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Politics and Governance (राजनीति और शासन): December 2022 UPSC Current Affairs | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

न्यायाधीशों द्वारा खुद को सुनवाई से अलग रखना

चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने वर्ष 2002 के दंगों के दौरान सामूहिक बलात्कार के लिये आजीवन कारावास की सज़ा पाए 11 लोगों को समय से पहले रिहा करने के गुजरात सरकार के फैसले के खिलाफ बिलकिस बानो द्वारा दायर एक रिट याचिका पर सुनवाई से खुद को अलग कर लिया।

न्यायाधीशों द्वारा खुद को सुनवाई से अलग रखना:

  • परिचय: 
    • यह पीठासीन न्यायालय के अधिकारी या प्रशासनिक अधिकारी के बीच मतभेद के कारण आधिकारिक कार्रवाई जैसे कानूनी कार्यवाही में भाग लेने से अलग रहने से संबंधित है।
  • खुद को सुनवाई से अलग रखने संबंधी नियम:
    • पुनर्मूल्यांकन को नियंत्रित करने वाले कोई औपचारिक नियम नहीं हैं, हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णयों में इस मुद्दे पर बात की गई है।
    • रंजीत ठाकुर बनाम भारत संघ (1987) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह दूसरे पक्ष के मन में पक्षपात की संभावना की आशंका के प्रति तर्कों को बल प्रदान करता है।
    • न्यायालय को अपने सामने मौजूद पक्ष के तर्क को देखना चाहिये और तय करना चाहिये कि वह पक्षपाती है या नहीं।
  • खुद को सुनवाई से अलग रखने का कारण: 
    • जब हितों का टकराव होता है तो एक न्यायाधीश मामले की सुनवाई से पीछे हट सकता है ताकि यह धारणा पैदा न हो कि उसने मामले का निर्णय करते समय पक्षपात किया है।
  • हितों का टकराव कई तरह से हो सकता है जैसे:
    • मामले में शामिल किसी पक्ष के साथ पूर्व या व्यक्तिगत संबंध होना।
    • किसी मामले में शामिल पक्षों में से एक के लिये पेश कियावकीलों या गैर-वकीलों के साथ एकतरफा संचार।
    • उच्च न्यायालय (High Court- HC) के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की जाती है, जिस पर निर्णय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा तब लिया गया जब वह उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रहा हो।
    • किसी कंपनी के मामले में जिसमें उसके शेयर हैं जब तक कि उसने अपने हित का खुलासा नहीं किया है और इसमें कोई आपत्ति नहीं है।
    • यह प्रथा कानून की उचित प्रक्रिया के कार्डिनल सिद्धांत से उत्पन्न होती है कि कोई भी अपने मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता है।
    • कोई भी हित या हितों का टकराव किसी मामले से हटने का आधार होगा क्योंकि एक न्यायाधीश का कर्तव्य है कि वह निष्पक्ष रूप से कार्य करे।

 सुनवाई से अलग रहने की प्रक्रिया:

  • सामान्यतः सुनवाई से अलग होने का फैसला न्यायाधीश खुद करता है क्योंकि यह हितों के किसी भी संभावित टकराव का खुलासा करने के लिये न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करता है।
  • कई न्यायाधीश मामले में शामिल वकीलों को मौखिक रूप से खुद को अलग करने के कारणों की व्याख्या नहीं करते हैं। कुछ कालानुक्रमिक क्रम में कारण बताते हैं।
  • कुछ परिस्थितियों या मामलों में वकील या पक्ष इसे न्यायाधीश के सामने लाते हैं। एक बार अलग होने का अनुरोध किये जाने के बाद न्यायाधीश के पास इसे वापस लेने या न लेने का अधिकार होता है।
  • हालाँकि ऐसे कुछ उदाहरण हैं जहाँ न्यायाधीशों ने विरोध न देखते हुए भी सुनवाई से पीछे हटने से इनकार कर दिया, लेकिन केवल इसलिये कि ऐसी आशंका व्यक्त की गई थी, ऐसे कई मामले भी सामने आए हैं जहाँ न्यायाधीशों ने किसी मामले से पीछे हटने से इनकार कर दिया है।
  • यदि कोई न्यायाधीश सुनवाई से अलग हो जाता है, तो मामले को एक नई पीठ को सौंपने के लिये मुख्य न्यायाधीश के समक्ष सूचीबद्ध किया जाता है।

न्यायाधीशों द्वारा स्वयं को सुनवाई से अलग रखने संबंधी चिंताएँ:

  • न्यायिक स्वतंत्रता को कम करना:
    • यह वादियों को अपनी पसंद की बेंच चुनने की अनुमति देता है, जो न्यायिक निष्पक्षता को कम करता है।
    • साथ ही इन मामलों से अलग होना न्यायाधीशों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता दोनों को कमज़ोर करता है।
  • विभिन्न व्याख्याएँ:
    • चूँकि यह निर्धारित करने के लिये कोई नियम नहीं है कि न्यायाधीश इन मामलों में कब खुद को अलग कर सकते हैं, एक ही स्थिति की अलग-अलग व्याख्याएँ हैं।
  • प्रक्रिया में देरी:
    • कुछ कार्य मुद्दों को उलझाने या कार्यवाही में बाधा डालने और देरी करने के इरादे से या किसी अन्य तरीके से न्याय के प्रारूप में बाधा डालने या इसे बाधित करने के इरादे से भी किये जाते हैं।

आगे की राह

  • न्याय में परिवर्तन के एक उपकरण के रूप में तथा वादी की पसंद की बेंच चुनने के साधन के रूप में और न्यायिक कार्य से बचने हेतु एक साधन के रूप में पुनर्मूल्यांकन व्यवस्था का उपयोग नहीं किया जाना चाहिये।
  • न्यायिक अधिकारियों को हर तरह के दबाव का विरोध करना चाहिये, चाहे वह कहीं से भी हो और यदि वे विचलित हो जाते हैं तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता के साथ-साथ संविधान भी कमज़ोर हो जाएगा।
  • इसलिये एक नियम जो न्यायाधीशों की ओर से अलग होने की प्रक्रिया को निर्धारित करता है, जल्द-से-जल्द बनाया जाना चाहिये।

न्यायालय अवकाश

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India- CJI) ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय में वार्षिक शीतकालीन अवकाश के दौरान अवकाश पीठ नहीं होगी।

  • हालाँकि इस न्यायिक अवकाश की उत्पत्ति औपनिवेशिक प्रथाओं में हुई है, लेकिन पिछले कुछ समय से इसकी आलोचना की जा रही है।

न्यायालय अवकाश

  • परिचय:
    • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक कामकाज़ के लिये एक वर्ष में 193 कार्य दिवस होते हैं, जबकि उच्च न्यायालय लगभग 210 दिनों के लिये कार्य करते हैं और ट्रायल कोर्ट 245 दिनों के लिये कार्य करते हैं।
    • उच्च न्यायालयों के पास सेवा नियमों के अनुसार अपने कैलेंडर बनाने की शक्ति है।
    • सर्वोच्च न्यायालय में प्रत्येक वर्ष दो लंबी अवधि के अवकाश होते हैं, ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अवकाश, लेकिन इन अवधियों के दौरान तकनीकी रूप से पूरी तरह से न्यायालय का कामकाज़ बंद नहीं होता है।
  • अवकाश पीठ (Vacation Bench):
    • सर्वोच्च न्यायालय की अवकाश पीठ CJI द्वारा गठित एक विशेष पीठ है।
    • याचिकाकर्त्ता अभी भी सर्वोच्च न्यायालय का रुख कर सकते हैं और यदि न्यायालय यह निर्णय लेता है कि याचिका ‘अत्यावश्यक मामला’ है, तो अवकाश पीठ मामले के गुण-दोष के आधार पर सुनवाई करती है।
    • जमानत, बेदखली आदि जैसे मामलों को अक्सर अवकाश पीठों के समक्ष सूचीबद्ध करने में प्राथमिकता दी जाती है।
    • अवकाश के दौरान न्यायालयों के लिये महत्त्वपूर्ण मामलों की सुनवाई करना असामान्य नहीं है।
    • वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने ग्रीष्मकालीन अवकाश के दौरान राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) की स्थापना के लिये संवैधानिक संशोधन की चुनौती पर सुनवाई की।
    • वर्ष 2017 में एक संविधान पीठ ने ग्रीष्मकालीन अवकाश के दौरान तीन तलाक की प्रथा को चुनौती देने वाले मामले में छह दिन तक सुनवाई की।
  • वैधानिक प्रावधान:
    • सर्वोच्च न्यायालय के नियम, 2013 के आदेश II के नियम 6 के तहत CJI ने ग्रीष्मकालीन अवकाश के दौरान आवश्यक विविध मामलों की सुनवाई और नियमित सुनवाई हेतु खंडपीठों को नामित किया है।
    • नियम में कहा गया है कि CJI ग्रीष्मकालीन या सर्दियों के अवकाश के दौरान तत्काल प्रकृति के सभी मामलों की सुनवाई के लिये एक या एक से अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति कर सकता है, जो इन नियमों के तहत एकल न्यायाधीश द्वारा सुने जा सकते हैं।
    • और जब भी आवश्यक हो, वह अवकाश के दौरान अत्यावश्यक मामलों की सुनवाई के लिये एक खंडपीठ भी नियुक्त कर सकता है, जिसमें सुनवाई न्यायाधीशों की एक पीठ द्वारा की जानी चाहिये।

न्यायालय अवकाश संबंधी मुद्दे

  • न्याय चाहने वालों के लिये असुविधाजनक: न्यायालयों को मिलने वाला लंबा अवकाश न्याय चाहने वालों के लिये बहुत सुविधाजनक नहीं है।
  • लंबित मामलों के संदर्भ में बुरे संकेत: विशेष रूप से मामलों की बढ़ती लंबितता और न्यायिक कार्यवाही की धीमी गति के आलोक में विस्तारित लगातार अवकाश अच्छे संकेत नहीं हैं।
  • सामान्य मुकदमेबाज़ी के मामले में अवकाश का मतलब मामलों को सूचीबद्ध करने में और अधिक अपरिहार्य देरी से है।
  • यूरोपीय प्रथाओं के साथ असंगत: ग्रीष्मकालीन अवकाश की शुरुआत शायद इसलिये हुई क्योंकि भारत के संघीय न्यायालय के यूरोपीय न्यायाधीशों के अनुसार, भारतीय ग्रीष्मकालीन समय में काफी गर्मी रहती थी और इसी प्रकार क्रिसमस के लिये शीतकालीन अवकाश का भी प्रावधान किया गया।

आगे की राह

  • इस मुद्दे को हल तब तक नहीं किया जा सकता है जब तक न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु एक "नई प्रणाली" विकसित नहीं की जाती है।
  • वर्ष 2000 में आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधारों की सिफारिश करने के लिये न्यायमूर्ति मालिमथ समिति ने सुझाव दिया कि लंबित मामलों को ध्यान में रखते हुए अवकाश की अवधि को 21 दिनों तक कम किया जाना चाहिये। इसमें सर्वोच्च न्यायालय के लिये 206 दिन और उच्च न्यायालय के लिये 231 दिन काम करने का सुझाव दिया गया।
  • भारत के विधि आयोग ने वर्ष 2009 में अपनी 230वीं रिपोर्ट में इस प्रणाली में सुधार का आह्वान किया, अचंभित कर देने वाले बकाया मामलों को देखते हुए सुझाव दिया कि उच्च न्यायपालिका में अवकाश को कम-से-कम 10 से 15 दिनों तक कम किया जाना चाहिये और न्यायालय के काम के घंटों को कम-से-कम आधा घंटा बढ़ाया जाना चाहिये।
  • वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने नए नियमों को अधिसूचित किया और इसके अनुसार ग्रीष्मकालीन अवकाश की अवधि पहले के 10 सप्ताह की अवधि की तुलना में अब सात सप्ताह से अधिक नहीं होगी।

विनियोग विधेयक

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय वित्त मंत्री ने राज्यसभा में विनियोग (संख्या 5) विधेयक, 2022 और विनियोग (संख्या 4) विधेयक, 2022 पेश किया।

  • विनियोग विधेयक, 2022 को वित्त वर्ष 2022-2023 की सेवाओं के लिये भारत की संचित निधि से और कुछ अतिरिक्त राशियों के भुगतान एवं विनियोग को अधिकृत करने के लाया जाएगा।

विनियोग विधेयक:

  • परिचय:
    • विनियोग विधेयक सरकार को किसी वित्तीय वर्ष के दौरान व्यय की पूर्ति के लिये भारत की संचित निधि से धनराशि निकालने की शक्ति देता है।
    • संविधान के अनुच्छेद 114 के अनुसार, सरकार संसद से अनुमोदन प्राप्त करने के बाद ही संचित निधि से धन निकाल सकती है।
    • निकाली गई राशि का उपयोग वित्तीय वर्ष के दौरान वर्तमान व्यय को पूरा करने के लिये किया जाता है। 
  • प्रक्रिया: 
    • विनियोग विधेयक लोकसभा में बजट प्रस्तावों और अनुदानों की मांगों पर चर्चा के बाद पेश किया जाता है।
    • संसदीय वोटिंग में विनियोग विधेयक के पारित न होने से सरकार को इस्तीफा देना होगा तथा आम चुनाव कराना होगा।
    • लोकसभा द्वारा पारित होने के बाद इसे राज्यसभा को भेजा जाता है।
    • राज्यसभा को इस विधेयक में संशोधन की सिफारिश करने की शक्ति प्राप्त है।
    • हालाँकि राज्यसभा की सिफारिशों को स्वीकार करना या अस्वीकार करना लोकसभा का विशेषाधिकार है।
    • विधेयक को राष्ट्रपति से स्वीकृति मिलने के बाद यह विनियोग अधिनियम बन जाता है।
    • विनियोग विधेयक की अनूठी विशेषता इसका स्व-भंग खंड (auto repeal clause) है, जिससे यह अधिनियम अपने वैधानिक उद्देश्य को पूरा करने के बाद स्वयं ही निरस्त हो जाता है। 
    • विनियोग विधेयक के अधिनियमित होने तक सरकार भारत की संचित निधि से पैसा नहीं निकाल सकती है। हालाँकि इसमें समय लगता है और सरकार को अपनी सामान्य गतिविधियाँ चलाने के लिये धन की आवश्यकता होती है। तत्काल खर्चों को पूरा करने के लिये संविधान ने लोकसभा को वित्तीय वर्ष के एक हिस्से के लिये अग्रिम अनुदान देने हेतु अधिकृत किया है। इस प्रावधान को '‘लेखानुमोदन’' के नाम से जाना जाता है।
    • लेखानुदान को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 116 में परिभाषित किया गया है।
    • चुनावी वर्ष के दौरान सरकार या तो 'अंतरिम बजट' या 'वोट ऑन अकाउंट' का विकल्प चुनती है क्योंकि चुनाव के बाद सत्तारूढ़ सरकार और नीतियाँ बदल सकती हैं।
  • संशोधन: 
    • विनियोग विधेयक में कोई संशोधन प्रस्तावित नहीं किया जा सकता है जिसका प्रभाव इस प्रकार दिये गए किसी अनुदान की राशि में परिवर्तन या गंतव्य को बदलने या भारत की संचित निधि पर प्रभारित किसी व्यय की राशि को बदलने का होगा और लोकसभा अध्यक्ष के निर्णय पर ही ऐसा संशोधन स्वीकार्य है।

विनियोग विधेयक और वित्त विधेयक में अंतर

  • वित्त विधेयक में सरकार के व्यय के वित्तपोषण के प्रावधान शामिल हैं, जबकि एक विनियोग विधेयक धन निकालने की मात्रा और उद्देश्य को निर्दिष्ट करता है।
  • विनियोग और वित्त विधेयक दोनों को धन विधेयक के रूप में वर्गीकृत किया जाता है जिसके लिये राज्यसभा की स्पष्ट सहमति की आवश्यकता नहीं होती है। राज्यसभा केवल उन पर चर्चा करती है और विधेयकों को लौटाती है।

केरल विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयक

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल विधानसभा ने राज्य विश्वविद्यालयों के शासन से संबंधित कानूनों में संशोधन करने और राज्यपाल को कुलाधिपति के पद से हटाने के लिये विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयक पारित किया।

पृष्ठभूमि

  • महीनों से केरल के राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच टकराव चल रहा था।
  • यह स्थिति तब और भी बदतर हो गई जब राज्यपाल ने राज्य विधानसभा द्वारा पहले पारित विवादास्पद लोकायुक्त (संशोधन) और विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयकों को स्वीकृति देने से इनकार कर दिया।
  • राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच बिगड़ता संबंध सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के साथ एक महत्त्वपूर्ण बिंदु पर पहुँच गया, जिसमें एपीजे अब्दुल कलाम प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (KTU) के कुलपति (VC) की नियुक्ति को इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया गया कि इसने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) के नियमों का उल्लंघन किया है।
  • इसके बाद राज्यपाल ने 11 अन्य कुलपतियों के इस्तीफे इस आधार पर मांगे थे कि सरकार ने उन्हें उसी प्रक्रिया के माध्यम से नियुक्त किया था जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध माना था।

विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयक

  • प्रस्तावित कानून केरल में विधायी अधिनियमों द्वारा स्थापित 14 विश्वविद्यालयों के कानूनों में संशोधन करेगा तथा राज्यपाल को उन विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति पद से हटाएगा।
  • विधेयक राज्यपाल के स्थान पर विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के रूप में प्रख्यात शिक्षाविदों को नियुक्त करने के लिये सरकार को प्राधिकृत करेगा, इस प्रकार विश्वविद्यालय प्रशासन में राज्यपाल की निगरानी भूमिका समाप्त हो जाएगी।
  • इन विधेयकों में नियुक्त कुलाधिपति के कार्यकाल को पाँच वर्ष तक सीमित करने का भी प्रावधान है। हालाँकि इसमें यह भी कहा गया है कि सेवारत कुलाधिपति को दूसरे कार्यकाल के लिये नियुक्त किया जा सकता है।

प्रस्ताव का पक्ष और विपक्ष

  • पक्ष:
    • पहले यूजीसी दिशा-निर्देश केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिये अनिवार्य हुआ करते थे और राज्य विश्वविद्यालयों के लिये "आंशिक रूप से अनिवार्य एवं आंशिक रूप से निर्देशात्मक" होते थे, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल के फैसलों के माध्यम से इन्हें सभी विश्वविद्यालयों के लिये कानूनी रूप से बाध्यकारी बना दिया गया।
    • यह एक ऐसे परिदृश्य की ओर इशारा करती है जिसमें समवर्ती सूची (संविधान की) के सभी विषयों पर विधानसभा की विधायी शक्तियों को अधीनस्थ कानून या केंद्र द्वारा जारी एक कार्यकारी आदेश के माध्यम से कम किया जा सकता है।
    • कहा जा रहा है कि भविष्य में कानूनी पेचीदगियों से बचने के लिये यह विधेयक लाया गया था।
  • विपक्ष:
    • यदि कुलाधिपति सरकार द्वारा नियुक्त किये गए, तो वे सत्तारूढ़ मोर्चे के ऋणी होंगे और इससे वे विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता के क्षरण की ओर अग्रसर होंगे।
    • यह सत्तारूढ़ मोर्चे के करीबी लोगों की नियुक्ति की सुविधा प्रदान कर सकता है।
    • इससे एक ऐसे परिदृश्य का निर्माण होगा जिसमें राज्यपाल केवल उन लोगों को नियुक्त कर सकता है जो सरकार के करीबी हैं।

महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद

चर्चा में क्यों?

महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच सीमा विवाद की गंभीरता को देखते हुए दोनों राज्यों ने विवाद को हल करने के लिये कानूनी लड़ाई का समर्थन करने हेतु एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया है।  

महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद: 

  • परिचय: 
    • उत्तरी कर्नाटक में बेलगावी, कारवार और निपानी को लेकर सीमा संबंधी विवाद काफी पुराना है।
    • वर्ष 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अनुसार, जब राज्य की सीमाओं को भाषायी आधार पर निर्धारित किया गया, तब बेलगावी पूर्ववर्ती मैसूर राज्य का हिस्सा बन गया।
    • यह अधिनियम वर्ष 1953 में नियुक्त न्यायमूर्ति फज़ल अली आयोग के निष्कर्षों पर आधारित था और उन्होंने दो वर्ष बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।
    • महाराष्ट्र का दावा है कि बेलगावी के कुछ हिस्से, जहाँ मराठी प्रमुख भाषा है, महाराष्ट्र के अंतर्गत रहने चाहिये।
    • अक्तूबर 1966 में केंद्र ने महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल में सीमा विवाद को हल करने के लिये भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश मेहर चंद महाजन के नेतृत्त्व में महाजन आयोग की स्थापना की।
    • इस आयोग ने सिफारिश की कि बेलगाम और 247 गाँव कर्नाटक के अंतर्गत रहें। महाराष्ट्र ने इस रिपोर्ट को खारिज़ कर दिया और वर्ष 2004 में सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया।
  • महाराष्ट्र के दावे का आधार: 
    • महाराष्ट्र का अपनी सीमा के पुन: समायोजन का दावा सामीप्यसापेक्ष भाषायी बहुमत और लोगों की इच्छा के आधार पर था। बेलगावी और आसपास के क्षेत्रों में मराठी भाषी लोगों तथा भाषायी एकरूपता के आधार पर दावे का मुख्य कारण कारवार एवं सुपा क्षेत्र में मराठी की बोली के रूप में उद्धृत भाषा कोंकणी का प्रयोग है।
    • इसका तर्क इस विचार पर केंद्रित था कि गणना समुदायों के आधार पर होनी चाहिये, और इसने प्रत्येक गाँव में भाषायी निवासियों की संख्या/आबादी को सूचीबद्ध किया।
    • महाराष्ट्र ने इस ऐतिहासिक तथ्य की ओर भी इशारा किया कि इन मराठी भाषी क्षेत्रों के राजस्व अभिलेख भी मराठी में ही होते हैं।
  • कर्नाटक की स्थिति:
    • कर्नाटक ने तर्क दिया है कि राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अनुसार सीमाओं का समझौता अंतिम है।
    • राज्य की सीमा न तो अस्थायी थी और न ही लचीली। राज्य का तर्क है कि यह मुद्दा उन सीमा मुद्दों को फिर से खोल देगा जिन पर अधिनियम के तहत विचार नहीं किया गया है, अत: ऐसी मांग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।

समस्या के समाधान के लिये उठाए गए कदम

  • अंतर-राज्यीय विवादों को अक्सर दोनों पक्षों के सहयोग से हल करने का प्रयास किया जाता है, जिसमें केंद्र एक सूत्रधार या तटस्थ मध्यस्थ के रूप में काम करता है।
  • यदि मुद्दों को सौहार्दपूर्ण ढंग से हल किया जाता है, तो संसद राज्य की सीमाओं को बदलने के लिये  कानून ला सकती है, जैसे बिहार-उत्तर प्रदेश (सीमाओं का परिवर्तन) अधिनियम 1968 और हरियाणा-उत्तर प्रदेश (सीमाओं का परिवर्तन) अधिनियम 1979।
  • बेलगावी मामले में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों से मुलाकात की और उन्हें सभी सीमा मुद्दों को हल करने के लिये प्रत्येक पक्ष के तीन मंत्रियों वाली छह सदस्यीय टीम बनाने के लिये कहा।

अन्य उपलब्ध तरीके

  • न्यायिक निवारण:
    • सर्वोच्च न्यायालय अपने मूल क्षेत्राधिकार के तहत राज्यों के बीच विवादों का निपटारा करता है।  
    • संविधान के अनुच्छेद 131 के अनुसार, भारत सरकार और किसी राज्य के बीच या दो या दो से अधिक राज्यों के बीच किसी भी प्रकार के विवाद को सुलझाना सर्वोच्च न्यायालय का मूल क्षेत्राधिकार है।
  • अंतर-राज्यीय परिषद:
    • संविधान का अनुच्छेद 263 राष्ट्रपति को राज्यों के बीच विवादों के समाधान के लिये  अंतर-राज्यीय परिषद गठित करने की शक्ति देता है।
    • परिषद की परिकल्पना राज्यों और केंद्र के बीच चर्चा के लिये एक मंच के रूप में की गई है।
    • वर्ष 1988 में सरकारिया आयोग ने सुझाव दिया कि परिषद को एक स्थायी निकाय के रूप में गठित किया जाना चाहिये तथा वर्ष 1990 में यह राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से अस्तित्व में आया।

अन्य अंतर्राज्यीय विवाद

  • असम-अरुणाचल प्रदेश:
    • असम और अरुणाचल प्रदेश 804.10 किमी. की अंतर-राज्यीय सीमा साझा करते हैं। 
    • वर्ष 1987 में बनाए गए अरुणाचल प्रदेश राज्य का दावा है कि पारंपरिक रूप से इसके निवासियों की कुछ भूमि असम को दे दी गई है।
    • एक त्रिपक्षीय समिति ने सिफारिश की थी कि कुछ क्षेत्रों को असम से अरुणाचल प्रदेश में स्थानांतरित किया जाए। इस मुद्दे को लेकर दोनों राज्य न्यायालय की शरण में हैं।
  • असम-मिज़ोरम:
    • मिज़ोरम अलग केंद्रशासित प्रदेश बनने से पहले असम का एक ज़िला हुआ करता था जो बाद में अलग राज्य बना।
    • मिज़ोरम की सीमा असम के कछार, हैलाकांडी और करीमगंज ज़िलों से लगती है।
    • समय के साथ सीमांकन को लेकर दोनों राज्यों की अलग-अलग धारणाएँ बनने लगीं।
    • मिज़ोरम चाहता है कि यह बाहरी प्रभाव से आदिवासियों की रक्षा के लिये वर्ष 1875 में अधिसूचित एक आंतरिक रेखा के साथ हो, जो मिज़ो को उनकी ऐतिहासिक मातृभूमि का हिस्सा लगता है, असम का मानना है कि सीमा का निर्धारण बाद में तैयार की गई ज़िला सीमाओं के अनुसार किया जाए। 
  • असम-नगालैंड:
    • वर्ष 1963 में नगालैंड के गठन के बाद से ही दोनों राज्यों के बीच सीमा विवाद चल रहा है।
    • दोनों राज्य असम के गोलाघाट ज़िले के मैदानी इलाकों के निकट एक छोटे से गांँव मेरापानी पर अपना दावा करते हैं।
    • वर्ष 1960 के दशक से इस क्षेत्र में हिंसक झड़पों की खबरें आती रही हैं।
  • असम-मेघालय: 
    • मेघालय ने करीब एक दर्ज़न क्षेत्रों की पहचान की है जहाँ राज्य की सीमाओं को लेकर असम के साथ उसका विवाद है।
  • हरियाणा-हिमाचल प्रदेश:
    • दो उत्तरी राज्यों (हरियाणा-हिमाचल प्रदेश) में परवाणू क्षेत्र को लेकर सीमा विवाद है, जो हरियाणा के पंचकुला ज़िले के समीप स्थित है।
    • हरियाणा ने इस क्षेत्र की ज़मीन के काफी बड़े हिस्से पर अपना दावा किया है और हिमाचल प्रदेश पर हरियाणा के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों पर कब्ज़ा करने का आरोप लगाया है।
  • लद्दाख-हिमाचल प्रदेश:
    • लद्दाख और हिमाचल प्रदेश दोनों केंद्रशासित प्रदेश सरचू क्षेत्र पर अपना दावा करते हैं, जो लेह-मनाली राजमार्ग से यात्रा करने वालों के लिये एक प्रमुख पड़ाव बिंदु है।
    • यह क्षेत्र हिमाचल प्रदेश के लाहौल और स्पीति ज़िले तथा लद्दाख के लेह ज़िले के बीच स्थित है।

आगे की राह

  • राज्यों के बीच सीमा विवादों को वास्तविक सीमा स्थानों के उपग्रह मानचित्रण का उपयोग करके सुलझाया जा सकता है।
  • अंतर-राज्यीय परिषद को पुनर्जीवित करना अंतर-राज्यीय विवाद के समाधान का एक विकल्प हो सकता है।
    • संविधान के अनुच्छेद 263 के तहत अंतर-राज्यीय परिषद से विवादों की जाँच और सलाह देने, सभी राज्यों के लिये सामान्य विषयों पर चर्चा करने तथा बेहतर नीति समन्वय हेतु सिफारिशें करने की अपेक्षा की जाती है।
  • इसी तरह सामाजिक और आर्थिक नियोजन, सीमा विवाद, अंतर-राज्यीय परिवहन आदि से संबंधित मुद्दों पर प्रत्येक क्षेत्र में राज्यों के लिये सामान्य चिंता के मामलों पर चर्चा करने हेतु क्षेत्रीय परिषदों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।
  • भारत अनेकता में एकता का प्रतीक है। हालाँकि इस एकता को और मज़बूत करने के लिये केंद्र व राज्य सरकारों दोनों को सहकारी संघवाद के लोकाचार को आत्मसात करने की आवश्यकता है।
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