भारत की भौगोलिक स्थिति तथा वर्षा का वितरण इस प्रकार है कि बिना सिंचाई द्वारा कृषि कार्य सम्भव नहीं है। सिंचाई की आवश्यकता निम्न कारणों से होती है-
(i) वर्षा के स्थानीय वितरण में विषमता,
(ii) वर्षा का समय की दृष्टि से असमान वितरण
(iii) मानसूनी वर्षा की अनिश्चितता तथा
(iv) कतिपय फसलों के लिए जल की अधिक आवश्यकता।
भारत में उपलब्ध सिंचाई और सिंचाई के साधन
भारत में 18 करोड़ हैक्टेयर कृषि योग्य क्षेत्र है। अभी भारत में बुवाई वाली भूमि 1597.5 लाख हेक्टेयर है। 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना शुरू होने के समय सिंचाई की जो क्षमता 226 लाख हेक्टेयर वार्षिक थी, वह आठवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक बढ़कर लगभग 894.4 लाख हेक्टेयर (अनन्तिम) हो गई। 2013 में यह 989.7 लाख हेक्टेयर थी। इस प्रकार भारत में जहाँ कुल फसल क्षेत्र के मात्रा 45% भाग पर सिंचाई क्षमता वर्तमान है वहीं सकल सिंचाई विभव का 72.6% भाग प्राप्त हो चुका है।
संपूर्ण कृषि क्षेत्र का 40% चावल, 4.1% ज्वार, 52% बाजरा, 16.4% मक्का, 74% गेहूँ, 50.4% जौ, 83.8% गन्ना, 25.6% कपास सिंचाई द्वारा उत्पन्न किया जाता है।
भारत में सिंचाई के प्रमुख साधन है-
(1) नहर,
(2) तालाब,
(3) कुएँ और
(4) नलकूप।
गौण साधन-
(i) स्प्रींकल या फव्वारा सिंचाई
(ii) ड्रिप सिंचाई आदि।
भारत में तालाबों द्वारा सिंचित क्षेत्र
तालाबों द्वारा सिंचाई-गर्तयुक्त प्राकृतिक या कृत्रिम धरातल जिसमें जल भर जाता है, उसे तालाब की संज्ञा दी जाती है। अपर्याप्त जलापूर्ति की दशाओं में इन तालाबों में संचित जल राशि का प्रयोग सिंचाई के लिए किया जाता है। 1950-51 में 36 लाख, 1968-69 में39 लाख, 1970-71 में 45 लाख हेक्टेयर भूमि पर तालाबों का विस्तार था। वर्तमान समय में 15% सिंचाई तालाबों द्वारा की जाती है। देश में 55 लाख तालाब है, जिनसे 252.4 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की जाती है। भारत में सर्वाधिक तालाब तमिलनाड में है।
दक्षिणी भारत में तालाब द्वारा अधिक सिंचाई होने के निम्न कारण है:
1. यहाँ की धरातलीय बनावट अत्यन्त कठोर है, जिस कारण यहाँ कूआं तथा नहरों की व्यवस्था करना कठिन तथा अधिक खर्चीला है।
2. नदियों ने तंग घाटियों का निर्माण किया है, जिनको बाँधकर तालाब आसानी से बनाया जा सकता है।
3. दक्षिणी भारत में प्राकृतिक गर्तों की संख्या अधिक है, जो जलापूर्ति के कारण तालाब बन जाते है।
भारत में तालाब सिंचाई के दोष
तालाबों द्वारा सिंचाई में निरन्तर ह्रास हो रहा है। 1950-51 में 17.3%, 1960-61 में 18.5%, 1965-66 में 16.2%, 1973-74 में 12%, 1977-78 में 10.6%, 1983-84 में 9% तथा 2010-11 में 3% तालाबों द्वारा सिंचाई की गयी।
विस्तृत क्षेत्र वाले तालाब निजाम सागर (आन्ध्र प्रदेश), कृष्ण सागर(कर्नाटक), जय समुद्र, उदय सागर व फतेह सागर (राजस्थान) आदि प्रमुख है।
तालाबों द्वारा सिंचाई से अनेक प्रकार के दोष उत्पन्न हो जाते है। तालाबों में चारों तरफ से जल बह कर आता है, जो अपने साथ मिट्टी लाकर तालाब में जमा कर देता है। तालाब उथला न हो जाए, इसके लिए तालाब की सफाई की व्यवस्था करनी पड़ती है। इसमें खर्च तथा श्रम दोनों का दुरुपयोग होता है। साथ-ही-साथ जिस वर्ष वर्षा कम या बिल्कुल ही नहीं होती, उस वर्ष तालाब बेकार हो जाते है तथा उन पर आश्रित फसलें सूख जाती है।
भारत में कूओं और नलकूपों द्वारा सिंचाई
कूओं द्वारा सिंचाई-प्राचीन काल से ही कूओं द्वारा सिंचाई करना भारत की प्रमुख आर्थिक क्रिया मानी जाती है। रचना के आधार पर कूएँ तीन प्रकार के होते है -
1. कच्चा कूआँ,
2. पक्का कूआँ, तथा
3. नलकूप।
कूओं द्वारा सिंचाई उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र, हरियाणा, आन्ध्र प्रदेश में की जाती है। इसके द्वारा 19% भाग की सिंचाई की जाती है।
गंगा घाटी का मध्यवर्ती प्रदेश, काली मिट्टी का क्षेत्र, तमिलनाड का क्षेत्र, पंजाब-हरियाणा का क्षेत्र आदि प्रमुख कूओं की सिंचाई के क्षेत्र है।
नलकूपों द्वारा सिंचाई-विगत 50 वर्षों से भारत में भू-गर्भिक जल का प्रयोग सिंचाई में किया जा रहा है। विश्व में सबसे पहले इस विधि का प्रयोग चीन में किया गया था। इसके द्वारा 45% भाग की सिंचाई की जाती है। भारत में सबसे ज्यादा नलकूप उत्तर प्रदेश में है। इसके पश्चात् पंजाब, गुजरात, पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश में हैं।
कूओं तथा नलकूपों की सिंचाई में नवीन तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है, परन्त जो नलकूप विद्युत द्वारा चालित है, उनको समय से विद्युत आपूर्ति नहीं की जाती, जिस कारण कृषकों को निराश होना पड़ता है। सरकार द्वारा व्यवस्थित नलकूपों की बाद में देख-रेख नहीं की जाती, जिससे इनका उपयोग सुचार रूप से नहीं किया जाता।
कूओं द्वारा सिंचाई के लाभ और दोष
कूएँ द्वारा सिंचाई से लाभ
(1) सिंचाई का सबसे सस्ता और सरल साधन
(2) बनाने में कम व्यय और तकनीकी जानकारी
(3) जल का मितव्ययिता से खर्च
(4) नहर सिंचाई की हानियों से सुरक्षा
कूएँ द्वारा सिंचाई से हानि/दोष
(i) सीमित क्षेत्रों में सिंचाई
(ii) अकाल और सूखे में जल तल नीचे चले जाने से कूएँ का सूख जाना।
(iii) नहर की अपेक्षा व्यय और परिश्रम अधिक
(iv) कुछ कूएँ का जल खारा होना जो सिंचाई के लिए अनुपयुक्त होता है।
भारत में नहरों द्वारा सिंचाई
नहरों द्वारा सिंचाई-भारत में सर्वाधिक सिंचाई नहरों द्वारा की जाती है। नहरें तीन प्रकार की होती है: 1. आप्लाव नहरें, 2. बारहमासी नहरें तथा 3. जल संग्रही नहरें। सरकारी नहरों द्वारा 1950-51 में 34.3%, 1960-61 में 37.2%, 1965-66 में 37.4%, 1973-74 में 37.45, 1977-78 में 37.5%, 1983-84 में 37.5%, 2010-11 में 26% क्षेत्र की सिंचाई की गयी थी।
गैर-सरकारी नहरों द्वारा 1950-51 में 5.5%, 1960-61 में 4.9%, 1965-66 में 4.4%, 1973-74 में 2.7%, 1977-78 में 2.3%, 1983-84 में 1.2% तथा 1990-91 में 1.2% 2006-07 में 1.4% क्षेत्र की सिंचाई की गयी।
नहर सिंचाई से लाभ
(i) कृषि क्षेत्र में वृद्धि
(ii) उपज में वृद्धि
(iii) उपज में स्थिरता
(iv) अकाल का ह्रास
(v) कृषि का व्यावसायीकरण
(vi) नहरों के उपजाऊ मिट्टी से उर्वरता में वृद्धि
(vii) परिवहन एवं यातायात का विकास
(viii) सरकार के लगान में वृद्धि एवं अकाल सहायता व्यय में कमी से आय में वृद्धि
नहर सिंचाई के दोष
(i) भूमि का नमकीन और अनुर्वर हो जाना
(ii) नहर निर्माण में उपजाऊ भूमि की बर्बादी
(iii) नहर के किनारे स्थित भाग का दलदली हो जाना
(iv) मच्छर और संक्रामक रोगों का जन्म स्थल
(v) अधिक सिंचाई के कारण अधिक कृषि उत्पादन से बाजार में मंदी हो जाना
कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम
कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम 1974-75 में केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजना के रूप में शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य हासिल सिंचाई क्षमता के उपयोग में सुधार लाना था, ताकि सिंचित भूमि में कृषि पैदावार बढ़ाई जा सके। इस कार्यक्रम में निम्नांकित घटकों को शामिल किया जाता है -
(1) खेत विकास सम्बंधी;
(क) प्रत्येक कमान के अंतर्गत खेतों की नालियों और सरणियों (चैनलों) का विकास;
(ख) कमान क्षेत्र की इकाई के आधार पर भूमि को समतल करना;
(ग) जहां आवश्यक हो, खेतों की हदों का पुनर्निर्धारण (जिसके साथ जोतों की संभावित चकबंदी को भी जोड़ा जा सकता है);
(घ) प्रत्येक खेत में सिंचाई के पानी की समान और सुनिश्चित आपूर्ति के लिए बाड़ाबंदी शुरू करना;
(ङ) ऋण सहित सभी निवेशों और सेवाओं की आपूर्ति और विस्तार सेवाओं को मजबूत बनाना;
(2) उपयुक्त फसल पद्धतियों का चयन और उन्हें अमल में लाना;
(3) सिंचाई सतह के लिए जल के पूरक के रूप में भूमिगत जल का विकास;
(4) मुख्य और मध्यवर्ती नाली-प्रणालियों का विकास और रख-रखाव;
(5) एक क्यूसेक क्षमता की निकास वाली सिंचाई प्रणाली का आधुनिकीकरण, रख-रखाव और कुशल संचालन।
लघु सिंचाई
लघ सिंचाई कार्यक्रमों में कूओं के निर्माण, निजी नलकूपों, गहरे सार्वजनिक नलकूपों, बोरिंग तथा कूओं को और गहरा करके भूमिगत जल के लिए विकास तथा पानी को निर्धारित प्रणालियों के जरिए मोड़कर अन्यत्र ले जाने, भंडारण योजनाओं तथा लिफ्ट सिंचाई परियोजनाओं जिनमें से प्रत्येक की क्षमता कम से कम 2,000 हैक्टेयर कृषि भूमि को सिंचित करने की हो, के जरिए भूमिगत जल विकास शामिल है।
लघ सिंचाई योजनाएं कृषकों को सिंचाई का तुरंत तथा विश्वसनीय स्त्रोत उपलब्ध कराती है। यह सिंचाई के स्तर में सुधार लाने तथा नहर कमान क्षेत्रों में पानी के जमाव तथा लवणता को रोकने में भी मदद करती है। लघ सिंचाई भूतलीय जल परियोजनाओं को योजना कोषों से धन उपलब्ध कराया जाता है। यह प्रायः अनेक ऊबड़-खाबड़ भागों में भी सिंचाई के साधन उपलब्ध कराती है। इनमें भयंकर सूखाग्रस्त इलाके शामिल है। इन योजनाओं में प्रारम्भिक निवेश अपेक्षाकृत कम होता है और इन्हें शीघ्र पूरा किया जा सकता है। इन योजनाओं में सघन श्रम की आवश्यकता पड़ती है तथा इनसे ग्रामीण लोगों को रोजगार उपलब्ध होता है।
बाढ़ नियंत्रण हेतु सुझाव
बाढ़-नियंत्रण हेतु दो प्रकार के उपाय अपनाने होंगे,
1. निरोधात्मक तथा
2. राहत एवं बचाव कार्य।
निरोधात्मक उपायों का संबंध ऐसे दीर्घकालिक एवं स्थायी उपायों से है जिन्हें अपनाने से बाढ़ एवं जल आप्लावन की स्थिति उत्पन्न न होने देने में सहायता मिलेगी। इसके लिए नदियों, सहायक नदियों तथा नालों पर जगह-जगह पर चेक-डैम बनाकर जलाशयों का निर्माण किया जाना चाहिए ताकि वर्षा के पानी को नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में ही प्रभावपूर्ण ढंग से रोका जा सके।
निरोधात्मक उपायों के दूसरे वर्ग में वे उपाय आते है, जिन्हें अपनाकर बाढ़ के पानी को क्षेत्र विशेष में प्रवेश करने देने से रोका जा सकता है। यह विधि नदियों के किनारे बसे नगरों, कस्बों एवं ग्रामों को बाढ़ की विभीषिका से बचाने के लिए अधिक उपयोगी है।
बाढ़-प्रबंध योजनाओं को एकीकृत दीर्घकालिक योजना के ढांचे के अंतर्गत और जहां उपयुक्त हो वहां सिंचाई, विद्युत एवं घरेलू जल आपूर्ति जैसी अन्य जल संसाधन विकास योजनाओं के साथ मिलाकर आयोजित किये जाने की आवश्यकता है। इससे बाढ़-नियंत्रण योजनाओं की कारगरता को बढ़ाया जा सकेगा तथा उनकी आर्थिक व्यवहार्यता में भी सुधार होगा।
बाढ़ नियंत्रण का दूसरा पहलू बचाव एवं राहत तथा पुनर्वास कार्यों से सम्बंधित है। उपग्रह से प्राप्त चित्रों एवं अन्य पैरामीटरों का प्रयोग करके अब बहुत पहले से क्षेत्र विशेष में भारी वर्षा होने तथा बाढ़ आदि आने के बारे में चेतावनी दी जा सकती है।
केंद्रीय जल-आयोग देशभर में अपनी 21 शाखाओं के माध्यम से अंतर्राज्यीय नदियों के बारे में बाढ़ संबंधी पूर्वानुमानों की जानकारी देता है। विभिन्न अंतर्राज्यीय नदियों और उनकी सहायक नदियों के बारे में 157 केंद्रों से भविष्यवाणी सामान्यतः 24 घंटे पहले जारी की जाती हैं जो प्रशासन तथा इंजीनियरी कार्यों की सुरक्षा में मदद मिलती है।
नर्मदा घाटी विकास योजनाएं
1. इन्दिरा सागर परियोजना (खण्डवा)
2. ओंकारेश्वर परियोजना (खरगौन)
3. महेश्वर जल विद्युत परियोजना (खरगौन)
4. मान परियोजना (धार)
5. जोबट परियोजना (झाबुआ)
नर्मदा घाटी विकास योजना से लाभान्वित राज्य है-गुजरात, मध्य प्रदेश तथा महाराष्ट्र।
लाभ
इसकी समग्र परियोजनाओं से प्रदेश के 14.4213 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई क्षमता तथा 1450 मेगावाट स्थापित विद्युत क्षमता निर्मित।
कृषि उत्पादन में 185 लाख टन की वृद्धि एवं शुद्ध सकल घरेलू उत्पादन में दो हजार करोड़ की वृद्धि संभव होगी तथा साथ ही सात लाख पचास हजार रोजगार के अवसर उपलब्ध।
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1. सिंचाई और बाढ़ प्रबंध क्या है? |
2. कौन से तत्व सिंचाई प्रबंध में महत्वपूर्ण होते हैं? |
3. भारत में सिंचाई प्रणाली का महत्व क्या है? |
4. बाढ़ प्रबंधन नीतियों में कौन-कौन से तत्व शामिल होते हैं? |
5. सिंचाई एवं बाढ़ प्रबंध के लिए भारत सरकार द्वारा कौन-कौन सी योजनाएं चलाई जा रही हैं? |
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