाव महकमा विधानसभा चुनावों के आयोजन की योजना बना रही होती है और यह तय कर सकता है कि किस पक्ष को किन मुद्दों पर फोकस करना चाहिए और नई नीतियों या सुधारों को लागू करना चाहिए।
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