परिचय
औपनिवेशिक भारत में किसानों के आंदोलन कृषि संकट, ज़मींदारों द्वारा शोषण, और ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों के प्रभाव द्वारा विशेष रूप से विशेषता प्राप्त थे। 1859 में नीले रंग की बगावत से लेकर स्वतंत्रता के बाद तेबहागा आंदोलन तक, इन आंदोलनों का विकास आर्थिक कठिनाइयों, दमनकारी प्रथाओं, और सामाजिक अन्यायों के जवाब में हुआ। यह कालक्रम दस्तावेज़ औपनिवेशिक और स्वतंत्रता के बाद के समय में प्रमुख किसान आंदोलनों, उनके कारणों, और परिणामों को उजागर करने का प्रयास करता है।
प्रारंभिक किसान आंदोलन (1859-1867)
प्रारंभिक किसान आंदोलन, बागान मालिकों और ज़मींदारों द्वारा शोषणकारी प्रथाओं के खिलाफ स्थानीय प्रतिक्रियाएँ थीं, जो मजबूर खेती और आर्थिक कठिनाइयों के खिलाफ प्रतिरोध से चिह्नित थीं।
1857 के बाद किसान आंदोलनों की बदलती प्रकृति
1857 के बाद, किसान कृषि आंदोलनों में एक प्रेरक बल बन गए, जो आर्थिक मुद्दों और विदेशी बागान मालिकों और स्वदेशी अभिजात वर्ग के खिलाफ विशेष शिकायतों पर जोर देते थे।
बाद के आंदोलन (1918-1926)
इस अवधि के आंदोलनों ने उच्च किराए, उत्पीड़न, साम्प्रदायिकता, और वल्लभभाई पटेल जैसे नेताओं के अंतर्गत राजनीतिक संगठनों जैसे विविध मुद्दों को प्रदर्शित किया।
कांग्रेस मंत्रालयों के तहत (1937-1939)
कांग्रेस के शासन के दौरान किसान गतिविधियाँ क्षेत्रीय मुद्दों और कृषि सुधारों की मांगों को दर्शाती थीं, विभिन्न चुनौतियों के प्रति प्रतिक्रियाओं में भिन्नताएँ थीं।
टेभगा आंदोलन ने स्वतंत्रता के बाद के चरण को चिह्नित किया, जिससे सामाजिक-आर्थिक सुधार, भूमि वितरण, और सामंतवादी शासन के अंत में योगदान मिला।
उपनिवेशीय और स्वतंत्रता के बाद भारत में किसान आंदोलनों ने आर्थिक कठिनाइयों, शोषण, और सामाजिक अन्याय के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त की। जबकि प्रारंभिक आंदोलन स्थानीयकृत और सीमित थे, बाद के आंदोलनों ने अधिक संगठित रूप लिया, जो विविध मुद्दों को दर्शाते हैं। स्वतंत्रता के बाद का चरण, विशेष रूप से टेभगा आंदोलन ने, पशु संसाधन सुधारों को आकार देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन आंदोलनों ने स्वतंत्रता के बाद के परिवर्तनों के लिए एक वातावरण तैयार किया, जो ग्रामीण भारत के सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन में योगदान देता है।
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