स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स ट्रीज़ रिपोर्ट’: BGCI
हाल ही में ‘बॉटैनिकल गार्डन्स कंज़र्वेशन इंटरनेशनल’ (BGCI) ने ‘स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स ट्रीज़ रिपोर्ट’ लॉन्च की है।
- इस रिपोर्ट में चेतावनी दी गई हैकि दुनिया भर में लगभग एक-तिहाई वृक्ष प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है, जबकि सैकड़ों प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं।
- BGCI एक सदस्यता संगठन है, जो दुनिया भर के 100 से अधिक देशों में वनस्पति उद्यान का प्रतिनिधित्व करता है। यह ब्रिटेन आधारित एक स्वतंत्र चैरिटी है, जिसकी स्थापना वर्ष 1987 में विश्व के वनस्पति उद्यानों को पादप संरक्षण के लिये एक वैश्विक नेटवर्क से जोड़ने हेतु की गई थी।
प्रमुख बिंदु
जोखिमपूर्णस्थिति वाली प्रजातियाँ
(i) रिपोर्ट के मुताबिक, पेड़ों की 17,500 प्रजातियाँ, जो कि कुल प्रजातियों का लगभग 30% है, के विलुप्त होने का खतरा है, जबकि 440 प्रजातियों के 50 से भी कम वृक्ष बचे हैं।
- प्रत्येक देश के वनस्पतियों का 11% हिस्सा संकटग्रस्त श्रेणी में है।
(ii) समग्र तौर पर संकटग्रस्त वृक्ष प्रजातियों की संख्या संकटग्रस्त स्तनधारियों, पक्षियों, उभयचरों और सरीसृपों की संयुक्त संख्या से दोगुनी है।
सबसे अधिक जोखिम वाले वृक्ष:
(i) सबसे अधिक जोखिम वाले वृक्षों में ‘मैगनोलिया’ और ‘डिप्टरोकार्प्स’ जैसी प्रजातियाँ शामिल हैं, जो प्रायः दक्षिण-पूर्व एशियाई वर्षावनों में पाई जाती हैं। इसके अलावा ओक के वृक्ष, मेपल के वृक्ष और आबनूस भी समान खतरों का सामना कर रहे हैं।
उच्चतम जोखिम वाले देश:
(i) वृक्ष-प्रजातियों की विविधता के लिये प्रसिद्ध दुनिया के शीर्षछह देशों में पेड़ों की हज़ारों किस्मों के विलुप्त होने का खतरा है।
(ii) सबसे अधिक खतरा ब्राज़ील में है, जहाँ 1,788 प्रजातियाँ खतरे में हैं। अन्य पाँच देश इंडोनेशिया, मलेशिया, चीन, कोलंबिया और वेनेज़ुएला हैं।
- ऐसे कुल 27 देश हैं, जहाँ पेड़ों की कोई संकटग्रस्त प्रजाति नहीं है।
द्वीपीय वृक्ष:
(i) यद्यपि अधिक विविधता वाले देशों में विलुप्ति के जोखिम से प्रभावित किस्मों की संख्या सबसे अधिक है, किंतु द्वीपीय वृक्ष प्रजातियाँ आनुपातिक रूप से अधिक जोखिम में हैं।
(ii) यह विशेष रूप से चिंता का विषय है, क्योंकि कई द्वीपों में पेड़ों की कई ऐसी प्रजातियाँ भी हैं, जो कहीं और नहीं पाई जाती हैं।
प्रमुख खतरे:
(i) पेड़ प्रजातियों के समक्ष शीर्ष तीन खतरों में- फसल उत्पादन, लकड़ी की कटाई और पशुधन खेती शामिल हैं, जबकि जलवायु परिवर्तन और चरम मौसम संबंधी उभरते खतरे हैं।
(ii) बढ़ते समुद्र स्तर और गंभीर मौसम संबंधी घटनाओं के कारण कम-से-कम 180 प्रजातियों को प्रत्यक्ष तौर पर खतरों का सामना करना पड़ रहा है।
वृक्ष बचाने की आवश्यकता:
(i) समर्थन प्रणाली:
- वृक्ष पारिस्थितिकी तंत्र का प्राकृतिक रूप से समर्थन करने में मदद करते हैं और ग्लोबल वार्मिंग तथा जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
- वृक्ष प्रजातियों के विलुप्त होने के दूरगामी प्रभाव (Domino Effect) हो सकते हैं, जिससे कई अन्य प्रजातियों का नुकसान हो सकता है।
(ii) बफर के रूप में कार्य करना:
- यह विश्व के 50% स्थलीय कार्बन का भंडारण करते हैं और चरम जलवायु जैसे- तूफान (Hurricane) और सुनामी की स्थिति में एक बफर के रूप में कार्य करते हैं।
(iii) आवास और भोजन:
- कई संकटग्रस्त वृक्ष प्रजातियाँ पक्षियों, स्तनधारियों, उभयचरों, सरीसृपों, कीड़ों और सूक्ष्मजीवों की लाखों अन्य प्रजातियों के लिये आवास एवं भोजन प्रदान करती हैं।
नीति निर्माताओं हेतु सुझाव:
(i) सुरक्षा बढ़ाना:
- उन संकटग्रस्त वृक्ष प्रजातियों के लिये संरक्षित क्षेत्र कवरेज का विस्तार करना जो वर्तमान में संरक्षित क्षेत्रों में अच्छी तरह से प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हैं।
(ii) संरक्षण:
- जहाँ तक संभव हो विश्व स्तर पर संकटग्रस्त वृक्ष प्रजातियों, वनस्पति उद्यान और बीज बैंक संग्रहण केंद्रों का संरक्षण सुनिश्चित करना।
(iii) फंडिंग बढ़ाना:
- संकटग्रस्त वृक्ष प्रजातियों के लिये सरकार और कॉर्पोरेट वित्तपोषण की उपलब्धता बढ़ाना।
(iv) योजनाओं का विस्तार करना:
- वृक्षारोपण योजनाओं का विस्तार करना और संकटग्रस्त तथा देशी प्रजातियों का लक्षित रोपण सुनिश्चित करना।
(v) सहयोग बढ़ाना:
- अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों में भाग लेकर वृक्षों को विलुप्त होने से रोकने के लिये वैश्विक सहयोग बढ़ाना।
संबंधित भारतीय पहलें:
- नगर वन (शहरी वन) योजना
- संकल्प पर्व
- प्रतिपूरक वनीकरण कोष (CAF) अधिनियम
- हरित भारत के लिये राष्ट्रीय मिशन
- राष्ट्रीय वनरोपण कार्यक्रम
अल नीनो और ला नीना पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
एक हालिया शोध के अनुसार, जलवायु परिवर्तन अत्यधिक बार अल नीनो और ला नीना घटनाओं की बारंबारता का कारण बन सकता है।
- यह निष्कर्ष दक्षिण कोरिया के सबसे तेज़ सुपर कंप्यूटरों में से एक ‘एलेफ’ का उपयोग करके प्राप्त किया गया है।
प्रमुख बिंदु
हालिया शोध के निष्कर्ष:
(i) वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि से भविष्य में अल नीनो-दक्षिणी दोलन’ (ENSO) समुद्र की सतह के तापमान विसंगति के कमज़ोर होने का कारण बन सकता है।
(ii) जलवाष्प के वाष्पीकरण के कारण भविष्य में अल नीनो की घटनाएँ वातावरण में ऊष्मा को और अधिक तेज़ी से समाप्त करेंगी। इसके अलावा भविष्य में पूर्वी और पश्चिमी उष्णकटिबंधीय प्रशांत के बीच तापमान में अंतर कम होगा, जिससे ENSO चक्र के दौरान चरम तापमान सीमा के विकास में बाधा उत्पन्न होगी।
(iii) भविष्य में ‘ट्रॉपिकल इंस्टैबिलिटी वेव्स’ (TIWs) का कमज़ोर होना ला नीना घटना के विघटन का कारण बन सकता है।
- TIWs भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर और अटलांटिक महासागर में मासिक परिवर्तनशीलता की एक प्रमुख विशेषता है।
ENSO:
(i) अल नीनो-दक्षिणी दोलन, जिसे ENSO के रूप में भी जाना जाता है, समुद्र की सतह के तापमान (अल नीनो) और भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर के ऊपर के वातावरण (दक्षिणी दोलन) के वायु दाब में एक आवधिक उतार-चढ़ाव है।
(ii) अल नीनो और ला नीना भूमध्यरेखीय प्रशांत क्षेत्र में समुद्र के तापमान में बदलाव के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले जटिल मौसम पैटर्न हैं। वे ENSO चक्र के विपरीत चरण हैं।
(iii) अल नीनो और ला नीना घटनाएँ आमतौर पर 9 से 12 महीने तक चलती हैं, लेकिन कुछ लंबी घटनाएँ वर्षों तक जारी रह सकती हैं।
अल नीनो :
(i) परिचय :
- अल नीनो एक जलवायु पैटर्न है जो पूर्वी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर में सतही जल के असामान्य रूप से तापन की स्थिति को दर्शाता है।
- यह अल नीनो-दक्षिणी दोलन (ENSO) घटना की "उष्ण अवस्था" है।
- यह घटना ला नीना की तुलना में अधिक बार होती है।
(ii) प्रभाव :
- गर्म जल प्रशांत ज़ेट स्ट्रीम को अपनी तटस्थ स्थिति से दक्षिण की ओर ले जाने का कारण बनता है। इस परिवर्तन के सापेक्ष, उत्तरी अमेरिका और कनाडा के क्षेत्र सामान्य से अधिक शुष्क और उष्ण हो गए हैं। लेकिन अमेरिका के खाड़ी तट एवं दक्षिण-पूर्व में यह अवधि सामान्य से अधिक नमीयुक्त होती हैजिसके परिणामस्वरूप बाढ़ में वृद्धि होती है।
- अल नीनो के कारण दक्षिण अमेरिका में बारिश अधिक होती है, वहीं इंडोनेशिया एवं ऑस्ट्रेलिया में इसके कारण सूखे की स्थिति उत्पन्न होती है।
- अल नीनो का गहरा प्रभाव प्रशांत तट से दूर स्थित समुद्री जीवन पर भी पड़ता है।
- सामान्य परिस्थितियों में अपवेलिंग (Upwelling) के कारण समुद्र की गहराई से ठंडा पोषक तत्त्वों से युक्त जल ऊपरी सतह पर आ जाता है।
- अल नीनो के दौरान अपवेलिंग प्रक्रिया कमज़ोर पड़ जाती है या पूरी तरह से रुक जाती हैजिसके परिणामस्वरूप गहराई में मौज़ूद पोषक तत्त्वों के सतह पर न आ पाने के कारण तट पर स्थित फाइटोप्लैंकटन (Phytoplankton) जंतुओं की संख्या में कमी आती है। यह उन मछलियों को प्रभावित करती हैजिनका भोजन फाइटोप्लैंकटन है, साथ ही यह मछली खाने वाले प्रत्येक जीव को प्रभावित करती है।
- गर्म जल उष्णकटिबंधीय प्रजातियों को भी सतह पर ला सकता है, जैसे- येलोटेल और एल्बाकोर टूना मछली, ये सामान्यत: सर्वाधिक ठंडे क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
ला नीना:
(i) परिचय
- ला नीना, ENSO की ‘शीत अवस्था’ होती है, यह पैटर्न पूर्वी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागरीय क्षेत्र के असामान्य शीतलन को दर्शाता है।
- अल नीनो की घटना जो कि आमतौर पर एक वर्षसे अधिक समय तक नहीं रहती है, के विपरीत ला नीना की घटनाएँ एक वर्षसे तीन वर्ष तक बनी रह सकती हैं।
- दोनों घटनाएँ उत्तरी गोलार्द्ध में सर्दियों के दौरान चरम पर होती हैं।
(ii) प्रभाव
- अमेरिका के पश्चिमी तट के पास ‘अपवेलिंग’ बढ़ जाती है, जिससे पोषक तत्त्वों से भरपूर ठंडा पानी सतह पर आ जाता है।
- दक्षिण अमेरिका के मत्स्य पालन उद्योग पर प्रायः इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- यह अधिक गंभीर ‘हरिकेन’ को भी बढ़ावा दे सकता है।
- यह जेट स्ट्रीम को उत्तर की ओर ले जाने का भी कारण बनता है, जो कि पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में पहुँचकर कमज़ोर हो जाता है।
- यह पेरू और इक्वाडोर जैसे दक्षिण अमेरिकी देशों में सूखे का भी कारण बनता है।
- पश्चिमी प्रशांत, हिंद महासागर और सोमालियाई तट के पास तापमान में वृद्धि के कारण ऑस्ट्रेलिया में भी भारी बाढ़ आती है।
डायनासोर की तीन प्रजातियों के पदचिह्न : राजस्थान
हाल ही में एक प्रमुख खोज में राजस्थान के जैसलमेर ज़िले के थार मरुस्थल में डायनासोर की तीन प्रजातियों के पैरों के निशान पाए गए हैं।
- यह राज्य के पश्चिमी भाग में विशाल सरीसृपों की उपस्थिति को प्रमाणित करता है।
प्रमुख बिंदु
खोज के बारे में :
(i) पैरों के निशान वाले डायनासोर की तीन प्रजातियाँ इस प्रकार हैं- यूब्रोंटेस सीएफ गिगेंटस (Eubrontes cf giganteus), यूब्रोंट्स ग्लेन्रोसेंसिस ( Eubrontes glenrosensis) और ग्रेलेटर टेनुइस (Grallator tenuis)।
(ii) ये पैरों के निशान 200 मिलियन वर्ष पुराने थे।
(iii) डायनासोर की प्रजाति को थेरोपोड (Theropod) प्रकार का माना जाता है, जिसमें खोखली हड्डियों और तीन-पैर वाले अंगों (उंगलियों जैसी) की विशिष्ट विशेषताएँ होती हैं।
- थेरोपोडा डायनासोर उपसमूह के थेरोपोड वर्ग में वे सदस्य शामिल है जो मांसाहारी डायनासोर की श्रेणी में आते हैं।
(iv) प्रारंभिक जुरासिक काल से संबंधित सभी तीन प्रजातियाँ मांसाहारी थीं।
(v) 'डायनासोर युग' (मेसोज़ोइक युग- 252-66 मिलियन वर्ष पूर्व- MYA) अनुगामी तीन भूगर्भिक समय सारणी (ट्राइसिक (Triassic), जुरासिक (Jurassic) और क्रेटेशियस (Cretaceous) के अंतर्गत शामिल था। इन तीन अवधियों में से प्रत्येक के दौरान विभिन्न डायनासोर प्रजातियाँ पाई जाती थीं।
थार मरुस्थल:
(i) नामकरण: थार नाम ‘थुल’ से लिया गया है जो कि इस क्षेत्र में रेत की लकीरों के लिये प्रयुक्त होने वाला एक सामान्य शब्द है। इसे ग्रेट इंडियन डेज़र्ट के नाम से भी जाना जाता है।
(ii) अवस्थिति: यह उत्तर-पश्चिमी भारत के राजस्थान राज्य में तथा पाकिस्तान के पूर्वी क्षेत्र में स्थित पंजाब और सिंध प्रांत तक विस्तृत है।
- यह पश्चिम में सिंचित सिंधु नदी के मैदान, उत्तर और उत्तर-पूर्व में पंजाब के मैदान, दक्षिण-पूर्व में अरावली शृंखला और दक्षिण में कच्छ के रण से घिरा हुआ है।
(iii) विशेषताएँ:
- थार रेगिस्तान एक शुष्क क्षेत्र है जो 2,00,000 वर्गकिमी. में फैला हुआ है।
- इसकी सतह पर वातोढ़ (पवन द्वारा एकत्रित) रेत पाई जाती है जो पिछले 1.8 मिलियन वर्षों में जमा हुई है।
- मरुस्थल में तरंगित सतह होती है, जिसमें रेतीले मैदानों और बंजर पहाड़ियों या बालू के मैदानों द्वारा अलग किये गए उच्च और निम्न रेत के टीले (जिन्हें टिब्बा कहते हैं) होते हैं, जो आसपास के मैदानों में अचानक वृद्धि करते हैं।
- टिब्बा गतिशील होते हैं और अलग-अलग आकार एवं आकृति ग्रहण करते हैं।
- ‘बरचन’ जिसे ‘बरखान’ भी कहते हैं, मुख्य रूप से एक दिशा से आने वाली हवा द्वारा निर्मित अर्द्धचंद्राकार आकार के रेत के टीले हैं। सबसे आम प्रकार के बालुका स्तूपों में से एक यह आकृति दुनिया भर के रेगिस्तानों में उपस्थित होती है।
- कई ‘प्लाया’ (खारे पानी की झीलें), जिन्हें स्थानीय रूप से ‘धंड’ के रूप में जाना जाता है, पूरे क्षेत्र में विस्तृत हैं।
- थार मरुस्थल एक समृद्ध जैव विविधता का समर्थन करता है तथा इस मरुस्थल में मुख्य रूप से तेंदुए, एशियाई जंगली बिल्ली (Felis silvestris Ornata), चाउसिंघा (Tetracerus Quadricornis), चिंकारा (Gazella Bennettii), बंगाली रेगिस्तानी लोमड़ी (Vulpes Bengalensis), ब्लैकबक (Antelope) और सरीसृप की कई प्रजातियाँ निवास करती हैं।
उत्तर-पूर्व भारत के वर्षा पैटर्न में परिवर्तन
हाल ही में एक विश्लेषण ने जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तर-पूर्व (NE) भारत में वर्षा पैटर्न के बदलते स्वरूप को प्रदर्शित किया है।
- जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (NAPCC) को वर्ष 2008 में प्रधानमंत्री-जलवायु परिवर्तन परिषद नामक समिति द्वारा शुरू किया गया था। यह उन उपायों की पहचान करता है जो जलवायु परिवर्तन से प्रभावी ढंग से निपटने के साथ-साथ भारत के विकास उद्देश्यों को बढ़ावा देते हैं।
प्रमुख बिंदु
परिचय:
(i) उत्तर-पूर्व (NE) सामान्य रूप से मानसून के महीनों (जून-सितंबर) के दौरान भारी वर्षाप्राप्त करता है, लेकिन हाल के वर्षों में इसका वर्षा का पैटर्न परिवर्तित हो गया है।
(ii) तीव्र बारिश के साथ बादल फटने जैसी घटनाओं के कारण इस क्षेत्र में बाढ़ आ जाती है, जिसके बाद सूखे की स्थिति लंबे समय तक शुष्क/कमज़ोर पड़ जाती है।
- 2018 में प्रकाशित एक शोध-पत्र में पाया गया कि वर्ष 1979 और 2014 के बीच उत्तर-पूर्व (NE) में मानसूनी वर्षा में 355 मिमी की कमी आई है।
- इसमें से 30-50 मिमी की कमी स्थानीय नमी के स्तर में गिरावट के कारण हुई।
(iii) अपनी अनोखी टोपोलॉजी (Topology) और खड़ी ढलानों के कारण त्वरित मैदानी इलाकों में जल के प्रवेश के कारण इस क्षेत्र में नदी के प्रवाह पैटर्न में बदलाव की संभावना है।
- उत्तर-पूर्व (NE) का क्षेत्र ज़्यादातर पहाड़ी है और इसमें भारत-गंगा के मैदानों का विस्तार है, यह क्षेत्र क्षेत्रीय एवं वैश्विक जलवायु में परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है।
- पूर्वोत्तर भारत में मानसून-पूर्व (Pre-monsoon) और मानसून के समय को वर्षा ऋतु की संज्ञा दी जाती हैं।
(iv) अधिकांश उत्तर-पूर्वी राज्यों में मानसून के दौरान होने वाली वर्षा दो दशकों में लंबी अवधि के औसत (LPA) से कम हो गई है।
(v) ब्रह्मपुत्र की उत्तरी दिशा के अधिकांश ज़िलों में वर्षा के दिनों की संख्या में कमी आई है।
(vi) इसका आशय हैकि अब कम दिनों में ही भारी बारिश देखने को मिलती है अर्थात् 'भारी वर्षादिवस' बढ़ रहे हैं जिससे नदी में बाढ़ आनेकी संभावना काफी बढ़ जाती है।
वर्षा पैटर्न को बदलने वाले कारक:
(i) नमी/आर्द्रता और सूखा दोनों एक साथ:
- वार्मिंग (Warming) का एक पहलू जो वर्षा को प्रभावित करता है, वह है भूमि का सूखना, जिससे शुष्क अवधि और सूखे की आवृत्ति एवं तीव्रता बढ़ जाती है।
- आर्द्रता की मात्रा में वृद्धि और सूखे की स्थिति का एक साथ होना वर्षा के पैटर्न को अप्रत्याशित तरीके से बदल देता है।
(ii) यूरेशियाई क्षेत्र में हिमपात में वृद्धि:
- यूरेशियाई क्षेत्र में बढ़ी हुई बर्फबारी भी पूर्वोत्तर भारत में मानसूनी वर्षा को प्रभावित करती है क्योंकि यूरेशिया में अत्यधिक हिमपात के कारण इस क्षेत्र का वातावरण ठंडा हो जाता है, जो उत्तर-पूर्व भारत के वर्षा पैटर्न में परिवर्तन को और अधिक प्रभावित करता है जो अंततः इस क्षेत्र में कमज़ोर ग्रीष्मकालीन मानसून का कारण बनता है।
(iii) प्रशांत दशकीय दोलन (PDO) में परिवर्तन:
- उपोष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर पर समुद्र की सतह का तापमान, जो एक चक्र में भिन्न होता है और जिसका प्रत्येक चरण एक दशक तक रहता है। इसका पीक हर 20 वर्ष में आता हैजिसे प्रशांत दशकीय दोलन (POD) के रूप में जाना जाता है।
- इसका प्रभाव पूर्वोत्तर में मानसूनी बारिश पर पड़ सकता है।
- PDO भी ग्लोबल वार्मिंग से प्रभावित हो रहा है क्योंकि यह समुद्र की परतों के मध्य तापमान के अंतर को कम करता है।
(iv) सौर कलंक अवधि:
- मानसून के दौरान उत्तर-पूर्व में वर्षा पैटर्न एक सौर कलंक अवधि से दूसरे सौर कलंक अवधि में काफी भिन्न होता है, जो देश में कम दबाव के मौसमी गर्त की अंतर गहनता को प्रदर्शित करता है।
- सौर कलंक अवधि सूर्य की सतह पर बढ़ती और घटती गतिविधि की क्रमोत्तर अवधि है जो पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करती है।
लिथियम
अर्जेंटीना के विभिन्न प्रांत लिथियम धातु में निवेश आकर्षित करने हेतु माइनिंग लॉजिस्टिक नोड्स निर्मित करने, सड़कों के माध्यम से पहुँच सुनिश्चित करने एवं कर की दरों को कम करने हेतु इस क्षेत्र के लिये नियमों को युक्तिसंगत बना रहे हैं।
- उभरती वैश्विक लिथियम मांग और बढ़ती कीमतों ने तथाकथित 'लिथियम ट्रायंगल' जिसमें अर्जेंटीना, बोलीविया और चिली के कुछ हिस्से शामिल हैं, के प्रति रुचि बढ़ा दी है।
- लिथियम नया 'सफेद सोना' (White Gold) बन गया है क्योंकि उच्च-क्षमता वाली रिचार्जेबल बैटरी में उपयोग के कारण इसकी मांगबढ़ रही है।
प्रमुख बिंदु
लिथियम के गुण :
(i) यह एक रासायनिक तत्त्व हैजिसका प्रतीक (Li) है।
(ii) यह एक नरम तथा चाँदी के समान सफेद धातु है।
(iii) मानक परिस्थितियों में यह सबसे हल्की धातु और सबसे हल्का ठोस तत्त्व है।
(iv) यह अत्यधिक प्रतिक्रियाशील और ज्वलनशील है, अत: इसे खनिज तेल के रूप में संग्रहीत किया जाना चाहिये।
(v) यह क्षारीय एवं एक दुर्लभ धातु है।
- क्षार धातुओं में लिथियम, सोडियम, पोटेशियम, रुबिडियम, सीज़ियम और फ्रेंशियम रासायनिक तत्त्व शामिल होते हैं। ये हाइड्रोजन के साथ मिलकर समूह-1 (group- 1) जो आवर्तसारणी (Periodic Table) के एस-ब्लॉक (s-block) में स्थित है, का निर्माण करते हैं।
- दुर्लभ धातुओं (Rare Metals- RM) में नायोबियम (Nb), टैंटेलम (Ta), लिथियम (Li), बेरिलियम (Be), सीज़ियम (Cs) आदि और दुर्लभ मृदा तत्त्वों (Rare Earths- RE) में स्कैंडियम (Sc) तथा इट्रियम (Y) के अलावा लैंटेनियम (La) से लुटीशियम (Lu) तक के तत्त्व शामिल हैं।
- ये धातुएँ अपने सामरिक महत्त्व के कारण परमाणु और अन्य उच्च तकनीकी उद्योगों जैसे- इलेक्ट्रॉनिकस, दूरसंचार, सूचना प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष, रक्षा आदि में उपयोग की जाती हैं।
अनुप्रयोग:
(i) लिथियम धातु का अनुप्रयोग उपयोगी मिश्रित धातुओं को बनाने में किया जाता है।
- उदाहरण के लिये मोटर इंज़नों में सफेद धातु की बियरिंग बनाने में, एल्युमीनियम के साथ विमान के पुर्जेबनाने तथा मैग्नीशियम के साथ आर्मपिट प्लेट बनाने में।
(ii) थर्मोन्यूक्लियर अभिक्रियाओं में।
(iii) विद्युत-रासायनिक सेल के निर्माण में। इलेक्ट्रिक वाहनों, लैपटॉप आदि के निर्माण में लिथियम एक महत्त्वपूर्ण घटक है।
सर्वाधिक भंडार वाले देश:
(i) चिली> ऑस्ट्रेलिया> अर्जेंटीना
भारत में लिथियम:
(i) परमाणु खनिज निदेशालय (भारत के परमाणु ऊर्जा आयोग के तहत) के शोधकर्त्ताओं ने हालिया सर्वेक्षणों से दक्षिणी कर्नाटक के मांड्या ज़िले में भूमि के एक छोटे से हिस्से में 14,100 टन के लिथियम भंडार की उपस्थिति का अनुमान लगाया है।
- साथ ही भारत की पहली लीथियम भंडार साइट भी मिली।
भारत में अन्य संभावित साइटें:
- राजस्थान, बिहार और आंध्र प्रदेश में मौजूद प्रमुख अभ्रक बेल्ट।
- ओडिशा और छत्तीसगढ़ में मौजूद पैगमाटाइट (आग्नेय चट्टानें) बेल्ट।
- राजस्थान में सांभर और पचपदरा तथा गुजरात के कच्छ के रण का खारा/लवणीय जलकुंड।
संबंधित सरकारी पहलें:
(i) भारत ने सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी ‘खनिज बिदेश इंडिया लिमिटेड’ के माध्यम से अर्जेंटीना, जहाँ विश्व में धातु का तीसरा सबसे बड़ा भंडार मौजूद है, में संयुक्त रूप से लिथियम की खोज करने के लिये अर्जेंटीना की एक कंपनी के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं।
- खनिज बिदेश इंडिया लिमिटेड का प्राथमिक कार्यविदेशों में विशिष्ट खनिज संपदा जैसे- लिथियम और कोबाल्ट आदि का अन्वेषण करना है।
तारों में लिथियम उत्पादन:
(i) इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स (Indian Institute of Astrophysics- IIA) के वैज्ञानिकों ने पहली बार साक्ष्य दिया हैकि हीलियम (He) कोर बर्निंग चरण के दौरान कम द्रव्यमान वाले सूर्य जैसे तारों में लिथियम (Li) का उत्पादन आम बात है।