राजनीतिक फंडिंग का प्रकटीकरण
चर्चा में क्यों?
- वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों और दान के संबंध में चिंताओं के मद्देनज़र, चुनावी बॉण्ड को चुनौती पर सर्वोच्च न्यायालय की सुनवाई का निष्कर्ष इस चुनौती के समाधान के भारत में लोकतंत्र और विधि के शासन पर पड़ने वाले संभावित प्रभाव की एक महत्त्वपूर्ण जाँच का संकेत देता है।
राजनीतिक फंडिंग क्या है?
परिचय:
- राजनीतिक फंडिंग/चंदा से तात्पर्य राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों को उनकी गतिविधियों, अभियानों और समग्र कामकाज का समर्थन करने के लिये प्रदान किये गए वित्तीय योगदान से है।
- राजनीतिक दलों के लिये लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में प्रभावी ढंग से भाग लेने, चुनाव अभियान चलाने और विभिन्न राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने के लिये राजनीतिक फंडिंग महत्त्वपूर्ण है।
भारत में वैधानिक प्रावधान:
- जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951: जन प्रतिनिधित्व (RPA) अधिनियम भारत में चुनावों के संबंध में नियमों और विनियमों की रूपरेखा तैयार करता है, जिसमें चुनाव खर्चों की घोषणा, योगदान और खातों के रखरखाव से संबंधित प्रावधान शामिल हैं।
- आयकर अधिनियम, 1961: आयकर अधिनियम राजनीतिक दलों और उनके दानदाताओं के कर उपचार को नियंत्रित करता है।
- राजनीतिक दलों को कर नियमों का पालन करना होगा और राजनीतिक दानकर्त्ता व्यक्ति या संस्थाएँ कुछ शर्तों के तहत कर लाभ के लिये पात्र हो सकते हैं।
- कंपनी अधिनियम, 2013: कंपनी अधिनियम राजनीतिक दलों को कॉर्पोरेट डोनेशन को नियंत्रित करता है, एक कंपनी द्वारा योगदान की जाने वाली अधिकतम राशि निर्दिष्ट करता है और वित्तीय विवरणों में राजनीतिक योगदान का प्रकटीकरण अनिवार्य करता है।
राजनीतिक चंदा जुटाने के तरीके:
- एकल व्यक्ति: RPA की धारा 29B राजनीतिक दलों को एकल व्यक्तियों से दान प्राप्त करने की अनुमति देती है, जबकि करदाताओं को 100% कटौती का दावा करने की अनुमति देती है।
- राज्य/सार्वजनिक अनुदान: यहाँ सरकार चुनाव संबंधी उद्देश्यों के लिये पार्टियों को धन मुहैया कराती है। राज्य वित्तपोषण दो प्रकार का होता है:
- प्रत्यक्ष धन: सरकार राजनीतिक दलों को सीधे धन प्रदान करती है। हालाँकि भारत में प्रत्यक्ष फंडिंग प्रतिबंधित है।
- अप्रत्यक्ष फंडिंग: इसमें प्रत्यक्ष फंडिंग को छोड़कर अन्य तरीके शामिल हैं, जैसे मीडिया तक निःशुल्क पहुँच, रैलियों के लिये सार्वजनिक स्थानों पर निःशुल्क पहुँच, निःशुल्क या रियायती परिवहन सुविधाएँ। भारत में इसके विनियमन की अनुमति दी गई है।
- कॉर्पोरेट फंडिंग: भारत में कॉर्पोरेट निकायों द्वारा दान कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 182 के तहत नियंत्रित किया जाता है।
- चुनावी बॉण्ड योजना: चुनावी बॉण्ड प्रणाली को वर्ष 2017 में एक वित्त विधेयक के माध्यम से पेश किया गया था और इसे वर्ष 2018 में लागू किया गया था।
- वे दाता की गोपनीयता बनाए रखते हुए व्यक्तियों और संस्थाओं के लिये पंजीकृत राजनीतिक दलों को फंडिंग देने के साधन के रूप में कार्य करते हैं।
- चुनावी ट्रस्ट योजना, 2013: इसे केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (CBDT) द्वारा अधिसूचित किया गया था।
- इलेक्टोरल ट्रस्ट कंपनियों द्वारा स्थापित एक ट्रस्ट है जिसका एकमात्र उद्देश्य अन्य कंपनियों एवं व्यक्तियों से प्राप्त योगदान को राजनीतिक दलों में वितरित करना है।
राजनीतिक फंडिंग का प्रकटीकरण करने की आवश्यकता क्यों है?
राजनीतिक फंडिंग प्रकटीकरण पर वैश्विक मानक:
- भारत में जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में चुनावी बॉण्ड की अनुमति देने वाले संशोधन ने राजनीतिक दानदाताओं के लिये पूर्ण अनामिता बनाए रखी है।
- यह अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं के बिल्कुल विपरीत है, जहाँ प्रचलित आवश्यकता राजनीतिक दान का पूर्ण रूप से प्रकटीकरण करना है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका सहित दुनिया भर के देश राजनीतिक फंडिंग विनियम में पारदर्शिता को अनिवार्य करते हैं, प्रकटीकरण की आवश्यकताएँ वर्ष 1910 से चली आ रही हैं।
- यूरोपीय संघ द्वारा वर्ष 2014 में यूरोपीय राजनीतिक दलों के वित्तपोषण पर नियम बनाए, जिसमें दान पर सीमाएँ, प्रकटीकरण आदेश एवं बड़े योगदान के लिये तत्काल रिपोर्टिंग शामिल थी।
राजनीतिक फंडिंग विनियमों में मौलिक आवश्यकताएँ:
- वैश्विक स्तर पर अधिकांश कानूनी नियम राजनीतिक दलों के वित्तपोषण के लिये दो मूलभूत आवश्यकताओं पर सहमत हैं:
- विशिष्ट न्यूनतम राशि से अधिक के दानदाताओं का व्यापक प्रकटीकरण तथा फंडिंग पर सीमाएँ सुनिश्चित करना।
- इन उपायों का उद्देश्य पारदर्शिता सुनिश्चित करना, भ्रष्टाचार को रोकना तथा राजनीतिक व्यवस्था एवं लोकतंत्र में जनता का विश्वास बनाए रखना है।
नागरिकों के विश्वास को कायम रखना:
- राजनीतिक फंडिंग का सार्वजनिक प्रकटीकरण अनिवार्य है क्योंकि राजनीतिक दल प्रतिनिधि लोकतंत्र की नींव के रूप में कार्य करते हैं।
- पारदर्शी वित्तीय खाते पार्टियों और राजनेताओं दोनों में नागरिकों के विश्वास को बनाए रखने, कानून के शासन की रक्षा करने तथा चुनावी एवं राजनीतिक प्रक्रियाओं के भीतर भ्रष्टाचार का मुकाबला करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- यह पारदर्शिता एवं जवाबदेही सुनिश्चित करता है, उन लोकतांत्रिक सिद्धांतों को मज़बूत करता है जो पारदर्शिता और निष्पक्षता पर निर्भर हैं।
अनुचित प्रभाव की रोकथाम:
- प्रकटीकरण के बिना धन कुछ लोगों के लिये राजनीतिक प्रक्रिया को अनुचित रूप से प्रभावित करने का एक उपकरण बन सकता है। पारदर्शिता कॉर्पोरेट हितों को राजनीति और बड़े पैमाने पर वोट खरीदने से रोकने में सहायता प्रदान करती है।
समान अवसर बनाए रखना:
- जब एक पार्टी के पास अतिरिक्त वित्त तक पहुँच होती है उस स्थिति में न्यायसंगतता समाप्त हो जाती है। प्रकटीकरण यह सुनिश्चित करता है कि सभी पक्षों को समान अवसर प्राप्त हों।
चुनावी बॉण्ड योजना के अंर्तगत प्रकटीकरण से छूट:
- वित्त अधिनियम, 2017 में संशोधन के माध्यम से केंद्र सरकार ने राजनीतिक दलों को चुनावी बॉण्ड के माध्यम से प्राप्त दान का प्रकटीकरण करने से छूट दी है।
- इसका अर्थ यह है कि मतदाताओं को यह नहीं पता होगा कि किस व्यक्ति, कंपनी अथवा संगठन ने किस पार्टी को और कितनी मात्रा में फंड दिया है।
- हालाँकि एक प्रतिनिधि लोकतंत्र में नागरिक अपना वोट उन लोगों के लिये डालते हैं जो संसद में उनका प्रतिनिधित्व करेंगे।
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत निर्वाचन आयोग (ECI) को चुनावी बॉण्ड के माध्यम से राजनीतिक दलों को प्राप्त धन पर अद्यतन डेटा प्रदान करने का निर्देश दिया है।
- भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने लंबे समय से माना है कि "जानने का अधिकार", विशेष रूप से चुनावों के संदर्भ में, भारतीय संविधान के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 19) का एक अभिन्न अंग है।
राजनीतिक फंडिंग में क्या सुधार आवश्यक हैं?
चुनावी न्याय:
- चुनावी न्याय लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों को बनाए रखने में प्रमुख भूमिका निभाता है, यह सुनिश्चित करता है कि निर्वाचन प्रक्रिया के सभी पहलू विधि के अनुरूप हों एवं निर्वाचन अधिकारों की रक्षा करें।
- यह प्रणाली स्वतंत्र, निष्पक्ष और प्रामाणिक चुनावों को सुविधाजनक बनाने में सहायक है, जो एक सशक्त लोकतंत्र के लिये आवश्यक है।
चुनावी बॉण्ड के मुद्दों को संबोधित करना:
- चुनावी बॉण्ड, अज्ञात दाता विवरण की अनुमति देते हुए लोकतांत्रिक पारदर्शिता तथा स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की अखंडता के लिये खतरा उत्पन्न करते हैं।
- उन्हें संवैधानिक रूप से सुदृढ़ बनाने के अतिरिक्त इस मुद्दे का समाधान करने के किये एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो वैधता से परे हो एवं निर्वाचन प्रक्रिया में पारदर्शिता के लोकतांत्रिक सार को संरक्षित करने पर केंद्रित हो।
रिपोर्टिंग तथा स्वतंत्र लेखापरीक्षा के लिये तंत्र:
- इसमें एक निर्दिष्ट नाममात्र सीमा से ऊपर के दानदाताओं की पहचान तथा निर्वाचन आयोग को महत्त्वपूर्ण दान की तत्काल रिपोर्ट करना शामिल है।
- इसमें राजनीतिक दल के खातों को प्रचारित करना, दल के खातों की स्वतंत्र ऑडिटिंग तथा फंडिंग व व्यय पर सीमा स्थापित करना भी शामिल है।
चुनावों का राज्य वित्तपोषण:
- चुनावों के लिये राज्य द्वारा वित्तपोषण, एक ऐसी प्रणाली को संदर्भित करता है जिसमें सरकार राजनीतिक दलों तथा उम्मीदवारों को निर्वाचन प्रक्रिया में उनकी भागीदारी को सुविधाजनक बनाने के लिये वित्तीय सहायता प्रदान करती है।
- यह फंडिंग आमतौर पर सार्वजनिक संसाधनों से प्राप्त होती है एवं इसका उद्देश्य निजी दान पर निर्भरता को कम करना, राजनीतिक अभियानों में निहित स्वार्थों के संभावित प्रभाव को कम करना है।
भारत सरकार और UNLF के बीच शांति समझौता
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में भारत सरकार और मणिपुर सरकार ने यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (UNLF) के साथ एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये, जो मणिपुर का सबसे पुराना घाटी-आधारित विद्रोही समूह है।
यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (UNLF) क्या है?
- NLF का गठन वर्ष 1964 में हुआ था और यह राज्य के नगा-बहुल एवं कुकी-ज़ोमी प्रभुत्व वाली पहाड़ियों में सक्रिय विद्रोही समूहों से अलग है।
- UNLF उन सात "मैतेई चरमपंथी संगठनों" में से एक है जिन पर केंद्र सरकार ने गैरकानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम, 1967 के तहत प्रतिबंध लगाया है।
- UNLF भारतीय सीमा/क्षेत्र के भीतर और बाहर दोनों जगह काम कर रहा है।
- ऐसा माना जाता है कि UNLF को शुरुआत में NSCN (IM) से प्रशिक्षण मिला था, जो नगा गुटों में सबसे बड़ा विद्रोही समूह था।
- यह मणिपुर के सभी घाटी क्षेत्रों और कुकी-ज़ोमी पहाड़ी ज़िलों के कुछ गाँवों में संचालित होता है।
- यह एक प्रतिबंधित समूह है, यह अधिकतर म्याँमार की सेना के समर्थन से म्याँमार के सागांग क्षेत्र, चिन राज्य और राखीन राज्य में शिविरों एवं प्रशिक्षण अड्डों से संचालित होता है।
शांति समझौते का उद्देश्य:
- इस समझौते से विशेष रूप से मणिपुर और उत्तर-पूर्व क्षेत्र में शांति के एक नए युग की शुरुआत में उल्लेखनीय वृद्धि होने की उम्मीद है।
- यह पहला उदाहरण है जहाँ घाटी के एक मणिपुरी सशस्त्र समूह ने भारत के संविधान का सम्मान करने और देश के कानूनों का पालन करने की प्रतिबद्धता जताते हुए हिंसा को त्यागने, समाज की मुख्यधारा में लौटने का फैसला किया है।
- यह समझौता न केवल यूएनएलएफ और सुरक्षा बलों के बीच शत्रुता को समाप्त करेगा, जिसने विगत पाँच दशक से अधिक समय में दोनों पक्षों के बहुमूल्य जीवन जीने का दावा किया है, बल्कि समुदाय की दीर्घकालिक चिंताओं को दूर करने का अवसर भी प्रदान करेगा।
- यूएनएलएफ की मुख्यधारा में वापसी से घाटी स्थित अन्य सशस्त्र समूहों को भी शांति प्रक्रिया में भाग लेने के लिये प्रोत्साहन मिलेगा।
- सहमत ज़मीनी नियमों के कार्यान्वयन की निगरानी के लिये एक शांति निगरानी समिति (पीएमसी) का गठन किया जाएगा।
मणिपुर के अन्य उग्रवादी समूह:
- मणिपुर के कई अन्य विद्रोही समूह हैं कांगलेइपक कम्युनिस्ट पार्टी (केसीपी), पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए), कांगलेई यावोल कन्ना लूप (केवाईकेएल), पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कांगलेइपाक (पीआरईपीएके), नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड - खापलांग (एनएससीएन-के)।
- 2008 में केंद्र सरकार, मणिपुर राज्य और कुकी-ज़ोमी क्षेत्र के विद्रोही समूहों को शामिल करते हुए एक त्रिपक्षीय सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस (एसओओ) समझौता स्थापित किया गया था।
सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस (SoO) संधि क्या है?
- कुकी के साथ SoO समझौते पर वर्ष 2008 में भारत सरकार और मणिपुर व नगालैंड के पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय विभिन्न कुकी आतंकवादी समूहों के बीच युद्धविराम समझौते के रूप में हस्ताक्षर किये गए थे।
- समझौते के तहत कुकी आतंकवादी समूह हिंसक गतिविधियों को बंद करने और निगरानी के लिये निर्दिष्ट शिविरों में सुरक्षा बलों के आने पर सहमत हुए।
- इसके बदले में भारत सरकार कुकी समूहों के खिलाफ अपने अभियान को निलंबित करने पर सहमत हुई।
- संयुक्त निगरानी समूह (JMG) समझौते के प्रभावी कार्यान्वयन की देख-रेख करता है।
- राज्य और केंद्रीय बलों सहित सुरक्षा बल व भूमिगत समूह अभियान शुरू नहीं कर सकते।
विद्रोही समूहों से निपटने के लिये प्रशासनिक व्यवस्थाएँ क्या हैं?
पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय (DoNER):
- यह क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक विकास की गति को तेज़ करने के लिये पूर्वोत्तर क्षेत्र में विकास योजनाओं और परियोजनाओं की योजना, कार्यान्वयन और निगरानी से संबंधित मामलों के लिये ज़िम्मेदार है।
इनर लाइन परमिट (ILP):
- मिज़ोरम, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश के स्वदेशी लोगों की मूल पहचान बनाए रखने के लिये बाहरी लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया गया है, इनर लाइन परमिट (ILP) के बिना बाहरी लोगों के प्रवेश की अनुमति नहीं है।
संवैधानिक प्रावधान:
- इन प्रावधानों के अनुसरण में कार्बी आंगलोंग, खासी पहाड़ी ज़िले, चकमा ज़िले आदि जैसे विभिन्न जातीय समूहों की मांगों को पूरा करने के लिये विभिन्न स्वायत्त ज़िले बनाए गए हैं।
- अनुच्छेद 244 (1) में प्रावधान है कि 5वीं अनुसूची के प्रावधान अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन या नियंत्रण पर लागू होंगे।
- अनुच्छेद 244 (2) में प्रावधान है कि 6वीं अनुसूची के प्रावधान इन राज्यों में स्वायत्त ज़िला परिषद बनाने के लिये असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम राज्यों में अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन या नियंत्रण पर लागू होंगे।
निष्कर्ष:
- मणिपुर के साथ वृहद पूर्वोत्तर क्षेत्र में शांति लाने के लिये केंद्र और मणिपुर की सरकारों एवं UNLF के मध्य शांति समझौता आवश्यक है। ऐतिहासिक समझौता UNLF को मुख्यधारा में वापस लाकर लंबे समय से चले आ रहे मुद्दों के समाधान की दिशा में अग्रसर है। जबकि अन्य विद्रोही समूहों के साथ तुलनीय समझौते क्षेत्रीय मुद्दों को हल करने और विकास को बढ़ावा देने के लिये निरंतर प्रयासों का संकेत देते हैं, शांति निगरानी समिति ज़मीनी मानदंडों को बनाए रखने की प्रतिबद्धता की पुष्टि करती है।
अखिल भारतीय न्यायिक सेवा
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के राष्ट्रपति ने न्यायपालिका की विविधता में वृद्धि करने हेतु उपेक्षित सामाजिक समूहों की भागीदारी को बढ़ाने के लिये अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (All India Judicial Service- AIJS) की वकालत की।
अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) क्या है?
परिचय:
- यह सभी राज्यों में अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीशों एवं ज़िला न्यायाधीशों के स्तर पर न्यायाधीशों के लिये एक प्रस्तावित केंद्रीकृत भर्ती प्रणाली है।
- इसका लक्ष्य संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) मॉडल के समान न्यायाधीशों की भर्ती को केंद्रीकृत करना तथा सफल उम्मीदवारों को राज्यों का कार्यभार सौंपना है।
- वर्ष 1958 और 1978 की विधि आयोग की रिपोर्टों की सिफारिशों के अनुसार, AIJS का उद्देश्य अलग-अलग वेतन, रिक्तियों पर भर्ती और मानकीकृत राष्ट्रव्यापी प्रशिक्षण जैसे संरचनात्मक मुद्दों का समाधान करना है।
- संसदीय स्थायी समिति ने वर्ष 2006 में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के समर्थन पर पुनर्विचार किया।
संवैधानिक आधार:
- संविधान का अनुच्छेद 312 केंद्रीय सिविल सेवाओं के समान ही राज्यसभा के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों द्वारा समर्थित एक प्रस्ताव पर AIJS की स्थापना का प्रावधान करता है।
- हालाँकि अनुच्छेद 312 (2) में कहा गया है कि AIJS में ज़िला न्यायाधीश (अनुच्छेद 236 में परिभाषित) से नीचे स्तर के किसी भी पद को शामिल नहीं किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 236 के अनुसार, एक ज़िला न्यायाधीश के अंतर्गत नगर सिविल न्यायालय का न्यायाधीश, अपर ज़िला न्यायाधीश, संयुक्त ज़िला न्यायाधीश, सहायक ज़िला न्यायाधीश, लघुवाद न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, मुख्य प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट, अपर मुख्य प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट, सेशन न्यायाधीश, अपर सेशन न्यायाधीश और सहायक सेशन न्यायाधीश हैं।
आवश्यकता:
- AIJS न्यायाधीशों के चयन और प्रशिक्षण का एक समान और उच्च मानक सुनिश्चित करेगा, जिससे न्यायपालिका की गुणवत्ता एवं दक्षता में वृद्धि होगी।
- AIJS निचली अदालतों में न्यायाधीशों की रिक्तियों को भरेगा, वर्तमान में देश भर में निचली न्यायपालिका में लगभग 5,400 पद रिक्त हैं और मुख्य रूप से राज्यों द्वारा नियमित परीक्षा आयोजित करने में अत्यधिक देरी के कारण निचली न्यायपालिका में 2.78 करोड़ मामले लंबित हैं।
- AIJS देश की सामाजिक संरचना को दर्शाते हुए विभिन्न क्षेत्रों, लिंग, जातियों और समुदायों के न्यायाधीशों के प्रतिनिधित्व एवं विविधता को बढ़ाएगा।
- AIJS न्यायपालिका संबंधी नियुक्तियों में न्यायिक या कार्यकारी हस्तक्षेप की गुंज़ाइश को कम करेगा, जिससे न्यायाधीशों की स्वतंत्रता और जवाबदेही सुनिश्चित होगी।
- AIJS प्रतिभाशाली और अनुभवी न्यायाधीशों का एक समूह तैयार करेगा जिन्हें उच्च न्यायपालिका में नियुक्त किया जा सकता है, जिससे न्यायाधीशों की भविष्य की संभावनाओं और उनकी गतिशीलता में सुधार होगा।
वर्तमान स्थिति:
- प्रमुख हितधारकों की इस संबंध में अलग-अलग राय के कारण वर्ष 2023 तक AIJS पर कोई आम सहमति नहीं है।
- यह AIJS की स्थापना के प्रस्ताव पर आम सहमति प्राप्त करने में आने वाली चुनौतियों को उज़ागर करता है।
वर्तमान में ज़िला न्यायाधीशों की भर्ती कैसे की जाती है?
- वर्तमान प्रणाली में अनुच्छेद 233 और 234 शामिल हैं जो राज्यों को ज़िला न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार देते हैं, जिसका प्रबंधन राज्य लोक सेवा आयोगों और उच्च न्यायालयों के माध्यम से किया जाता है, क्योंकि उच्च न्यायालय राज्य में अधीनस्थ न्यायपालिका पर अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करता है।
- उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का पैनल परीक्षा के बाद उम्मीदवारों का साक्षात्कार लेता है और नियुक्ति के लिये उनका चयन करता है।
- निचली न्यायपालिका के ज़िला न्यायाधीश स्तर तक के सभी न्यायाधीशों का चयन प्रांतीय सिविल सेवा (न्यायिक) परीक्षा के माध्यम से किया जाता है। PCS (J) को आमतौर पर न्यायिक सेवा परीक्षा के रूप में जाना जाता है।
- अनुच्छेद 233 ज़िला न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है। किसी भी राज्य में ज़िला न्यायाधीशों की नियुक्ति, पोस्टिंग और पदोन्नति राज्य के राज्यपाल द्वारा ऐसे राज्य पर अधिकार क्षेत्र का उपयोग करने वाले उच्च न्यायालय के परामर्श से की जाएगी।
- अनुच्छेद 234 न्यायिक सेवा में ज़िला न्यायाधीशों के अलावा अन्य व्यक्तियों की भर्ती से संबंधित है।
AIJS के संबंध में क्या चिंताएँ हैं?
- यह संघीय ढाँचे और राज्यों व उच्च न्यायालयों की स्वायत्तता का उल्लंघन होगा, जिनके पास अधीनस्थ न्यायपालिका को प्रशासित करने का संवैधानिक अधिकार एवं दायित्व है।
- इससे हितों का टकराव और न्यायाधीशों पर दोहरे नियंत्रण की स्थिति उत्पन्न होगी, जो केंद्र तथा राज्य सरकार दोनों के प्रति जवाबदेह होंगे।
- यह विभिन्न राज्यों की स्थानीय विधियों, भाषाओं और रीति-रिवाज़ों की अवहेलना करेगा, जो न्यायपालिका के प्रभावी कामकाज के लिये आवश्यक हैं।
- इसका असर मौजूदा न्यायिक अधिकारियों के मनोबल और प्रेरणा पर पड़ेगा, जो अपने कॅरियर में उन्नति के अवसरों तथा प्रोत्साहन से वंचित रह जाएंगे।
आगे की राह
- चिंताओं को दूर करने और AIJS के लिये समर्थन जुटाने हेतु राज्यों, उच्च न्यायालयों और कानूनी विशेषज्ञों के साथ संवाद एवं परामर्श की सुविधा प्रदान की जानी चाहिये।
- इसके प्रभाव का आकलन करने और धीरे-धीरे चिंताओं को दूर करने के लिये चुनिंदा राज्यों में पायलट आधार पर AIJS को लागू करने पर विचार करना चाहिये।
- AIJS को लचीले तंत्र के साथ डिज़ाइन करना जो स्थानीय विधियों, भाषाओं तथा रीति-रिवाज़ों के अनुकूलन की अनुमति देता हो, क्षेत्रीय बारीकियों की उपेक्षा किये बिना प्रभावी कार्य पद्धति सुनिश्चित करना।
- एक पूर्णतः स्पष्ट परिभाषित संक्रमण अवधि का प्रस्ताव करना जिसके दौरान मौजूदा न्यायिक अधिकारी व्यवधानों को कम करते हुए नई प्रणाली को सहजता से अपना सकें।
- संघीय ढाँचे, स्वायत्तता तथा न्यायपालिका की प्रभावी कार्यप्रणाली पर AIJS के प्रभाव का आकलन करने तथा आवश्यकतानुसार आवश्यक समायोजन के लिये एक आवधिक समीक्षा तंत्र स्थापित करने की आवश्यकता है।
- AIJS के अंतर्गत एक प्रोत्साहन संरचना विकसित करना जो कॅरियर में उन्नति से संबंधित चिंताओं का समाधान करते हुए मौजूदा न्यायिक अधिकारियों के योगदान को प्रेरित करे और मान्यता दे।
एग्जिट पोल
चर्चा में क्यों?
हाल ही में पाँच राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना तथा मिज़ोरम के एग्जिट पोल के नतीजे जारी किये गए
- हाल के कई चुनावों में एग्जिट पोल अविश्वसनीय रहे हैं, जिससे विरोधाभासी परिणाम सामने आए हैं।
एग्जिट पोल क्या हैं?
- एग्जिट पोल मतदाताओं के साथ किया जाने वाला सर्वेक्षण है, जब वे निर्वाचन के दौरान मतदान केंद्र से बाहर निकलते हैं।
- इसका उद्देश्य लोगों ने कैसे मतदान किया तथा उनकी जनसांख्यिकीय विशेषताओं के बारे में जानकारी एकत्रित करना है।
- ये सर्वेक्षण आधिकारिक परिणाम घोषित होने से पूर्व चुनाव परिणामों के प्रारंभिक पूर्वानुमान प्रदान करते हैं।
- वर्ष 1957 में दूसरे लोकसभा चुनाव के दौरान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन द्वारा एक एग्जिट पोल आयोजित किया गया था।
एग्जिट पोल की सटीकता का आकलन कैसे किया जा सकता है?
- सैंपलिंग के तरीके: एग्जिट पोल आयोजित करने में प्रयोग किये जाने वाले सैंपलिंग तरीकों की विश्वसनीयता महत्त्वपूर्ण है। एक स्पष्ट रूप से तैयार किया गया तथा प्रतिनिधियों की प्रतिदर्श संख्या से सटीक परिणाम प्राप्त होने की अधिक संभावना है।
- एक अच्छे अथवा सटीक, जनमत सर्वेक्षण के लिये कुछ सामान्य मानदंड आवश्यक हैं जिसमें एक बड़ा और विविध नमूना तथा बिना किसी पूर्वाग्रह के स्पष्ट रूप से निर्मित प्रश्नावली शामिल है।
- संरचित प्रश्नावली: सर्वेक्षण, एग्जिट पोल की तरह, फोन पर अथवा व्यक्तिगत रूप से संरचित प्रश्नावली का उपयोग कर कई उत्तरदाताओं का साक्षात्कार करके डेटा एकत्र करते हैं।
- सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़ के अनुसार, "एक संरचित प्रश्नावली के बिना, डेटा को न तो सुसंगत रूप से एकत्र किया जा सकता है तथा न ही वोट शेयर अनुमान पर पहुँचने के लिये व्यवस्थित रूप से विश्लेषण किया जा सकता है।"
- जनसांख्यिकीय प्रतिनिधित्व: यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि सर्वेक्षण की गई आबादी जनसांख्यिकी रूप से समग्र मतदान आबादी का प्रतिनिधित्व करती है। यदि कुछ समूहों का प्रतिनिधित्व अधिक या कम है, तो यह भविष्यवाणियों की सटीकता को प्रभावित कर सकता है।
- एक बड़ा प्रतिदर्श आकार महत्त्वपूर्ण है, लेकिन जो सबसे ज्यादा मायने रखता है वह यह है कि प्रतिदर्श कितनी अच्छी तरह से प्रतिदर्श के आकार के बजाय बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करता है।
एग्जिट पोल की क्या आलोचनाएँ की जाती हैं?
- एग्जिट पोल को संचालित करने वाली एजेंसी यदि पक्षपाती है तो निष्कर्ष विवादास्पद हो सकते हैं।
- ये सर्वेक्षण प्रश्नों के चयन, शब्दों और समय तथा प्रतिदर्श की प्रकृति से प्रभावित हो सकते हैं।
- आलोचकों ने तर्क दिया कि कई ओपिनियन और एग्जिट पोल उनके प्रतिद्वंद्वियों द्वारा प्रेरित एवं प्रायोजित होते हैं तथा जनता की भावनाओं या विचारों को प्रतिबिंबित करने के बजाय चुनाव में मतदाताओं द्वारा चुने गए विकल्पों पर विकृत प्रभाव डाल सकते हैं।
भारत में एग्जिट पोल का नियमन कैसे होता है?
- लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 126ए उसमें उल्लिखित अवधि के दौरान प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से एग्जिट पोल के संचालन और उनके परिणामों के प्रसार पर रोक लगाती है, यानी पहले चरण में मतदान शुरू होने के निर्धारित घंटे और आधे घंटे के बीच। सभी राज्यों में अंतिम चरण के लिये मतदान समाप्ति के निर्धारित समय के बाद।
- एग्जिट पोल के उपयोग को विनियमित करने के लिये चुनाव आयोग ज़िम्मेदार है। चुनाव आयोग के मुताबिक, एग्जिट पोल केवल एक निश्चित अवधि के दौरान ही आयोजित किये जा सकते हैं। यह अवधि मतदान केंद्र बंद होने के समय से शुरू होती है और अंतिम बूथ बंद होने के 30 मिनट बाद समाप्त होती है।
- मतदान अवधि के दौरान अथवा मतदान के दिन एग्जिट पोल आयोजित नहीं किये जा सकते।
- संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत निर्वाचन आयोग द्वारा दिशा-निर्देश समाचार पत्रों और समाचार चैनलों को चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों एवं एग्जिट पोल के नतीजे प्रकाशित करने पर प्रतिबंध लगाता है।
- निर्वाचन आयोग समाचार पत्रों और चैनलों को एग्जिट एवं ओपिनियन पोल के नतीजों को प्रसारित करने के अतिरिक्त मतदाताओं की प्रतिदर्श संख्या, मतदान प्रक्रिया का विवरण, त्रुटि की संभावना तथा मतदान एजेंसी की पृष्ठभूमि के बारे में बताना अनिवार्य करता है।
- आखिरी चरण का मतदान पूरा होने तक एग्जिट पोल के प्रकाशन पर प्रतिबंध रहेगा।
- एग्जिट पोल के प्रकाशन पर प्रतिबंध के अतिरिक्त निर्वाचन आयोग एग्जिट पोल आयोजित करने वाले सभी मीडिया आउटलेट का आयोग के साथ पंजीकृत होना अनिवार्य करता है।
आगे की राह
पारदर्शिता और ठोस मतदान प्रणाली:
- एग्जिट पोल आयोजित करने की पद्धति में पारदर्शिता के महत्त्व पर बल दिया जाना चाहिये।
- मतदान एजेंसियों को मतदाताओं की प्रतिदर्श संख्या के आकलन के तरीके, प्रश्नावली संरचना और प्रतिवादी चयन के मानदंड जैसे विवरणों का खुलासा करना चाहिये।
नियामक सुधार:
- उभरती चुनौतियों का समाधान करने और एग्जिट पोल परिणामों की रिपोर्टिंग में निष्पक्षता एवं सटीकता सुनिश्चित करने के लिये निर्वाचन अधिकारियों, मीडिया और मतदान एजेंसियों के बीच सहयोगात्मक प्रयासों से परिष्कृत दिशा-निर्देश तैयार किये जा सकते हैं।
निर्वाचन प्राधिकारियों के साथ सहयोग:
- मतदान एजेंसियों और निर्वाचन अधिकारियों के बीच सहयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिये। इसके लिये निर्वाचन आयोग चुनावी प्रक्रिया के विषय में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकता है, मतदाता जनसांख्यिकी पर डेटा साझा कर सकता है तथा एग्जिट पोल के कारण होने वाले संभावित व्यवधानों को कम करने के उपाय प्रस्तुत कर सकता है।
नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6A
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के मुख्य न्यायधीश के नेतृत्व में एक संविधान पीठ द्वारा नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6A की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली विभिन्न याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की गई।
- संविधान पीठ ने स्पष्ट किया है कि वह मात्र धारा 6A की वैधता की जाँच करेगी, न कि असम राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC) की।
नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6A:
पृष्ठभूमि:
- वर्ष 1985 के असम समझौते के बाद नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 1985 के हिस्से के रूप में धारा 6A को अधिनियमित किया गया था।
- असम समझौता केंद्र सरकार, असम राज्य सरकार और असम आंदोलन के नेताओं के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता था, जिसका उद्देश्य बांग्लादेश से अवैध प्रवासियों की घुसपैठ को रोकना करना था।
- वर्ष 1985 में हस्ताक्षरित असम समझौते द्वारा विशेष रूप से असम के लिये वर्ष 1955 के नागरिकता अधिनियम में धारा 6A को शामिल किया गया था।
- यह प्रावधान वर्ष 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध से पूर्व बड़े पैमाने पर प्रवासन के मुद्दे का समाधान करता है। यह विशेष रूप से 25 मार्च, 1971 (बांग्लादेश का निर्माण) के बाद असम में प्रवेश करने वाले बाहरी लोगों का पता लगाने तथा उनका निर्वासन अनिवार्य करता है।
- धारा 6A इस महत्त्वपूर्ण अवधि के दौरान असम के समक्ष विशिष्ट ऐतिहासिक और जनसांख्यिकीय चुनौतियों को संबोधित करती है।
प्रावधान एवं निहितार्थ:
- धारा 6A ने असम के लिये एक विशेष प्रावधान किया जिसके द्वारा 1 जनवरी, 1966 से पहले बांग्लादेश से आए भारतीय मूल के व्यक्तियों को उस तिथि के अनुसार भारत का नागरिक माना जाता था।
- भारतीय मूल के व्यक्ति जो 1 जनवरी, 1966 और 25 मार्च, 1971 के मध्य असम आए थे और जिनके विदेशी होने का पता चला था, उन्हें अपना पंजीकरण कराना आवश्यक था तथा कुछ शर्तों के अधीन 10 साल के निवास के बाद उन्हें नागरिकता प्रदान की गई थी।
- 25 मार्च, 1971 के बाद असम में प्रवेश करने वाले व्यक्तियों का पता लगाया जाना था और कानून के अनुसार उन्हें निर्वासित किया जाना था।
चुनौतियाँ:
संवैधानिक वैधता:
अनुच्छेद 6:
- याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि धारा 6A संविधान के अनुच्छेद 6 का उल्लंघन है।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 6 विभाजन के दौरान पाकिस्तान से भारत आए लोगों की नागरिकता से संबंधित है।
- इस अनुच्छेद में कहा गया है कि जो कोई भी 19 जुलाई, 1949 से पहले भारत आया, वह स्वतः ही भारतीय नागरिक बन जाएगा यदि उसके माता-पिता या दादा-दादी में से किसी एक का जन्म भारत में हुआ हो।
- इससे प्रावधान की कानूनी और संवैधानिक वैधता के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
अनुच्छेद 14:
- आलोचकों का तर्क है कि धारा 6A संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन कर सकती है, जो समता के अधिकार की गारंटी देता है।
- इस प्रावधान को भेदभावपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह विशिष्ट नागरिकता मानदंडों के चलते असम को अलग करता है।
- यह प्रावधान केवल असम पर लागू है और यह चयनात्मक आवेदन प्रवासन के समान मुद्दों का सामना करने वाले अन्य राज्यों की तुलना में समान व्यवहार और निष्पक्षता के बारे में चिंता उत्पन्न करता है।
जनसांख्यिकीय प्रभाव:
- कुछ याचिकाकर्त्ताओं द्वारा कथित तौर पर बांग्लादेश से असम में अवैध प्रवासियों की आमद बढ़ाने में योगदान देने के लिये धारा 6A के तहत नागरिकता देने की आलोचना की गई है।
- चिंताएँ अवैध प्रवासन को प्रोत्साहित करने के अनपेक्षित परिणाम और राज्य की जनसांख्यिकीय संरचना पर इसके परिणामी प्रभाव पर केंद्रित हैं।
- याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि धारा 6A के तहत असम में प्रवासी आबादी को नागरिकता प्रदान करना "अवैधता को बढ़ावा देना" है।
- उनका दावा है कि इन व्यक्तियों को नागरिक के रूप में मान्यता देने वाले इस प्रावधान का कई गुना प्रभाव देखा गया है, जिससे निरंतर वृद्धि ही हुई है।
सांस्कृतिक प्रभाव:
- याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि वर्ष 1966 और वर्ष 1971 के बीच सीमा पार प्रवासियों को दिये गए लाभों से असम की सांस्कृतिक पहचान को प्रभावित करने वाले आमूल-चूल जनसांख्यिकीय परिवर्तन हुए।
नागरिकता क्या है?
परिचय:.
- नागरिकता एक व्यक्ति और राज्य के बीच की कानूनी स्थिति एवं संबंध है जिसमें विशिष्ट अधिकार तथा कर्तव्य शामिल होते हैं।
संविधानिक उपबंध:
- भारतीय संविधान के भाग II में अनुच्छेद 5 से 11 तक नागरिकता के पहलुओं से संबंधित हैं, जैसे- जन्म, वंश, समीकरण, रजिस्ट्रीकरण और त्यजन व पर्यवसान द्वारा नागरिकता का अर्जन।
- नागरिकता संविधान के तहत संघ सूची में सूचीबद्ध है तथा इस प्रकार यह संसद की अनन्य विशेष अधिकारिता के अंतर्गत है।
नागरिकता अधिनियम:
- भारत में नागरिकता के मामलों को विनियमित करने के लिये संसद ने नागरिकता अधिनियम, 1955 लागू किया है।
- नागरिकता अधिनियम, 1955 को इसके अधिनियमित होने के बाद से छह बार संशोधित किया गया है। ये संशोधन वर्ष 1986, 1992, 2003, 2005, 2015 और 2019 में किये गए थे।
- नवीनतम संशोधन वर्ष 2019 में किया गया था, जिसके तहत अफगानिस्तान, बांग्लादेश तथा पाकिस्तान के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी व ईसाई समुदायों के कुछ अवैध प्रवासियों को नागरिकता प्रदान की गई, जिन्होंने 31 दिसंबर, 2014 को अथवा उससे पूर्व भारत में प्रवेश किया था।
जम्मू-कश्मीर आरक्षण विधेयक एवं जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक 2023
चर्चा में क्यों?हाल ही में लोकसभा ने जम्मू-कश्मीर आरक्षण विधेयक एवं जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2023 पारित किया है।
- यह विधेयक उन लोगों के प्रतिनिधित्व से संबंधित है जिनका अस्तित्व अपने ही देश में शरणार्थी के रूप में है। साथ ही यह विधेयक जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से विस्थापित हुए लोगों के लिये एक सीट आरक्षित करता है।
पृष्ठभूमि:
- अनुच्छेद 370 के निरसन से पूर्व, जम्मू-कश्मीर में लोकसभा तथा विधानसभा सीटों के परिसीमन को लेकर अलग-अलग नियम थे।
- अनुच्छेद 370 के निरसन और इस क्षेत्र को केंद्रशासित प्रदेश के रूप में बदले जाने के बाद मार्च 2020 में एक परिसीमन आयोग का गठन किया गया था।
- इस आयोग का कार्य न केवल जम्मू-कश्मीर की सीटों, बल्कि असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश एवं नगालैंड की सीटों का परिसीमन करना था तथा इस कार्य के पूर्ण होने के लिये एक वर्ष की समयसीमा तय की गई थी।
- हाल ही में इस आयोग द्वारा परिसीमन प्रक्रिया पूरी होने के परिणामस्वरूप जम्मू-कश्मीर की विधानसभा सीटों की संख्या 107 से बढ़कर 114 हो गई।
ये दो विधेयक क्या हैं?
जम्मू-कश्मीर आरक्षण (संशोधन) विधेयक, 2023:
- इसकी मदद से जम्मू-कश्मीर आरक्षण अधिनियम, 2004 की धारा 2 में संशोधन किया जाएगा।
- जम्मू-कश्मीर आरक्षण अधिनियम, 2004 अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) तथा अन्य सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के सदस्यों को नौकरियों और व्यावसायिक संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण प्रदान करता है।
- संशोधन विधेयक के अनुसार व्यक्तियों के एक वर्ग जिन्हें पहले "कमज़ोर और वंचित वर्ग (सामाजिक जाति)" के रूप में जाना जता था, को अब "अन्य पिछड़ा वर्ग" के रूप में वर्णित किया जा सकता है।
जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2023:
- यह विधेयक 2019 के अधिनियम में संशोधन करने तथा कश्मीरी प्रवासियों एवं PoK से विस्थापित व्यक्तियों को विधानसभा में प्रतिनिधित्व प्रदान करने का प्रयास करता है।
- इसमें कश्मीरी प्रवासी समुदाय से दो सदस्यों को नामित करने का प्रावधान है, जिसमें एक महिला सदस्य होगी तथा पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर (PoK) से विस्थापित व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले एक व्यक्ति को विधानसभा में नामित करने की उपराज्यपाल की शक्ति होगी।
- इस विधेयक में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में सीटों की कुल संख्या 107 से बढ़ाकर 114 करने का प्रस्ताव है, जिनमें से 7 अनुसूचित जाति के सदस्यों के लिये और 9 सीटें अनुसूचित जनजाति के विधायकों के लिये आरक्षित होंगी।
- विधेयक के अनुसार, पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर के लिये विधानसभा की 24 सीटें आरक्षित की गई हैं।
- इसलिये विधानसभा की संबद्ध प्रभावी शक्ति 83 है, जिसे संशोधन द्वारा बढ़ाकर 90 करने का प्रयास किया गया है।
ज़ीरो टेरर प्लान अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण से कैसे संबद्ध है?
- ज़ीरो टेरर प्लान जम्मू-कश्मीर से आतंकवाद को खत्म करने के लिये भारत सरकार द्वारा शुरू की गई एक व्यापक रणनीति को संदर्भित करता है। यह योजना पिछले तीन वर्षों से प्रभावी है और वर्ष 2026 तक पूर्ण कार्यान्वयन हेतु निर्धारित है।
- जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद से क्षेत्र में आतंकवाद में उल्लेखनीय गिरावट आई है।
परिसीमन क्या है?
- निर्वाचन आयोग के अनुसार, परिसीमन किसी देश या विधायी निकाय वाले प्रांत में क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों (विधानसभा या लोकसभा सीट) की सीमाओं को तय करने या फिर से तैयार करने का कार्य है।
- परिसीमन की कवायद एक स्वतंत्र उच्चाधिकार प्राप्त पैनल द्वारा की जाती है जिसे परिसीमन आयोग के नाम से जाना जाता है, जिसके आदेशों पर कानून का प्रभाव होता है और किसी भी अदालत द्वारा उस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है।
- 1952, 1962, 1972 और 2002 के अधिनियमों के आधार पर चार बार वर्ष 1952, 1963, 1973 और 2002 में परिसीमन आयोगों का गठन किया गया है।
- किसी निर्वाचन क्षेत्र को उसकी जनसंख्या के आकार (पिछली जनगणना आधार) के आधार पर फिर से परिभाषित करने की कवायद पिछले कई वर्षों से की जा रही है।
- किसी निर्वाचन क्षेत्र की सीमा बदलने के अलावा इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप राज्य में सीटों की संख्या में भी बदलाव हो सकता है।
- इस अभ्यास में संविधान के अनुसार SC और ST के लिये विधानसभा सीटों का आरक्षण भी शामिल है।