सूचना आदान-प्रदान में सरकार की पारदर्शिता
अरस्तु के शब्दों में, “यदि कोई लोकतंत्र व्यावहारिक आजादी और समानता चाहता है, तो वह तभी प्राप्त की जा सकती है, जब सभी लोग सरकार में समानता से अधिकतम हिस्सा लें।"
प्रशासन में सूचना के आदान-प्रदान एवं सरकार में पारदर्शिता का तात्पर्य प्रशासन के प्रत्येक स्तर पर खुलापन, जवाबदेही व जनता तक सूचनाओं के पहुंच से है। एक संगठन को तब अधिक पारदर्शी माना जा सकता है। जब इसके निर्णय निर्माण और काम करने का ढंग जनता, मीडिया और सार्वजनिक चर्चा के लिये खुला हो।
पारदर्शिता का एक महत्वपूर्ण पक्ष है जानकारी की सुलभता। विश्व भर में शासन-पद्धति में और अधिक पारदर्शिता लाने की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। यूनाईटेड किंगडम के नागरिक चार्टर में सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों में और अधिक खुलापन बरतने के विविध उपबंध दिए गए हैं। कनाडा में भी Access to Information Act है जो नागरिकों को परिसंघीय सरकार के ऐसे अभिलेखों की जानकारी हासिल करने का अधिकार देता है जो व्यक्तिगत स्वरूप के नहीं हैं।
बदलते सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य जनता में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता, पूर्ण रूप से जवाबदेह और अनुकूल प्रशासन बनाने की आवश्यकता और अधिकांश जनता का यह मत कि गोपनीयता बतरने के प्रयासों से सरकारी पदाधिकारियों द्वारा अधिकारों के दुरूपयोग की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं, जैसे कारकों से सरकारी कार्यपद्धति में पारदर्शिता की मांग की गई है। यद्यपि पूरी तरह से खुलापन न तो व्यवहार्य है, न ही वांछनीय। अतः खुलेपन के प्रति एक संतुलित दृष्टिकोण होना चाहिए।
सूचना के आदान-प्रदान एवं पारदर्शिता से जनता यह जानने में सक्षम होती है कि सरकार के प्रत्येक स्तर पर क्या हो रहा है, तथा किस प्रकार की नीतियाँ एवं कार्यक्रम सरकार द्वारा बनाये जा रहे हैं। सूचना की सुलभता गरीब और समाज के कमजोर वर्गों की सरकारी नीतियों और कार्यवाई के विषय में सूचना की माँग करने और उसे प्राप्त करने के लिये सक्षम बना सकती है।
प्रशासन में सूचना का आदान-प्रदान एवं पारदर्शिता आवश्यक है, क्योंकि उत्तम शासन के बिना विकास योजनाओं, कार्यक्रमों की संख्या चाहे कितनी भी हो, नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार नहीं हो सकता। अतः लोकतंत्र की सफलता के लिये आवश्यक है, प्रशासन स्वयं में पारदर्शी हो व लोग सरकार में अधिकतम हिस्सा लें। सरकार ने शासन में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिये सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 को एक पारदर्शी उपकरण के तौर पर पारित किया है।
सूचना आदान-प्रदान के मार्ग में अवरोध
भारत जैसे देश में प्राय: यह देखा जाता है, कि लोग, सरकार में अधिकतम भागीदारी नहीं दिखाते, जिस कारण नौकरशाही को अधिक जवाबदेही नहीं देनी पड़ती। सरकार में लोगों की सीमित भागीदारी के पीछे प्रमुख कारणों में असाक्षरता, तकनीकी ज्ञान का अभाव, वित्तीय साक्षरता आदि प्रमुख कारण हैं।
➤ अन्य कारण जो सूचना आदान-प्रदान के मार्ग में अवरोध का काम करते हैं:-
- भारत जैसे विशाल देश में सूचना के आदान-प्रदान में विशाल भौगोलिक आकार, अत्यधिक जनसंख्या तथा
भाषाई विविधता सूचना के आदान-प्रदान को अधिक जटिल बना देते हैं।
डिजिटल डिवाइडेंट (सूचना तकनीक तक हर तबके के लोगों की पहुंच समान रूप से न होना) के कारण
सूचना, अधिकतम लोगों तक नहीं पहुंच पाती है।
- प्रशासनिक सूचना की भाषा भी एक अवरोध है, लोगों की अपनी भाषा में सूचना न होने के कारण लोगसूचना को समझने में ही अक्षम होते है।
➤ प्रशासन में पारदर्शिता सुनिश्चित करने हेतु सुझाव
देश के प्रत्येक नागरिक तक सूचना के आदान-प्रदान व प्रशासन में पारदर्शिता को सुनिश्चित करने के लिये तकनीकी का अधिकतम इस्तेमाल बढ़ाना होगा, तकनीकी साधनों में सोशल मीडिया, इंटरनेट, टेलीविजन, रेडियो व प्रिंट मीडिया अधिक सहायक हो सकते हैं। सूचना सभी लोगों को समझ में आये इसके लिये आवश्यक है कि सूचना लोगों की भाषा में दी जाये। डिजिटल डिवाइडेंट को कम करने के लिये कम्प्यूटर साक्षरता व इंटरनेट का प्रसार एक कारगर भूमिका निभा सकता है। प्रशासन में सूचना का आदान-प्रदान व पारदर्शिता को प्रभावी बनाने में ई-शासन (E-Governance) महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। ई-शासन, सुशासन के लिये सरकार के कार्यों की प्रक्रिया के प्रति सूचना एवं संप्रेषण तकनीक (ICT) का क्रियान्वयन है।
दूसरे शब्दों में ई-शासन सूचना एवं सेवा आपूर्ति को सुधारने, निर्णयन में नागरिकों की भागीदारी को प्रोत्साहित करने और सरकार को अधिक जवाबदेह, पारदर्शी एवं दक्ष बनाने के उद्देश्य के साथ-साथ सूचना एवं संप्रेषण तकनीक का उपयोग है।
निष्कर्षतः
ई-शासन का अभिप्राय सरकारी विभागों एवं एजेंसियों के द्वारा इंटरनेट के माध्यम से सुचना तक लोगों की पहुंच सुनिश्चित करता है। ई-शासन, सरल, नैतिक, जवाबदेह, अनुक्रियात्मक एवं पारदर्शी शासन को बढ़ावा देता है।
प्रशासन में सूचना का आदान-प्रदान व पारदर्शिता से लाभ
- राजनीतिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था के प्रति लोगों के विश्वास में बढ़ोत्तरी होती है, जो प्रशासनिक कार्य सहयोग को बढ़ावा देता है।
- प्रशासन में पारदर्शिता से लोक सेवा कार्य निष्पादन में बढ़ोत्तरी होती है।
- भ्रष्टाचार पर अंकुश एवं सेवा और सूचना आपूर्ति को बढ़ावा देता है।
- सार्वजनिक भागीदारी एवं परामर्श को बढ़ावा मिलने से लोकतात्रीकरण को प्रोत्साहन मिलता है।
- यह माध्यम सरकार की आंतरिक संगठनिक प्रक्रिया को सुधारने में सहायता करता है।
सरकार में पारदर्शिता
- सूचना से अभिप्राय किसी भी प्रकार की सामग्री से है जिसमें अभिलेख, दस्तावेज, मेंमो, ई-मेल, विचार,
परामर्श, प्रेस रिलीज, परिपत्र, आदेश, संविदा, प्रतिवेदन, इलेक्ट्रॉनिक सामग्री एवं निजी संकट से संबंधित ऐसी सूचना जो लोक प्राधिकरण द्वारा किसी भी कानून में प्राप्त की जा सकती है।
➤ इस अधिनियम के अनुसार मुख्य उद्देश्य हैं:-
(i) लोक प्राधिकारियों के कार्यकरण में पारदर्शिता लाना तथा उनके उत्तरदायित्व में संवर्धन।
(ii) लोक प्राधिकारियों के अधीन सूचना तक पहुँच सुनिश्चित करना।
(iii) नागरिकों के सूचना के अधिकार की व्यावहारिक शासन पद्धति स्थापित करना।
(iv) केन्द्रीय सूचना आयोग तथा राज्य सूचना आयोगों का गठन।
(v) भ्रष्टाचार को रोकना।
(vi) शासन तथा उसके उपक्रमों को उत्तरदायी बनाना।
(vii) लोकतंत्रात्मक आदर्श की संप्रभुत्ता को बनाए रखना।
इस अधिनियम की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सूचना प्राप्त करने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को दिया गया है। यदि कोई अधिकारी सूचना देने में आनाकानी करता है, तो उस पर 25 हजार जुर्माना और उसकी चरित्र पत्रिका में उसके विषय में टिप्पणी दर्ज होगी।
सूचना का अधिकार अधिनियम प्रशासन को पारदर्शी बनाने के लिए पारित किया गया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है भारत के उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया है कि जानने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है जो संविधान के अनुच्छेद 19 (1) इस गारंटी प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही अंग है। गाँवों में लोग पंचायत के काम-काज जैसे-भू-अभिलेख, शिक्षा व्यवस्था, कृषि एवं वन विभाग आदि के कर्यों से सीधे जुड़े हैं। उन्हें अब सही समय पर सूचनाएँ प्राप्त हो सकेंगी। अब लोगों को राज्य सरकार, लोक निकाय के कार्यकलापों, व्यक्ति के अभिलेखों की प्रमाणित प्रतिक्रिया एवं सचनायें प्राप्त करने का अधिकार है।
निष्कर्षतः
देश में सूचना का अधिकार कानून लागू होना एक क्रांतिकारी कदम है। इससे न केवल भ्रष्टाचार रूकेगा बल्कि आम जनता को अपने आवश्यकता की जानकारी भी मिल सकेगी। आशा है इससे हमारे लोकतंत्र को और मजबूती मिलेगी, लेकिन सही अर्थों में तभी असरदार साबित होगा जब इसके माध्यम से व्यवस्था में जनभागीदारी बढ़ाने का परिदृश्य बने।
सूचना का अधिकार
लोक प्रशासन में पारदर्शिता (Transparency) अर्थात् छुपाव-विहीन प्रणाली अपनाने तथा आम आदमी को प्रशासन द्वारा सूचना प्रदान करने के लिए विश्व भर में सूचना के अधिकार की माँग लम्बे समय से उठाई जाती रही है। लोकतंत्र में सरकार की सुरक्षा तथा प्रतिष्ठा बहुत सीमा तक स्वच्छ, कुशल तथा पारदर्शी प्रशासनिक, तंत्र पर निर्भर करती है। भारत का संविधान देश के नागरिकों को भाषा एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है, किन्तु जानने का अधिकार इसमें सम्मिलित नहीं रहा है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो बिना सूचाना या जानकरी के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या औचित्य है? वर्तमान युग में तो सूचना ही जीवन का प्राण है।
सूचना के अधिकार को वैश्विक स्तर पर प्रायः
'Freedom of Information', 'Official Information' 'Access to Information', 'Public Information', 'Code on access to Information' इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। स्थूल रूप से सूचना की स्वतंत्रता (FOI) या सूचना के अधिकार (RTI) से तात्पर्य | "
उस वैधानिक नागरिक से है जो किसी देश के व्यक्तियों को सरकारी कार्यकरण से सम्बन्धित सूचनाएँ प्राप्त करने के अवसर एवं पहुँच प्रदान करता है।" राजनीतिक एवं प्रशासनिक चिन्तकों में वुडरो विल्सन जेम्स मेंडिसोन तथा लॉर्ड एक्टन इसके प्रबल समर्थक रहे हैं।
वैश्विक परिदृश्य (World Scenario)
- आधुनिक विश्व के लगभग 55 अग्रणी देशों में सूचना का अधिकार प्रवर्तित है। स्वीडन वह देश है जिसने सर्वप्रथम सन् 1766 में सूचना के अधिकार का संवैधानिक प्रावधान किया। वस्तुतः यह प्रावधान 'Freedom of Press, Act, 1766' के रूप में सामने आया था जिसका प्रारम्भिक प्रावधान स्वीडन के संविधान में किया गया था। इस प्रावधान के अनुसार जनता एवं प्रेस को कतिपय जनोपयोगी सूचनाएँ प्राप्त करने का अधिकार है। उस समय फिनलैण्ड भी स्वीडन का एक भाग था। सन् 1919 में फिनलैण्ड को स्वतंत्र राष्ट्र का स्तर मिलने पर कालान्तर में उसने अपना नया सूचना का अधिकार कानून बनाया। स्वीडन के अतिरिक्त बुल्गारिया (अनुच्छेद-44), हंगरी (अनुच्छेद-61 (1)), लिथुआनिया (अनुच्छेद-25 (अ)), मलावी (अनुच्छेद-37)1 मोल्दारेवा (अनुच्छेद-34). फिलीपीन्स (अनुच्छेद-III (7)), पोलैण्ड (अनुच्छेद-61), रोमानिया (अनुच्छेद-31)। दक्षिण अफ्रीका (अनुच्छेद-32) तथा थाईलैण्ड (सेक्शन-58) के संविधानों में भी सूचना का अधिकार सम्बन्धी प्रावधान किए गए हैं। सन् 1888 में कोलम्बिया ने 'Code of Political and Municipal Organisation' के माध्यम से जनसाधारण को सूचना का अधिकार प्रदान किया।
- वस्तुत: संयुक्त राष्ट्र की स्थापना से ही सूचना की स्वतंत्रता सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों को गति मिलने लगी थी। संयुक्त राष्ट्र की आम सभा के प्रथम अधिवेशन (1946) में पारित प्रस्ताव संख्या 59 (1) में कहा गया था- "सूचना की स्वतंत्रता एक मौलिक मानवाधिकार है संयुक्त राष्ट्र जैसी पवित्र संस्था जिन उद्देश्यों को लेकर बनी है उनमें सभी स्वतंत्रताओं की यह कसौटी (Touchstone) भी है।" सन 1948 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित 'मानवाधिकारों' की विश्वव्यापी घोषणा (UNDHR)' के अनुच्छेद 19 में कहा गया है-"प्रत्येक व्यक्ति को विचार तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। इस अधिकार के अन्तर्गत बिना किसी हस्तक्षप के कोई विचार रखने एवं देश की सीमा का ध्यान रखे बिना किसी भी माध्यम से सूचना और विचार माँगने, प्राप्त करने तथा देने का अधिकार सम्मिलित है।" इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार घोषणा का अनुच्छेद-19 सूचना के अधिकार की गारण्टी देता है। लन्दन स्थित 'Article-19' नामक संस्था इस अधिकार की स्थापना में प्रयासरत है। संयुक्त राष्ट्र के अतिरिक्त राष्ट्रमण्डल (Commonwealth) देशों के विधि मंत्रियों के सन् 1980 के बारबोडोस सम्र्मेलन तथा सन् 1991 के राष्ट्रमण्डल सम्मेलन (हरारे), अमेरिकी राज्यों के संगठन (Organisation of American States), यूरोपीय परिषद् (Council of Europe) तथा अफ्रीकी संघ (African Union) इत्यादि ने भी सूचना के अधिकार की स्थापना में निरन्तर सहयोग प्रदान किया है। भारत (1982) तथा दक्षिण कोरिया (1989 एवं 1991) सहित कई देशों के सर्वोच्च न्यायालयों ने भी इसे समर्थन प्रदान किया। सन् 1994 में विश्व बैंक द्वारा निर्मित 'Policy on the Disclosure of Information' ने भी लोकतांत्रिक सरकारों पर दबाव बनाया।
- यद्यपि सूचना की स्वतंत्रता सम्बन्धी प्रथम वैधानिक प्रयास स्वीडन में हुए थे किन्तु इस नाम (Freedom of Information) से व्यापक एवं स्पष्ट कानून सन् 1966 में अमेरिका में निर्मित हुआ। अमेरिका में Privacy Act (1974) तथा Sunshine Act (1976) में भी कतिपय प्रावधान सूचना की स्वतंत्रता सम्बन्धी है। सन् 1978 में फ्रांस में सूचना का अधिकार कानून पारित हुआ। इसके पश्चात् सन् 1982 में आस्ट्रेलिया, कनाडा तथा न्यूजीलैण्ड में यह कानून बना। कालान्तर में यूक्रेन (1992), हंगरी (1992), बेल्जियम (1994) रूस (1995), हाँगकाँग (1995), सन् 1998 में इजरायल, लातविया, जॉर्जिया, दक्षिण कोरिया, सन् 1999 में जापान, अलबानिया और त्रिनिदाद एवं टोबैगो, सन् 2000 में लिथुआनिया, बोस्निया एवं हर्जेगोविना, चैक गणराज्य, स्टोनिया, दक्षिण अफ्रीका तथा ग्रेट ब्रिटन और सन् 2002 में भारत, पाकिस्तान, जमैका, मेक्सिको एवं पेरू में यह कानून विविधा नामों, जैसे – सूचना तक पहुँच, सूचना की स्वतंत्रता या सूचना के अधिकार इत्यादि नामों से पारित हुआ। सन् 1999 में जापान में राष्ट्रीय स्तर पर इस कानून के लाग होने से पूर्व ही लगभग 900 स्थानीय स्वशासन संस्थाओं ने सूचना की स्वतंत्रता सम्बन्धी कानून बना दिए थे। इसी प्रकार भारत में भी संघीय कानून से पूर्व कतिपय राज्यों में सूचना का अधिकार कानून बन चुका था।
सूचना का अधिकार अधिनियम
खलेपन की सरलतम परिभाषा है, "
जानकारी की सुलभता"। आज के आर्थिक उदारीकरण के दौर में सरकार की कार्य-पद्धति के संदर्भ में, '
खुलापन' का अर्थ सरकार द्वारा लिये गये विभिन्न निर्णयों और उन निर्णयों के तर्क के बारे में सभी को जानकारी प्राप्त करने का अधिकार देना है।
- विश्व भर में शासन-पद्धति में और अधिक खुलापन लाने की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। बदलते सामाजिक-आर्थिक परिवेश, जनता में अपने अधिकारों के प्रति बढ़ती जागरूकता, पूर्ण रूप से जबावदेह और अनुकूल प्रशासन बनाने की आवश्यकता और अधिकांश जनता की यह राय कि गोपनीयता बरतने के प्रयासों से सरकारी पदाधिकारियों द्वारा अधिकारों के दुरूपयोग की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं, जैसे विभिन्न कारकों से सरकारी कार्य-पद्धति में अधिक पारदर्शिता की माँग की गयी है। हालाँकि, पूरी तरह से खलापन बरता जाना न तो व्यवहार्य है और न ही वांछनीय। अतः सरकारी कार्य पद्धति में खुलेपन के प्रति एक सन्तुलित दृष्टिकोण विकसित किया जाना चाहिए।
प्रशासन में खुलापन, पारदर्शिता व उत्तरदायित्व को बढ़ाने के लिये भारत सरकार ने एक कानून के तौर पर सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 को पारित किया है। सूचना का अधिकार अधिनियम यह सुनिश्चित करता है कि सरकार की गतिविधियाँ, पारदर्शी , उचित तथा खुली हों। एक लोकतंत्र व्यवस्था में यह आवश्यक है कि सरकार (शासन) और जनता के बीच पारदर्शिता हो। सरकार द्वारा लिया गया ऐसा कोई निर्णय जो लोगों को प्रभावित करता हो, या ऐसा कोई कार्य जिसमें सरकारी सम्पत्ति की खरीद या बिक्री की जाती है। इन सभी मामलों में सरकार को पारदर्शिता से काम करना चाहिये और यदि कोई नागरिक इनमें से किसी मामले में सूचना चाहता है तो उसे इसे प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिये।
सूचना का अधिकार अधिनियम-2005
सूचना का अधिकार अधिनियम-2005, एक कानूनी दस्तावेज है, जो नागरिकों को अधिकार देता है, कि वह प्रशासनिक पारदर्शिता हेतु कोई भी सूचना, प्राधिकारियों से माँग सकता है। इस अधिनियम की धारा 5 यह सुनिश्चित करती है कि प्रत्येक लोक प्राधिकारी इस अधिनियम के लागू होने के 100 दिन के भीतर इतने केन्द्रीय और राज्य सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करेगा जितने आवश्यक हों। ये सूचना अधिकारी किसी भी व्यक्तियों को सूचना प्रदान करेंगे जो इसके लिये आवेदन दें। सूचना के अधिकार के कानून के अनुसार सूचना किसी भी रूप में सामग्री होती है, जिसमें अभिलेख, प्रलेख, ज्ञापन, ई-मेल, राय, सलाह, प्रेस विज्ञप्तियाँ, परिपत्र -आदेश, लॉग बुक्स, संविदाएँ, रिपोर्ट, कागजात, नमूने, मॉडल्स तथा किसी भी इलेक्ट्रॉनिक्स रूप में रखे गये -आँकड़े शामिल हैं। इसमें वह सूचना भी शामिल है जो किसी निजी निकाय से सम्बन्धित है, और जो किसी अन्य कानून के अन्तर्गत सरकारी प्राधिकारी द्वारा प्राप्त की जा सकती या उस तक पहुंचा जा सकता है।
लोक सूचना अधिकारी आवेदन पाने के पश्चात् यथा शीघ्र किन्तु 30 दिन के भीतर विहित शुल्क के भुगतान पर या तो सूचना देगा अथवा धारा 8 व 9 के अन्तर्गत विहित कारणों के आधार पर मना कर देगा। इस अधिनियम की धारा 23 के अन्तर्गत यह उपबन्ध है कि इस अधिनियम के अन्तर्गत किसी भी आदेश के विरूद्ध किसी न्यायालय में कोई भी मामला नहीं लाया जा सकता है। धारा 24 में उन संगठनों (गुप्तचर व सुरक्षा सम्बन्धी) का उल्लेख है जिनके विरूद्ध यह अधिनियम नहीं लाया जा सकता है। धारा 20 के अधीन यह उपबन्ध है कि सूचना अधिकारियों द्वारा बिना उचित कारण के आवेदन लेने या सूचना न देने पर केन्द्रीय सूचना आयोग सम्बन्धित अधिकारी पर 250 रू० प्रतिदिन की दर से जुर्माना लगा सकता है, जब तक सूचना प्रदान नहीं की जाती है।
उद्देश्य
यह अधिनियम लोक प्राधिकारियों की कार्य प्रणालियों में पारदर्शिता तथा जवाबदेयता लाने, लोक प्राधिकारियों के नियंत्रणाधीन सूचना तक नागरिकों की पहुँच सुनिश्चित करने, नागरिकों हेतु सूचना के अधिकार की व्यावहारिक शासन पद्धति स्थापित करने, एक केन्द्रीय सूचना आयोग तथा राज्य सूचना आयोगों का गठन करने और उनसे सम्बन्धित विषयों का उपबंध करने हेतु लाया गया है।
अधिनियम के प्रारम्भिक भाग में यह स्वीकारा गया है कि गोपनीय तथा संवेदनशील सूचनाओं के अप्रतिरक्षण और सरकार तंत्र के प्रभावी संचालन, सीमित वित्तीय संसाधनों के अधिकतम सदुपयोग के मध्य विरोधाभास होते हुए भी यह समय की माँग है कि हम लोकतंत्रात्मक आदर्श की प्रभुता को बनाए रखते हुए विरोधी हितों के बीच सामंजस्य स्थापित करें। साथ ही यह भी कहा गया है कि लोकतंत्र में नागरिकों को सूचनाओं से वंचित न रखा जाए बल्कि शासन को नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाने हेतु सूचना की पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए।
सूचना तथा सूचना का अधिकार
अधिनियम की धारा-2 (एफ) में सूचना को परिभाषित करते हुए किसी भी रूप में किसी सामग्री जिसमें दस्तावेज, रिकॉर्ड, मेंमो, ई-मेल, अभिमत, परामर्श, प्रेस रिलीज, परिपत्र, आदेश, लॉगबुक, संविदा, रिपोर्ट, पेपर्स, नमूने, मॉडल्स तथा आँकड़े इत्यादि को सम्मिलित किया गया है। ऐसी सूचना तथा सामग्री में इलेक्ट्रॉनिक स्वरूप भी सम्मिलित है। ऐसी सूचनाएँ जो निजी निकाय से सम्बन्धित हैं किन्तु विधि अनुसार उन तक लोक प्राधिकारी की पहुँच है तो, वे भी नागरिकों को दी जा सकेंगी।
- जहाँ तक 'सूचना का अधिकार' का प्रश्न है इसमें निम्नांकित सम्मिलित है
- कार्य, दस्तावेज तथा अभिलेख का निरीक्षण करना।
- दस्तावेजों या अभिलेख के नोट्स उद्धरण (Extracts) तथा प्रमाणित प्रतियाँ प्राप्त करना।
- सामग्री का प्रमाणित नमूना प्राप्त करना।
- सी.डी., फ्लॉपी, टेप, वीडियो कैसेट या अन्य इलेक्ट्रॉनिक स्वरूप में या प्रिण्ट आउट के रूप में या कम्प्यूटर या अन्य किसी डिवाइस में संग्रहित सामग्री प्राप्त करना।
अभिलेख से ताप्तर्य किसी दस्तावेज, पाण्डुलिपि, फाइल, माइक्रोफिल्म, माइक्रोचिप, फैक्स (Facsimiles copy), किसी प्रतिकृति या प्रतिबिम्ब, या उनका पुनरुत्पादन या कम्प्यूटर या किसी डिवाइस में उपलब्ध सामग्री से है।
लोक सूचना अधिकारी
अधिनियम की धारा-5 में प्रावधान किया गया है कि प्रत्येक प्रशासनिक विभाग या संगठन या कार्यालय या इकाई अधिनियम लागू होने के सौ दिन के भीतर केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी (Central Public Infromation Officer) या राज्य लोक सूचना अधिकारी (State Public Information Officer) को नामित (Designate) करेगा जो लोगों द्वारा माँगे जाने पर सूचना उपलब्ध कराएगा। अधिनियम उप-खण्ड सहायक लोक सूचना अधिकारी को नामित करने का भी प्रावधान करता है जो कि जनता से प्राप्त आवेदनों को यथास्थान अग्रेषित करेंगे। यदि इन सहायक लोक सूचना अधिकारियों को आवेदन दिया जाता है या अपील की जाती है तो विनिर्दिष्ट उत्तर के लिए अवधि की गणना करते समय 5 दिन की अवधि जोड़ दी जाएगी। जैसे ग्राम पंचायत में ग्राम सेवक (पंचायत सचिव), पंचायत समिति में विकास अधिकारी, नगर निगम में मुख्य कार्यकारी अधिकारी, विश्वविद्यालय में कुल सचिव, कॉलेज में उप प्राचार्य, कलेक्ट्रेट में अतरिक्त जिला कलेक्टर लोक सूचना अधिकारी बनाए गए हैं। सम्बन्धित कार्यालय का प्रमुख अपील अधिकारी बनाया गया है।
न दी जाने वाली सूचनाएँ
➤ अधिनियम की धारा-8 में कहा गया है कि निम्नांकित प्रकृति की सूचनाएँ प्रकट किए जाने से छूट प्राप्त (Exemption from Disclosure) है:- सूचना, जिसके प्रकटन से भारत की सम्प्रभुता, एकता, सुरक्षा तथा रणनीतिक, वैज्ञानिक या आर्थिक हितों, वैदेशिक सम्बन्धों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है या किसी अपराध का उद्दीपन (Incitement) होता है,
- सूचना, जिसके प्रकटन से किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा अभिव्यक्त रूप से निषिद्ध किया हुआ है या जिसके प्रकटन से न्यायालय की अवमानना (Contempt of Court) होती है।
- सूचना, जिसके प्रकट से संसद या किसी राज्य विधायिका के विशेषाधिकारों का हनन (Breach of Privilege) होता है।
- सूचना, जिसके प्रकटन से तृतीय पक्ष की प्रतियोगी स्थिति को हानि पहुँचती है, जिसमें वाणिज्यिक विश्वास, व्यापार गोपनीयता या बौद्धिक सम्पदा सम्मिलित है, (यदि सक्षम प्राधिकारी संतुष्ट है कि सूचना प्रकटन में व्यापक जनहित सम्मिलित है तो ऐसी सूचना भी प्रकट की जा सकेगी।)
- किसी व्यक्ति के पास वैश्वासिक सम्बन्धों (Fiduciary Relationship) की सूचनाएँ, (यदि सक्षम प्राधिकारी संतुष्ट है कि सूचना प्रकटन में व्यापक जनहित सम्मिलित है तो ऐसी सूचना भी प्रकट की जा सकेगी।)।
- वैदेशिक सरकार के विश्वास में प्राप्त सूचनाएँ
- सूचना, जिसके प्रकटन से किसी व्यक्ति के जीवन या शारीरिक सुरक्षा के लिए या सूचना के स्रोत की पहचान करने में या विश्वास में दी गई सहायता या सुरक्षा प्रयोजनों के लिए खतरा हो,
- सूचना, जिसके प्रकटन से अन्वेषण या अपराधियों को गिरफ्तार करने या अभियोजन की प्रक्रिया में अडचन पड़ेगी।
- मंत्रिमण्डल के कागज पत्र जिसमें मंत्रिपरिषद्, सचिवों तथा अन्य अधिकारियों के विचार-विमर्श (Deliberation) के अभिलेख सम्मिलित हैं, (परन्तु यह कि मंत्रिपरिषद् के निर्णय, उनके कारण तथा वह जिसके आधार पर निर्णय किए गए थे, निर्णय किए जाने और विषय (Matter) समाप्त हो जाने के पश्चात् जनता को उपलब्ध कराई जाएगी)। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि वे विषय जो इस धारा-8 के अन्तर्गत हैं, प्रकट नहीं किए जाएंगे।
- सूचना, जो व्यक्तियों तथा जिसके प्रकट करने में कोई जन गतिविधि या हित सम्बन्धित नहीं हैं या जिससे किसी व्यक्ति की या निजता (Privacy) का अनावश्यक अतिक्रमण होता है, (यदि लोक सूचना अधिकारी या अपीली अधिकारी को संतुष्टि हो जाए कि ऐसी सूचना में व्यापक जनहित समाहित है तो सूचना प्रकट की जा सकेगी)।
इसी धारा में यह भी कहा गया है कि ऐसी सूचना जिसे संसद या राज्य विधायिका को देने से मना नहीं किया जा सकता है, वह सूचना किसी व्यक्ति को भी देने से मना नहीं की जा सकेगी। यह भी उल्लेखनीय है कि शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 के प्रावधान सूचना देने में आड़े नहीं आएंगे। साथ ही लोक प्राधिकारी को यह शक्ति भी दी गई है कि उसे लोक प्राधिकारी की हानियों से अधिक महत्त्वपूर्ण जनहित लगे तो उपर्युक्त वर्णित (धारा-8) की छूटों वाली सूचनाएँ भी दी जा सकती हैं। किसी घटना, वृत्तांत या विषय से सम्बन्धित कोई सूचना यदि 20 वर्ष से अधिक पुरानी है तो केन्द्र सरकार का निर्णय अन्तिम होगा। धारा-9 यह प्रावधान करती है कि राज्य से भिन्न किसी व्यक्ति के प्रतिलिप्याधिकार (Copyright) के उल्लंघन करने वाली सूचनाओं के आवेदन को लोक सूचना अधिकारी अस्वीकृत कर सकता है। धारा-10 में प्रावधान है कि किसी सूचना या दस्तावेज का आंशिक भाग भी दिया जा सकता है अर्थात् कुछ भाग 'न दी जाने वाली सूचना (धारा-8)' में आता है। जो भाग देने योग्य है, उसकी सूचना, निर्णय के कारण, निर्णयकर्ता का नाम तथा पदनाम, फीस इत्यादि का विवरण आवेदक को संसूचित किया जाएगा।