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मिट्ट्टियाँ और वनस्पति - भारतीय भूगोल | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

यहाँ की मिट्टी की विशेषताओं में मिलने वाली विभिन्नता का सम्बन्ध चट्टानों की संरचना, उच्चावचों के धरातलीय स्वरूप, धरातल का ढाल, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति आदि से स्थापित हुआ है।
भारत में मिलने वाली मिट्टी की प्रमुख किस्म इस प्रकार है

  • जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soil)
  • काली या रेगुर मिट्टी (Black or Regur Soil)
  • लाल मिट्टी (Red Soil)
  • लैटेराइट मिट्टी (Laterite Soil)

जलोढ़ मिट्टी

मिट्ट्टियाँ और वनस्पति - भारतीय भूगोल | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi

  • जलोढ़ मिट्टी उत्तर भारत में पश्चिम में पंजाब से लेकर सम्पूर्ण उत्तरी विशाल मैदान को आवृत करते हुए गंगा नदी के डेल्टा क्षेत्र तक फैली है। अत्यधिक उर्वरता वाली इस मिट्टी का विस्तार सामान्यतः देश की नदियों के बेसिनों एवं मैदानी भागों तक ही सीमित है। हल्के भूरे रंगवाली यह मिट्टी 75 लाख वर्ग कि. मी. क्षेत्र को आवृत किये हुए है।
  • इसकी भौतिक विशेषताओं का निर्धारण जलवायविक दशाओं विशेषकर वर्षा तथा वनस्पतियों की वृद्धि द्वारा किया जाता है। इस मिट्टी में उत्तरी भारत में सिंचाई के माध्यम से गन्ना, गेहूँ, चावल, जूट, तम्बाकू, तिलहनी फसलों तथा सब्जियों की खेती की जाती है।
  • उत्पत्ति, संरचना तथा उर्वरक की मात्रा के आधार पर उसके तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है जो निम्नलिखित है-
    (i) पुरातन जलोढ़ या बांगर मिट्टी - नदियों द्वारा बहाकर उनके पाश्र्ववर्ती भागों में अत्यधिक ऊँचाई तक बिछायी गयी पुरानी जलोढ़ मिट्टी को बांगर के नाम से जाना जाता है। नदियों में आने वाली बाढ़ का पानी ऊंचाई के कारण इन तक नहीं पहुंच पाता है। नदी जल की प्राप्ति न होने, धरातलीय ऊंचाई तथा जल-तल के नीचा होने के कारण इनकी सिंचाई की अधिक आवश्यकता होती है।
    (ii) नूतन जलोढ़ या खादर मिट्टी - यह मिट्टी नदियों के बाढ़ के मैदानों तक ही सीमित होती है। इसके कण बहुत महीन होते है तथा इनकी जलधारण शक्ति पुरातन जलोढ़ की अपेक्षा अधिक होती है। इन मिट्टियों की स्थिति नदी घाटी में होने के कारण इनकी सिंचाई की आवश्यकता सामान्यतः नहीं होती है।
    (iii) अतिनूतन जलोढ़ मिट्टी - इस प्रकार की मिट्टी गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि बड़ी नदियों के डेल्टा क्षेत्र में ही मिलती है। यह मिट्टी दलदली एवं नमकीन प्रकृति की होती है। इसके कण अत्यधिक बारीक होते है तथा इसमें पोटाश, चूना, फास्फोरस, मैग्नीशियम एवं जीवांशों की अधिक मात्रा समाहित रहती है। इस मिट्टी में गन्ना, जूट आदि फसलों की कृषि की जाती है।
  • उपर्युक्त प्रकार की जलोढ़ मिट्टियों का गठन बलुई-दोमट से लेकर मृत्तिकामय रूप में पाया जाता है तथा इनका रंग हल्का भूरा होता है। इस प्रकार की मिट्टियों में नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा वनस्पतियों के अंश पर्याप्त मात्रा में मिलते है।

काली या रेगुर मिट्टी   

मिट्ट्टियाँ और वनस्पति - भारतीय भूगोल | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi

  • काली या रेगुर मिट्टी एक परिपक्व मिट्टी है जो मुख्यतः दक्षिणी प्रायद्वीपीय पठार के लावा क्षेत्र में पायी जाती है। यह मिट्टी गुजरात एवं महाराष्ट्र राज्यों के अधिकांश क्षेत्र, मध्य प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र, उड़ीसा के दक्षिण क्षेत्र, कर्नाटक राज्य के उत्तरी जिलों, आन्ध्र प्रदेश के दक्षिणी एवं समुद्रतटीय क्षेत्र, तमिलनाडु के सलेम, रामनाथपुरम, कोयम्बटूर तथा तिरुनेलवेली जिलों, राजस्थान के बूंदी तथा टोंक जिलों आदि में 5 लाख वर्ग कि. मी. क्षेत्र पर विस्तृत है।
  • साधारणतः यह मिट्टी मृत्तिकामय, लसलसी तथा अपारगम्य होती है। इसका रंग काला तथा कणों की बनावट घनी होती है।
  • इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं जीवांशों की कम मात्रा पायी जाती है, जबकि चूना, पोटाश, मैग्नेशियम, एल्यूमिना एवं लोहा पर्याप्त मात्रा में मिले रहते है।
  • उच्च स्थलों पर मिलने वाली काली मिट्टी निचले भागों की काली मिट्टी की अपेक्षा कम उपजाऊ होती है।
  • निम्न भाग वाली गहरी काली मिट्टी में गेहूँ, कपास, ज्वार, बाजरा आदि की कृषि की जाती है। कपास की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होने के कारण इसे ‘कपास की काली मिट्टी’ भी कहा जाता है।

लाल मिट्टी

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  • लाल मिट्टी का निर्माण जलवायवी परिवर्तनों के परिणामस्वरूप रवेदार एवं कायान्तरित शैलों के विघटन एवं वियोजन से होता है। ग्रेनाइट शैलों से निर्माण के कारण इसका रंग भूरा, चाकलेटी, पीला अथवा काला तक पाया जाता है। इसमें छोटे एवं बड़े दोनों प्रकार के कण पाये जाते है। छोटे कणों वाली मिट्टी काफी उपजाऊ होती है जबकि बड़े कणों वाली मिट्टी प्रायः उर्वरताविहीन बंजरभूमि के रूप में पायी जाती है।
  • इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा जीवांशों की कम मात्रा मिलती है जबकि लौहतत्त्व एल्यूमिना तथा चूना पर्याप्त मात्रा में मिलते है। लगभग 2 लाख वर्ग कि. मी. क्षेत्र पर विस्तृत यह मिट्टी आन्ध्र प्रदेश एवं मध्य प्रदेश राज्यों के पूर्वी भागों, छोटानागपुर का पठारी क्षेत्र, पश्चिम बंगाल के उत्तरी-पश्चिमी जिलों, मेघालय की खासी, जयन्तिया तथा गारो के पहाड़ी क्षेत्रों, नागालैण्ड, राजस्थान में अरावली पर्वत के पूर्वी क्षेत्रों तथा महाराष्ट्र, तमिलनाडु एवं कर्नाटक के कुछ क्षेत्रों में पायी जाती है।
  • इस मिट्टी में कपास, गेहूँ, दाल तथा मोटे अनाजों की कृषि की जाती है।

लैटराइट मिट्टी

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  • देश के 1 लाख वर्ग कि. मी. से अधिक क्षेत्र पर विस्तृत लैटराइट मिट्टी का निर्माण मानसूनी जलवायु की आद्र्रता एवं शुष्कता के क्रमिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप उत्पन्न विशिष्ट परिस्थितियों में होता है। इस विभिन्नता से निक्षालन की प्रक्रिया अधिक क्रियाशील रहने के कारण शैलों में सिलिका की मात्रा कम पायी जाती है।
  • इस मिट्टी का विस्तार मुख्यतः दक्षिणी प्रायद्वीपीय पठारी क्षेत्र के उच्च भू-भागों में हुआ है। इसके प्रमुख क्षेत्र है मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पूर्वी तथा पश्चिमी घाट पहाड़ों का समीपवर्ती क्षेत्र, बिहार में राजमहल की पहाड़ियां, कर्नाटक, केरल, उड़ीसा तथा असम राज्य के कुछ भाग।
  • शैलों की टूट-फूट से निर्मित होने वाली इस मिट्टी को गहरी लाल लैटराइट, सफेद लैटराइट तथा भूमिगत जलवाली लैटराइट के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
  • गहरी लाल लैटराइट में लौह ऑक्साइड तथा पोटाश की मात्रा अधिक मिलती है। इसमें उर्वरता कम रहती है किन्तु निचले भागों में कुछ खेती की जाती है।
  • सफेद लैटेराइट की उर्वरता सबसे कम होती है और केओलिन की अधिकता के कारण इसका रंग सफेद हो जाता है।
  • भूमिगत जल वाली लैटराइट मिट्टी को उपजाऊ होती है क्योंकि वर्षा काल में मिट्टी के ऊपरी भाग में स्थित लौह-आक्साइड जल के साथ घुलकर नीचे चले जाते है। इसमें चावल, कपास, मोटे अनाज, गेहूँ, चाय, कहवा, रबड़, सिनकोना आदि पैदा होते है।भूमिगत जलवाली लैटराइट मिट्टी काफी उपजाऊ होती है क्योंकि वर्षाकाल में मिट्टी के ऊपरी भाग में स्थित लौह-आक्साइड जल के साथ घुलकर नीचे चले जाते है। इसमें चावल, कपास, मोटे अनाज, गेहूँ, चाय, कहवा, रबड़, सिनकोना आदि पैदा होते है।
  • भारत में दो और मिट्टियाँ मिलती है जिन्हें मरुस्थलीय तथा नमकीन अथवा क्षारीय मिट्टियाँ कहा जाता है।
  • मरुस्थलीय मिट्टी प्रायः कम वर्षा वाले शुष्क क्षेत्रों में पायी जाती है। इसका विस्तार पश्चिमी राजस्थान, गुजरात, दक्षिणी पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश के भू-भागों पर है। यह बलुई मिट्टी है जिसके कण मोटे होते है। इसमें खनिज नमक की मात्रा अधिक मिलती है किन्तु ये जल में शीघ्रता से घुल जाते है। इसमें आर्द्रता तथा जीवांशों की मात्रा कम पायी जाती है। जल की प्राप्ति हो जाने पर यह मिट्टी उपजाऊ हो जाती है तथा इसमें सिंचाई द्वारा गेहूँ, कपास, ज्वार-बाजरा एवं अन्य मोटे अनाजों की कृषि की जाती है। सिंचाई की सुविधा के अभाव वाले क्षेत्रों में इस मिट्टी में कृषि कार्य नहीं किया जा सकता है।
  • नमकीन एवं क्षारीय मिट्टियाँ शुष्क तथा अर्द्धशुष्क भागों एवं दलदली क्षेत्रों में मिलती है। इसे विभिन्न स्थानों पर थूर, ऊसर, कल्लर, रेह, करेल, राँकड़, चोपन आदि नामों से जाना जाता है। इसकी उत्पत्ति शुष्क एवं अर्ध-शुष्क भागों में जल तल के ऊँचा होने एवं जलप्रवाह के दोषपूर्ण होने के कारण होती है। यह मिट्टी प्रायः उर्वरता से रहित होती है क्योंकि इसमें सोडियम, कैल्सियम तथा मैग्नेशियम की मात्रा अधिक होती है जबकि जीवांश आदि नहीं मिलते।
  • भारत की 47 प्रतिशत मिट्टी में जिंक, 11 प्रतिशत में लोहा एवं 5 प्रतिशत मिट्टी में मैगनीज की कमी देखी गयी है।
  • सामान्य मृदा में खनिज पदार्थ (45.50 प्रतिशत), कार्बनिक पदार्थ (5 प्रतिशत), मृदा जल (25 प्रतिशत) तथा मृदा वायु पाये जाते हैं। मृदा के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं-
  • पौधे आवश्यक खनिज पदार्थ मृदा से ही ग्रहण करते हैं।
  • पौधे अपनी जड़ों से आवश्यक जल मृदा से ही अवशोषित करते हैं।
  • मृदा द्वारा ही पौधों को जरूरी ऑक्सीजन व नाइट्रोजन उपलब्ध कराया जाता है।
  • मृदा पौधों की जड़ों को मजबूती से पकड़कर जमीन पर खड़ा रहने में सुदृढ़ आधार प्रदान करती है।
  • मृदा में कार्बनिक पदार्थ ह्यूमस विद्यमान होता है जो पौधों की वृद्धि में सहायक होता है।
  • पौधों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान करने वाली मृदा असंख्य छोटे-छोटे कणों की बनी होती है, जिनके बीच-बीच में खाली स्थान होते हैं, जिन्हें रंध्राकाश कहा जाता है। इन्हीं रन्ध्राकाशों में वायु और जल मौजूद होते हैं जबकि पादप पोषक रंध्राकाशों में विद्यमान जल में घुले हुए होते हैं। पौधे अपनी जड़ों के मूल रोमों द्वारा जल में घुले हुए पादप पोषकों को अवशोषित करते रहते हैं। यह विदित है कि पौधों को पोषक तत्त्वों की आपूर्ति मृदा द्वारा ही होती है।

वनस्पति
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  • ‘वनस्पति’ शब्द का अर्थ पेड़-पौधों की विभिन्न जातियों के समुच्चय से है जो किसी विशेष प्राकृतिक परिस्थितियों में अपना अस्तित्व रखते है।
  • ‘वन’ शब्द साधारणतः लोगों या प्रशासकों द्वारा पेड़-पौधों एवं झाड़ियों से आच्छादित बड़े क्षेत्रों के लिए प्रयुक्त किया जाता है।

वनस्पति जाति की मूल उत्पत्ति    

  • पुरा वनस्पतिशास्त्रियों का कहना है कि हमारा समस्त हिमालय एवं प्रायद्वीपीय क्षेत्र देशीय एवं स्थानीय वनस्पति जाति से आच्छादित है, जबकि विशाल मैदान व थार के मरुस्थल के पौधे सामान्यतः बाहर से लाये गये है।
  • भारत में पाये जाने वाले पौधों का करीब 40% हिस्सा विदेशी है, जो साइनो-तिब्बती क्षेत्रों से आये है। इन वनस्पति को वोरियल वनस्पति-जाति कहते है।
  • उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों से जो वनस्पति यहाँ आयी है, उसे पुरा उष्ण कटिबंधीय कहते है।
  • थार के मरुस्थल की वनस्पति का जन्म स्थान उत्तरी अफ्रीका माना जाता है।
  • उत्तरी-पूर्वी भारत की वनस्पति-जाति का उत्पत्ति स्थान इण्डो-मलेशिया माना जाता है।

प्राकृतिक वनस्पति पर प्रभाव डालने वाले भौगोलिक कारक

  • वनस्पति पर सबसे ज्यादा प्रभाव जलवायु डालता है। वर्षा की मात्रा और तापमान जलवायु के दो प्रमुख तत्व है जो प्राकृतिक वनस्पति पर प्रभाव डालते है। भारत में तापमान की अपेक्षा वर्षा की मात्रा का अधिक प्रभाव पड़ता है, क्योंकि वर्षा की मात्रा के अनुसार ही वनस्पति में भिन्नता पाई जाती है। जहाँ अधिक वर्षा और तापमान होता है वहाँ सम्पन्न सदाबहार वन और ऊँचे-ऊँचे वृक्ष पाये जाते है और जहाँ वर्षा कम और तापमान अधिक रहता है वहाँ वन कम पाये जाते है।
  • धरातलीय दशा का भी वनों पर प्रभाव पड़ता है। ऊंचाई के अनुसार वनों का रूप बदल जाता है। हिमालय पर्वत क्षेत्र में समुद्र तल से ऊँचाई तथा तापमान ने वनस्पति प्रदेश निर्धारित किए है। वहाँ वर्षा की मात्रा इतनी प्रभावी नहीं होती। 1200 से 1800 मीटर की ऊँचाई पर ओक, बर्च, चीड़, पापलर, पाईन, खरसिया आदि वृक्ष पाये जाते है। 1800 से 3000 मीटर की ऊँचाई पर देवदार, सिल्वर फर, स्प्रूस, मेपिल श्वेत पाइन, ब्लूपाइन वृक्ष पाये जाते है। 3000 से 4500 मीटर की ऊँचाई पर घास, बर्च, बोना, जूनीपर प्रकार की वनस्पति मिलती है।
  • मिट्टी का भी वनस्पति पर प्रभाव पड़ता है। जैसे-जैसे मिट्टियों के प्रकार बदलते जाते है उनमें पानी संचित करने की शक्ति भिन्न होती जाती है। साथ ही उनमें विद्यमान रासायनिक तत्वों में भी अन्तर आता जाता है। इन सब बातों का वन पर काफी प्रभाव पड़ता है।
  • इस प्रकार भारत में जलवायु और भूमि संबंधी विशेषतायें वनस्पति के प्रकार निर्धारित करती है। इसी के कारण भारत में उष्ण और शीतोष्ण कटिबंधीय दोनों प्रकार की ही वनस्पतियाँ पायी जाती है। देश  के कुल वनों का 7% शीतोष्ण वन तथा शेष 93% उष्ण कटिबंधीय वन है।
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FAQs on मिट्ट्टियाँ और वनस्पति - भारतीय भूगोल - भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi

1. जलोढ़ मिट्टी क्या है?
उत्तर: जलोढ़ मिट्टी एक प्रकार की मृदा है जो पानी को अच्छी तरह से धारण करती है। यह मिट्टी अपार जल संचय क्षमता वाली होती है और पौधों को पानी की आपूर्ति में मदद करती है। इसलिए, जलोढ़ मिट्टी का उपयोग खेती और बागवानी में किया जाता है।
2. काली या रेगुर मिट्टी क्या है?
उत्तर: काली या रेगुर मिट्टी एक प्रकार की मृदा है जिसमें मिट्टी की काली रंग की उपस्थिति होती है। यह मिट्टी आपातकालीन क्षेत्रों में पायी जाती है और उच्च आपातकालीन खनिजों के उद्गम के संकेत के रूप में काम करती है।
3. लाल मिट्टी क्या होती है?
उत्तर: लाल मिट्टी एक प्रकार की मृदा होती है जिसमें मिट्टी की लाल रंग की उपस्थिति होती है। यह मिट्टी आपातकालीन क्षेत्रों में पायी जाती है और आपातकालीन खनिजों के उद्गम के संकेत के रूप में काम करती है।
4. लैटराइट मिट्टी क्या है?
उत्तर: लैटराइट मिट्टी एक प्रकार की मृदा है जो अपातकालीन खनिजों के संकेत के रूप में काम करती है। यह मिट्टी आपातकालीन क्षेत्रों में पायी जाती है और उच्च आपातकालीन खनिजों के उद्गम के संकेत के रूप में काम करती है।
5. भारतीय भूगोल में वनस्पतिमिट्टियों का महत्व क्या है?
उत्तर: वनस्पतिमिट्टियाँ भारतीय भूगोल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये मिट्टी को जीवनशक्ति प्रदान करती हैं और जल, हवा और जीवन-समर्थक पदार्थों के निर्माण में मदद करती हैं। वनस्पतियाँ भूमि को योग्य बनाती हैं, वातावरण को सुरक्षित रखती हैं और जैविक विविधता को बढ़ावा देती हैं।
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