UPSC Exam  >  UPSC Notes  >  भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi  >  वन (भाग - 2) - भारतीय भूगोल

वन (भाग - 2) - भारतीय भूगोल | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

घटता वन घनत्व

  • वनों के अपने पारिस्थितिकी लाभ होते हैं। ये वर्षा के पानी को संरक्षित करते हैं और भूमि की ऊपरी परत की रक्षा करते हैं। लेकिन यह तभी होता है, जब हरित आवरण (वह हिस्सा, जो पेड़ों से ढका हुआ है) को बहुत ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाया जाये। यह स्पष्ट नहीं है कि क्या भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा घने वनों की श्रेणी में रखे गयेे वन भी इस पैमाने पर खरे उतरते हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण ऐसे वनों को घने वन की श्रेणी में रखता है, जिनका हरित आवरण 40 प्रतिशत से अधिक हो। लेकिन यह स्पष्ट है कि विरल वन, यानी जिनका हरित आवरण 10 से 40 प्रतिशत के बीच है, इस पैमाने पर खरे नहीं उतरते।
  • इस पैमाने से पिछले दो वर्षो में ही जो नुकसान हुआ है, वह भयभीत करने वाला है। कुल मिलाकर 361,567 वर्ग किलोमीटर के घने वन क्षेत्र में से 19,450 वर्ग किलोमीटर हिस्सा विरल वन में बदल गया है। इसके अलावा 392 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र उजाड़ वन में तब्दील हो गया है, जबकि 3129 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र अवानिकीय इस्तेमाल में आने  लगा है। इस तरह केवल दो वर्षो में 361,567 वर्ग किलोमीटर घने वन क्षेत्र में से 22,971 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र या तो नष्ट हो गया है या इसकी पारिस्थितिकीय उपयोगिता समाप्त हो गयी है। यह विनाश बाकी बचे घने वन का 6.35 फीसदी है। इस रफ्तार से 32 वर्षो में पारिस्थितिकीय दृष्टि से उपयोगी वन बिल्कुल ही नहीं बचेंगे।
  • 1988 की राष्ट्रीय वन नीति में कहा गया कि देश के पर्वतीय जिलों में कम से कम 66 फीसदी वन घनत्व होना चाहिए। आज 95 में से केवल 19 पर्वतीय जिले इस मानक को पूरा करते हैं। ये सभी जिले सुदूर उत्तर-पूर्वी भारत के हैं। पर्वतीय जिलों के वन घनत्व का औसत केवल 37 फीसदी रह गया है। इसका मतलब यह है कि उत्तर-पूर्व को छोड़ दें तो बाकी भारत के पर्वतीय जिलों में औसत वन आवरण 30 फीसदी से अधिक नहीं है। सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार वनों के हरित आवरण का सर्वाधिक नुकसान मध्य प्रदेश और आन्ध्र प्रदेश में हुआ है, जो भारत का केंद्रीय पर्वतीय क्षेत्र है, जहां से दक्कन और केंद्रीय भारत की नदियां अच्छी मात्रा में जल ग्रहण करती हैं। 
  • मध्य हिमालय का दयनीय वन घनत्व और घाटों व केन्द्रीय भारत की पर्वत शृंखलाओं में घटता वन घनत्व भारत के पूरे मैदानी क्षेत्र में बाढ़ घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। पूरे मध्य भारत में अचानक बाढ़ आना आम बात हो गयी है। इससे भूमि का ऊपरी परत का क्षरण चिंताजनक ढंग से बढ़ा है। गंगा-सिंधु के मैदान का भविष्य क्या है, यह इस बात से देखा जा सकता है कि उत्तरी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश को बाढ़ नियमित रूप से अपनी चपेट में ले लेती है। इसका कारण है नेपाल में हिमालय क्षेत्र में हुई वन कटाई। 
  • इन प्रवृत्तियों को अगले 30 वर्षो के संदर्भ में देखें तो ऐसी स्थिति का खाका मिलता है, जिसमें टिकना मुश्किल है। देश की जनसंख्या 1.5 अरब हो जाएगी। लेकिन वर्षा से सिंचित कृषि अस्थायी हो जाएगी। बांधों में तेजी से गाद भरते जाने से बहते पानी को संग्रहीत करने की उनकी क्षमता बहुत ही घट जाएगी। अचानक आने वाली बाढ़ों को नियंत्रित नहीं किया जा सकेगा।
  • जहां 1450 वर्ग किलोमीटर वन घने से विरल में बदल गये, वहीं राज्य सरकारों और गैर-सरकारी संगठनों के प्रयासों से 7972 वर्ग किलोमीटर उजाड़ वन को विरल वनों में बदला गया। इस तरह विरल वनों का क्षेत्रफल 27422 वर्ग किलोमीटर बढ़ जाना चाहिए था। लेकिन वास्तविक वृद्धि केवल 12001 वर्ग किलोमीटर की हुई। 
  • 2827 वर्ग किलोमीटर विरल वन उजाड़ हो गये और 8846 वर्ग किलोमीटर विरल वन अवानिकीय कार्यो में चले गये। वानिकीकरण की छोटी-सी मात्रा को फिर से वर्गीकृत किया गया है, लेकिन 3000 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र का लेखाजोखा बाकी ही रह गया।
  • इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि वनों पर दबाव किधर से पड़ रहा है। घने वनों को विरल वन में और विरल वनों का उजाड़ में बदलना निश्चित रूप से बढ़ती जनसंख्या के दबाव के कारण है, जो जलावन और लकड़ी की जरूरतों को साथ लगे वन से पूरा करती है। इस कटाई में अच्छा-खासा हिस्सा तस्करी का भी है, जिसमें अब स्थानीय आबादी भी शामिल होती है। यह तस्करी इस कारण होती है कि देश के व्यापक शहरी बाजारों में लकड़ी की कीमतें बहुत तेजी से बढ़ी हैं। हालांकि, एक बहुत बड़ी दोषी खुद सरकार भी है। 
  • वन क्षेत्र के वनविहीन क्षेत्र में परिवर्तन ने 3129 वर्ग किलोमीटर घने वन और 8846 वर्ग किलोमीटर विरल वन को निगल लिया है। निस्संदेह इसमें से कुछ हिस्सा अवैध कब्जे को नियमित करने का परिणाम है। कुछ हिस्सा पनबिजली परियोजनाओं और अन्य औद्योगिक योजनाओं में गया है। लेकिन एक अच्छा-खासा हिस्सा वैध-अवैध प्रलोभनों के तहत वाणिज्यिक इस्तेमाल में चला गया। जिस 3000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को बिना लेखे-जोखे के छोड़ दिया गया है, वह भी बिना किसी संदेह के अवैध कब्जे को दर्शाता है और आगे चल कर इसे भी ‘नियमित’ कर दिया जाएगा। 
  • इस तरह राज्य प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर 14982 वर्ग किलोमीटर वन की कटाई का जिम्मेदार है। जनसंख्या में हुई वृद्धि के कारण बढ़े जैविक दबाव और शहरीकरण व आर्थिक वृद्धि से पैदा वाणिज्यिक दबाव 19450 वर्ग किलोमीटर घने वन और इसके अलावा कम से कम 3239 वर्ग किलोमीटर विरल वन की कटाई के लिए जिम्मेदार हैं।

सामाजिक वानिकी

  • भारत में वनाच्छादित क्षेत्र कुल भू-भाग का 24.16 प्रतिशत है। भारत के वन सर्वेक्षण विभाग की हाल ही की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में मात्रा 794.42 लाख हेक्टेयर भूमि वास्तव मेें वनाच्छादित है। भारतीय वनों की औसत उत्पादकता प्रति हेक्टेयर 0.5 घनमीटर है, जो विश्व की औसत उत्पादकता, 2.1 घनमीटर प्रति हेक्टेयर के मुकाबले बहुत कम है। वन सर्वेक्षण विभाग और राष्ट्रीय दूर संवेदन एजेंसी के अनुसार 20.64 प्रतिशत हरित क्षेत्र में से 10 प्रतिशत से अधिक में घने जंगल हैं, 8 प्रतिशत से अधिक में मुक्त वन, लगभग 0.124 प्रतिशत कच्छ वनस्पति और 1.10 प्रतिशत क्षेत्र में काॅफी के पौधे हैं। अनुमान है कि संतुलन बनाए रखने के लिए इस शताब्दी के अंत तक हर वर्ष कम से कम 1 करोड़ हेक्टेयर विकृत भूमि को वनाच्छादित भूमि के अन्तर्गत लाना होगा।
  • जब तक ईंधन की लकड़ी और विभिन्न उपयोगों में आनेवाली इमारती लकड़ी के समुचित विकल्प नहीं तलाश कर लिए जाते, और साथ ही बड़े पैमाने पर उचित वन-रोपण परियोजनाएं लागू नहीं की जातीं, तब तक वनों के ह्रास को नहीं रोका जा सकता। वास्तव में वानिकी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्यो में वर्तमान वनों का संरक्षण, बंजर भूमि के प्रसार को रोकना और पहले से ही निरावृत्त भूमि तथा यथासंभव अन्य स्थानों पर अधिक से अधिक पेड़ लगाना शामिल है। वनों को बचाने के लिए कड़े कानून मौजूद हैं लेकिन उनके प्रावधानों को ठीक से लागू नहीं किया जाता।
  • वनस्पति संबंधी क्षेत्रीय असंतुलन दूर करने में सामाजिक वानिकी का विशेष महत्व है। चूंकि वनाच्छादित क्षेत्र में बढ़ोतरी का कोई अवसर नहीं है, अतः एकमात्र विकल्प यही है कि अधिक से अधिक संभावित निजी भूमि को वनों के अन्तर्गत लाया जाये, अतः व्यापक सामाजिक वानिकी कार्यक्रम चलाने की आवश्यकता है। इमारती लकड़ी, ईंधन, चारा, औद्योगिक और औषधीय उत्पादों जैसी लोगों की रोजमर्रा की आवश्यकताओं को पूरा करने के स्रोत के रूप में वन अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। विभिन्न विकास योजनाओं को देखते हुए वन संसाधनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है क्योंकि उनकी जरूरतें वनों से पूरी होती हैं। इससे मांग और आपूर्ति के बीच अन्तर बढ़ता जा रहा है। 
  • इस अन्तराल को काफी हद तक पूरा करने के लिए, यह आवश्यक है कि सरकारी और निजी, सभी प्रकार की उपलब्ध जमीन पर वनों को बढ़ावा दिया जाये। सरकार सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में पेड़ों के प्रति जागरूकता पैदा करने के प्रयास कर रही है, लेकिन वृ़क्षों को बढ़ावा देने की हमारी गति अत्यन्त धीमी है। भारत में, हमें हर रोज 1 करोड़ पूर्ण विकसित पेड़ों को काटने की आवश्यकता पड़ती है और इस तरह यह जरूरी है कि हम उनके स्थान पर नए पौधे लगाएं ताकि संतुलन बना रहे और पर्यावरण को और क्षति न पहुंचे। लेकिन, पौधों को लगाने और उनका पालन-पोषण करने के वर्तमान प्रयासों को फल वर्षो बाद ही मिल पायेगा, जब वे पर्ण विकसित हो जायेंगे और कटाई के लिए तैयार होंगे।
  • वन भूमि में, पूर्ण विकसित पेड़ तैयार करने के वृक्षारोपण के अनुभव आशाजनक नहीं रहे हैं। अगर ऐसे वृक्षों की भली-भांति देखभाल की जाये और पूरी तरह संरक्षित किया जाये, तो उन्हें पूर्ण विकसित होने में 40 से 50 वर्ष का समय लगता है, इस तरह वे भूमि-कटाव नियंत्रण, जल संरक्षण, वन्य जीव आवास, प्रदूषण नियंत्रण आदि उद्देश्यों को पूरा करने में मददगार साबित नहीं होते। ऐसी स्थिति में भूमि की उत्पादकता में निरन्तर गिरावट का क्रम रोकने और देश में ईंधन की लकड़ी, इमारती लकड़ी और कागज की लुगदी के भंडारो को समाप्त होने से रोकने के लिए सामाजिक वानिकी योजनाओं के समक्ष बड़ी चुनौतियां खड़ी हो गई हैं।
  • हमारी अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में तीव्र प्रगति के बावजूद, विशेषकर ग्रामीण समुदाय के समक्ष समस्याएं विद्यमान हैं, जनसंख्या का दबाव निरंतर बढ़ता जा जा रहा है, जिससे बड़े पैमाने पर ग्राम्य क्षेत्र विकृत होते जा रहे हैं और ईंधन, चारा और इमारती लकड़ी की भीषण कमी होती जा रही है तथा बेरोजगारी और अर्ध-बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। इसका एकमात्र हल और उपाय यही  है कि सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के जरिए मानवीय आवास-केंद्रों में खाली पड़ी भूमि पर पेड़-पौधे लगाकर वनाच्छादित क्षेत्र में बढ़ोतरी की जाये ताकि आम आदमी को लाभ पहुंचाया जा सके। इस तरह बंजर भूमि, सड़कों के किनारे, नदी-तटों पर, रेलवे मार्गों के साथ-साथ और अन्य खाली पड़ी भूमि पर पेड़ लगाकर वनों से प्राप्त होने वाले कच्चे माल संबंधी संसाधन हासिल किए जा सकते हैं।
  • पिछले कई वर्षो में वनस्पति चूंकि नष्ट हो चुकी है, अतः विभिन्न उत्पादों का अभाव है। सामाजिक वानिकी श्रम-बहुल होती है, जिससे लाभकारी रोजगार मिलता है और ग्रामीण लोगों की क्रय-शक्ति में बढ़ोतरी होती है। अतः यह जरूरी है कि नौवीं पंचवर्षीय योजना में गैर कृषि-भूमि पर सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों को केंद्र तथा राज्य सरकारों, स्वयंसेवी एजेंसियों और वन्य प्रेमियों की मदद से पूरे उत्साह के साथ चलाया जाये। इसके लिए संरक्षण, उत्पादन और पर्यावरण के महत्वपूर्ण पहलुओं को ध्यान में रखकर देश भर में व्यापक कार्यक्रम चलाने  की आवश्यकता है।
  • वन विभाग राज्य स्तरीय विभिन्न योजनाओं के तहत् वन गतिविधियों पर नियंत्रण रखता है सामाजिक वानिकी पहले राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम के अन्तर्गत आती थी, जो अब एकीकृत ग्रामीण विकास में शामिल कर दी गई है, जिसे जिला ग्रामीण विकास एजेंसियों के माध्यम से लागू किया जा रहा है। एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम के तहत् सामाजिक वानिकी कार्यक्रम की योजना राज्य सरकारों के ग्रामीण विकास विभागों द्वारा तैयार की जाती है।
  • वानिकी क्षेत्र को अन्य क्षेत्रों से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। चीन और दक्षिण स्वीडन के उदाहरण से संकेत मिलता है कि कृषि-क्षेत्र की उत्पादकता में बढ़ोतरी वनों के विकास के प्रेरक के रूप में काम करती है। भारत में भी कृषि-वानिकी के विकास के लिए अनिवार्य प्रोत्साहन प्रदान कर सकती है, जो सामाजिक वानिकी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

राष्ट्रीय कृषि आयोग (1976) ने सामाजिक वानिकी के निम्नलिखित उद्देश्य बताए थे

  • गोबर के स्थान पर ईंधन की लकड़ी की आपूर्ति
  • इमारती लकड़ी की लघु आपूर्ति
  • चारा आपूर्ति
  • खेतों की हवाओं से सुरक्षा
  • मनोरंजन संबंधी आवश्यकताएं। इसके मुख्य घटकों में हैं
    (i) कृषि वानिकी
    (ii) ग्रामीण वानिकी
    (iii) शहरी वानिकी  
  • इस प्रकार सामाजिक वानिकी से ईंधन चारा, लघु इमारती लकड़ी और अन्य छोटे उत्पाद प्राप्त होते हैं, जो समुदाय के लिए जरूरी हैं। लेकिन, फिर भी इसी वजह से इस दिशा में कोई विशेष प्रगति नहीं हो पाई है। प्रमुख भ्रांतियां इस प्रकार हैं
    (i) इससे किसानों की समृद्धि में कमी आयी है
    (ii) इससे व्यापक स्तर पर सामाजिक और पर्यावरण संबंधी लाभ नहीं हुए हैं, और        
    (iii) कुछ मामलों में इससे गरीबों की हालत और खराब हो गई है।
  • यह बड़ी दिलचस्प बात है कि गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में सामाजिक वानिकी की प्रारंभिक सफलता मझौले किसानों (2 हेक्टेयर से अधिक और 4 हेक्टेयर से अधिक जमीन वाले) और बड़े किसानों (4 हेक्टेयर से अधिक जमीन वाले) की भागीदारी तथा लकड़ी के दामों में बढ़ोतरी पर आधारित थी। चूंकि वृक्षारोपण एक वित्तीय आकर्षण रहा है जिसमें लकड़ी के लिए बाजार उपलब्ध रहने का खास महत्व है, अतः बड़े किसानों ने कार्यक्रम के लाभों की आमतौर पर सराहना की। 
  • गरीब किसानों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने में सामाजिक वानिकी की विफलता इस वजह से रही है कि बड़े किसान परम्परागत रागी (मोटे अनाज) के बजाय यूकेलिप्टस के पेड़ लगाते रहे हैं, जिससे स्थानीय तौर पर कम भोजन उपलब्ध रहता है और खाद्य सामाग्री के दाम बढ़ जाते हैं तथा खेतिहर श्रमिकों को काम नहीं मिल पाता क्योंकि यूकेलिप्टस के पेड़ों को अधिक देखभाल की आवश्यकता नहीं होती। ऐसी स्थिति में गरीब किसानों की समस्याओं पर ध्यान देने और उन्हें सर्वाधिक लाभ पहुंचाने के लिए नई योजना विकसित करने की आवश्यकता है।
  • सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों का उद्देश्य न केवल प्राकृतिक वन क्षेत्रों के ह्रास की भरपायी करना है बल्कि इस्तेमाल योग्य भूमि में वनों की सापेक्षिक भागीदारी भी बढ़ाना है। सामाजिक वानिकी के फलस्वरूप कुछ हरित वन भू-भाग, सामने आये हैं, जो अब तक बंजर पड़े थे, लेकिन दूसरी ओर नए परिदृश्य में कुछ जटिल तत्व भी पैदा हुए हैं। जिससे विस्तृत
  • वन क्षेत्रों का ह्रास हुआ है। और वनाच्छादित क्षेत्र का संकट पैदा हो गया है। सामाजिक वानिकी के अंतर्गत कुछ ऐसी खेती योग्य भूमि को भी शामिल किया गया है जिसकी उत्पादन क्षमता काफी अधिक है। ऐसी स्थिति में समुदाय को सामाजिक वानिकी  के सामाजिक अवसरों की कीमत चुकानी पड़ रही है। अतः यह जरूरी है कि जहां भी यह कार्यक्रम शुरू किया जाये वहां इसका लागत-लाभ विश्लेषण भी किया जाये।
  • सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों में निजी क्षेत्र को अधिक करीब और गहरायी से शामिल किया जाना चाहिए। निजी क्षेत्र को इस दिशा में प्रेरित करने के लिए वित्तीय उपाय ही पर्याप्त नहीं हैं बल्कि वृ़क्षारोपण में निवेश के लिए उसे आकर्षित करने के अन्य उपाय भी जरूरी है। यह जरूरी है कि देश में बंजर तटवर्ती क्षेत्रों और अन्य विस्तृत बंजर भू-भागों की पैदावार पर स्वाभाविक अधिकार लीजधारी कम्पनियों का होना चाहिए। ऐसे प्रोत्साहन कुछ कर संबंधी रियायतों के मुकाबले निश्चय ही अधिक सफल हो सकते हैं।
  • किसी भी हालत में लागत-लाभ विश्लेषण के दौरान पारिस्थितिकी और रोजगार में सुधार के लाभों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए, भले ही उनसे लागत-लाभ अनुपात पर प्रतिकूल असर पड़ता हो। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय कृषि आयोग ने सिफारिश की थी कि घाटियों का परिष्कार और विकास किया जाये, हालांकि लागत-लाभ अनुपात पर इसका असर पड़ रहा था। अतः लागत की दृष्टि से कारगरता का मूल्यांकन व्यापक पैमानों के आधार पर किया जाना चाहिए और इस तरह का विश्लेषण करते समय 10.20 वर्षो की अवधि को ध्यान में रखना चाहिए।
  • वास्तव में, भावी परिदृश्य में सामाजिक वानिकी की दिशा में अधिक प्रभावी कदम उठाने होंगे ताकि भूमि के संरक्षण के लिए जल और कटाव की वजह से मिट्टी की होने वाली क्षति को रोका जा सके। हमें अपने सीमित भूमि संसाधनों पर बायो-मास अधिक से अधिक पैदा करना होगा, ताकि समुदाय में सभी संबद्ध पक्षों को उसमें हिस्सेदारी मिल सके। इस दिशा में किए गए वर्तमान प्रयास भविष्य की वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
  • वर्तमान में देश में प्रति व्यक्ति वन-क्षेत्र की उपलब्धता मात्रा 697 वर्गमीटर है जबकि अनुमानित आवश्यकता 1,605 वर्गमीटर की आंकी गई है। इस तरह इसे करीब 2.39 गुणा बढ़ाने की आवश्यकता होगी। राष्ट्रीय कृषि आयोग को अनुमान है कि सन् 2000 तक ईंधन सहित विभिन्न उद्देश्यों के लिए 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि को वन-उत्पादन के तहत् लाना होगा और फसलों तथा चारे के उत्पादन के लिए एक-एक करोड़ हेक्टेयर भूमि की आवश्यकता पड़ेगी। इसके लिए हमें अतिरिक्त क्षेत्र की आवश्यकता पड़ेगी जिसे गैर-खेती-उपयोग की दिशा में, विशेष रूप से शहरीकरण के लिए हस्तांरित करना होगा।
  • सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के अन्तर्गत डेयरी उद्योग का विकास भी शामिल है जो रोजगार के सर्वाधिक अवसर उपलब्ध कराने वाले उद्योगों में से एक है। इसी तरह रेशम से रेशमी कपड़े बुनना भी इसके अन्तर्गत आता है, जहां रोजगार के व्यापक अवसर उपलब्ध हैं। सामाजिक वानिकी लघु, उद्योग और कुटीर उद्योगों की भी मदद करती है। जैसे साबुन बनाना, लघु उद्योग के तहत् कागज की लुगदी  बनाने वाली फैक्टरियां, फर्नीचर उद्योग और तेल निकालना, इनसे लोगों को अपने आवास के निकट काम हासिल करने में मदद मिलती है।
The document वन (भाग - 2) - भारतीय भूगोल | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi is a part of the UPSC Course भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi.
All you need of UPSC at this link: UPSC
55 videos|460 docs|193 tests

Top Courses for UPSC

FAQs on वन (भाग - 2) - भारतीय भूगोल - भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi

1. वन घनत्व क्या है?
उत्तर. वन घनत्व एक भूगोलीय माप है जो एक क्षेत्र में पाए जाने वाले वन क्षेत्र की वनों की संख्या और संपूर्ण क्षेत्र के साथ मेंढ़ता है। यह वन क्षेत्र में प्रति एकड़ में पाए जाने वाले पेड़-पौधों की संख्या को मापता है।
2. वन घनत्व कैसे मापा जाता है?
उत्तर. वन घनत्व को मापने के लिए, वन क्षेत्र के एक नमूना क्षेत्र का चयन किया जाता है। इसके बाद, उस क्षेत्र की वनों की संख्या को गिना जाता है और उसे प्रति एकड़ में निर्धारित किया जाता है। इस प्रक्रिया को अनुकरण करके, पूरे वन क्षेत्र की वन घनत्व की गणना की जाती है।
3. वन घनत्व क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर. वन घनत्व महत्वपूर्ण है क्योंकि यह हमें वनों की मात्रा और गुणवत्ता के बारे में जानकारी प्रदान करता है। यह जानने में मदद करता है कि एक क्षेत्र में कितने पेड़-पौधे हैं और वन क्षेत्र की क्षमता क्या है। यह वनों की संरक्षण और प्रबंधन की आवश्यकताओं को समझने में भी मदद करता है।
4. वन घनत्व का महत्व किस रूप में निर्धारित किया जाता है?
उत्तर. वन घनत्व का महत्व प्रति एकड़ में पेड़-पौधों की संख्या के रूप में निर्धारित किया जाता है। इसे एक क्षेत्र में प्रति एकड़ में प्रति वर्ग किमी या प्रति हेक्टेयर में भी व्यक्त किया जा सकता है।
5. भारत में वन घनत्व की स्थिति क्या है?
उत्तर. भारत में वन घनत्व की स्थिति भिन्न-भिन्न है। पूरे देश में वन घनत्व की औसत गणना की जाती है और यह विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों में भिन्न होती है। उच्च वन घनत्व वाले क्षेत्रों में वनों की अधिकता होती है जबकि निम्न वन घनत्व वाले क्षेत्रों में वनों की कमी होती है।
55 videos|460 docs|193 tests
Download as PDF
Explore Courses for UPSC exam

Top Courses for UPSC

Signup for Free!
Signup to see your scores go up within 7 days! Learn & Practice with 1000+ FREE Notes, Videos & Tests.
10M+ students study on EduRev
Related Searches

Exam

,

Viva Questions

,

Previous Year Questions with Solutions

,

Semester Notes

,

ppt

,

Objective type Questions

,

Extra Questions

,

वन (भाग - 2) - भारतीय भूगोल | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi

,

shortcuts and tricks

,

वन (भाग - 2) - भारतीय भूगोल | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi

,

mock tests for examination

,

practice quizzes

,

वन (भाग - 2) - भारतीय भूगोल | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi

,

Sample Paper

,

MCQs

,

past year papers

,

video lectures

,

Free

,

Summary

,

Important questions

,

study material

,

pdf

;