कुछ प्रमुख नैतिक चिंताएँ
नैतिक दुविधाओं के प्रकार
निर्णय एवं निर्णयकर्ता
निर्णय एवं निर्णयकर्ता दोनों के नैतिकता के निष्कर्ष पर खरा न उतरने का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि एक नया कर्मचारी या अफसर जिसने नौकरशाही में कदम भर रखा है, अपने समकालीन वातावरण से अधिक वाकिफ, अधिक आत्मविश्वासी एवं अपना एक अलग दृष्टिकोण रखने वाला होता है। नए अफसर के लिए सहज काम का बखूबी कर लेना अपर्याप्त होता है। वर्तमान समय में भ्रष्टाचार एक निवेश की तरह समझा जाने लगा है, जिससे अनन्तर यथोचित लाभ की प्रत्याशा रहती है और वर्तमान व्यवस्था ऐसी है कि जो लोग इन वर्जित मागों पर चलना चाहते हैं, उनके लिए कठिनाइयाँ अपेक्षाकृत कम हो जाती है क्योंकि प्रष्टाचार के माहौल में भ्रष्ट आचरण से किसी को खतरा नहीं महसूस होता।
जब एक नवनियुक्त करशाह अपने इर्द-गिर्द देखता है, जो पहली नजर में उसे अपने वरिष्ठ अधिकारियों में वैसा कोई नौकरशाह नहीं दिखता जैसे आदर्श अफसर की कल्पना वह अपने प्रशिक्षण के दौरान करता है। तब वह थोड़ा सा भ्रम में आ जाता है और यही वैचारिक भ्रम धीरे-धीरे उसे एक भावनात्मक रिक्तता की ओर ले जाता है। उसके अपने अनुभव उसकी इस धारणा की पुष्टि करते जाते हैं। जैसे किसी फौरी फैसले का उच्च अधिकारी द्वारा अनुमोदन करने से इंकार कर देना, राजनीतिक दबाव में निर्णय बदल देने की अपेक्षा, सही मशवरे पर साथ न देना आदि धीरे-धीरे नये नौकरशाही को यह समझा देते हैं कि ऐन वक्त पर उसे अपने वरिष्ठ अधिकारी से कोई मदद नहीं मिलेगी। तय वह अपने दफ्तर के माहौल को एक अन्य ही नजरिए से देखने लगता है। ऐसे में यदि नौकरशाह की नैतिक निष्ठा पर्याप्त अडिग नहीं है, तो वह सहज ही इन नैतिक विचार बिन्दुओं की अनदेखी करना सीख जाता है।
ब्रिटिश शासन के औपनिवेशिक साम्राज्य से विरासत में प्राप्त नौकरशाही व सरकारी का संस्थाएं लंबे समय से अधिकार मूलक रही हैं न कि दायित्वमूलक। इनकी पहचान जटिल कानूनों, प्रक्रियाओं, औपचारिकताओं से होती आपी है। परंपरागत भारतीय नौकरशाही व सरकारी तंत्र द्वारा अधिक विशेषाधिकारों (Pherogatives) सुविधाओं स्वायत्तता और अहस्तक्षेप के साये में कार्य करने की दोषी रही है लेकिन जैसे-जैसे जनता की सहमागिता प्रशासन में बड़ी, सरकार के कामकाजों की पारदर्शिता, उनकी जवाबदेहिता सुनिश्चित, करने की बातें उठी, सुशासन की माँगे उठी, प्रशासन को अधिक जन केन्द्रित बनाये जाने की माँगे उठी, वैसे ही सरकारी संस्थाओं में जनता के हित एवं कल्याण की दृष्टि से नैतिक चिंताएँ व दुविधाएँ उठनी प्रारंभ हुई। इनमें से कुछ प्रमुख निम्नवत् है
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