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संविधान में संशोधन की प्रक्रिया - संशोधन नोटस, भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

भारतीय संविधान में तीन प्रकार से संशोधन किये जा सकते है।

साधारण विधि द्वारा संशोधन

  • संविधान के कुछ उपबंध ऐसे हैं जो कि साधारण विधि (प्रक्रिया) द्वारा संशोधित किये जा सकते है।
  • इस प्रक्रिया के अन्तर्गत साधारण कानून एवं संवैधानिक संशोधनों में कोई अन्तर नहीं किया जा सकता।
  • इस संबंध में संविधान के अनुच्छेद 4 (2) में यह संवैधानिक संशोधन होने के बावजूद भी संवैधानिक संशोधनों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
  • इस विधि के अन्तर्गत संविधान के कुछ उपबन्ध संसद अपने दोनों सदनों के केवल साधारण बहुमत से पारित कर राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति प्राप्त करके संशोधित कर सकती है।
  • इस प्रकार के संशोधन संबंधी प्रस्ताव किसी भी संसद सदस्य द्वारा या मंत्राी द्वारा संसद के किसी भी सदन में रखे जा सकते है तथा संसद साधारण विधेयकों के लिए निर्धारित प्रक्रिया के अनुरूप साधारण बहुमत अर्थात् उस सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत (50 प्रतिशत से अधिक) से प्रस्ताव पारित कर सकती है।
  • इस प्रक्रिया के अन्तर्गत संशोधित किए जा सकने वाले उपबन्ध निम्न है-
    (i) संविधान के अनुच्छेद 2, 3 व 4 के अधीन नये राज्यों का निर्माण, राज्यों के नाम तथा राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन तथा नये राज्यों को भारतीय संघ में प्रवेश देना तथा इसी के अनुरूप पहली एवं चैथी अनुसूची में परिवर्तन करना।
    (ii) अनुच्छेद 73 (2) के तहत संसद की किसी नयी व्यवस्था के होने तक राज्य को कुछ निश्चित शक्तियाँ प्रदान करना।
    (iii) अनुच्छेद 100 (3) के अधीन संसदीय गणपूर्ति संबंधी प्रावधान निर्धारित करना।
    (iv)अनुच्छेद 75, 97, 125, 148, 165 (5) एवं 221 (2) के उपबन्धों के अधीन दूसरी अनुसूची में परिवर्तन करना।
    (v) अनुच्छेद 105 (3) के अधीन संसदीय विशेषाधिकारों को परिभाषित करना।
    (vi) अनुच्छेद 106 के अधीन संसद सदस्यों के वेतन एवं भत्तों की व्यवस्था करना या उनमें बढ़ोत्तरी करना।
    (vii) अनुच्छेद 120 (3) के अधीन किसी नयी व्यवस्था के न किये जाने पर 15 वर्षों के पश्चात् (संविधान लागू होने के) अंग्रेजी को संसदीय भाषा के रूप में छोड़ने की व्यवस्था करना।
    (viii) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या में परिवर्तन करना।
    (ix) अनुच्छेद 169 (1) के अधीन कुछ शर्तों के साथ विधान परिषदों को भंग करने की व्यवस्था करना।
    (x) नागरिकता संबंधी तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से संबंधित कुछ उपबन्धों को भी इसी प्रक्रिया के अधीन संशोधित किया जा सकता है।
  • इसी विधि द्वारा अब तक अनेक संशोधन किये जा चुके है, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-राज्यों का पुर्नगठन 1956, 1955 के नागरिकता अधिनियम में संशोधन तथा 1961 में नागालैण्ड नामक नये राज्य का निर्माण, 53वें संशोधन द्वारा मिजोरम, 55वें संशोधन द्वारा अरुणाचल प्रदेश, 57वें संशोधन द्वारा गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान करना |

राजनीतिक दल

राज्यस्तरीय दल को मान्यता-जो दल निम्नलिखित शर्तों को पूरा करते है, उन्हें राज्यस्तरीय दल के रूप में मान्यता दी जाती है-

  • वह लगातार 5 वर्ष से राजनीतिक क्रिया-कलाप में संलग्न हो,
  • लोकसभा के लिए उस राज्य से निर्वाचित प्रत्येक 25 सदस्यों या उस संख्या की किसी भिन्न के पीछे कम से कम एक सदस्य निर्वाचन द्वारा भेज चुका हो, या
  • उस राज्य की विधानसभा के लिए उस सभा के प्रत्येक 30 सदस्यों या उस संख्या की किसी भिन्न के पीछे कम से कम एक सदस्य निर्वाचन द्वारा भेज चुका है।
  • राज्य में हुए लोकसभा अथवा विधानसभा के साधारण निर्वाचन में उस दल द्वारा खड़े किये गये अभ्यर्थियों द्वारा प्राप्त विधिमान्य मतों की कुल संख्या उस राज्य में हुए ऐसे साधारण निर्वाचन में लड़ने वाले सभी अभ्यर्थियों द्वारा प्राप्त मतों की कुल संख्या के 4 प्रतिशत से कम न हो।
  • यदि उक्त तीनों शर्तें पूरी हो जाती है, तो निर्वाचन आयोग किसी भी दल को राज्य स्तरीय दल के रूप में मान्यता देता है और उसका चुनाव चिन्ह आरक्षित करता है। ऐसे मान्यता प्राप्त दल के विभाजन की स्थिति में आयोग यह निर्णय करता है कि कौन दल का वास्तविक प्रतिनिधित्व करता है।
  • राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता-यदि कोई दल 4 राज्यों में राजनैतिक दल के रूप में निर्वाचन आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त है, तो उसे राष्ट्रीय दल के रूप में आयोग द्वारा मान्यता प्रदान कर दी जाएगी। उस दल को भी राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में मान्यता प्रदान कर दी जाती है, जिसने राज्य में लोकसभा के असाधारण निर्वाचन में कुल पड़े वैध मतों का 4 प्रतिशत प्राप्त किया है।


संसद के विशिष्ट बहुमत द्वारा संशोधन प्रक्रिया

  • इस प्रक्रिया के अधीन संविधान के कुछ विशिष्ट उपबन्धों को छोड़कर अन्य सभी उपबन्धों में संशोधन किये जा सकते हैं। इस प्रक्रिया के अधीन किए जा सकने वाले संशोधनों के संबंध में प्रस्ताव किसी भी संसद सदस्य द्वारा संसद के किसी भी सदन में प्रस्तावित किया जा सकता है।
  • ऐसा प्रस्ताव दोनों सदनों द्वारा पृथक-पृथक सदनों के कुल सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित किया जाना आवश्यक है।
  • दोनों सदनों द्वारा इस प्रकार पारित किये जाने के पश्चात् राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर प्रस्ताव पारित माना जाएगा और संविधान में आवश्यक संशोधन लागू होगा।
  • यही व्यवस्था संविधान के भाग 3 में वर्णित मौलिक अधिकार तथा भाग 4 में वर्णित नीति निदेशक तत्वों में संशोधन करने के लिए लागू होगी।

राज्य विधानमण्डलों की स्वीकृति से किये जाने वाले संशोधन

  • इसके माध्यम से कतिपय ऐसे विशिष्ट उपबन्ध संशोधित किये जा सकते है जो वास्तव में संघ एवं राज्य दोनों से संबंधित है।
  • इस प्रक्रिया के अधीन संशोधन विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है।
  • इस प्रकार के विधेयक को संसद के दोनों सदनों द्वारा पृथक-पृथक सदन की कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाना आवश्यक है।
  • इस प्रक्रिया के अनुरूप संसद द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजे जाने से पूर्व आवश्यक है कि विधेयक को संघ के कम से कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों का अनुसमर्थन (स्वीकृति) प्राप्त हो।
  • कम से कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों के अनुसमर्थन के पश्चात् वह विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु भेजा जाएगा तथा राष्ट्रपति की सहमति के पश्चात् वह संशोधन पारित मान लिया जाएगा।
  • इस प्रक्रिया के अधीन निम्न विषयों से संबंधित उपबन्ध संशोधित किये जा सकते है-
    (i) अनुच्छेद 54 एवं 55-राष्ट्रपति का निर्वाचन एवं निर्वाचन-प्रणाली,
    (ii) अनुच्छेद 73-संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार,
    (iii) अनुच्छेद 162-संघ के राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार,
    (iv)अनुच्छेद 241-केन्द्र शासित प्रदेशों के लिए उच्च न्यायालय,
    (v) भाग 5 का अध्याय 4-संघ की न्यायपालिका,
    (vi) भाग 6 के अध्याय 5-राज्योंके उच्च न्यायालय,
    (v) साँतवी अनुसूची की कोई सूची,
    (vi) भाग 11 का अध्याय 1-संघ एवं राज्यों के बीच विधायी शक्ति का वितरण,
    (vii) अनुच्छेद 80, 81 तथा चैथी अनुसूची-राज्यों का संसद में प्रतिनिधित्व,
    (vii) अनुच्छेद 368-संविधान में संशोधन प्रक्रिया।
  • तीनों प्रक्रियाओं में संसद के दोनों सदनों में किसी संवैधानिक संशोधन विधेयक पर विवाद होने की स्थिति में संयुक्त अधिवेशन जैसा कोई प्रावधान नहीं है।
  • किसी संशोधन विधेयक पर यदि दोनों सदनों में मतभेद है और विधेयक किसी भी सदन द्वारा यदि अस्वीकृत कर दिया गया है तो वह प्रस्ताव वहीं समाप्त मान लिया जाता है।

आपात उपबन्ध

आपात की उद्धोषणा

  • भारत के राष्ट्रपति को युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशó विद्रोह की स्थिति में या इसकी आशंका की स्थिति में देश में आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार है।
  • संविधान के अनुच्छेद 352 में कहा गया है कि-यदि राष्ट्रपति यह अनुभव करे कि युद्ध, बाहरी आक्रमण या आन्तरिक अशान्ति के कारण भारत या उसके किसी भाग में अशान्ति उत्पन्न होने की आशंका है, या सुरक्षा को खतरा है तो वह देश में या उस भाग में आपातकाल की घोषणा कर सकता है।
  • संविधान के अनुच्छेद 352 (1) के खण्ड (1) में कहा गया है कि राष्ट्रपति द्वारा जारी की गई उपर्युक्त आधार पर आपात घोषणा में बाद में की गई घोषणा द्वारा परिवर्तन भी किया जा सकता है तथा आपातकाल की उक्त घोषणा को वापस भी लिया जा सकता है।
  • संविधान में 44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा संविधान के अनुच्छेद 352 (3) में कहा गया है कि 352 अनुच्छेद के अन्तर्गत राष्ट्रपति आपात काल की घोषणा तभी कर सकता है जबकि मंत्रिमण्डल लिखित रूप में उसे ऐसा करने के लिए सूचित करे।
  • संविधान के अनुच्छेद 352 (4) में यह व्यवस्था की गई है कि इस अनुच्छेद के अधीन की गई आपातकालीन घोषणा उद्धोषित किए जाने के एक माह के अन्दर संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जानी चाहिए और यदि संसद के दोनों सदनों ने पृथक-पृथक विशेष बहुमत द्वारा इसे (दोनों सदनों के कुल बहुमत एवं उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से) पारित किया है तभी यह लागू माना जाएगा।
  • संसद द्वारा पारित उद्धोषणा के बाद भी यह 6 माह तक ही लागू रहेगा। इसे लागू रखने के लिए प्रत्येक 6 माह पश्चात् संसद की स्वीकृति लेना आवश्यक है।
  • ऐसी स्थिति में जबकि लोकसभा विघटित हो और आपातकाल की घोषणा जारी की गई हो तब उद्धोषणा से सम्बन्धित प्रस्ताव राज्य सभा में रखा जाएगा और राज्यसभा में यदि यह पारित कर दिया गया है तो उसे लागू माना जाएगा। लेकिन यदि इसके लागू होने की अवधि (6 माह) पूरी नहीं हुई है और नई लोकसभा का गठन हो चुका हो तब लोकसभा द्वारा अपने पुनर्गठन के पश्चात् अपनी प्रथम बैठक से तीस दिन की समाप्ति से पूर्व आपातकालीन घोषणा का प्रस्ताव पारित कर दिया गया हो तभी वह लागू रह सकेगा, अन्यथा वह समाप्त माना जाएगा।
  • संविधान में यह व्यवस्था भी की गई है कि अनुच्छेद 352 (1) के अधीन जारी की गई आपात घोषणा में परिवर्तन सम्बन्धी घोषणा अथवा उसे बनाये रखने सम्बन्धी घोषणा को लागू रखने के लिए लोक सभा की कुल सदस्य संख्या के कम से कम दसवें भाग द्वारा अपने हस्ताक्षरों सहित लिखित रूप में कोई प्रस्ताव-
    (i) लोक सभा का यदि अधिवेशन चल रहा हो तो लोकसभा अध्यक्ष को;
    (ii) यदि लोकसभा का अधिवेशन जारी नहीं है तो राष्ट्रपति को, दिया जाए।
  • तब अध्यक्ष या राष्ट्रपति ऐसी सूचना पर विचार करने के लिए प्रस्ताव प्राप्त होने के चौदह दिन की अवधि के भीतर लोक सभा की विशेष बैठक बुला सकता है।

आपात घोषणा का प्रभाव

  • संविधान के अनुच्छेद 353 में कहा गया है कि जब देश में या उसके किसी भाग में अनुच्छेद 352 (1) के अधीन आपातकाल की घोषणा की गई हो, तब-
    (क) संघ की कार्यपालिका (केन्द्रीय सरकार) राज्यों की कार्यपालिकाओं को यह निर्देश दे सकती है कि वे अपनी शक्ति का प्रयोग किस प्रकार से करें।
    (ख) संसद को सम्पूर्ण भारत अथवा उसके किसी क्षेत्र विशेष के लिए सभी सूचियों जिसमें कि राज्य सूची भी शामिल है के सभी विषयों पर कानून निर्माण करने की शक्ति प्राप्त हो जाएगी।
  • संविधान के अनुच्छेद 354 के अनुसार जब आपातकालीन घोषणा प्रभाव में हो तब राष्ट्रपति आदेश द्वारा यह निर्देश दे सकता है कि संघ और राज्यों के बीच आय के वितरण सम्बन्धी भाग या कोई भी उपबंध (अनुच्छेद 268 से 279 तक के) चालू वित्तीय वर्ष में उसके निर्देशानुसार संशोधित होंगे अथवा लागू होंगे। परन्तु ऐसे आदेशों को यथाशीघ्र संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखा जाएगा।
  • संविधान के 43वें संवैधानिक संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि अनुच्छेद 352 (1) के अधीन जब भारत भूमि के किसी विशेष भाग में आपात स्थिति लागू की गई हो तब संसद को न केवल उस राज्य क्षेत्र से सम्बन्धित कार्यपालिका तथा विधायी शक्ति प्राप्त होगी अपितु संघ की यह शक्ति अन्य राज्यों में भी उस समय तक लागू की जा सकती है जिस सीमा तक भारत की भूमि या किसी विशेष भाग की सुरक्षा के लिए संकट हो।
  • आपात घोषणा के दौरान संविधान में अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को प्रदान की गई 5 स्वतंत्राताएं भी स्थगित की जा सकती है और इन स्वतंत्राताओं को सीमित या प्रतिबन्धित करने संबंधी कानून भी संसद द्वारा बनाये जा सकते है।
  • 44वें संशोधन द्वारा उपर्युक्त स्थिति में यह सुधार किया गया है कि ये स्वतंत्राता केवल युद्ध या बाहरी आक्रमण होने पर या उसकी आशंका होने पर ही स्थगित की जा सकती है। देश में आंतरिक सशó विद्रोह की आशंका पर नहीं।
  • 44वें संशोधन द्वारा यह उपबन्ध भी किया गया है कि किसी भी स्थिति में नागरिकों के जीवन और शारीरिक स्वाधीनता (अनुच्छेद 21) के अधिकार को समाप्त या सीमित नहीं किया जाएगा।
  • इसी संशोधन द्वारा यह भी कहा गया है कि उपर्युक्त अधिकार की रक्षा के अतिरिक्त अन्य किसी भी अधिकार के आपातकाल के दौरान अतिक्रमण के विरुद्ध न्यायालय में नहीं जाया जा सकता।
  • आपात स्थिति की समाप्ति के पश्चात् उपर्युक्त सभी प्रभाव स्वतः ही समाप्त हो जाएँगे।
  • मूल संविधान में केवल ‘आन्तरिक अशान्ति’ शब्द था, 44वें संशोधन में इसके स्थान पर ‘सशत्र विद्रोह’ की आशंका शब्द डाला गया।

अनुच्छेद 352 व्यवहार में

  • भारत में अब तक तीन बार आपातकाल की घोषणा की जा चुकी है-
    (i) 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण के समय-इस दौरान 26 अक्टूबर, 1962 को नेफा तथा लद्दाख क्षेत्र में आपातकाल घोषित किया गया था। इसके पश्चात् 8 नवम्बर, 1962 से भारत के सभी लोगों के व्यक्तिगत स्वंतत्रता से सम्बन्धित अनुच्छेद 20 व 21 स्थगित कर दिये गये थे एवं साथ ही इस सम्बन्ध में न्यायालय की शरण लेने का अधिकार भी स्थगित कर दिया गया था। 14 नवम्बर, 1962 से अनुच्छेद 14 भी स्थगित कर दिया गया था। 1962 में जारी की गई यह संकटकालीन घोषणा 10 जनवरी, 1968 तक जारी रही।
    (ii) 1971 में पाकिस्तान के आक्रमण की स्थिति में।
    (iii) जून 1975 में इंदिरा सरकार द्वारा।

राज्यों में संवैधानिक तंत्रा के विफल होने पर

संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार-राष्ट्रपति किसी राज्य के राज्यपाल के प्रतिवेदन (रिपोर्ट) पर या किसी अन्य कारण से यह अनुभव करे कि राज्य में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है कि उस राज्य का शासन संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तब सम्बन्धित राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर सकता है।

  • राष्ट्रपति यह घोषणा कर सकता है कि-
    (क) उस राज्य की सरकार की सभी शक्तियाँ एवं कार्य वह अपने हाथ में लेता है।
    (ख) राज्य विधान मण्डल की शक्तियाँ संसद द्वारा या उसके अधीन किसी अधिकारी द्वारा प्रयोग की जाएँगी।
    (ग) राज्य के किसी निकाय या अधिकारी से सम्बन्धित संविधान के किन्हीं उपबन्धों के पूर्ण या आंशिक प्रवर्तन (लागू होने को) को पूरी तरह या किसी भाग को निलम्बित या स्थगित कर सकता है यदि राष्ट्रपति को अनुच्छेद 358 के अधीन उðोषणा के लागू होने के लिए आवश्यक या वांछनीय लगे।
  • ऐसे संकट की घोषणा करने की विधि वही है जो कि अनुच्छेद 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा करने की है।
  • मूल संविधान द्वारा इस सम्बन्ध में संसद द्वारा एक बार ऐसा प्रस्ताव पास करने पर 6 माह के लिए राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता था।
  • 42वें संशोधन द्वारा यह अवधि बढ़ाकर 1 वर्ष कर दी गई थी। लेकिन 44वें संशोधन द्वारा इसे पुनः घटाकर 6 माह कर दिया गया है।
  • 44वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम द्वारा यह व्यवस्था भी की गई है कि राज्य में राष्ट्रपति शासन एक वर्ष की अवधि के बाद भी जारी रखने के लिए संसद द्वारा प्रस्ताव पारित किया जाना चाहिए। संसद ऐसा प्रस्ताव तभी पारित कर सकेगी जबकि अनुच्छेद 352 के अधीन सम्पूर्ण भारत या उसके किसी भाग में आपातकाल घोषित हो तथा निर्वाचन आयोग द्वारा यह प्रमाणित किया गया हो कि सम्बन्धित राज्य में विधान सभा हेतु आम चुनाव करवाना संभव नहीं है।

घोषणा के संवैधानिक प्रभाव

  • इस दौरान राष्ट्रपति यह घोषणा कर सकता है कि वह राज्य विधान मण्डल की विधान (कानून) बनाने के शक्ति राष्ट्रपति या संसद को अथवा राष्ट्रपति या संसद द्वारा इस हेतु नियुक्त किये गये किसी भी अधिकारी को प्रदान करता है।
  • राष्ट्रपति राज्य की कार्यपालिका शक्ति किसी भी राज्याधिकारी को हस्तगत (प्रदान) कर सकता है।
  • राष्ट्रपति इस घोषणा के अधीन उच्च न्यायालय की शक्तियों को छोड़कर सभी शक्तियाँ अपने हाथ में ले सकता है।
  • जब लोकसभा की बैठकंे नहीं हो रही हो, उस स्थिति में राष्ट्रपति राज्य की संचित-निधि में से व्यय के आदेश दे सकता है।
  • संकट की अवधि में राष्ट्रपति नागरिकों को अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त स्वतंत्राताएँ स्थगित कर सकता है तथा अनुच्छेद 20 एवं 21 के अधीन व्यक्तिगत एवं जीवन रक्षा की स्वतंत्राता के अतिरिक्त किसी भी अन्य अधिकार के सम्बन्ध में व्यक्ति के न्यायालय में शरण लेने सम्बन्धी (संवैधानिक उपचारों का अधिकार) अधिकार का भी उस अवधि तक के लिए अन्त कर सकता है।

वित्तीय आपात

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 360 में वित्तीय आपातकाल की घोषणा का प्रावधान किया गया है।
  • संविधान के अनुच्छेद 360 (1) में कहा गया है कि-
  • यदि राष्ट्रपति यह अनुभव करे कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिससे पूरे भारत या उसके किसी राज्य क्षेत्र के किसी भाग में वित्तीय स्थायित्व या साख को खतरा है तो वह पूरे भारत या सम्बन्धित राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग में वित्तीय आपातकाल की घोषणा कर सकता है।
  • अनुच्छेद 360 (2) में व्यवस्था की गई है कि वित्तीय आपात की घोषणा-
  • (क) बाद में की गई किसी घोषणा द्वारा वापस ली जा सकेगी या उसमें परिवर्तन किया जा सकता है।
    (ख) ऐसी घोषणा का प्रस्ताव सदन के दोनों सदनों के समक्ष रखा जाएगा।
  • इस सम्बन्ध में प्रस्ताव पारित किये जाने की वही प्रक्रिया अपनायी जाएगी जो कि अनुच्छेद 352 के अधीन आपात उपबन्ध के लिए निर्धारित की गई है।
    (ग) इसकी अवधि 2 मास है, किन्तु यदि संसद के दोनों सदन इससे सम्बन्धित प्रस्ताव पारित कर देते हैं तो यह तब तक प्रभाव में रहेगी जब तक कि इसे समाप्त करने की घोषणा न कर दी जाएगी। इस प्रकार इसके लिए कोई अधिकतम अवधि निश्चित नहीं की गई है। लेकिन यदि दो माह की अवधि के अन्तर्गत ही संसद के दोनों सदनों द्वारा इससे सम्बन्धित प्रस्ताव पारित नहीं किया जाता तो यह दो माह की समाप्ति पर स्वतः समाप्त मान ली जाएगी।
    (घ) वित्तीय आपात की घोषणा को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
    (ङ) यदि घोषणा के समय लोक सभा विघटित है तो 2 माह की अवधि के भीतर ही इसे राज्य सभा की स्वीकृति लेना आवश्यक है। और यदि 2 माह की अवधि के भीतर नई लोकसभा गठित हो जाती है तो लोकसभा की प्रथम बैठक के 30 दिनों के भीतर लोकसभा द्वारा इसे स्वीकार कर लेना चाहिए, अन्यथा इसे समाप्त समझा जाएगा।

वित्तीय संकट के प्रभाव

  • संघ की कार्यपालिका राज्य को वित्त सम्बन्धी सिद्धान्तों के सम्बन्ध में आदेश एवं निर्देश दे सकती है। साथ ही राष्ट्रपति यदि यह आवश्यक एवं उचित समझे तो राज्य को वित्तीय औचित्य से सम्बन्धित निर्देश दे सकता है।
  • संघ एवं राज्य सरकार के अधीन सेवारत किसी भी या सभी वर्गों के व्यक्तियों के वेतन एवं भत्तों में कटौती की जा सकती है।
  • इसमें राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों के वेतन भत्ते भी शामिल है।
  • राष्ट्रपति राज्य सरकारों को इस बात के लिए बाध्य कर सकता है कि वे राज्य के समस्त धन विधेयक राष्ट्रपति के विचार एवं स्वीकृति के लिए प्रस्तुत करें।
  • संधि की कार्यपालिका राज्य की कार्यपालिका को शासन सम्बन्धी निर्देश दे सकती है।
  • राष्ट्रपति केन्द्र तथा राज्यों के धन सम्बन्धी बँटवारे के प्रावधानों में आवश्यक संशोधन कर सकता है।
  • भारत में व्यवहार में अब तक कभी भी इस प्रकार के संकट (वित्तीय संकट) की घोषणा नहीं की गई है।

पंचायती राज

  • ब्रिटिश शासन काल में 1882 में तत्कालीन वायसराय लार्ड रिपन ने स्थानीय स्वायत्त शासन की स्थापना का प्रयास किया था, लेकिन वह सफल नहीं हो सका।
  • ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं की स्थिति की जांच करने तथा उसके सम्बन्ध में सिफारिश करने के लिए 1882 तथा 1907 में शाही आयोग का गठन किया। इस आयोग ने स्वायत्त संस्थाओं के विकास पर बल दिया, जिसके कारण 1920 में संयुक्त प्रान्त, असम, बंगाल, बिहार, मद्रास और पंजाब में पंचायतों की स्थापना के लिए कानून बनाये गये।
  • संविधान के अनुच्छेद 40 में राज्यों को पंचायतों के गठन का निर्देश दिया गया है। इसके साथ ही संविधान की 7वीं अनुसूची (राज्य सूची) की प्रविष्टि 5 में ग्राम पंचायतों को शामिल करके इसके सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार राज्य को दिया गया है।
  • मेहता समिति की सिफारिश को 1 अप्रैल, 1958 को लागू किया गया और इस सिफारिश के आधार पर राजस्थान राज्य की विधानसभा ने 2 सितम्बर, 1959 को पंचायती राज अधिनियम पारित किया, और इस अधिनियम के प्रावधानों के आधार पर 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में पंचायती राज का उद्घाटन किया गया। इसके बाद 1959 में आन्ध्र प्रदेश, 1960 में असम, तमिलनाडु एवं कर्नाटक, 1962 में महाराष्ट्र, 1963 में गुजरात तथा 1964 में पश्चिम बंगाल में विधानसभाओं द्वारा पंचायती राज अधिनियम पारित करके पंचायती राज व्यवस्था को प्रारम्भ किया गया।

तिहत्तरवां संविधान संशोधन

  • 1988 में पी. के. थुंगन  समिति का गठन पंचायती संस्थाओं पर विचार करने के लिए किया गया। इस समिति ने अपने प्रतिवेदन में कहा कि पंचायती राज संस्थाओं को संविधान में स्थान दिया जाना चाहिए।
  • इस समिति की सिफारिश के आधार पर पंचायती राज को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने के लिए 1989 में 64वां संविधान संशोधन लोकसभा में पेश किया गया, जिसे लोक सभा द्वारा पारित कर दिया गया लेकिन राज्य सभा द्वारा नामंजूर कर दिया गया। इसके बाद लोकसभा को भंग कर दिये जाने के कारण यह विधेयक समाप्त हो गया। इसके बाद 74वां संविधान संशोधन पेश किया गया, जो लोकसभा के भंग किये जाने के कारण समाप्त हो गया।
  • इसके बाद 16 दिसम्बर, 1991 को 72वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया, जिसे संयुक्त संसदीय समिति (प्रवर समिति) को सौंप दिया गया। इस समिति ने विधेयक पर अपनी सम्मति जुलाई 1992 में दी और विधेयक के क्रमांक को बदलकर 73वां संविधान संशोधन विधेयक कर दिया गया, जिसे 22 दिसम्बर, 1992 को राज्यसभा ने पारित कर दिया।
  • 17 राज्य विधान सभाओं द्वारा अनुमोदित किये जाने पर इसे राष्ट्रपति की सम्मति के लिए उनके समक्ष पेश किया गया। राष्ट्रपति ने 20 अप्रैल, 1993 को इस पर अपनी सम्मति दे दी और इसे 25 अप्रैल, 1993 को प्रवर्तित कर दिया गया।
  • पंचायत व्यवस्था के सम्बन्ध में प्रावधान संविधान के भाग 9 में 16 अनुच्छेदों में शामिल किया गया, जो निम्न प्रकार है-
    (i) पंचायत व्यवस्था के अन्तर्गत सबसे निचले स्तर पर ग्रामसभा होगी। इसमें एक या एक से अधिक गांव शामिल किये जा सकते है। ग्रामसभा की शक्तियों के सम्बन्ध में राज्य विधान मण्डल द्वारा कानून बनाया जाएगा।
    (ii) जिन राज्यों की जनसंख्या 20 लाख से कम है, उनमें दो स्तरीय पंचायत, अर्थात जिला स्तर और गांव स्तर पर, का गठन किया जाएगा और 20 लाख की जनसंख्या से अधिक वाले राज्यों में त्रिस्तरीय पंचायती राज, अर्थात गांव, मध्यवर्ती तथा जिला स्तर पर, की स्थापना की जाएगी।
    (iii) सभी स्तर की पंचायतों के सभी सदस्यों का चुनाव वयस्क मतदाताओं द्वारा प्रत्येक पांचवें वर्ष किया जाएगा। गांव स्तर के पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्षतः तथा मध्यवर्ती एवं जिला स्तर के पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से किया जाएगा।
    (iv) पंचायत के सभी स्तरों पर अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के लिए उनके अनुपात में आरक्षण प्रदान किया जाएगा तथा महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण होगा।
    (v) सभी स्तर की पंचायतों का कार्यकाल पांच वर्ष होगा, लेकिन इनका विघटन पांच वर्ष के पहले भी किया जा सकता है, परन्तु विघटन की दशा में 6 माह के अन्दर चुनाव कराना आवश्यक होगा।
    (vi) पंचायतों को कौन सी शक्तियां प्राप्त होंगी और वे किन उत्तरदायित्वों का निर्वहन करेंगी, इसकी सूची संविधान में ग्यारहवीं अनुसूची में दी गयी है, जो निम्न प्रकार हैं-
    (क) कृषि, जिसके अन्तर्गत कृषि विस्तार भी है,
    (ख) भूमि सुधार और मृदा संरक्षण,
    (ग) लघु सिंचाई, जल प्रबन्ध और जल आच्छादन विकास,
    (घ) पशु पालन, दुग्ध उद्योग और कुक्कुट पालन,
    (ङ) मत्स्य उद्योग,
    (च) सामाजिक वनोद्योग और फार्म वनोद्योग,
    (छ) लघु वन उत्पाद,
    (ज) लघु उद्योग, जिसके अन्तर्गत खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी है,
    (झ) खादी ग्राम और कुटीर उद्योग,
    (ञ) ग्रामीण आवास,
    (ट) पेय जल,
    (ठ) ईंधन और चारा,
    (ड) सड़क, पुलिया, पुल, नौघाट, जल मार्ग तथा संचार के अन्य साधन,
    (ढ) ग्रामीण विद्युतीकरण, जिसके अन्तर्गत विद्युत का वितरण भी है,
    (ण) गैर पारम्परिक ऊर्जा स्त्रोत,
    (त) गरीबी उपशमन कार्यक्रम,
    (थ) शिक्षा, जिसके अन्तर्गत प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय भी है,
    (द) तकनीकी प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा,
    (ध) प्रौढ़ और अनौपचारिक शिक्षा,
    (न) पुस्तकालय,
    (प) सांस्कृतिक क्रियाकलाप,
    (फ) बाजार और मेले,
    (ब) स्वास्थ्य और स्वच्छता (अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और औषधालय) 
    (भ) परिवार कल्याण,
    (म) महिला और बाल विकास,
    (य) समाज कल्याण (विकलांग और मानसिक रूप से अविकसित सहित)
    (र) कमजोर वर्गो का (विशेष रूप से अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों का) कल्याण,
    (ल) जन वितरण प्रणाली,
    (व) सामुदायिक आस्तियों का अनुरक्षण,
    (i) राज्य विधान मण्डल कानून बनाकर पंचायतों को उपयुक्त स्थानीय कर लगाने, उन्हें वसूल करने तथा उनसे प्राप्त धन को व्यय करने का अधिकार प्रदान कर सकती है।
    (ii) पंचायतों की वित्तीय अवस्था के सम्बन्ध में जांच करने के लिए प्रति पांचवें वर्ष वित्तीय आयोग का गठन किया जाएगा, जो राज्यपाल को अपनी रिपोर्ट देगा।

 

पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान

अनुच्छेद 243 घ. स्थानों का आरक्षण - 
1. प्रत्येक पंचायत में - 
क. अनुसूचित जातियों, और
ख. अनुसूचित जनजातियों, 
के लिए स्थान आरक्षित रहेंगे और इस प्रकार आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात, उस पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले स्थानों की कुल संख्या में यथाशक्य वही होगा जो उस पंचायत क्षेत्र में अनुसूचित जातियों की अथवा उस पंचायत क्षेत्र में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या का अनुपात उस क्षेत्र की कुल जनसंख्या से है और ऐसे स्थान किसी पंचायत में भिन्न-भिन्न निर्वाचन क्षेत्रों को चक्रानुक्रम से आवंटित किए जा सकेंगे। 

2. खंड (1) के अधीन आरक्षित स्थानों की कुल संख्या के कम से कम एक-तिहाई स्थान, यथास्थिति, अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों की स्त्रियों के लिए आरक्षित रहेंगे।

3. प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले स्थानों की कुल संख्या के कम से कम एक-तिहाई स्थान (जिनके अंतर्गत अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की स्त्रियों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या भी है) स्त्रियों के लिए आरक्षित रहेंगे और ऐसे स्थान किसी पंचायत में भिन्न-भिन्न निर्वाचन क्षेत्रों को चक्रानुक्रम से आवंटित किये जा सकेंगे।

4. ग्राम या किसी अन्य स्तर पर पंचायतों में अध्यक्षों के पद अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और स्त्रियों के लिए ऐसी रीति से आरक्षित रहेंगे, जो राज्य का विधान मंडल, विधि द्वारा उपबंधित करे।
परन्तु किसी राज्य में प्रत्येक स्तर पर पंचायतों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित अध्यक्षों के पदों की संख्या का अनुपात, प्रत्येक स्तर पर पंचायतों में ऐसे पदों की कुल संख्या से यथाशक्य वही होगा, जो उस राज्य में अनुसूचित जातियों की अथवा उस राज्य में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या का अनुपात उस राज्य की कुल जनसंख्या से हैः

परन्तु यह और कि प्रत्येक स्तर पर पंचायतों में अध्यक्षों के पदों की कुल संख्या के कम से कम एक तिहाई पद स्त्रियों के लिए आरक्षित रहेंगेः
परन्तु यह भी कि इस खंड के अधीन आरक्षित पदों की संख्या प्रत्येक स्तर पर भिन्न-भिन्न पंचायतों को चक्रानुक्रम से आवंटित की जाएगी।

5.खंड (1) और खंड (2) के अधीन स्थानों का आरक्षण और खंड (4) के अधीन अध्यक्षों के पदों का आरक्षण (जो स्त्रियों के लिए आरक्षण से भिन्न है) अनुच्छेद 334’ में विनिर्दिष्ट अवधि की समाप्ति पर प्रभावी नहीं रहेगा।

स्रोतः भारत का संविधान (एक जून, 1996)को यथाविद्यमान)
’यह अनुच्छेद कहता है कि लोकसभा में और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों का आरक्षण संविधान के प्रारम्भ से पचास वर्ष की अवधि की समाप्ति पर प्रभावी नहीं रहेंगे।


नगरीय शासन

  • भारत में नगरीय शासन व्यवस्था प्राचीन काल से ही प्रचलन में रही है, लेकिन इसे कानूनी रूप सर्वप्रथम 1687 में दिया गया, जब ब्रिटिश सरकार द्वारा मद्रास शहर के लिए नगर निगम संस्था की स्थापना की गयी।
  • 1793 के चार्टर अधिनियम के अधीन मद्रास, कलकत्ता तथा मुंम्बई के तीनों महानगरों में नगर निगमों की स्थापना की गयी। बंगाल में नगरीय शासन प्रणाली को प्रारम्भ करने के लिए 1842 में बंगाल अधिनियम पारित किया गया।
  • 1882 में तत्कालीन वायसराय लार्ड रिपन ने नगरीय शासन व्यवस्था में सुधार करने का प्रयास किया गया, लेकिन वह राजनीतिक कारणों से असफल रहा।
  • नगरीय प्रशासन के विकेन्द्रीकरण पर रिपोर्ट देने के लिए 1909 में शाही विकेन्द्रीकरण आयोग का गठन किया गया, जिसकी रिपोर्ट को आधार बनाकर भारत सरकार अधिनियम, 1919 में शाही विकेन्द्रीकरण आयोग का गठन किया गया, जिसकी रिपोर्ट को आधार बनाकर भारत सरकार अधिनियम, 1919 में नगरीय प्रशासन के सम्बन्ध में स्पष्ट प्रावधान किया गया, जिसमें किये गये प्रावधानों के अनुसार नगरीय शासन व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी।
  • नगरीय शासन व्यवस्था के सम्बन्ध में मूल संविधान में कोई प्रावधान नहीं किया गया था, लेकिन इसे सातवीं अनुसूची की राज्य सूची में शामिल करके यह स्पष्ट कर दिया गया था कि इस सम्बन्ध में कानून केवल राज्य द्वारा ही बनाया जा सकता है। इसी का अनुसरण करके विभिन्न राज्यों में नगरीय शासन व्यवस्था के सम्बन्ध में कानून बनाया गया था। इन कानूनों के अनुसार, नगरीय शासन व्यवस्था के संचालन के लिए निम्नलिखित निकायों को गठित करने के सम्बन्ध में प्रावधान किया गया था-
    (i)  नगर निगम, ;(ii) नगर पालिका, (iii) नगर क्षेत्र समितियां, (iv) अधिसूचित क्षेत्र समिति तथा (iv) छावनी परिषद्।

74वां संविधान संशोधन अधिनियम

  • 22 दिसम्बर, 1992 को लोकसभा द्वारा तथा 23 दिसम्बर, 1992 को राज्य सभा द्वारा पारित और 20 अप्रैल, 1993 को राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत एवं 1 जून, 1993 से प्रवर्तित 74वें संविधान संशोधन द्वारा स्थानीय नगरीय शासन के सम्बन्ध में संविधान में भाग 9-क तथा 18 नये अनुच्छेदों एवं 12वीं अनुसूची जोड़कर निम्नलिखित प्रावधान किया गया है-
    (i) प्रत्येक राज्य में नगर पंचायत, नगर पालिका परिषद् तथा नगर निगम का गठन किया जाएगा। नगर पंचायत का गठन उस क्षेत्र के लिए होगा, जो ग्रामीण क्षेत्र से नगरीय क्षेत्र में परिवर्तित हो रहा है। नगर पालिका परिषद का गठन छोटे नगरीय क्षेत्रों के लिए किया जाएगा, जबकि बड़े नगरों के लिए नगर निगम का गठन होगा।
    (ii) तीन लाख या अधिक जनसंख्या वाली नगर पालिका के क्षेत्र में एक या अधिक वार्ड समितियों का गठन होगा।
    (iii) प्रत्येक प्रकार के नगर निकायों के स्थानों के लिए अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के लिए उनके जनसंख्या के अनुपात में स्थानों को आरक्षित किया जाएगा तथा महिलाओं के लिए कुल स्थानों का 30 प्रतिशत आरक्षित होगा।
    (iv) नगरीय संस्थाओं की अवधि पांच वर्ष होगी, लेकिन इन संस्थाओं का 5 वर्ष के पहले भी विघटन किया जा सकता है और विघटन की स्थिति में 6 माह के अन्दर चुनाव कराना आवश्यक होगा
    (v) नगरीय संस्थाओं की शक्तियां और उत्तरदायित्व क्या होगा, इसका निर्धारण राज्य विधान मण्डल कानून बनाकर कर सकती है। राज्य विधान मण्डल कानून बनाकर नगरीय संस्थाओं को निम्नलिखित के सम्बन्ध में उत्तरदायित्व और शक्तियां प्रदान कर सकती है-
    (अ) नगर में निवास करने वाले व्यक्तियों के सामाजिक न्याय तथा आर्थिक विकास के लिए योजना तैयार करने के लिए,
    (ब) ऐसे कार्यों को करने तथा ऐसी योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए, जो उन्हें सौंपा जाए।
  • इसके अतिरिक्त निम्नलिखित विषयों, जो संविधान की बाहरवीं अनुसूची में शामिल किये गये है, के सम्बन्ध में राज्य विधानमण्डल कानून बनाकर नगरीय संस्थाओं को अधिकार एवं दायित्व सौंप सकते है-
    (क) नगरीय योजना (इसमें शहरी योजना भी सम्मिलित है),
    (ख) भूमि उपयोग का विनियम और भवनों का निर्माण,
    (ग) आर्थिक और सामाजिक विकास की योजना,
    (घ) सड़कें और पुल,
    (ङ) घरेलू, औद्योगिक और वाणिज्यिक प्रयोजनों के निमित्त जल की आपूर्ति,
    (च) लोक स्वास्थ्य, स्वच्छता, सफाई तथा कूड़ा-करकट का प्रबन्ध,
    (छ) अग्निशमन सेवायें,
    (ज) नगरीय वानिकी, पर्यावरण का संरक्षण और पारिस्थितिक पहलुओं की अभिवृद्धि,
    (झ) समाज के कमजोर वर्गों (जिसके अन्तर्गत विकलांग और मानसिक रूप से मन्द व्यक्ति सम्मिलित है) के हितों का संरक्षण
    (ञ) गन्दी बस्तियों में सुधार,
    (ट) नगरीय निर्धनता में कमी,
    (ठ) नगरीय सुख सुविधाओं, जैसे पार्क, उद्यान, खेल का मैदान इत्यादि की यवस्था,
    (ड) सांस्कृतिक, शैक्षणिक और सौन्दर्यपरक पहलुओं की अभिवृद्धि,
    (ढ) कब्रिस्तान, शव गाड़ना, शमशान और शवदाह तथा विद्युत शवदाह,
    (ण) पशु-तालाब तथा जानवरों के प्रति क्रूरता को रोकना,
    (त) जन्म-मरण सांख्यिकी (जन्म-मरण पंजीकरण सहित),
    (थ) लोक सुख सुविधायें (पथ-प्रकाश, पार्किंग स्थल, बस स्टाप, लोक सुविधा सहित),
    (द) वधशालाओं तथा चर्म शोधनशालाओं का विनियमन।
    (vi) राज्य विधान मण्डल कानून बनाकर उन विषयों को विहित कर सकती है, जिन पर नगरीय संस्थाय कर लगा सकती है।
    (vii) नगरीय संस्थाओं की वित्तीय स्थिति का पुनर्विलोकन करने के लिए वित्त आयोग का गठन किया जाएगा, जो करों, शुल्कों, पथकरों, फीसों की शुद्ध आय और संस्थाओं तथा राज्य के बीच वितरण के लिए राज्यपाल से सिफारिश करेगा।
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FAQs on संविधान में संशोधन की प्रक्रिया - संशोधन नोटस, भारतीय राजव्यवस्था - भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

1. संविधान में संशोधन की प्रक्रिया क्या है?
उत्तर: संविधान में संशोधन की प्रक्रिया भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत दी गई है। इसके अनुसार, संविधान संशोधन बिल को दोनों सदनों के माध्यम से पारित करना चाहिए। संशोधन बिल को अधिकांशतः सदनों में अलग-अलग चरणों से गुजारना पड़ता है, जिसमें चरणों की संख्या, समय सीमा, आवश्यक बहुमत और राष्ट्रपति की संविधान प्रामाणिकता के बाद संशोधन बिल को संविधान लागू करने की आवश्यकता होती है।
2. संशोधन नोटस क्या होते हैं?
उत्तर: संशोधन नोटस विशेष नोटिस होते हैं जो संविधान में किसी अनुच्छेद को संशोधित करने की प्रक्रिया को शुरू करते हैं। यह नोटिस संविधान में संशोधन बिल के प्रस्तावित प्रारूप को संविधान सदन के सदस्यों को प्रस्तुत करता है और उन्हें संविधान में किसी अनुच्छेद की संशोधन की योजना की जानकारी देता है। संशोधन नोटस को संविधान सदन के सदस्यों को अलग-अलग चरणों में प्रस्तुत किया जाता है और उनकी सलाह और सहमति के बाद संविधान में संशोधन की प्रक्रिया आगे बढ़ती है।
3. भारतीय राजव्यवस्था में UPSC का क्या महत्व है?
उत्तर: यूपीएससी (UPSC) यानी संघ लोक सेवा आयोग भारतीय राजव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह आयोग भारतीय संविधान के अनुच्छेद 315 से 323 तक के तहत स्थापित किया गया है और इसका कार्यक्षेत्र भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) और अन्य गैर-केंद्रीय संघ लोक सेवाओं का चयन करना है। UPSC के माध्यम से द्वारा बिना किसी भ्रष्टाचार और नेपोटिज़्म के योग्य और योग्य उम्मीदवारों का चयन किया जाता है जो सरकारी सेवाओं में नियुक्ति के लिए योग्य होते हैं।
4. संविधान में संशोधन करने के लिए आवश्यक बहुमत क्या होती है?
उत्तर: संविधान में संशोधन करने के लिए आवश्यक बहुमत अनुच्छेद 368 के तहत निर्धारित है। इसके अनुसार, संविधान में संशोधन के लिए निम्नलिखित बहुमतों की आवश्यकता होती है: - संविधान के तहत संशोधन के लिए विधायी सदनों के अधिकांश के अलावा राष्ट्रपति की मंजूरी भी चाहिए। - यदि संशोधन विधेयक के प्रस्तावित संशोधन उन अनुच्छेदों को संशोधित करने के लिए है जो राष्ट्रपति द्वारा संविधान की आवश्यकता के अधीन प्रमाणित किए गए हों, तो इसके लिए विधायी सदनों के अधिकांश के अलावा राष्ट्रपति की मंजूरी और लोक सभा और राज्य सभा के अलग-अलग बहुमत की आवश्यकता होती है।
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