चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा
चर्चा में क्यों?
देश के ऊर्जा संकट से कुछ राहत पाने के लिये पाकिस्तान ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (China-Pakistan Economic Corridor- CPEC) के तहत 2.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर के नाभिकीय रिएक्टर का उद्घाटन किया।
- यह 1100 मेगावाट क्षमता का विद्युत संयंत्र है, जो देश में सबसे सस्ती विद्युत का उत्पादन करेगा।
पृष्ठिभूमि:
- पाकिस्तान ने हाल ही में अपने राष्ट्रीय ग्रिड में खराबी के कारण राष्ट्रव्यापी विद्युत कटौती का सामना किया।
- यह देश वर्षों से ब्लैकआउट की स्थिति से जूझ रहा है और बढ़ती ऊर्जा लागत, कम विदेशी मुद्रा भंडार तथा सरकारी बजट पर दबाव का सामना कर रहा है।
- पाकिस्तान बढ़ी हुई ऊर्जा दरों के बदले बेलआउट हेतु अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund- IMF) के साथ संवाद कर रहा है। पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भंडार नौ वर्षों में सबसे कम हो गया है क्योंकि उच्च जीवाश्म ईंधन की लागत ने सरकार के बजट पर अत्यधिक दबाव डाला है।
चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा:
- CPEC चीन के उत्तर-पश्चिमी झिंजियांग उइगर स्वायत्त क्षेत्र और पाकिस्तान के पश्चिमी प्रांत बलूचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह को जोड़ने वाली बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं का 3,000 किलोमीटर का लंबा मार्ग है।
- यह पाकिस्तान और चीन के बीच एक द्विपक्षीय परियोजना है, जिसका उद्देश्य ऊर्जा, औद्योगिक एवं अन्य बुनियादी ढाँचा विकास परियोजनाओं के साथ राजमार्गों, रेलवे तथा पाइपलाइन्स के नेटवर्क के माध्यम से पूरे पाकिस्तान में कनेक्टिविटी को बढ़ावा देना है।
- यह चीन के लिये ग्वादर बंदरगाह से मध्य-पूर्व और अफ्रीका तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करेगा ताकि चीन हिंद महासागर तक पहुँच प्राप्त कर सके तथा चीन बदले में पाकिस्तान के ऊर्जा संकट को दूर करने और लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के लिये पाकिस्तान में विकास परियोजनाओं का समर्थन करेगा।
- CPEC, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का एक हिस्सा है।
- वर्ष 2013 में शुरू किये गए ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ का उद्देश्य दक्षिण-पूर्व एशिया, मध्य एशिया, खाड़ी क्षेत्र, अफ्रीका और यूरोप को भूमि एवं समुद्री मार्गों के नेटवर्क से जोड़ना है।
पाकिस्तान और चीन के लिये CPEC की चुनौतियाँ:
पाकिस्तान:
- क्षेत्रीय असंतुलन: CPEC पाकिस्तान में कुछ क्षेत्रों और प्रांतों पर केंद्रित है, जिससे विकास एवं निवेश में क्षेत्रीय असंतुलन की चिंता बढ़ जाती है।
- ऋण जाल: बड़े पैमाने पर चीनी ऋण द्वारा वित्तपोषित परियोजनाओं का होना तथा इन ऋणों को चुका पाने की क्षमता पर प्रश्न के कारण पाकिस्तान का ऋण स्तर एक चिंता का विषय बन गया है। IMF के अनुसार, चीन अब पाकिस्तान का सबसे बड़ा लेनदार है, जिसके पास वर्ष 2021 में चीन के कुल विदेशी ऋण का 27.4% हिस्सा है।
- पर्यावरणीय प्रभाव: CPEC के निर्माण में बड़े पैमाने की बुनियादी ढाँचा परियोजना के नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव हो सकते हैं, जिनमें वनों की कटाई, जैवविविधता की हानि तथा वायु एवं जल प्रदूषण शामिल हैं।
- सामाजिक निहितार्थ: परियोजना के विकास ने स्थानीय समुदायों के विस्थापन तथा उनकी पारंपरिक आजीविका के नुकसान के साथ-साथ इस क्षेत्र में बढ़ते प्रवास एवं जनसंख्या के दबाव के प्रभाव के बारे में चिंताओं को जन्म दिया है।
- संप्रभुता की चिंता: कुछ विद्वानों ने पाकिस्तान में चीन के बढ़ते प्रभाव तथा देश की संप्रभुता एवं स्वतंत्रता से समझौता करने की परियोजना की क्षमता के बारे में चिंता जताई है।
चीन:
- सुरक्षा संबंधी चिंताएँ: चीनी श्रमिकों की सुरक्षा तथा क्षेत्र की स्थिरता CPEC की सफलता के लिये एक बड़ी चुनौती है।
- राजनीतिक विरोध: कुछ राजनीतिक दलों एवं समूहों द्वारा इसका विरोध किया गया है, जो पारदर्शिता की कमी तथा पाकिस्तान की संप्रभुता पर परियोजना के संभावित दीर्घकालिक प्रभावों के बारे में चिंतित हैं।
भारत के लिये CPEC के निहितार्थ
- भारत की संप्रभुता:
- भारत की संप्रभुता: भारत CPEC की लगातार आलोचना करता रहा है, क्योंकि यह गिलगित- बाल्टिस्तान के पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से होकर गुज़रता है, जो भारत और पाकिस्तान के बीच एक विवादित क्षेत्र है।
- इस आर्थिक गलियारे को कश्मीर घाटी के लिये एक वैकल्पिक सड़क लिंक के रूप में भी देखा जाता है, जो भारतीय सीमा पर स्थित है।
- यदि CPEC सफल होता है, तो यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तानी क्षेत्र की मान्यता को और सशक्त करेगा तथा 73,000 वर्ग किलोमीटर भूमि पर भारत के दावे को कमज़ोर करेगा, जहाँ 1.8 मिलियन से अधिक आबादी का निवास है।
- समुद्री मार्ग से व्यापार पर चीनी नियंत्रण:
- पूर्वी तट पर प्रमुख अमेरिकी बंदरगाह चीन के साथ व्यापार करने हेतु पनामा नहर पर निर्भर हैं।
- एक बार CPEC के पूरी तरह कार्यात्मक हो जाने के पश्चात् चीन उत्तर और लैटिन अमेरिकी उद्यमों के लिये एक 'छोटे एवं अधिक किफायती' व्यापार मार्ग की पेशकश करने की स्थिति में होगा, जिससे चीन को उन शर्तों को निर्धारित करने की शक्ति मिल जाएगी जिसके द्वारा अटलांटिक और प्रशांत महासागर में माल की अंतर्राष्ट्रीय आवाजाही हो सकेगी।
- चीन की मोतियों की माला (पर्ल ऑफ़ स्ट्रिंग) पहल:
- चटगाँव बंदरगाह (बांग्लादेश), हंबनटोटा बंदरगाह (श्रीलंका), पोर्ट सूडान (सूडान), मालदीव, सोमालिया और सेशेल्स में मौजूदा उपस्थिति के साथ ग्वादर बंदरगाह पर नियंत्रण कम्युनिस्ट राष्ट्र का हिंद महासागर पर पूर्ण प्रभुत्त्व स्थापित करता है।
- BRI और चीनी प्रभुत्त्व का व्यापार में सशक्त नेतृत्त्व:
- चीन की BRI परियोजना, जो बंदरगाहों, सड़कों और रेलवे के नेटवर्क के माध्यम से चीन तथा बाकी यूरेशिया के बीच व्यापार संपर्क पर केंद्रित है, की अक्सर इस क्षेत्र पर हावी होने की चीन की राजनीतिक योजना के रूप में व्याख्या की जाती है। CPEC उसी दिशा में एक बड़ा कदम है।
आगे की राह
- भारत को अपने रणनीतिक स्थान का लाभ उठाना चाहिये और लाभ अर्जित करने हेतु समान विचारधारा वाले देशों के साथ कार्य करना चाहिये जैसे-
- एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर भारत-जापान आर्थिक सहयोग हेतु समझौता है, यह भारत को महत्त्वपूर्ण रणनीतिक लाभ प्रदान करता है और चीन का मुकाबला करने हेतु सक्षम बना सकता है।
- ब्लू डॉट नेटवर्क, इसे संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है।
- यह वैश्विक बुनियादी ढाँचे के विकास हेतु उच्च गुणवत्ता वाले, विश्वसनीय मानकों को बढ़ावा देने के लिये सरकारों, निजी क्षेत्र और नागरिक समाज को एक साथ लाने की एक बहु-हितधारक पहल है।
- यह हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर ध्यान देने के साथ-साथ विश्व स्तर पर सड़क, बंदरगाह एवं पुलों के लिये मान्यता प्राप्त मूल्यांकन एवं प्रमाणन प्रणाली के रूप में काम करेगा।
नवाचार पर भारत-जर्मनी सहयोग
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री की जर्मन-चांसलर के साथ हुई मुलाकात में नवाचार एवं प्रौद्योगिकी पर सहयोग बढ़ाने हेतु एक विज़न दस्तावेज़ पर सहमति व्यक्त की गई।
- इसे दो प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के मध्य हस्ताक्षरित अब तक का व्यापक आर्थिक दस्तावेज़ माना जाता है।
विज़न दस्तावेज़:
- यह उद्योगों के मध्य संबंधों को गहरा करने और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और 6G जैसी उन्नत तकनीकों के विकास पर सहयोग बढ़ाने पर केंद्रित है।
- इसका उद्देश्य मानवता को लाभ पहुँचाना है और दोनों देशों के साझा लोकतांत्रिक मूल्यों एवं सार्वभौमिक मानवाधिकारों का सम्मान करना है।
- भारत और जर्मनी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, अनुसंधान तथा नवाचार में सहयोग का लंबा इतिहास साझा करते हैं, जिसे मई 1974 में हस्ताक्षरित 'वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी विकास में सहयोग' पर अंतर-सरकारी समझौते के ढाँचे के तहत संस्थागत रूप दिया गया था।
बैठक के प्रमुख बिंदु:
- हरित और सतत् विकास साझेदारी:
- दोनों देशों ने हरित और सतत् विकास साझेदारी (Green and Sustainable Development Partnership- GSDP) की प्रगति पर चर्चा की, जिसे भारत और जर्मनी ने छठे अंतर-सरकारी परामर्श (Inter-Governmental Consultations- IGC) के लिये भारतीय प्रधानमंत्री की बर्लिन यात्रा के दौरान शुरू किया था।
- GSDP राजनीतिक मार्गदर्शन प्रदान करने वाली एक अम्ब्रेला साझेदारी है और जलवायु कार्रवाई तथा सतत् विकास लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में विभिन्न देशों के बीच संबंधों को मज़बूती प्रदान करती है।
- जर्मनी, भारत में अपने विकास सहयोग कार्यक्रम में अतिरिक्त 10 बिलियन यूरो का योगदान देगा।
- हरित हाइड्रोजन:
- दोनों देश हरित हाइड्रोजन पर आपसी सहयोग करने पर सहमत हुए।
- भारत-जर्मन हरित हाइड्रोजन टास्क फोर्स का गठन सितंबर 2022 में किया गया था और जल्द ही इस संबंध में एक कार्ययोजना को अंतिम रूप दिया जाना प्रस्तावित है।
- त्रिकोणीय विकास सहयोग:
- छठे IGC के दौरान भारत और जर्मनी तीसरे देशों में विकास परियोजनाओं पर काम करने पर सहमत हुए।
- मई 2022 में घोषित चार परियोजनाएँ कार्यान्वयन के विभिन्न चरणों में हैं:
- कैमरून: रूटेड एपिकल कटिंग्स (RAC) टेक्नोलॉजी के ज़रिये आलू के बीज का उत्पादन।
- मलावी: कृषि और खाद्य प्रणालियों में महिलाओं के लिये कृषि व्यवसाय इनक्यूबेटर मॉडल।
- घाना: घाना में सतत् आजीविका और आय सृजन के लिये बाँस आधारित उद्यमों का विकास।
- पेरू: पेरू के विकास और सामाजिक समावेश मंत्रालय (MIDIS) के हस्तक्षेप तथा सामाजिक कार्यक्रमों की योजना, निगरानी दीद एवं मूल्यांकन के लिये एक भू-स्थानिक पोर्टल प्रोटोटाइप का विकास।
- भारत-प्रशांत महासागर पहल:
- जर्मनी हिंद-प्रशांत महासागर पहल (Indo-Pacific Oceans Initiative- IPOI) में शामिल हो गया है।
- पनडुब्बियाँ:
- दोनों देशों ने संयुक्त रूप से भारतीय नौसेना के लिये छह पारंपरिक पनडुब्बियों के निर्माण के लिये प्रस्तावित सौदे पर चर्चा की।
जर्मनी
- सीमावर्ती देश: जर्मनी नौ देशों फ्राँस, लक्ज़मबर्ग, डेनमार्क, बेल्जियम, स्विट्ज़रलैंड, ऑस्ट्रिया, चेक गणराज्य, नीदरलैंड और पोलैंड के साथ सीमा साझा करता है।
- अवस्थिति: यह मध्य यूरोप में बाल्टिक सागर और उत्तरी सागर की सीमा में स्थित है।
- नदियाँ: डेन्यूब, राइन, एम्स, वेसर, एल्ब और ओडर
- वन: ब्लैक फॉरेस्ट स्विस सीमा के पास दक्षिण पश्चिम में स्थित जर्मनी का सबसे बड़ा और सबसे प्रसिद्ध जंगली क्षेत्र है। यह यूरोप की सबसे लंबी नदियों में से एक डेन्यूब नदी का स्रोत है।
- सरकार का स्वरूप: जर्मनी संघीय संसदीय गणतंत्र है जिसमें राष्ट्रपति राज्य के प्रमुख के रूप में और चांसलर सरकार के प्रमुख के रूप में होते हैं।
- मुख्य औद्योगिक क्षेत्र: रूर, हनोवर, म्यूनिख, फ्रैंकफर्ट एम मेन और स्टटगार्ट।
रूस-यूक्रेन संघर्ष का एक वर्ष
चर्चा में क्यों?
रूस-यूक्रेन संघर्ष के एक वर्ष पूरे होने के बाद भी विश्व के कई क्षेत्रों में तनाव बढ़ने के संकेत हैं। दोनों पक्षों का यह मानना था कि यह एक तीव्र और कम समय तक चलने वाला युद्ध होगा, जो कि गलत साबित हुआ है।
- न्यू स्टार्ट संधि से रूस के बाहर निकलने के समय इस युद्ध/संघर्ष को एक वर्ष पूरा हो रहा है।
संघर्ष की वर्तमान स्थिति:
- पश्चिमी देशों ने हाल ही में यूक्रेन को अधिक उन्नत हथियारों की आपूर्ति करने की घोषणा की है, जिससे इस संघर्ष में उनकी भागीदारी गहरी हुई है।
- जवाब में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने पहले ही यूक्रेन में 1,000 किलोमीटर लंबी सीमा रेखा निर्माण के साथ रूस की स्थिति को मज़बूत कर दिया है।
- युद्ध के विस्तार से रूस और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन, दोनों परमाणु शक्तियों के बीच सीधे टकराव का जोखिम भी बढ़ रहा है।
- रूस, यूक्रेन को पूर्व और दक्षिण, उत्तर-पूर्व में खार्किव से लेकर पूर्व में डोनबास (जिसमें लुहांस्क और दोनेत्स्क शामिल हैं) से दक्षिण-पश्चिम में काला सागर बंदरगाह शहर ओडेसा तक आधिपत्य स्थापित कर इस देश को एक भू-आबद्ध छोटे क्षेत्र (Land-locked Rump) में परिवर्तित करना चाहता था। रूस यहाँ मास्को के अनुकूल शासन भी स्थापित करना चाहता था परंतु रूस इनमें से किसी भी लक्ष्य को पूरा करने में विफल रहा है।
- फिर भी रूस ने मारियुपोल सहित यूक्रेनी क्षेत्रों के पर्याप्त हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया है। यूक्रेन में रूस का क्षेत्रीय लाभ मार्च 2022 में चरम पर था, जब उसने वर्ष 2014 से पहले के यूक्रेन के लगभग 22% हिस्से पर नियंत्रण कर लिया था।
- यूक्रेन ने खार्किव और खेरसॉन में कुछ भूमि पर पुनः कब्ज़ा कर लिया फिर भी यूक्रेन के लगभग 17% हिस्से पर रूस का नियंत्रण है।
- बखमुत, दोनेत्स्क और ज़ापोरिज़्ज़िया सहित कुछ सीमावर्ती क्षेत्रों पर लड़ाई जारी है।
पश्चिम की प्रतिक्रिया:
- दृष्टिकोण:
- रूस पर प्रतिबंध लगाकर उसकी अर्थव्यवस्था और युद्ध क्षमता को कमज़ोर करना।
- रूसी आक्रमण का मुकाबला करने के लिये यूक्रेन को हथियार प्रदान करना।
- प्रमुख सहायता प्रदाता:
- संयुक्त राज्य अमेरिका यूक्रेन का सबसे बड़ा सहायता प्रदाता है, इसने 70 बिलियन अमेरिकी डाॅलर से अधिक की सैन्य और वित्तीय सहायता का वादा किया है।
- यूरोपीय संघ ने 37 बिलियन डाॅलर का वादा किया है और यूरोपीय संघ के देशों में ब्रिटेन और जर्मनी सूची में शीर्ष पर हैं।
- पश्चिमी प्रतिक्रिया का मूल्यांकन:
- यूक्रेन को सैन्य-उपकरण प्रदान करने का दृष्टिकोण हालाँकि रूसी प्रगति को रोकने में प्रभावी रहा है, जबकि रूस को आर्थिक रूप से क्षति पहुँचाना एक दोधारी तलवार के समान रहा है।
- तेल एवं गैस के शीर्ष वैश्विक उत्पादकों में से एक रूस पर प्रतिबंधों ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया, जिससे पश्चिम में, विशेष रूप से यूरोप में मुद्रास्फीति का संकट गहरा गया।
- इससे रूस को भी आघात लगा लेकिन उसने एशिया में ऊर्जा निर्यात के लिये अपने वैकल्पिक बाज़ार खोज लिये, जिससे वैश्विक ऊर्जा निर्यात परिदृश्य का पुनर्निर्धारण हुआ। वर्ष 2022 में प्रतिबंधों के बावजूद रूस ने अपने तेल उत्पादन में 2% की वृद्धि की और तेल निर्यात आय में 20% की वृद्धि हुई।
- रूसी अर्थव्यवस्था में वर्ष 2023 में 2% की गिरावट का अनुमान लगाया गया था, लेकिन IMF के अनुसार, इसके वर्ष 2023 में 0.3% और वर्ष 2024 में 2.1% वृद्धि की उम्मीद है।
- इसकी तुलना में यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी में वर्ष 2023 में 0.1% की वृद्धि होने की उम्मीद है, जबकि यूक्रेन के दूसरे सबसे बड़े समर्थक ब्रिटेन में 0.6% की गिरावट का अनुमान है।
क्या बातचीत के ज़रिये समाधान की संभावना है?
- दोनों पक्षों ने मार्च 2022 में संभावित शांति योजना के बारे में कई मसौदों का आदान-प्रदान किया था, लेकिन अमेरिका और ब्रिटेन ने यूक्रेन के रूस के साथ किसी भी समझौते पर पहुँचने का कड़ा विरोध किया था इसलिये वार्ता विफल हो गई।
- जुलाई 2022 में तुर्की ने काला सागर के माध्यम से रूसी और यूक्रेनी खाद्यान्न की निकासी पर एक सौदा किया, जिसे ब्लैक सी ग्रेन पहल के रूप में जाना जाता है। इसके अलावा युद्धरत पक्ष कुछ कैदी विनिमय समझौतों पर पहुँचे थे।
- इन्हें छोड़कर दोनों पक्षों के मध्य वार्तालाप न के बराबर है।
- रूस अपने "विशेष सैन्य अभियान" की धीमी प्रगति के बावजूद अडिग है।
- ज़ेलेंस्की ने हाल ही में कहा था कि वह रूस के साथ क्षेत्रीय समझौता करने वाले किसी भी समझौते पर मध्यस्ता नहीं करेंगे।
- वार्तालाप हेतु पश्चिमी देशों द्वारा किसी भी प्रकार का प्रयास नहीं किया गया है।
- चीन ने अपनी शांति पहल के साथ कदम रखा है, जो अभी तक अधिकार क्षेत्र (domain) में नहीं है।
- किसी भी शांति योजना को सफल होने के लिये कुछ प्रमुख मुद्दों पर ध्यान देना होगा।
- यूक्रेन की क्षेत्रीय चिंताएँ।
- रूस की सुरक्षा चिंताएँ।
- वाशिंगटन और मास्को को किसी निष्कर्ष तक पहुँचना चाहिये क्योंकि यूक्रेन की पश्चिम के देशों पर निर्भरता को देखते हुए उसे किसी भी अंतिम समझौते पर सहमति के लिये पश्चिम के देशों से मंज़ूरी लेने की आवश्यकता होगी।
- हालाँकि नई स्टार्ट(START) संधि से रूसी वापसी के संदर्भ में निकट भविष्य में किसी तरह के समझौतें की संभावना धूमिल दिखती है।
युद्ध ने भू-राजनीति को किस प्रकार नया रूप दिया है?
- सुरक्षा और रक्षा पर अधिक ध्यान:
- युद्ध ने यूरोप-अमेरिका सुरक्षा गठबंधन को फिर से सक्रिय कर दिया है। नाटो ने स्वीडन और फिनलैंड के प्रस्तावित अंतर्वेशन (Inclusion) के लिये अपने द्वार खोल दिये है, जो एक बार (तुर्की की मंज़ूरी की प्रतीक्षा है) रूस के खिलाफ गठबंधन की नई सैन्य सीमाओं का निर्माण करेगा।
- विश्वास की कमी:
- रूस और पश्चिम के मध्य विश्वास की कमी अब तक के उच्चतम स्तर पर है। अमेरिका के नेतृत्त्व वाला गठबंधन यूक्रेन में हथियारों की आपूर्ति कर रहा है।
- हालाँकि अमेरिकी राष्ट्रपति यूक्रेन की सभी मांगों को स्वीकार करने के लिये अनिच्छुक प्रतीत होते हैं, जिसमें F16s सहित लड़ाकू विमान की मांग शामिल है; शायद अमेरिकी राष्ट्रपति युद्ध के व्यापक होने के जोखिम के प्रति सचेत हैं।
- चीन की भूमिका:
- मास्को ने वर्ष 2022 में चीन के साथ अपनी दोस्ती को "असीमित" घोषित किया लेकिन चीन भी अपने यूरोप के साथ संबंधों को खतरे में नहीं डालना चाहता है।
- चीन ने रूस को हथियारों में योगदान नहीं दिया है और परमाणु युद्ध के खिलाफ अपनी आपत्ति भी व्यक्त की है।
- हालाँकि अमेरिका और यूरोप रूस को चीनी हथियारों की आपूर्ति के बारे में अभी भी चिंतित हैं।
भारत की स्थिति:
- यूक्रेन युद्ध सामरिक स्वायत्तता का अभ्यास करने का एक अवसर रहा है। भारत ने तटस्थता अपनाते हुए वैश्विक शांति का समर्थन करते हुए मास्को, रूस के साथ अपने संबंध बनाए रखा है।
- भारत ने रूस से तेल खरीदने हेतु पश्चिमी प्रतिबंधों के वातावरण में काम किया। भारत, रूस से 25% तेल खरीद कर रहा है, जो पहले 2% से भी कम थी।
- भारत हाल ही में युद्ध की पहली वर्षगाँठ पर UNGA के एक प्रस्ताव से अनुपस्थित रहा, जिसमें रूस को अपने क्षेत्र से हटने के लिये कहा गया, क्योंकि प्रस्ताव में स्थायी शांति स्थापित करने के स्थायी लक्ष्य की कमी थी।
- रूसी आक्रमण के बाद से संयुक्त राष्ट्र महासभा में यूक्रेन संकट पर अब तक हुए तीन बार के मतदान में भारत सभी में अनुपस्थित रहा है।
- लेकिन अगर युद्ध जारी रहता है तो पश्चिमी गठबंधन भारत पर "सही पक्ष" का समर्थन करने हेतु दबाव बढ़ाएगा।
- भारत ने उम्मीद जताई है कि वह शांति हेतु अपनी G-20 अध्यक्षता का उपयोग कर सकता है।
आगे की राह
- संघर्षशील पक्षों फिर से बात करने की तत्काल आवश्यकता है क्योंकि शत्रुता और हिंसा का बढ़ना किसी के हित में नहीं है।
- अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांत और न्यायशास्त्र स्पष्ट रूप से कहते हैं कि संघर्ष के पक्षकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि नागरिकों एवं नागरिक बुनियादी ढाँचे को लक्षित नहीं किया जाना चाहिये तथा वैश्विक व्यवस्था अंतर्राष्ट्रीय कानून, संयुक्त राष्ट्र चार्टर और सभी राज्यों की क्षेत्रीय अखंडता एवं संप्रभुता के सम्मान पर स्थापित होती है। इन सिद्धांतों का बिना किसी अपवाद के पालन किया जाना चाहिये।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार
चर्चा में क्यों?
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) अपने "वर्तमान स्वरूप" में "पंगु" और "निष्क्रिय" हो गई है क्योंकि यह रूस-यूक्रेन युद्ध पर कोई निर्णय लेने में अक्षम रही है।
संयुक्त राष्ट्र में सुधार में बाधाएँ:
- संयुक्त राष्ट्र महासभा हमेशा से विभाजित सी रही है। 193 देशों में वार्ता समूह की संख्या 5 है और वे केवल एक-दूसरे को संतुलित करने का कार्य कर रहे हैं।
- संयुक्त राष्ट्र प्रणाली में सुधार सुनिश्चित करने के लिये महासभा का कामकाज़ उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि UNSC के स्थायी सदस्य का।
- संयुक्त राष्ट्र प्रणाली में सुधार को लेकर इसके स्थायी सदस्यों में बीते काफी समय से ही उत्साह की कमी देखी गई, लेकिन वे सभी इस बात पर सहमत हुए हैं कि सुरक्षा परिषद में बदलाव लाना आवश्यक है।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद:
- सुरक्षा परिषद की स्थापना वर्ष 1945 में संयुक्त राष्ट्र चार्टर द्वारा की गई थी।
- यह संयुक्त राष्ट्र के छह प्रमुख अंगों में से एक है।
- UNSC में सदस्यों की संख्या 15 हैं: 5 स्थायी सदस्य (P5) और 10 गैर-स्थायी सदस्य 2 वर्ष की अवधि के लिये चुने जाते हैं।
- 5 स्थायी सदस्य हैं: संयुक्त राज्य अमेरिका, रूसी संघ, फ्राँस, चीन और यूनाइटेड किंगडम।
- भारत ने UNSC में सात बार गैर-स्थायी सदस्य के रूप में कार्य किया है और जनवरी 2021 में 8वीं बार पुनः अस्थायी सदस्य के रूप में चुना गया है।
UNSC से संबंधित मुद्दे:
- पर्याप्त प्रतिनिधित्त्व का अभाव:
- कई वक्ताओं द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद कम प्रभावी है क्योंकि यह कम प्रतिनिधिक है। 54 देशों के महाद्वीप अफ्रीका की अनुपस्थिति इसमें सर्वाधिक प्रासंगिक है।
- वर्तमान वैश्विक मुद्दे जटिल और परस्पर संबद्ध हैं। भू-राजनीतिक एवं भू-आर्थिक रूप से महत्त्वपूर्ण देशों के प्रतिनिधित्त्व की कमी के कारण विश्व के एक बड़े भाग के लोग विश्व के सर्वोच्च सुरक्षा शिखर सम्मेलन में अपनी राय अभिव्यक्त करने से वंचित हैं।
- इसके अलावा यह चिंता का विषय है कि भारत, जर्मनी, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका जैसे विश्व स्तर पर महत्त्वपूर्ण देशों का UNSC के स्थायी सदस्यों की सूची में प्रतिनिधित्त्व नहीं है।
- वीटो पावर का दुरुपयोग:
- कई विशेषज्ञों के साथ-साथ अधिकांश देशों द्वारा वीटो पावर की सदैव आलोचना की गई है जो इसे ‘विशेषाधिकार प्राप्त देशों के स्व-चयनित क्लब’ और गैर-लोकतांत्रिक व्यवस्था के रूप में देखते हैं। P5 देशों में से किसी की भी असंतुष्टि की स्थिति में परिषद आवश्यक निर्णय लेने में सक्षम नहीं है।
- यह वर्तमान वैश्विक सुरक्षा वातावरण के लिये उपयुक्त नहीं है कि यह निर्णय लेने वाली विशिष्ट या अभिजात संरचनाओं द्वारा निर्देशित हो।
- P5 देशों के बीच भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता:
- स्थायी सदस्यों के बीच भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता ने वैश्विक मुद्दों से निपटने के लिये एक प्रभावी तंत्र का विकास करने की UNSC की राह को अवरुद्ध कर रखा है।
- P5 सदस्य देशों के रूप में वर्तमान वैश्विक व्यवस्था को देखें तो इनमें से तीन देश- संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन ऐसे देश हैं जो कुछ वैश्विक भू-राजनीतिक मुद्दों के केंद्र बिंदु हैं जैसे- ताइवान मुद्दा और रूस-यूक्रेन युद्ध का मुद्दा।
- राज्य की संप्रभुता के लिये खतरा:
- अंतर्राष्ट्रीय शांति स्थापना और संघर्ष समाधान के प्रमुख अंग के रूप में UNSC शांति बनाए रखने तथा संघर्ष के प्रबंधन हेतु ज़िम्मेदार है। इसके निर्णय (जिन्हें संकल्प कहा जाता है) महासभा के विपरीत सभी सदस्य देशों पर बाध्यकारी होते हैं।
- इसका अर्थ यह है कि प्रतिबंध लगाने जैसी कार्रवाई कर यदि आवश्यक हो तो किसी भी राज्य की संप्रभुता का अतिक्रमण किया जा सकता है।
आगे की राह
- UNSC का लोकतंत्रीकरण:
- संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में P5 और अन्य देशों के बीच शक्ति असंतुलन को तत्काल दूर करने की आवश्यकता है ताकि परिषद को अधिक लोकतांत्रिक बनाया जा सके और अंतर्राष्ट्रीय शांति, सुरक्षा एवं व्यवस्था को नियंत्रित करने में इसकी वैधता बढ़ाई जा सके।
- UNSC का विस्तार:
- शांति और सुरक्षा के लिये वैश्विक शासन की बदलती आवश्यकताओं को देखते हुए UNSC में महत्त्वपूर्ण सुधारों की आवश्यकता है, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा के लिये जटिल और उभरती चुनौतियों से बेहतर ढंग से निपटने हेतु अपनी स्थायी तथा गैर-स्थायी सीटों का विस्तार करना शामिल है।
- समान प्रतिनिधित्त्व:
- UNSC में सभी क्षेत्रों का समान प्रतिनिधित्त्व राष्ट्रों पर इसकी शासन शक्ति और अधिकार के विकेंद्रीकरण के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- UNSC की निर्णय लेने की प्रक्रियाओं का विकेंद्रीकरण इसे एक अधिक प्रतिनिधित्त्व, सहभागी निकाय के रूप में स्थापित करेगा।
- भारत की भूमिका:
- संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के वर्तमान गैर-स्थायी सदस्य के रूप में भारत UNSC में सुधार के प्रस्तावों के व्यापक सेट वाले एक संकल्प का मसौदा तैयार कर सकता है।
- सितंबर 2022 में भारत ने UN महासभा के मौके पर न्यूयॉर्क में दो अलग-अलग समूहों G-4 और L-69 की बैठक की मेज़बानी करते हुए UNSC में सुधार पर ज़ोर दिया।
- जैसा कि भारत ग्लोबल साउथ का नेतृत्त्व करता है, उसे UNSC में अपनी शांति और सुरक्षा चिंताओं को स्पष्ट कर "ग्लोबल साउथ" में अपने पारंपरिक भागीदारों के साथ मज़बूती से पुनः जुड़ने की आवश्यकता है।
भारत, फ्राँस, संयुक्त अरब अमीरात त्रिपक्षीय पहल
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत, फ्राँस और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) ने जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने और जैवविविधता की रक्षा के साथ-साथ नाभिकीय तथा सौर ऊर्जा के विकास पर सहयोग करने के लिये मिलकर काम करने का फैसला किया है।
- सितंबर 2022 में न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक के दौरान इस साझेदारी की अवधारणा पर पहली बार प्रस्तावित किया गया था।
त्रिपक्षीय पहल की प्रमुख विशेषताएँ:
यह त्रिपक्षीय पहल ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोगी परियोजनाओं के डिज़ाइन और निष्पादन को बढ़ावा देने के लिये एक मंच के रूप में काम करेगी। इसमें सौर और नाभिकीय ऊर्जा पर ध्यान देने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने की दिशा में प्रयास करना और विशेष रूप से हिंद महासागर क्षेत्र में जैवविविधता की सुरक्षा शामिल है।
- ये तीनों देश रक्षा क्षेत्र में एक-साथ काम करने, संक्रामक रोगों का मुकाबला करने और विश्व स्वास्थ्य संगठन, गावी-वैक्सीन एलायंस, ग्लोबल फंड जैसे वैश्विक स्वास्थ्य संगठनों में सहयोग को बढ़ावा देने पर भी सहमत हुए हैं।
- इसके अलावा तीनों देश "वन हेल्थ" दृष्टिकोण को लागू करने हेतु मज़बूत सहयोग स्थापित करने का प्रयास करेंगे, साथ ही विकासशील देशों में बायोमेडिकल नवाचार एवं उत्पादन में स्थानीय क्षमताओं के विकास का समर्थन करेंगे।
- तीनों देश संयुक्त अरब अमीरात के नेतृत्व में मैंग्रोव एलायंस फॉर क्लाइमेट और भारत एवं फ्राँस के नेतृत्व में इंडो-पैसिफिक पार्क्स पार्टनरशिप जैसी पहलों के माध्यम से अपने सहयोग का विस्तार करने पर भी सहमत हुए।
भारत और फ्राँस के बीच सहयोग के अन्य क्षेत्र:
- रक्षा सहयोग:
- यह दोनों देशों की तीनों सेनाओं का नियमित रक्षा अभ्यास है; अर्थात्
- शक्ति अभ्यास (सेना)
- वरुण अभ्यास (नौसेना)
- गरुड़ अभ्यास (वायु सेना)
- भारत ने वर्ष 2005 में प्रौद्योगिकी-हस्तांतरण व्यवस्था के माध्यम से भारत के मालेगाँव डॉकयार्ड में छह स्कॉर्पीन पनडुब्बियों के निर्माण हेतु फ्राँसीसी फर्म के साथ अनुबंध किया था।
- साथ ही भारत और फ्राँस ने वर्ष 2016 में अंतर-सरकारी समझौते पर हस्ताक्षर किये थे, जिसके तहत फ्राँस, भारत को लगभग 60,000 करोड़ रुपए की लागत से 36 राफेल लड़ाकू विमान प्रदान करने पर सहमत हुआ था।
- अन्य पहल:
- भारत और फ्राँस जलवायु परिवर्तन को सीमित करने और अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन के विकास के लिये संयुक्त प्रयास कर रहे हैं।
- फ्राँस ने वर्ष 2025 के लिये निर्धारित भारत के वीनस मिशन का हिस्सा बनने पर सहमति व्यक्त की है।
- इसके अलावा ISRO के वीनस उपकरण, VIRAL (Venus Infrared Atmospheric Gases Linker) रूसी और फ्राँसीसी एजेंसियों द्वारा सह-विकसित हैं।
भारत और संयुक्त अरब अमीरात के बीच सहयोग के अन्य क्षेत्र:
- सहयोग: ये दोनों I2U2 समूह के सदस्य हैं।
- आर्थिक साझेदारी: वर्ष 2022 में भारत और संयुक्त अरब अमीरात ने द्विपक्षीय व्यापार को 5 वर्षों के भीतर 100 बिलियन अमेरिकी डाॅलर तक पहुँचाने के उद्देश्य से एक व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौते (CEPA) पर हस्ताक्षर किये।
- इसके अलावा भारत और संयुक्त अरब अमीरात रुपए में गैर-तेल व्यापार को बढ़ावा देने के तरीकों पर वार्ता कर रहे हैं जो रुपए के अंतर्राष्ट्रीयकरण को बढ़ावा देगा।
- संयुक्त अरब अमीरात वर्ष 2021-22 के लिये 28 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की राशि के साथ भारत (अमेरिका के बाद) का दूसरा सबसे बड़ा निर्यात गंतव्य है।
- संयुक्त अरब अमीरात के लिये भारत वर्ष 2021 में लगभग 45 बिलियन अमेरिकी डॉलर (गैर-तेल व्यापार) की राशि के साथ दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है।
- रक्षा सहयोग: खाड़ी और दक्षिण एशिया में कट्टरपंथ के प्रसार के साथ भारत आतंकवादी खतरों का मुकाबला करने तथा कट्टरपंथ से निपटने हेतु संयुक्त अरब अमीरात के साथ सुरक्षा सहयोग बढ़ाने पर विचार कर रहा है।
- 'डेज़र्ट ईगल II', भारत और संयुक्त अरब अमीरात की वायु सेनाओं के मध्य एक संयुक्त वायु युद्ध अभ्यास है।
पेरिस क्लब
चर्चा में क्यों?
कर्जदाता (Creditor) देशों का एक अनौपचारिक समूह जिसे पेरिस क्लब के रूप में जाना जाता है, श्रीलंका को दिये जाने वाले ऋण पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund- IMF) को वित्तीय गारंटी प्रदान करेगा।
- वर्ष 2022 में उत्पन्न आर्थिक संकट के बाद श्रीलंका को IMF से 2.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर का बेलआउट पैकेज प्राप्त करने हेतु पेरिस क्लब और अन्य कर्जदाताओं से गारंटी की आवश्यकता है।
पेरिस क्लब:
परिचय:
- पेरिस क्लब ज़्यादातर पश्चिमी कर्जदाता देशों का एक समूह है, जिसकी उत्पत्ति वर्ष 1956 में आयोजित बैठक से हुई है जिसमें अर्जेंटीना पेरिस में अपने सार्वजनिक कर्जदाताओं से मिलने हेतु सहमत हुआ था।
- यह खुद को एक मंच के रूप में वर्णित करता है जहाँ लेनदार देशों द्वारा सामना की जाने वाली भुगतान कठिनाइयों को हल करने हेतु आधिकारिक कर्जदाता बैठक करते हैं।
- इसका उद्देश्य उन देशों हेतु स्थायी ऋण-राहत समाधान खोजना है जो देश अपने द्विपक्षीय ऋण चुकाने में असमर्थ हैं।
सदस्य:
- सदस्यों में शामिल हैं: ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फिनलैंड, फ्राँस, जर्मनी, आयरलैंड, इज़रायल, जापान, नीदरलैंड, नॉर्वे, रूस, दक्षिण कोरिया, स्पेन, स्वीडन, स्विट्ज़रलैंड, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य।
- ये सभी 22 सदस्यीय आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (OECD) नामक समूह के सदस्य हैं
ऋण समझौतों में शामिल:
- इसकी आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक, पेरिस क्लब ने 102 अलग-अलग देनदार देशों के साथ 478 समझौते किये हैं।
- वर्ष 1956 के बाद से पेरिस क्लब समझौता ढाँचे के तहत 614 अरब अमेरिकी डॉलर का ऋण लिया गया है।
हालिया गतिविधि:
- पिछली सदी में पेरिस समूह के देशों का द्विपक्षीय ऋण पर प्रभुत्त्व था, लेकिन पिछले दो दशकों में चीन के दुनिया के सबसे बड़े द्विपक्षीय ऋणदाता के रूप में उभरने के साथ उनका महत्त्व कम हो गया है।
- उदाहरण के लिये श्रीलंका के मामले में भारत, चीन और जापान सबसे बड़े द्विपक्षीय लेनदार हैं।
- श्रीलंका के द्विपक्षीय ऋणों में चीन का 52%, जापान का 19.5% तथा भारत का 12% हिस्सा है।
श्रीलंका के साथ द्विपक्षीय वार्ता पर भारत की स्थिति
भारत ने जनवरी 2023 में श्रीलंका के साथ अपनी द्विपक्षीय वार्ता शुरू की।
- भारत ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund- IMF) को लिखित वित्त संबंधी आश्वासन भेजकर पिछले वर्ष हुए आर्थिक गिरावट के बाद इसके आवश्यक ऋण पुनर्गठन कार्यक्रम का आधिकारिक समर्थन किया है, साथ ही अन्य देशों से इसके पालन की अपील की।
- वित्तपोषण आश्वासन का निर्णय भी "पड़ोसी पहले (Neighborhood First)" के सिद्धांत पर भारत के विश्वास का पुन: दावा था जिसमें एक पड़ोसी को अकेला नहीं छोड़ा गया।