गांधार-कला गाँधार प्रदेश में ग्रीक कलाकारों ने जिस शैली को अपनाया, उसे गांधार-कला के नाम से जाना जाता है। इस शैली के शिल्पकार यूनानी थे किंतु उनकी कला का आधार भारतीय विषय, अभिप्राय और प्रतीक थे। इस प्रकार इस शैली का उदय भारतीय-यूनानी समन्वय का परिणाम था। गांधार प्रदेश भारतीय, चीनी, ईरानी, ग्रीक और रोमन संस्कृतियों का संगम-स्थल था। गांधार कला के प्रमुख केन्द्र थे - जलालाबाद, हद, बामियाँ, स्वात-घाटी और पेशावर। इस कला की मूर्तियों में बुद्ध यूनानी देवता अपोलो सरीखे लगते हैं। उनकी मुद्राएँ तो बौद्ध हैं, जैसे कमलासन मुद्रा में बुद्ध बैठे हैं, किंतु मूर्तियों के मुख-मंडल और वस्त्र यूनानी शैली के हैं। उनकी मूर्तियों को अलंकृत मूर्धजों से युक्त प्रदर्शित किया गया है, जो यूनानी और रोमन कला का प्रभाव है। बोधिसत्वों की मूर्तियाँ यूनानी राजाओं की भाँति वस्त्राभूषणों से सजी हैंं जिससे वे आध्यात्मिक व्यक्ति न लगकर सम्राट लगते हैं। गांधार कला की मूर्तियाँ गांधार में प्राप्त सिलेटी पत्थर की हैं। इन्हें मोटे वस्त्र पहने दिखलाया गया है, पारदर्शक नहीं। इन मूर्तियों में माँसलता अधिक है। मूर्तियों के होठ मोटे और आँखें भारी हैं तथा वे मस्तक पर उष्णीष धारण किये हैं। मुखमुद्रा प्रायः भावशून्य है। उनमें आध्यात्मिक भावना का प्रायः अभाव है। यूनानी कला में शारीरिक सौन्दर्य को वरीयता दी जाती थी, जबकि भारतीय कला में आध्यात्मिकता को। यूनानी बौद्धिकता पर बल देते थे जबकि भारतीय भावुकता पर। इन्हीं मूलभूत अंतरों के कारण गांधार कला भारत में लोकप्रिय न हो सकी। मथुरा-कला कुषाण कला का दूसरा महत्त्वपूर्ण केन्द्र मथुरा और उसका निकटवर्ती प्रदेश था। इस प्रदेश में जिस प्रकार की मूर्तिकला का उदय हुआ वह मथुरा-कला के नाम से विख्यात है। मथुरा शक-कुषाणों की पूर्वी राजधानी था। मथुरा कला की मूर्तियाँ प्रायः लाल बलुआ पत्थर की हैं, जिस पर श्वेत चित्तियाँ हैं। यह लाल बलुआ पत्थर निकटस्थ प्रदेश में उपलब्ध है। बुद्ध की प्रारंभिक अवस्था की मूर्तियाँ खड़ी हुई निर्मित की गई हैं। अधिकांश मूर्तियों में मुंडित अथवा नखाकृति केशों सहित सिर हैं। प्रायः बुद्ध और बोधिसत्वों की मूर्तियों का एक ही स्कंध ढंका दिखलाया गया है। वस्त्र शरीर से चिपके हुए हैं। वस्त्रों पर धारीदार सिलवटें कलात्मक ढंग से प्रदर्शित की गई हैं। कुषाणकालीन मथुरा की मूर्तियों में आध्यात्मिक भावना का उद्दीपन उतना नहीं मिलता जितना की बाद में गुप्तकाल में। मथुरा कला हृदय की कला है। उसमें गांधार कला के बुद्धिवादी दृष्टिकोण का अभाव है। इनमें बाह्य और आत्मिक सौन्दर्य का समन्वय है। यह कला भरहुत और साँची से उद्भूत कला से प्रभावित दिखती है। अमरावती-कला अमरावती आँध्र प्रदेश के गंटूर जिले में कृष्णा नदी के दक्षिण किनारे पर एक छोटा-सा कस्बा है। वहाँ अनेक वस्तुएँ पाई गई हैं। इस कस्बे का पुराना नाम धरतीकोट था। अमरावती स्तूप और उसके चारों ओर की रेलिंग या संगमरमर के पर्दे के बारे में हमü ब्रिटिश म्यूजियम या सेंट्रल म्यूजियम, मद्रास और फर्गुसन तथा डाॅ. बुर्गेस द्वारा प्रकाशित कर्नल मैकेन्जी के चित्रों से पता चलता है। यह वस्तुतः 200 ई. पू. में बनवाया गया था, यद्यपि उस पर बहुत-सी नक्कासियाँ बहुत बाद की हैं और कुषाण-काल से सम्बद्ध हैं। सभी स्तूपों की नक्कासी एक-दूसरे से मिलती-जुलती हैं और उत्तर-भारतीय शैली से काफी भिन्न हैं। इसी कारण से इसे एक नयी शैली के तहत रखा गया है। अमरावती की मूर्तियाँ क्षीण और प्रसन्न आकृतियों से पूर्ण हैं और वे कठिन भावभंगिमों और झुकावों में व्यक्त की गई हैं। किन्तु दृश्य अधिकतर घने हैं और यद्यपि व्यक्तिगत मूर्तियों में एक विशिष्ट मोहकता है, फिर भी साधारण प्रभाव अधिक आनन्ददायक नहीं है। तथापि संदेह नहीं है कि कला का ज्ञान विकास की एक उच्सीमा तक पहुँचा था। पौधे और फूल विशेषकर कमल, इस शैली में बहुत सुन्दर रीति से व्यक्त किये गये हैं। बुद्ध की मूर्ति जहाँ-तहाँ आती है, किन्तु भगवान को बहुधा एक प्रतीक द्वारा व्यक्त किया गया है। इस प्रकार यह एक ओर भरहुत, बोधगया और साँची तथा दूसरी ओर मथुरा और गाँधार के बीके परिवर्तन काल का निर्देश करता है। |
गुप्तकालीन कला
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कुमारगुप्त I महेन्द्रादित्य (415 - 455 ई.)
स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य (455 - 467 ई.)
स्मरणीय तथ्य
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व्यापार और वाणिज्य
गुप्त-पूर्व काल
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1. गांधार-कला, गुप्त-पूर्व एवं गुप्त काल में व्यापार और वाणिज्य किस प्रकार से विकसित हुए? |
2. गांधार-कला, गुप्त-पूर्व एवं गुप्त काल में इतिहास के कौन-कौन से पहलुओं का प्रमुख रूप से उद्भव हुआ? |
3. गांधार-कला, गुप्त-पूर्व एवं गुप्त काल में सिविल सेवा का महत्व क्या था? |
4. गांधार-कला, गुप्त-पूर्व एवं गुप्त काल में UPSC परीक्षा का महत्व क्या था? |
5. गांधार-कला, गुप्त-पूर्व एवं गुप्त काल में व्यापार और वाणिज्य कैसे बदले? |
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