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जीएस1 पीवाईक्यू (मुख्य उत्तर लेखन): उत्तरी युग | UPSC CSE के लिए इतिहास (History) PDF Download

प्रश्न 1: पाला काल भारत में बौद्ध धर्म के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण चरण है। इसे Enumerate करें। (GS 1 UPSC Mains)

उत्तर: पाला काल, जो 8वीं से 12वीं शताब्दी CE तक फैला हुआ है, भारत में बौद्ध धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण युग का प्रतिनिधित्व करता है। यह एक ऐसा समय था जब पाला वंश के शासन के तहत बौद्ध धर्म को महत्वपूर्ण समर्थन, बौद्धिक विकास और कलात्मक उपलब्धियों का अनुभव हुआ। इस अवधि में बौद्ध धर्म का पुनरुत्थान और विकास हुआ, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप के धार्मिक और सांस्कृतिक परिदृश्य पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ा। पाला काल के प्रमुख पहलुओं को Enumerate करना इसके बौद्ध धर्म के इतिहास में गहन महत्व को समझने में सहायक है।

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  • बौद्ध संस्थानों का समर्थन: पाला शासकों, विशेष रूप से धर्मपाल और देवपाल, ने बौद्ध मठों और विश्वविद्यालयों को व्यापक समर्थन प्रदान किया। नालंदा, विक्रमशिला और उदंतपुरी जैसे मठीय केंद्रों को शाही संरक्षण मिला, जो बौद्ध अध्ययन और विद्या के जीवंत केंद्र बन गए। पाला kings ने इन संस्थानों को भूमि अनुदान, कर छ exemptions, और अन्य विशेषाधिकार प्रदान किए, जिससे ये फल-फूल सके और एशिया भर से विद्वानों को आकर्षित कर सके।
  • भारत से बाहर बौद्ध धर्म का प्रसार: पाला काल में बौद्ध धर्म का प्रसार भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर के क्षेत्रों, जैसे दक्षिण-पूर्व एशिया और तिब्बत में हुआ। कूटनीतिक मिशनों, व्यापार नेटवर्क, और बौद्ध भिक्षुओं की गतिविधियों ने बौद्ध शिक्षाओं के प्रसार और पड़ोसी देशों के साथ संबंध स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसने बौद्ध ग्रंथों, सिद्धांतों, और कलात्मक परंपराओं के प्रसारण को सुविधाजनक बनाया, जिससे बौद्ध धर्म का वैश्विक विस्तार हुआ।
  • कला और वास्तुकला: पाला काल में बौद्ध कला और वास्तुकला का विकास हुआ, जिसमें भव्य मठों, स्तूपों, और मूर्तियों का निर्माण शामिल था। उल्लेखनीय उदाहरणों में बोधगया का महाबोधि मंदिर है, जिसे इस अवधि के दौरान महत्वपूर्ण नवीनीकरण प्राप्त हुआ, और वर्तमान बांग्लादेश में सोमपुरा महाविहार, जो अपनी जटिल टेराकोटा सजावट के लिए प्रसिद्ध है। ये कलात्मक उपलब्धियाँ पाला काल की धार्मिक उत्साह और सांस्कृतिक जीवन्तता को दर्शाती हैं, जिसने बौद्ध कला और वास्तुकला के रूप में एक स्थायी धरोहर छोड़ी।

निष्कर्ष: पाला काल भारत में बौद्ध धर्म के इतिहास में एक शिखर का प्रतिनिधित्व करता है, जो अद्वितीय समर्थन, बौद्धिक जीवंतता, और कलात्मक वैभव से परिपूर्ण था। इसकी धरोहर समकालीन दुनिया में गूंजती है, जो बौद्ध धर्म की वैश्विक आध्यात्मिक परंपरा के रूप में निरंतर प्रासंगिकता और प्रभाव को उजागर करती है। बौद्ध धर्म के विकास और प्रसार को बढ़ावा देकर, पाला वंश ने भारतीय उपमहाद्वीप और उससे परे धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास के पाठ्यक्रम को आकार देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रश्न 2: कांची के पलवों के दक्षिण भारत की कला और साहित्य के विकास में योगदान का अनुमान लगाएं।

उत्तर: कांची के पलवों ने 4वीं से 9वीं सदी CE तक शासन किया और दक्षिण भारत की संस्कृति के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे कला, साहित्य, और वास्तुकला में अपने योगदान के लिए जाने जाते हैं, जिसने इस क्षेत्र के सांस्कृतिक विकास पर स्थायी प्रभाव डाला।

पलवों का कला में योगदान:

  • रॉक-कट वास्तुकला: पलवों ने रॉक-कट वास्तुकला में अग्रणी भूमिका निभाई। उन्होंने पहाड़ियों में मंदिरों को तराशा, धार्मिक उद्देश्य के साथ अद्वितीय वास्तु डिजाइन को जोड़ते हुए। उल्लेखनीय उदाहरणों में 7वीं सदी में नरसिंहवर्मन I के शासनकाल के दौरान महाबलीपुरम (जिसे ममल्लापुरम भी कहा जाता है) के स्मारक शामिल हैं, जैसे कि पंच रथ (Five Rathas) और गंगा का अवतरण (Arjuna’s Penance)।
  • संरचनात्मक मंदिर: पलवों ने संरचनात्मक पत्थर के मंदिरों का निर्माण किया, जिसने बाद में दक्षिण भारतीय मंदिर वास्तुकला को प्रभावित किया। एक प्रमुख उदाहरण महाबलीपुरम में शोर मंदिर (Shore Temple) है।
  • मूर्ति कला: पलवों की मूर्तियां अपनी सुंदर रेखाओं और यथार्थवाद एवं शैलियों के मिश्रण के लिए जानी जाती हैं। मंदिरों और संरचनाओं को हिंदू देवताओं जैसे शिव, विष्णु, और दुर्गा की छवियों से सजाया गया। महाबलीपुरम की मूर्तियां, जैसे कि अर्जुन की तपस्या (Arjuna’s Penance) बेस-रिलीफ, कहानियां सुनाती हैं और उस समय की संस्कृति को दर्शाती हैं।
  • पीतल की मूर्तियां: पलवों ने पीतल की मूर्तियों के विकास में योगदान दिया, जो बाद में चोलों के तहत फल-फूल गईं।

पलवों का साहित्य में योगदान:

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संस्कृत और तमिल साहित्य: पलवों के दरबार ने संस्कृत और तमिल दोनों में अध्ययन को प्रोत्साहित किया। कई राजा, जैसे महेंद्रवर्मन I, साहित्य में भी कुशल थे। महेंद्रवर्मन I ने संस्कृत नाटक “मैट्टविलासा प्रहसन” लिखा।

  • पलवा शिलालेख: पलवा काल के शिलालेख संस्कृत और तमिल दोनों में पाए जाते हैं, जो पलवा साम्राज्य की द्विभाषी प्रकृति को दर्शाते हैं। पलवों ने दोनों भाषाओं का समर्थन किया, जहाँ संस्कृत का उपयोग प्रशासन के लिए और तमिल का उपयोग दैनिक संवाद के लिए किया गया।
  • लिपि का विकास: पलवों ने ग्रंथ लिपि के विकास में भूमिका निभाई, जिसका बाद में तमिल क्षेत्र में संस्कृत लिखने के लिए उपयोग किया गया। इस लिपि ने आधुनिक तमिल लिपि के विकास पर भी प्रभाव डाला।
  • तमिल भक्तिमार्ग आंदोलन का समर्थन: पलवों ने भक्तिमार्ग आंदोलन का समर्थन किया, जो दक्षिण भारत के धार्मिक जीवन में महत्वपूर्ण था। संत जैसे अप्पर, सांबंदर, और सुंदरर को पलवा शासकों द्वारा समर्थन प्राप्त हुआ और उन्होंने तमिल शैव साहित्य में योगदान दिया।

निष्कर्ष: कांची के पलवों ने दक्षिण भारत की कला, साहित्य, और वास्तुकला में महत्वपूर्ण योगदान दिया। संस्कृत और तमिल संस्कृति के प्रति उनका समर्थन, साथ ही वास्तुकला और मूर्तिकला में उनके अग्रिमों ने चोलों जैसी भविष्य की राजवंशों की नींव रखी। उनकी विरासत आज भी दक्षिण भारत में मनाई जाती है।

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