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Environment and Ecology (पर्यावरण और पारिस्थितिकी): November 2023 UPSC Current Affairs | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

वर्ष 2040 तक प्लास्टिक प्रदूषण को खत्म करना

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) ने अंतर-सरकारी वार्ता समिति (INC3) से पहले प्लास्टिक प्रदूषण पर अंतरिम रिपोर्ट जारी की है, जिसका शीर्षक है- वर्ष 2040 तक प्लास्टिक प्रदूषण को खत्म करने की ओर: एक नीति परिदृश्य विश्लेषण।

  • प्लास्टिक प्रदूषण पर अंतर्राष्ट्रीय बाध्यकारी समझौते के लिये INC3 को नवंबर 2023 में नैरोबी, केन्या में आयोजित किया जाएगा। इससे पहले INC2 को जून 2023 में पेरिस, फ्राँस में आयोजित किया गया था।

रिपोर्ट के मुख्य बिंदु क्या हैं?

  • वर्तमान स्थिति:
    • वर्ष 2022 में वैश्विक स्तर पर 21 मिलियन टन (MT) प्लास्टिक का पर्यावरण में रिसाव हो गया।
    • सामान्य व्यवसाय परिदृश्य, जहाँ कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया जाता है, में प्लास्टिक का उपयोग बढ़ जाएगा, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 2040 तक मैक्रोप्लास्टिक रिसाव में 50% की वृद्धि होगी।
    • इसका अर्थ होगा कि लगभग 30 मीट्रिक टन प्लास्टिक का पर्यावरण में रिसाव हो जाएगा, जिसमें से 9 मीट्रिक टन जलीय वातावरण में प्रवेश कर जाएगा।
  • अनुमानित परिदृश्य :
    • प्राथमिक प्लास्टिक का उपयोग वर्ष 2020 के स्तर पर वर्ष 2040 तक स्थिर करने के परिणामस्वरूप वर्ष 2040 तक महत्त्वपूर्ण प्लास्टिक रिसाव (12 मीट्रिक टन) होगा।
    • हालाँकि महत्त्वाकांक्षी वैश्विक कार्रवाई परिदृश्य अपशिष्ट उत्पादन को काफी हद तक कम कर सकता है, कुप्रबंधित कचरे को लगभग समाप्त कर सकता है और वर्ष 2040 तक प्लास्टिक रिसाव को लगभग समाप्त कर सकता है।
  • बढ़ते प्लास्टिक उपयोग का प्रभाव: 
    • प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग और निपटान से पर्यावरण (आवास विनाश, मिट्टी प्रदूषण), जलवायु (ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में योगदान) तथा मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, जिससे प्लास्टिक प्रदूषण के पहले की अपेक्षा और गंभीर परिणाम होंगे।
    • प्लास्टिक विभिन्न प्रकार के जीवन चक्र प्रभाव उत्पन्न करता है, जिसमें कुल वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 3.8% का योगदान (2022 में 1.9 GtCO2 e) शामिल है।
  • कार्रवाई की लागत:
    • शीघ्र, कठोर और समन्वित नीतिगत कार्रवाई के साथ वैश्विक महत्त्वाकांक्षा वर्ष 2040 में प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पादन को बेसलाइन से एक-चौथाई तक कम कर सकती है।
    • यह वर्ष 2040 तक (119 से 4 मीट्रिक टन तक) कुप्रबंधित अपशिष्ट को वस्तुतः समाप्त कर सकती है, परिणामस्वरूप, प्लास्टिक रिसाव भी लगभग समाप्त (वर्ष 2040 में 1.2 मीट्रिक टन) हो जाएगा।
    • हालाँकि नदियों और महासागरों में प्लास्टिक का स्टॉक वर्ष 2020 के 152 मीट्रिक टन से बढ़कर वर्ष 2040 में 226 मीट्रिक टन (बेसलाइन से 74 मीट्रिक टन कम) होने का अनुमान है।
    • वर्ष 2040 तक प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिये महत्त्वाकांक्षी वैश्विक कार्रवाइयों पर वर्ष 2040 में वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 0.5% खर्च आएगा।
    • हालाँकि इन लागतों में निष्क्रियता की टाली गई लागत शामिल नहीं है और इसे व्यापक रूप से बेहतर पर्यावरणीय परिणामों के संदर्भ में देखा जाना चाहिये।
  • वित्तीय आवश्यकताएँ:
    • कम उन्नत अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों वाले तेज़ी से बढ़ते देशों में अपशिष्ट संग्रहण, छंँटाई और उपचार के लिये महत्त्वपूर्ण निवेश (2020 और 2040 के बीच 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक) की आवश्यकता होगी।
    • लागतों के असमान वितरण के कारण अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
  • सिफारिशें:
    • इसके पूरे जीवनचक्र में प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिये एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता पर बल देते हुए विभिन्न नीतिगत परिदृश्यों की आवश्यकता है।
    • वर्ष 2040 तक प्लास्टिक रिसाव को खत्म करने के लिये तकनीकी और आर्थिक बाधाओं पर काबू पाना आवश्यक है।
    • पुनर्चक्रण की सफलताएँ और स्क्रैप तथा द्वितीयक प्लास्टिक के लिये अच्छी तरह से काम करने वाले अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों को बढ़ाना महत्त्वपूर्ण रणनीतियाँ हैं।

रेत और धूल भरी आँधी

चर्चा में क्यों? 

मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UNCCD) की हालिया बैठक में रेत और धूल भरी आँधियों के दूरगामी परिणामों पर प्रकाश डाला गया तथा उनके प्रभावों को कम करने के लिये महत्त्वपूर्ण नीतिगत सिफारिशें प्रस्तावित की गईं।

रेत और धूल भरी आँधी क्या है?

  • परिचय: 
    • रेत और धूल भरी आँधियाँ मौसम संबंधी घटनाएँ हैं जो तब घटित होती हैं जब तेज हवाएँ ज़मीन से बड़ी मात्रा में रेत और धूल के कण उठाती हैं तथा उन्हें लंबी दूरी तक ले जाती हैं।
    • वे मुख्य रूप से शुष्क और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं लेकिन अपने स्रोत से दूर के क्षेत्रों को भी प्रभावित कर सकते हैं।
    • प्रतिवर्ष दो अरब टन से अधिक धूल वायुमंडल में प्रवेश करती है जो गहरे प्रभाव वाली एक वैश्विक घटना का निर्माण करती है।
  • रेत और धूल भरी आँधी के स्रोत:
    • UNCCD के अनुसार, रेत और धूल भरी आँधियाँ प्राकृतिक और मानवीय दोनों कारकों के कारण होती हैं।
    • वैश्विक धूल उत्सर्जन का लगभग 75% दुनिया के शुष्क क्षेत्रों में प्राकृतिक स्रोतों से उत्पन्न होता है, जैसे अति-शुष्क क्षेत्र, स्थलाकृतिक अवसाद और शुष्क प्राचीन झील तल।
    • शेष 25% का श्रेय मानवीय गतिविधियों, मुख्यतः कृषि को दिया जाता है।
  • रेत और धूल भरी आँधियों के कुछ मानवजनित कारण हैं:
    • अस्थिर कृषि पद्धतियाँ: कृषि एक प्राथमिक मानवजनित स्रोत है, जिसमें जुताई, भूमि साफ करना और परित्यक्त फसल भूमि जैसी गतिविधियाँ धूल उत्सर्जन में योगदान करती हैं।
    • भूमि उपयोग परिवर्तन: वनों की कटाई और शहरीकरण सहित भूमि उपयोग के तरीको में परिवर्तन, सतहों की अस्थिरता में योगदान करते हैं, धूल उत्सर्जन को बढ़ाते हैं।
    • जल प्रवाह की दिशा को मोड़ना: कृषि उद्देश्यों के लिये नदियों से जल के अत्यधिक बहाव के कारण जल निकायों का संकुचन हो सकता है, जिससे रेत और धूल भरी आँधियों के नए स्रोत बन सकते हैं।
    • उदाहरण के लिये कई दशकों में मध्य एशिया की अधिकांश नदियों के जल को कृषि की ओर मोड़ने से अरल सागर सिकुड़ गया है, जो उत्तर में कज़ाखस्तान और दक्षिण में उज़्बेकिस्तान के बीच पहले से मौजूद एक झील है।
    •  यह अब अरलकुम रेगिस्तान बन गया है, जो रेत और धूल भरी आँधियों का एक महत्त्वपूर्ण नया स्रोत है।
  • जलवायु-संबंधित एम्पलीफायर:
    • शुष्कता और न्यूनतम वर्षा: उच्च वायु तापमान, न्यूनतम वर्षा और शुष्क परिस्थितियाँ इसके चालक के रूप में कार्य करती हैं, जो इन तूफानों की संभावना और तीव्रता को बढ़ाती हैं।
    • चरम मौसम की घटनाएँ: जलवायु परिवर्तन के कारण तेज़ पवन और लंबे समय तक सूखा, रेत एवं धूल भरी आँधियों की गंभीरता व आवृत्ति को बढ़ा देते हैं।

प्रभाव 

  • पर्यावरणीय प्रभाव:
    • मृदा का क्षरण: रेत और धूल भरी आँधियाँ उपजाऊ ऊपरी मृदा को अलग कर देती हैं, जिससे मिट्टी की गुणवत्ता और उर्वरता प्रभावित होती है।
    • इस क्षरण से भूमि की वनस्पति को सहारा देने की क्षमता कम हो जाती है, जिससे कृषि प्रभावित होती है और मरुस्थलीकरण होता है।
    • उपजाऊ मृदा के नष्ट होने से जल प्रतिधारण और पोषक तत्त्वों की उपलब्धता भी प्रभावित होती है।
    • पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान: ये तूफान वनस्पति को नष्ट करके प्राकृतिक आवासों को बाधित और वन्य जीवन को प्रभावित करके पारिस्थितिकी तंत्र को बदल सकते हैं।
    • तूफानों द्वारा लाई गई आक्रामक प्रजातियाँ देशी प्रजातियों से प्रतिस्पर्द्धा कर सकती हैं, जिससे जैवविविधता की हानि और पारिस्थितिक असंतुलन हो सकता है।
  • सामाजिक आर्थिक प्रभाव:
    • स्वास्थ्य पर प्रभाव: स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव व्यापक होते हैं, जो श्वसन स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, एलर्जी उत्पन्न करते हैं और अस्थमा जैसी मौजूदा स्थितियों को बढ़ा देते हैं।
    • हाल की घटनाएँ, जैसे कि वर्ष 2021 में मंगोलिया में दो दिवसीय तूफान, मानव जीवन पर विनाशकारी प्रभाव को दर्शाता है, इससे हज़ारों लोग विस्थापित हुए और पशुधन की भारी हानि हुई।
    • आर्थिक हानि: रेत और धूल भरी आँधियाँ बुनियादी ढाँचे को नुकसान, कृषि उत्पादकता में कमी तथा परिवहन को बाधित कर एवं स्वास्थ्य देखभाल लागत में वृद्धि करके आर्थिक नुकसान पहुँचाती हैं।
    • ये घटनाएँ स्थानीय और क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित करते हुए पर्यटन एवं व्यापार को भी प्रभावित कर सकती हैं।
    • सामाजिक विघटन: इन आँधियों के कारण दैनिक जीवन बाधित होने से सामाजिक अशांति, प्रवासन और विस्थापन हो सकता है।
  • वैश्विक निहितार्थ:
    • सीमा पार प्रभाव: रेत और धूल भरी आँधियाँ कई देशों को नुकसान पहुँचा सकती हैं क्योंकि वे भू-राजनीतिक सीमाओं तक सीमित नहीं हैं।
    • जलवायु प्रतिक्रिया: इन आँधियों के कारण विश्व स्तर पर धूल के कणों का परिवहन जलवायु प्रतिक्रिया चक्रों और मौसम के पैटर्न को प्रभावित कर सकता है तथा संभावित रूप से जलवायु परिवर्तन में योगदान दे सकता है।

रेत और धूल भरी आँधियों के प्रभाव को कम करने के प्रभावी तरीके क्या हैं?

  • निवारक उपाय:
    • मृदा की नमी प्रबंधन: मृदा की नमी बनाए रखने और मरुस्थलीकरण को रोकने के लिये प्रभावी जल संरक्षण तरीकों को लागू करना।
    • नियामक ढाँचा: मृदा के क्षरण और धूल उत्सर्जन को बढ़ावा देने वाली गतिविधियों, जैसे- अतिचारण या अनुचित भूमि विकास को रोकने के लिये सख्त भूमि-उपयोग नियमों को लागू करना।
    • पर्यावरण-अनुकूल प्रथाएँ: मृदा की संरचना को संरक्षित करने और पवन के कटाव को कम करने हेतु कृषि वानिकी तथा समोच्च जुताई जैसी टिकाऊ कृषि तकनीकों को बढ़ावा देना।
  • तैयारी हेतु उपाय:
    • प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली: रेत और धूल भरी आँधियों का पूर्वानुमान लगाने के लिये प्रभावी प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली का विकास और कार्यान्वयन। यह समुदायों को तैयारी करने और आवश्यक सावधानी बरतने की अनुमति देता है।
    • शिक्षा और जागरूकता: समुदायों को रेत और धूल भरी आँधियों के जोखिमों, प्रभावों तथा सुरक्षात्मक उपायों के विषय में शिक्षित करने से भेद्यता को कम करने में सहायता मिल सकती है।
    • आपातकालीन प्रतिक्रिया योजनाएँ: प्रभावित समुदायों को आश्रय, चिकित्सा देखभाल व सहायता प्रदान करने सहित रेत और धूल भरी आँधी के दौरान तथा उसके बाद प्रभावी ढंग से प्रतिक्रिया करने हेतु योजनाएँ स्थापित करना।
  • शमन रणनीतियाँ:
    • बुनियादी ढाँचे का विकास: धूल और रेत ले जाने वाली पवन की गति एवं प्रभाव को कम करने के लिये विंडब्रेक, बैरियर या ग्रीन बेल्ट जैसे बुनियादी ढाँचे का निर्माण करना।
    • तकनीकी समाधान: धूल को रोकने तथा मृदा स्थिरीकरण के लिये नवीन प्रौद्योगिकियों पर शोध एवं निवेश करने की आवश्यकता है।

अंटार्कटिक ओज़ोन छिद

चर्चा में क्यों?

नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के अनुसार, विगत चार वर्षों में अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र का आकार बड़े पैमाने पर बढ़ गया है।

अध्ययन के प्रमुख बिंदु क्या हैं?

  • ओज़ोन क्षरण:
    • अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र का निरंतर विस्तार हो रहा है तथा हाल के वर्षों में इसकी परत में विरलन हुआ है, जो वर्ष 2000 के दशक के बाद से देखी गई अपेक्षित पुनर्प्राप्ति प्रवृत्ति के विपरीत है।
    • छिद्र के केंद्र में ओज़ोन की सांद्रता गंभीर रूप से कम हो गई है, जो ओज़ोन परत के गंभीर रूप से पतले होने का संकेत देती है।
    • मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में उल्लिखित प्रयासों के बावजूद ओज़ोन छिद्र के मूल में ओज़ोन की सांद्रता वर्ष 2004 से वर्ष 2022 तक 26% कम हो गई है, जिसका उद्देश्य ओज़ोन परत का क्षरण करने वाले मानव-जनित रसायनों को कम करना था।
  • ध्रुवीय भँवर के प्रभाव: 
    • अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र ध्रुवीय भँवर के भीतर मौजूद है, समताप मंडल में एक गोलाकार हवा का पैटर्न जो शीत ऋतु के दौरान बनता है और वसंत ऋतु तक बना रहता है।
    • इस भंवर के भीतर मेसोस्फीयर (समतापमंडल के ऊपर वायुमंडलीय परत) से अंटार्कटिक हवा बहाव समतापमंडल में होता है। हवा अतिक्रमणकारी प्राकृतिक रासायनिक पदार्थ (उदाहरण के लिये नाइट्रोजन डाइऑक्साइड) लाती है जो अक्तूबर में ओज़ोन प्रक्रिया को प्रभावित करती है।
  • ओज़ोन रिक्तीकरण को प्रभावित करने वाले कारक:
    • तापमान, हवा के पैटर्न, वनाग्नि और ज्वालामुखी विस्फोटों से निकलने वाले एरोसोल तथा सौर चक्र में परिवर्तन जैसी मौसम संबंधी स्थितियों की भूमिका ने अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र के आकार एवं व्यवहार को प्रभावित किया।
  • सिफारिश:
    • समतापमंडल से हवा के अवतरण और ओज़ोन प्रक्रिया पर इसके विशिष्ट प्रभावों को समझने के लिये और अधिक शोध की आवश्यकता है।
    • इन तंत्रों की जाँच से अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र के भविष्य के व्यवहार पर प्रकाश पड़ने की संभावना है।

ओज़ोन छिद्र क्या है?

  • परिचय:
    • ओज़ोन छिद्र ओज़ोन परत की अत्यधिक कमी को संदर्भित करता है- पृथ्वी के समताप मंडल में एक क्षेत्र जिसमें ओज़ोन अणुओं की उच्च सांद्रता होती है।
    • इस परत में ओज़ोन अणु (O3) पृथ्वी को सूर्य से हानिकारक पराबैंगनी (UV) विकिरण से बचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • ओज़ोन परत की कमी के कारण ओज़ोन सांद्रता में अत्यधिक कमी वाले क्षेत्र का निर्माण होता है, जो प्राय:अंटार्कटिक के ऊपर देखा जाता है।
    • यह घटना मुख्यतः दक्षिणी गोलार्द्ध के वसंत महीनों (अगस्त से अक्तूबर) के दौरान होती है, हालाँकि यह वैश्विक कारकों से भी प्रभावित हो सकती है।
  • ओज़ोन छिद्र के कारण:
    • यह कमी मानव-जनित रसायनों के कारण होती है जिन्हें ओज़ोन-घटने वाले पदार्थ (ODS) के रूप में जाना जाता है, जिसमें क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs), हैलोन, कार्बन टेट्राक्लोराइड और मिथाइल क्लोरोफॉर्म शामिल हैं।
    • ये पदार्थ एक बार वायुमंडल में छोड़े जाने के बाद समताप मंडल में बढ़ जाते हैं, जहाँ वे सूर्य की पराबैंगनी विकिरण के कारण टूट जाते हैं, जिससे क्लोरीन तथा ब्रोमीन परमाणु निकलते हैं जो ओज़ोन अणुओं को नष्ट कर देते हैं।
    • अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र इस घटना का सबसे प्रसिद्ध और गंभीर उदाहरण है। इसकी विशेषता ओज़ोन स्तर में अत्यधिक कमी है, जिससे हानिकारक UV विकिरण की बढ़ी हुई मात्रा पृथ्वी की सतह तक पहुँचती है।
  • प्रभाव:
    • बढ़ी हुई UV विकिरण की मात्रा मनुष्यों के लिये स्वास्थ्य जोखिम पैदा करती है, जिसमें त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद और कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली की उच्च दर शामिल है।
    • UV विकिरण विभिन्न जीवों और पारिस्थितिक तंत्रों को नुकसान पहुँचा सकता है। ओज़ोन रिक्तीकरण अप्रत्यक्ष रूप से जलवायु परिवर्तन को प्रभावित कर सकता है। ओज़ोन रिक्तीकरण के कारण समतापमंडल में परिवर्तन, वायुमंडलीय परिसंचरण पैटर्न को प्रभावित कर सकता है, जो संभावित रूप से कुछ क्षेत्रों में मौसम और जलवायु को प्रभावित कर सकता है।

नीति आयोग ने CCUS नीति ढाँचा किया जारी

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अनुसंधान एवं शिक्षा जगत के विशेषज्ञों ने कार्बन कैप्चर, उपयोग और भंडारण (CCUS) में सरकार तथा उद्योग दोनों से निवेश की आवश्यकता और CCUS के माध्यम से भारत के शुद्ध शून्य लक्ष्यों की दिशा में सहयोगात्मक रूप से काम करने के लिये क्षेत्र के अग्रणी विशेषज्ञों के महत्त्व पर प्रकाश डाला।

कार्बन कैप्चर, यूटिलाइज़ेशन और स्टोरेज (CCUS) क्या है?

  • CCUS के बारे में : सीसीयूएस, प्रौद्योगिकियों और प्रक्रियाओं का एक समूह है जिसका उद्देश्य बिजली संयंत्रों, औद्योगिक सुविधाओं तथा रिफाइनरियों जैसे बड़े पैमाने के बिंदु स्रोतों से उत्पन्न कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन को कम करना है।
  • उद्देश्य: CCUS का प्राथमिक उद्देश्य CO2 को वायुमंडल में फैलने से रोकना है तथा इसे उद्योगों से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी लाने के लिये एक महत्त्वपूर्ण रणनीति माना जाता है।
  • प्रक्रिया: इस प्रक्रिया में तीन मुख्य चरण शामिल हैं:
  • कैप्चर: इस चरण में इस स्रोत से वायु में छोड़े जाने से पहले CO2 उत्सर्जन का अवशोषण करना शामिल है
  • विभिन्न कैप्चर प्रौद्योगिकियाँ हैं, जिनमें दहन के बाद का कैप्चर, दहन-पूर्व कैप्चर और ऑक्सी-ईंधन दहन शामिल हैं।
  • परिवहन: इस चरण में संपीड़ित CO2 को पोत (ship) या पाइपलाइन द्वारा कैप्चर बिंदु से भंडारण बिंदु तक ले जाना शामिल है।
  • भंडारण: परिवहित CO2 भूमिगत भूवैज्ञानिक संरचनाओं में संग्रहीत होता है जिसमें समाप्त हो चुके तेल और गैस क्षेत्र या गहरे खारे जलभृत शामिल होते हैं।
  • उपयोग: एक बार संग्रहीत कर लेने के बाद CO2 को मुक्त होने के बदले विभिन्न तरीकों से उपयोग किया जा सकता है। इसमें रसायन या ईंधन निर्माण जैसी औद्योगिक प्रक्रियाओं में CO2 का उपयोग शामिल हो सकता है। 

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CCUS का महत्त्व क्या है?

  • डीकार्बोनाइज़ेशन में रणनीतिक भूमिका:
    • 'भारत में कार्बन कैप्चर, उपयोग और भंडारण के लिये नीति फ्रेमवर्क और परिनियोजन तंत्र' शीर्षक वाली अपनी रिपोर्ट में, नीति आयोग विशेष रूप से हार्ड-टू-एबेट/Hard-to-abate  (कठिनता-से-मुक्ति) वाले क्षेत्रों में उत्सर्जन को कम करने की रणनीति के रूप में CCUS के महत्त्व पर बल देता है। 
    • हार्ड-टू-एबेट उद्योगों में स्टील, सीमेंट और पेट्रोकेमिकल जैसी श्रेणियाँ शामिल हैं।
    • IPCC इस बात पर बल देती है कि वैश्विक स्तर पर शुद्ध शून्य उत्सर्जन हासिल करने के लिये CCUS प्रौद्योगिकियों की तैनाती महत्त्वपूर्ण है।
  • ऊर्जा सुरक्षा:
    • ऊर्जा मिश्रण में CCUS का समावेश ऊर्जा ग्रिड को समुत्थानशीलता प्रदान करता है।
    • CCUS न्यून कार्बन वाली विद्युत और हाइड्रोजन उत्पादन की सुविधा प्रदान करता है। CCUS के माध्यम से उत्पादित हाइड्रोजन, जीवाश्म ईंधन के प्रत्यक्ष विकल्प के रूप में कार्य करता है।
    • यह विविधता दुनिया भर में सरकारों की बढ़ती प्राथमिकताओं के अनुरूप ऊर्जा सुरक्षा बढ़ाती है।
  • CCUS के औद्योगिक अनुप्रयोग:
    • कंक्रीट और सीमेंट औद्योगिक क्षेत्र: कंक्रीट और सीमेंट उद्योग में CCUS तकनीक चूना पत्थर और मिट्टी के दहन के दौरान उत्सर्जित CO2 को कैप्चर/संग्रहीत करती है। इस CO2 को फिर कंक्रीट मिश्रण में इंजेक्ट किया जाता है, जिससे इसकी शक्ति और स्थायित्व बढ़ सकता है, इस प्रक्रिया को कार्बोनेशन के रूप में जाना जाता है।
    • आधारभूत रसायन और ईंधन औद्योगिक क्षेत्र: CCUS सिंथेटिक गैस उत्पादन के लिये CO2 के स्रोत के रूप में कार्य करता है, जो संधारणीय विमानन ईंधन पहल के साथ संरेखित जैव-जेट ईंधन के उत्पादन के लिये आवश्यक है।
    • फाइन केमिकल्स सेक्टर: फाइन केमिकल उद्योग कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) को कैप्चर करके इसे बायोमास के साथ मिश्रित कर उच्च-कार्यात्मक प्लास्टिक जैसे ऑक्सीजन युक्त यौगिकों में परिवर्तित कर CCUS का उपयोग करता है।
  • लागत प्रभावी समाधान:
    • CCUS उद्योगों को विद्युत संयंत्रों तथा विनिर्माण सुविधाओं जैसे मौजूदा बुनियादी ढाँचे का उपयोग जारी रखने की अनुमति देता है, जिससे नवीन, निम्न कार्बन विकल्पों में पूंजी निवेश की आवश्यकता कम हो जाती है।

CCUS से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?

  • उच्च प्रारंभिक लागत:
    • बड़े पैमाने पर CCUS को लागू करने के लिये मूलभूत बुनियादी ढाँचे के विकास की आवश्यकता होती है, जिसमें कैप्चर किये गए CO2 तथा उपयुक्त भंडारण स्थलों के परिवहन के लिये पाइपलाइन शामिल हैं। इससे लॉजिस्टिक संबंधी चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं एवं पर्याप्त निवेश की आवश्यकता होती है।
  • तकनीकी संपूर्णता:
    • CCUS प्रौद्योगिकियाँ विकास के प्रारंभिक चरण में हैं तथा अभी तक व्यापक रूप से नियोजित नहीं की गई हैं। इसके अतिरिक्त जब CCUS प्रौद्योगिकियों को लागू करने एवं संचालित करने की बात आती है तो ज्ञान व अनुभव में अंतराल की समस्या देखी जाती है।
  • नवीकरणीय ऊर्जा के साथ प्रतिस्पर्द्धा:
    • प्रौद्योगिकियों हेतु नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों के उपयोग के स्थान पर CCUS प्रक्रियाओं का प्रयोग चर्चा का विषय रहा है। किंतु कुछ लोगों का तर्क है कि नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में निवेश डीकार्बोनाइज़ेशन के लिये अधिक प्रत्यक्ष एवं सतत् मार्ग प्रदान कर सकता है।
  • नियामक ढाँचे का अभाव:
    • स्पष्ट एवं सहायक नियामक ढाँचे की अनुपस्थिति CCUS के नियोजन में बाधा डाल सकती है। दायित्व, दीर्घकालिक ज़िम्मेदारियों व पर्यावरण मानकों के संबंध में नियमों में अस्पष्टता निवेश में बाधा बन सकती है।
    • CCUS परियोजनाओं की आर्थिक व्यवहार्यता कार्बन की कीमत, सरकारी प्रोत्साहन तथा धन की उपलब्धता सहित विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है।

आगे की राह

  • नीति और नियामक समर्थन: सरकारों को CCUS परियोजनाओं के लिये स्पष्ट एवं सहायक नियामक ढाँचा स्थापित करना चाहिये। इसमें दायित्व, दीर्घकालिक ज़िम्मेदारियों, पर्यावरण मानकों व अनुमति प्रक्रियाओं से संबंधित मुद्दों को संबोधित करना शामिल है।
  • वित्तीय प्रोत्साहन: वित्तीय प्रोत्साहन, सब्सिडी और टैक्स क्रेडिट प्रदान करने से CCUS परियोजनाओं में निजी क्षेत्र के निवेश को प्रोत्साहित किया जा सकता है। कार्बन मूल्य निर्धारण तंत्र, जैसे कार्बन टैक्स या कैप-एंड-ट्रेड सिस्टम को लागू करना, CCUS को आर्थिक रूप से अधिक व्यवहार्य बना सकता है।
  • बुनियादी ढाँचा का विकास: सरकारों और उद्योगों को CCUS के लिये आवश्यक बुनियादी ढाँचे में निवेश करना चाहिये, जिसमें CO2 परिवहन के लिये पाइपलाइन तथा उपयुक्त भंडारण स्थल शामिल हैं।
  • क्षमता निर्माण: शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रमों में निवेश करने से CCUS प्रौद्योगिकी में ज्ञान एवं कौशल की कमी को दूर किया जा सकता है। CCUS परियोजनाओं की सफल तैनाती और संचालन के लिये एक कुशल कार्यबल विकसित करना आवश्यक है।

पश्चिम अंटार्कटिका की हिम परत का पिघलना

चर्चा में क्यों? 

एक हालिया अध्ययन में समुद्री जल का तापमान बढ़ने के परिणामस्वरुप पश्चिम अंटार्कटिक की हिम परत के अपरिहार्य रूप से पिघलने के संदर्भ में चिंताजनक पूर्वानुमान सामने आए हैं। 

  • हिम परत के पिघलने से गंभीर परिणाम हो सकते हैं, जिसमें वैश्विक औसत समुद्र जल स्तर 5.3 मीटर तक बढ़ने की संभावना भी शामिल है, जो भारत सहित विश्व भर के सुभेद्य तटीय शहरों में रहने वाले लाखों लोगों पर नकारात्मक प्रभाव डालेगा।

हिम परत का अभिप्राय एवं समुद्र के जलस्तर पर उनका प्रभाव

  • परिचय: 
    • हिम परत मूलतः हिमानी बर्फ की एक मोटी परत है जो 50,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक भूमि को कवर करती है।
    • हिम परत, जैसे कि पश्चिम अंटार्कटिक हिम परत, विशाल भू क्षेत्रों को समाहित करती है, इसमें पर्याप्त मात्रा में मीठा जल होता है।
    • पृथ्वी पर मीठे जल का लगभग दो तिहाई भाग विश्व की दो सबसे बड़ी हिम परतों, ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका में समाहित है।
    • जब हिम परतों का द्रव्यमान बढ़ता या घटता है, तो वे क्रमशः वैश्विक औसत समुद्री स्तर में गिरावट या वृद्धि में योगदान करते हैं।

Environment and Ecology (पर्यावरण और पारिस्थितिकी): November 2023 UPSC Current Affairs | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi

  • पश्चिम अंटार्कटिक हिम परत को पिघलाने वाली प्रक्रियाएँ:
    • हिम परतें अपने ठीक पीछे भूमि-आधारित ग्लेशियरों को स्थिर करती हैं। हिम परतों का पिघलना विभिन्न तरीकों से होता है। समुद्री जल के गर्म होने के कारण हिम परतों का पिघलना एक प्रमुख प्रक्रिया है।
    • जैसे ही ये हिम परतें पतली या विघटित होती हैं, उनके पीछे के ग्लेशियर तेज़ी से आगे बढ़ते हैं, जिससे समुद्र में बर्फीले जल का स्त्राव होता है और परिणामस्वरूप समुद्र का स्तर बढ़ जाता है।
  • वर्तमान प्रवृत्ति और परिणाम:
    • हाल के परिणाम अमुंडसेन सागर के व्यापक, बड़े पैमाने पर गर्म होने और मूल्यांकन किये गए सभी परिदृश्यों में बर्फ के पिघलने में तेज़ी लाने से संबंधित हैं।
    • इस प्रत्याशित बर्फ के पिघलन के कारण समुद्र के स्तर में वृद्धि का अनिवार्य रूप से विश्वभर के तटीय समुदायों पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा।
  • भारत और संवेदनशील तटीय क्षेत्रों के लिये निहितार्थ:
    • भारत विस्तृत तटरेखा और घनी आबादी के साथ समुद्र जल के स्तर में वृद्धि के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील है।
    • बढ़ते समुद्री जलस्तर के कारण तटीय समुदायों को विस्थापन का सामना करना पड़ सकता है या जलवायु शरणार्थी बन सकते हैं, जो सुरक्षात्मक बुनियादी ढाँचे के निर्माण जैसी अनुकूली रणनीतियों की आवश्यकता को उजागर करता है।

Environment and Ecology (पर्यावरण और पारिस्थितिकी): November 2023 UPSC Current Affairs | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi

आगे की राह

  • पर्यावरण सुरक्षा और संरक्षण: महाद्वीप के अद्वितीय पर्यावरण और पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण के लिये अंटार्कटिक संधि तथा संबंधित समझौतों का कड़ाई से पालन करना।
  • इसमें मानवीय गतिविधियों को विनियमित करना, अपशिष्ट प्रबंधन और पर्यावरणीय पदचिह्न को कम करना शामिल है।
  • नवीन सामग्री और बुनियादी ढाँचा: न्यूनतम पर्यावरणीय प्रभाव सुनिश्चित करते हुए कठोर ध्रुवीय परिस्थितियों में कार्य करने वाले अनुसंधान स्टेशनों और जहाज़ों के लिये अधिक कुशल सामग्री एवं बुनियादी ढाँचा विकसित करना।
  • जियोइंजीनियरिंग तकनीक: शोधकर्ता हिम के पिघलने को संभावित रूप से धीमा करने के लिये सौर विकिरण प्रबंधन की खोज कर रहे हैं। मध्यम उत्सर्जन के परिदृश्य मे सौर विकिरण प्रबंधन हिम परत के क्षरण के विरुद्ध एक शक्तिशाली हथियार हो सकता है।
  • उपयोग किये जाने से पूर्व इन प्रायोगिक तकनीकों की प्रभावकारिता एवं पर्यावरणीय प्रभावों की और अधिक जाँच की जानी चाहिये।

प्रोजेक्ट चीता का एक वर्ष 

चर्चा में क्यों?

प्रोजेक्ट चीता, भारतीय वनों में अफ्रीकी चीतों की पुनःवापसी का भारत का एक महत्त्वाकांक्षी प्रयास है जो कि सितंबर 2022 में आरंभ किया गया था, एक वर्ष पूर्ण कर चुका है। 

  • परियोजना के अंतर्गत चार मामलों में अल्पकालिक सफलता हासिल करने का दावा किया है: जिसमें  "दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया से लाए गए चीतों में से 50% जीवित रहना, होम रेंजों की स्थापना, कुनो में शावकों का जन्म" एवं स्थानीय समुदायों के लिये राजस्व सृजन।

प्रोजेक्ट चीता के प्रथम वर्ष के व्यापक परिणाम

  • वनों में इनका अस्तित्व: 
    • चीता पुनः वापसी परियोजना के अनुसार, चीते, जो जंगल में कुल 142 महीनों के लिये लाये गए थे, ने संयुक्त रूप से 27 महीने से भी कम समय बिताया।
    • धात्री, साशा, सूरज, उदय, दक्ष और तेजस उन छह चीतों में से थे, जो कार्यात्मक वयस्क आबादी में परियोजना की 40% की गिरावट के परिणामस्वरूप मारे गए थे।
    • इसके अतिरिक्त, भारत में चार शावकों का जन्म हुआ जिनमें से तीन की मृत्यु हो गई और चौथे को कैद करके पाला जा रहा है।
  • होम रेंज की स्थापना:
    • इसका लक्ष्य चीतों के लिये कूनो में घरेलू क्षेत्र स्थापित करना था।
    • नामीबिया से आयातित केवल तीन चीते- आशा, गौरव और शौर्य - जंगल में तीन महीने से अधिक समय तक जीवित रहने में सक्षम थे। लेकिन जुलाई 2023 के बाद वे बोमा या बाड़ों तक ही सीमित रहे।
    • जिस कारण कूनो नेशनल पार्क में "होम रेंज" की सफल स्थापना के बारे में संदेह है।
  • प्रजनन सफलता:
    • कार्य योजना का उद्देश्य जंगल में चीतों का सफल प्रजनन कराना है।
    • नामीबियाई मादा सियाया उर्फ ज्वाला ने कूनो में चार शावकों को जन्म दिया। हालाँकि उसे बंदी बनाकर पाला गया तथा जंगल के लिये अयोग्य माना गया। उसके शावक एक  बोमा (इसमें वी आकार की बाड़ के माध्यम से जानवरों का पीछा करके उन्हें एक बाड़े में कैद किया जाता है) में ही जन्मे थे।
    • प्रजनन लक्ष्य को चुनौतियों तथा समझौतों का सामना करना पड़ता है, जिससे परियोजना की दीर्घकालिक सफलता पर प्रश्नचिह्न लगते हैं।
  • स्थानीय आजीविका में योगदान:
    • कुनो क्षेत्र में अनुबंधों, नौकरियों का निर्माण तथा भूमि मूल्यों में वृद्धि, ये सभी प्रोजेक्ट चीता के लाभकारी प्रभाव थे।
    • क्षेत्र में मानव-चीता संघर्ष की कोई सूचना नहीं है, जो कि यहाँ आए चीतों और स्थानीय समुदायों के बीच सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व समन्वय का संकेत देता है।

प्रोजेक्ट चीता को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?

  • सत्यनिष्ठा चुनौतियाँ:
    • तीन नामीबियाई चीते, साशा (परियोजना की पहली दुर्घटना से ग्रस्त), ज्वाला, और सवाना उर्फ नाभा को परियोजना की अखंडता से समझौता करते हुये "अनुसंधान विषयों" के रूप में बंदी बनाकर रखा गया था।
  • दृष्टिकोण में बदलाव:
    • चीतों को आयात करने के कुछ सप्ताह बाद भारत ने परियोजना की प्रतिज्ञाओं पर नैतिक सवाल उठाए जब उसने हाथीदाँत के व्यापार पर प्रतिबंध लगाने वाले वन्य जीवों और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (CITES) में वोट से दूर रहने का फैसला किया।
  • अग्रिम प्रतिमान में बदलाव:
    • आनुवंशिक रूप से चीतों की आत्मनिर्भर जनसंख्या का समर्थन करने में कुनो की असमर्थता के कारण वृहद-जनसंख्या दृष्टिकोण के लिये एक आदर्श बदलाव की आवश्यकता होती है।
    • वृहद -जनसंख्या दृष्टिकोण में खंडित आवासों में एक प्रजाति की अलग-अलग आबादी का प्रबंधन करना, दीर्घकालिक व्यवहार्यता और आनुवंशिक विविधता के लिये उनकी परस्पर निर्भरता को स्वीकार करना शामिल है।
    • तेंदुओं के विपरीत, चीते अपनी विरल जनसंख्या के कारण अकेले लंबी दूरी तय नहीं कर सकते हैं।
    • आनुवंशिक व्यवहार्यता के लिये आवधिक स्थानांतरण के दक्षिण अफ़्रीकी मॉडल को अनुकूलित करने का सुझाव दिया गया है, लेकिन प्राकृतिक वन्यजीव फैलाव के कारण वन कनेक्टिविटी पर प्रभाव के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
  • कुनो की वहन क्षमता:
    • चीता एक्शन प्लान में 50 से अधिक एकल जीवों की संख्या के साथ दीर्घकालिक अस्तित्व की उच्च संभावना का अनुमान लगाया गया है।
    • वर्ष 2010 में एक व्यवहार्यता रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि कुनो के 347 वर्ग किमी. क्षेत्रफल में अधिकतम 27 चीतों को रखा जा सकता है, जबकि 3,000 वर्ग किमी. के बड़े परिदृश्य में 70-100 चीतों को रखा जा सकता है।
    • वर्ष 2020 में संशोधित आकलन से संकेत मिलता है कि कुनो में चीतल(मृगों) का घनत्व 38 प्रति वर्ग किमी. है, जो 21 चीतों का निवास स्थल है और 50 चीतों की एकल संख्या की व्यवहार्यता के लिये चुनौतीपूर्ण है।
    • परियोजना का एकमात्र विकल्प अब मध्य और पश्चिमी भारत में वितरित हुई मेटा-जनसंख्या है, जो सहायता प्राप्त वितरण के दक्षिण अफ्रीकी मॉडल की तुलना में अधिक चुनौतियाँ पेश कर रही है।

लॉस एंड डैमेज फंड

चर्चा में क्यों?

बढ़ते जलवायु संकट के संदर्भ में ‘लॉस एंड डैमेज' (L&D) फंड तथा अनुकूलन हाल ही में चर्चा में रहा।

लॉस एंड डैमेज फंड क्या है?

  • परिचय:
    • ‘लॉस एंड डैमेज' (L&D) फंड एक वित्तीय सहायता तंत्र है जिसे जलवायु परिवर्तन के उन अपरिवर्तनीय परिणामों का समाधान करने के लिये डिज़ाइन किया गया है जिन्हें अनुकूलन प्रयासों के माध्यम से टाला अथवा कम नहीं किया जा सकता है।
    • अनुकूलन प्रयास जलवायु परिवर्तन के प्रति सक्रिय प्रतिक्रिया और जीवित रहने की कला है जिसका उपयोग कर समुदाय एवं देश जलवायु-संबंधी चुनौतियों से निपटने तथा तैयारी के लिये कारागार विकल्प चुनते हैं।
    • इस फंड का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण समुदायों, देशों और पारिस्थितिक तंत्रों को हुई हानि की पहचान करना है तथा उसकी क्षतिपूर्ति करना है।
    • ये हानियाँ मौद्रिक मूल्य से परे हैं तथा मूलतः मानव अधिकारों, कल्याण एवं पर्यावरणीय स्थिरता को प्रभावित करते हैं।
  • L&D फंड की उत्पत्ति एवं विकास:
    • ऐतिहासिक जवाबदेही तथा शुरुआत: 30 वर्षों से समृद्ध देशों से उनके ऐतिहासिक प्रदूषण के प्रति ज़िम्मेदारी को स्वीकार करने का लगातार आह्वान किया जाता रहा है, जिसने विश्व की औसत सतह के तापमान को 1 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ा दिया है। यह ऐतिहासिक प्रदूषण वर्तमान में विश्व भर में विशेषकर सबसे गरीब देशों को गंभीर रूप से क्षति पहुँचा रहा है।
    • COP-19 (2013): वर्ष 2013 में वारसॉ, पोलैंड में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय (United Nations Framework Convention on Climate Change- UNFCCC) के लिये पक्षकारों के 19वें सम्मेलन (COP-19) में औपचारिक समझौते के परिणामस्वरूप लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना हुई। यह कोष विशेष तौर पर उन आर्थिक रूप से विकासशील देशों को वित्तीय एवं तकनीकी सहायता प्रदान करने के लिये स्थापित किया गया था जो जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली हानि एवं क्षति से प्रभावित थे।
  • बाद के विकास और चुनौतियाँ: 
    • COP-25: COP-19 के बाद L&D के लिये सैंटियागो नेटवर्क COP-25 में स्थापित किया गया था। हालाँकि इस बिंदु पर देशों ने पहल का समर्थन करने हेतु कोई धनराशि नहीं दी।
    • COP-26: ग्लासगो में वर्ष 2021 में आयोजित COP-26 जलवायु शिखर सम्मेलन का उद्देश्य फंड के संचालन के संबंध में अगले तीन वर्षों में वार्ता को जारी रखना था।
    • COP-27 (नवंबर 2022): COP-27 में व्यापक चर्चा के बाद UNFCCC के सदस्य देशों के प्रतिनिधि L&D फंड स्थापित करने पर सहमत हुए। इसके अतिरिक्त यह पता लगाने के लिये एक ट्रांज़िशनल कमेटी (TC) की स्थापना की गई थी कि फंड के तहत नए फंडिंग तंत्र का संचालन किस प्रकार से होगा। TC को सिफारिशें तैयार करने का काम सौंपा गया था, जिन पर COP-28 के दौरान विचार किया जा सके तथा देशों द्वारा संभावित रूप से उन सिफारिशों को अपनाया जा सके।
  • TC-4 और TC-5 पर गतिरोध:
    • TC-4 की बैठक: TC-4 की चौथी बैठक में L&D फंड के संचालन पर कोई स्पष्ट सहमति नहीं बन पाई। विवाद के प्रमुख बिंदुओं में विश्व बैंक में फंड की मेज़बानी, साझा किंतु विभेदित उत्तरदायित्व (Common But Differentiated Responsibility- CBDR) का मूलभूत सिद्धांत, जलवायु क्षतिपूर्ति से संबंधित मुद्दे और फंड के लिये सभी विकासशील देशों की पात्रता शामिल है।
    • TC-5 की बैठक: TC5 की सिफारिशों का मसौदा तैयार कर लिया गया है और COP 28 को भेज दिया गया है।

लॉस एंड डैमेज फंड के संबंध में क्या चुनौतियाँ हैं?

  • विकसित देशों की अनिच्छा:
    • विकसित देश, विशेष रूप से अमेरिका जैसे देश फंड के प्राथमिक दाता होने के संबंध में अनिच्छुक रहे हैं। उनका समर्थन स्वैच्छिक है, जो फंड के उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्धता के विषय में चिंताएँ बढ़ाता है।
    • धनी देशों की अपनी स्वयं की प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की अनिच्छा वैश्विक जलवायु वार्ता में विश्वास को कम करती है और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये आवश्यक सहकार की भावना को बाधित करती है।
  • फंड को लेकर अनिश्चितता:
    • वर्तमान में L&D फंड के आकार को लेकर कोई स्पष्ट संकेत नहीं है और UK एवं ऑस्ट्रेलिया के दबाव में फंड के आकार को निर्दिष्ट करने के किसी भी प्रयास को रद्द कर दिया गया था।
    • वर्तमान मसौदा किसी स्पष्ट प्रतिबद्धता या रूपरेखा के बिना केवल विकसित देशों को धनराशि उपलब्ध कराने के आग्रह के साथ उन्हें आमंत्रित करता है।
  • कूटनीतिक विघटन और वैश्विक परिणाम:
    • विकासशील राष्ट्र यह मानते हुए असंतोष व्यक्त करते हैं कि उनकी चिंताओं और आवश्यकताओं को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया गया है।
    • यह जलवायु कार्रवाई की राह को जटिल बनाता है और अन्य वैश्विक मुद्दों को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के विषय में संदेह उत्पन्न करता है।
    • तत्काल कूटनीतिक और विश्वास-संबंधी नतीजों से परे L&D फंड की कमी के दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं। यह जलवायु न्याय के लिये खतरा है और उन विकासशील देशों में कमज़ोर समुदायों की समस्याओं को बढ़ा देता है, जिन्होंने वैश्विक उत्सर्जन में न्यूनतम योगदान दिया है लेकिन जलवायु परिवर्तन का खामियाजा भुगत रहे हैं।
  • जलवायु-परिवर्तन-प्रेरित अस्थिरता के सुरक्षा निहितार्थ:
    • जलवायु-परिवर्तन-प्रेरित अस्थिरता के कारण सुरक्षा संबंधी प्रभाव देखे जा सकते हैं क्योंकि कमज़ोर देशों में संघर्ष तथा तनाव जैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
    • इन संघर्षों का सीमा पार प्रभाव सुरक्षा के लिये खतरा उत्पन्न करता है।
    • तात्कालिक परिणामों से परे कमज़ोर समुदायों के लिये समर्थन की अनुपस्थिति के कारण भोजन की कमी, व्यक्तियों के विस्थापन और संघर्ष सहित मानवीय संकटों में वृद्धि हो सकती है।
    • यह समुदायों को जलवायु संकट और उसके परिणामों से स्वतंत्र रूप से निपटने के लिये मज़बूर करता है।

आगे की राह

  • वैश्विक प्रतिबद्धता: विकसित देशों के लिये मज़बूत वित्तीय प्रतिबद्धता सुनिश्चित करते हुए L&D फंड में प्राथमिक दाताओं के रूप में सक्रिय योगदान करने का आग्रह करना।
  • पारदर्शिता और संरचना: फंड के आकार, परिचालन दिशा-निर्देश और आवंटन तंत्र को परिभाषित करने, स्पष्टता और जवाबदेही के लिये पारदर्शी चर्चा का समर्थन करना।
  • समावेशी कूटनीति: खुले राजनयिक संवादों को बढ़ावा देना जो विकासशील देशों की चिंताओं को संबोधित करते हैं, प्रभावी जलवायु कार्रवाई और वैश्विक मुद्दे के समाधान के लिये सहयोग को बढ़ावा देते हैं।
  • सुरक्षा निहितार्थ: जलवायु-प्रेरित अस्थिरता से सुरक्षा निहितार्थों को सक्रिय रूप से संबोधित करना, मानवीय संकटों से निपटने के उपायों को लागू करना और कमज़ोर समुदायों का समर्थन करना।
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FAQs on Environment and Ecology (पर्यावरण और पारिस्थितिकी): November 2023 UPSC Current Affairs - भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi

1. 2040 तक प्लास्टिक प्रदूषण को खत्म करने के लिए कौनसी नीतियाँ अपनाई जा रही हैं?
Ans. नीति आयोग ने CCUS नीति ढांचा जारी किया है।
2. पश्चिम अंटार्कटिका की हिम परत का पिघलना क्या है?
Ans. पश्चिम अंटार्कटिका की हिम परत का पिघलना एक वर्ष के प्रोजेक्ट चीता का हिस्सा है।
3. रेत और धूल भरी आंधी क्या है?
Ans. रेत और धूल भरी आंधी एक प्रकार की प्रदूषण है जो वायुमंडल में होता है।
4. अंटार्कटिक ओज़ोन छिद क्या है?
Ans. अंटार्कटिक ओज़ोन छिद अंटार्कटिका में ओज़ोन की कमी को दर्शाता है।
5. क्या प्रोजेक्ट चीता पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिए महत्वपूर्ण है?
Ans. हां, प्रोजेक्ट चीता पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से पश्चिम अंटार्कटिका में हिम परत का पिघलना जांचा जा रहा है।
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