UPSC Exam  >  UPSC Notes  >  Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly  >  Politics and Governance (राजनीति और शासन): June 2023 UPSC Current Affairs

Politics and Governance (राजनीति और शासन): June 2023 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly PDF Download

केंद्रीय अन्य पिछड़ा वर्ग सूची में और जातियों को शामिल करना

चर्चा में क्यों

राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC)अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) सूची में शामिल करने के लिये छह राज्यों (महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, पंजाब एवं हरियाणा) में लगभग 80 और जातियों के अनुमोदन के अनुरोध पर कार्यवाही कर रहा है।

अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC)

  • परिचय
    • ओबीसी (OBC) शब्द में नागरिकों के वे सभी वर्ग शामिल हैं जो सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अन्य पिछड़ा वर्ग की पहचान हेतु क्रीमी लेयर के बहिष्कार के सिद्धांत को लागू किया जाना चाहिये।
    • क्रीमी लेयर को OBC श्रेणी के लोगों के उन वर्गों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो अब पिछड़े नहीं हैं तथा सामाजिक एवं आर्थिक रूप से देश के अन्य पिछड़े वर्गों के बराबर हैं।
  • शामिल करने की प्रक्रिया:
    • NCBC एक वैधानिक निकाय है जो केंद्रीय OBC सूची में जातियों को शामिल करने के अनुरोधों की जाँच करता है।
    • मंत्रिमंडल परिवर्द्धन को मंज़ूरी देता है और कानून लाता है, राष्ट्रपति परिवर्तन को अधिसूचित करता है।
  • संवैधानिक प्रावधान:
    • संविधान के अनुच्छेद 15(4) के तहत राज्य के पास किसी भी सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग यानी OBC की उन्नति के लिये विशेष प्रावधान करने की शक्ति है।
    • शब्द "उन्नति के लिये विशेष प्रावधान" में शैक्षणिक संस्थानों में सीटों का आरक्षण, वित्तीय सहायता, छात्रवृत्ति, मुफ्त आवास आदि जैसे कई पहलू शामिल हैं।
    • अनुच्छेद 16(4) के तहत राज्य को OBC के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिये कानून बनाने का अधिकार है।
  • केंद्र सरकार की उपलब्धियाँ:
    • वर्ष 2014 से हिमाचल प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में केंद्रीय OBC सूची में 16 समुदायों को जोड़ा गया।
    • राज्य के 671 OBC समुदायों को लाभ से वंचित होने से बचाने हेतु राज्यों को अपनी स्वयं की OBC सूची बनाए रखने के अधिकार की पुष्टि करने के लिये संविधान में 105वाँ संशोधन लाया गया है।

भारत में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में भारत में समान नागरिक संहिता (UCC) के कार्यान्वयन के लिये अपना समर्थन व्यक्त किया, जिसमें कहा गया कि भारत "विभिन्न समुदायों के लिये अलग कानूनों" की प्रणाली के साथ कुशलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकता है।

समान नागरिक संहिता (UCC)

  • उत्पत्ति और इतिहास:
    • औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश सरकार की वर्ष 1835 की रिपोर्ट में अपराध, साक्ष्य और अनुबंध सहित भारतीय कानून में एक समान संहिताकरण का आह्वान किया गया था।
      • हालाँकि, अक्तूबर 1840 की लेक्स लोकी रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को संहिताकरण से बाहर रखा जाना चाहिये।
    • जैसे-जैसे ब्रिटिश शासन आगे बढ़ा हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिये वर्ष 1941 में बी.एन. राऊ समिति का गठन किया गया। इस गठन के परिणामस्वरूप वर्ष 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू हुआ
  • समान नागरिक संहिता पर संविधान सभा के विचार:
    • संविधान सभा में बहस के दौरान समान नागरिक संहिता को शामिल करने पर महत्त्वपूर्ण चर्चा हुई।
      • जहाँ सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में मतदान हुआ और 5:4 के अनुपात में बहुमत मिला जिसके परिमाणस्वरूप मौलिक अधिकारों पर उप-समिति ने निर्णय लिया कि समान नागरिक संहिता को मौलिक अधिकार के रूप में शामिल नहीं किया जाएगा।
      • डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने संविधान का मसौदा तैयार करते समय कहा था कि समान नागरिक संहिता वांछनीय है लेकिन इसे तब तक स्वैच्छिक रहना चाहिये जब तक कि राष्ट्र इसे स्वीकार करने के लिये सामाजिक रूप से तैयार न हो जाए।
      • जिसके परिणामस्वरूप समान नागरिक संहिता को राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) (अनुच्छेद 44) में रखा गया।

समान नागरिक संहिता के पक्ष में तर्क

  • विविधता में एकता का जश्न मनाना: यह व्यक्तिगत धार्मिक कानूनों के आधार पर भेदभाव और विरोधाभासों को दूर करके तथा सभी नागरिकों के लिये एक समान पहचान स्थापित कर राष्ट्रीय एकता एवं धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देगी
    • यह विविध समुदायों के बीच एकता और सद्भाव की भावना को भी बढ़ावा देगी
    • उदाहरण स्वरूप UCC बिना किसी कानूनी बाधा या सामाजिक दुष्प्रभाव के अंतर-धार्मिक विवाह और संबंधों को सक्षम बनाएगा।
  • महिलाओं को सशक्त बनाना: यह विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों, जैसे- बहुविवाह, असमान विरासत आदि में महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण और दमनकारी प्रथाओं को समाप्त करके लैंगिक न्याय और समानता सुनिश्चित करेगा।
  • कानूनी दक्षता के लिये इसे सरल बनाना: भारत की वर्तमान कानूनी प्रणाली जटिल और अतिव्यापी व्यक्तिगत कानूनों की अधिकता है, जिससे भ्रम और कानूनी विवाद पैदा होते हैं
    • एक UCC विभिन्न कानूनों को एक ही कोड में समेकित और सुसंगत बनाकर कानूनी ढाँचे को सरल बनाएगा
    • इससे स्पष्टता बढ़ेगीकार्यान्वयन में आसानी होगी और न्यायपालिका पर बोझ कम होगा, जिससे अधिक कुशल कानूनी प्रणाली सुनिश्चित होगी।
  • सफलता की वैश्विक कहानियों से प्रेरणा लेना: फ्राँस जैसे दुनिया भर के कई देशों ने समान नागरिक संहिता लागू की है
    • UCC एक आधुनिक प्रगतिशील राष्ट्र का संकेत है जिसका अर्थ है कि इससे जातिगत और धार्मिक राजनीति को रोका जा सकेगा।

UCC के विरोध में तर्क

  • अल्पसंख्यकों के अधिकारों को खतरा: भारत की शक्ति उसके विविध समाज में निहित है और इन विविधताओं को समायोजित करने के लिये व्यक्तिगत कानून विकसित किये गए हैं।
    • आलोचकों का तर्क है कि एकल संहिता लागू करने से अल्पसंख्यक समुदायों की सांस्कृतिक और धार्मिक स्वायत्तता कमज़ोर हो सकती है, जिससे अलगाव एवं हाशिये की स्थिति की भावना पैदा हो सकती है।
  • न्यायिक बैकलॉग: भारत पहले से ही न्यायिक मामलों के एक महत्त्वपूर्ण बैकलॉग का सामना कर रहा है तथा UCC को लागू करने से स्थिति और खराब हो सकती है
    • व्यक्तिगत कानूनों को एक कोड में सुसंगत बनाने के लिये आवश्यक व्यापक महत्त्वपूर्ण कानूनी सुधारों हेतु समय और प्रयास की आवश्यकता होगी।
    • परिणामस्वरूप इस संक्रमणकालीन अवधि के दौरान UCC की संवैधानिकता को चुनौती देने वाले नए मामलों के उभरने के कारण कानूनी प्रणाली पर बोझ बढ़ सकता है
  • गोवा में UCC को लेकर जटिलताएँगोवा में UCC के कार्यान्वयन की वर्ष 2019 में सर्वोच्य न्यायालय ने सराहना की है। हालाँकि ज़मीनी हकीकत राज्य के UCC के भीतर जटिलताओं और कानूनी बहुलताओं को उजागर करती है।
    • गोवा में UCC हिंदुओं को एक विशिष्ट प्रकार के बहुविवाह की अनुमति देता है और मुसलमानों हेतु शरीयत अधिनियम का विस्तार नहीं करता है (यह पुर्तगाली और शास्त्री हिंदू कानून पर आधारित हैं)।
    • इसके अतिरिक्त कैथोलिक को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हैं, जैसे- विवाह पंजीकरण से छूट तथा कैथोलिक पादरियों की विवाह को विघटित करने की शक्ति। 
    • यह भारत में व्यक्तिगत कानूनों की जटिलता को उजागर करता है, यहाँ तक कि उस राज्य में भी जो UCC लागू करने के लिये जाना जाता है। 

UCC को लागू करने में चुनौतियाँ

  • राजनीतिक जड़ता: किसी भी राजनीतिक दल ने इस संहिता को अधिनियमित करने की ईमानदारी पूर्वक और नियमित तौर पर प्रतिबद्धता नहीं दिखाई है क्योंकि इसे हमेशा से ही एक संवेदनशील और विभाजनकारी मुद्दे के रूप में देखा जाता है जिसका उनके वोट बैंक पर प्रभाव पड़ सकता है।
    • इसके अतिरिक्त विभिन्न समूहों के व्यक्तिगत मुद्दों और विविध दृष्टिकोण होने के कारण इस संहिता के दायरे, इसकी विषयवस्तु तथा स्वरूप को लेकर राजनीतिक दलों और हितधारकों के बीच कोई सहमति नहीं है।
  • जागरूकता और शिक्षा का अभाव: भारत में बहुत से लोग अपने व्यक्तिगत कानूनों या सामान्य कानूनों के अंतर्गत अपने कानूनी अधिकारों और दायित्वों के बारे में भी नहीं जानते हैं।
    • उन्हें UCC के लाभों और कमियों के बारे में या UCC को अपनाने या अस्वीकार करने वाले अन्य देशों के अनुभवों के बारे में भी शिक्षित नहीं किया गया है।
    • वे अक्सर निहित स्वार्थी तत्त्वों या सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा फैलाई गई गलत सूचना या प्रचार से प्रभावित होते हैं।

आगे की राह 

  • तुलनात्मक विश्लेषण: भारत में विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों का व्यापक तुलनात्मक विश्लेषण करने की आवश्यकता है। इससे समानताओं और विवाद के क्षेत्रों को समझने में मदद मिलेगी।
  • सामान्य सिद्धांतों का अधिनियमन: तुलनात्मक विश्लेषण के आधार पर हम व्यक्तिगत प्रस्थिति/दर्जे का एक कानून बना सकते हैं जिसमें विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों द्वारा साझा किये गए सिद्धांतों को शामिल किया गया हो।
  • विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों से निकटता से संरेखित होने वाले इन सामान्य सिद्धांतों को एक समान कानूनी ढाँचा स्थापित करने के लिये तुरंत ही लागू किया जा सकता है।
  • फैमिली लॉ बोर्ड: पारिवारिक मामलों से संबंधित व्यक्तिगत कानूनों का अध्ययन करने और उनमें बदलाव की सिफारिश करने के लिये केंद्रीय कानून मंत्रालय के भीतर एक फैमिली लॉ बोर्ड स्थापित करने की आवश्यकता है।
  • ब्रिक बाय ब्रिक दृष्टिकोण: वर्तमान में एक समान संहिता की तुलना में एक न्यायसंगत संहिता कहीं अधिक आवश्यक है; समान नागरिक संहिता की व्यवहार्यता, स्वीकृति और व्यावहारिकता के बारे में जानकारी देने के लिये चुनिंदा क्षेत्रों अथवा समुदायों में पायलट परियोजनाएँ शुरू की जा सकती हैं

IPC की धारा 124A पर 22वाँ विधि आयोग

चर्चा में क्यों?

22 वीं विधि आयोग की रिपोर्ट राजद्रोह से संबंधित आईपीसी की धारा 124ए को बरकरार रखने की सिफारिश करती है, लेकिन दुरुपयोग को रोकने के लिए संशोधन और प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का प्रस्ताव करती है।

विधि आयोग की सिफ़ारिशें क्या हैं?

पृष्ठभूमि

  • गृह मंत्रालय ने 2016 में एक पत्र के माध्यम से विधि आयोग से धारा 124ए के उपयोग की जांच करने और संशोधन का प्रस्ताव देने का अनुरोध किया
  • विधि आयोग की रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथामअधिनियम (यूएपीए) और राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) जैसे कानूनों का अस्तित्व धारा 124ए में उल्लिखित अपराध के सभी पहलुओं को कवर नहीं करता है।

सिफ़ारिशें

  • धारा 124 बरकरार रखना:
    • आयोग का तर्क है कि केवल अन्य देशों के कार्यों के आधार पर धारा 124ए को निरस्त करना भारत की अनूठी वास्तविकताओं की अनदेखी होगी।
    • यह इस बात पर जोर देता है कि किसी कानून की औपनिवेशिक उत्पत्ति स्वचालित रूप से उसके निरस्तीकरण की गारंटी नहीं देती है।
    • रिपोर्ट बताती है कि भारतीय कानूनी प्रणाली समग्र रूप से औपनिवेशिक प्रभाव रखती है।
  • संशोधन और सुरक्षा उपाय:
    • आयोग धारा 124ए में एक प्रक्रियात्मक सुरक्षा जोड़ने की सिफारिश करता है, जिसके तहत राजद्रोह के लिए एफआईआर दर्ज करने से पहले इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारी द्वारा प्रारंभिक जांच की आवश्यकता होती है।
    • अधिकारी की रिपोर्ट के आधार पर केंद्र या राज्य सरकार से अनुमति जरूरी होगी.
    • यह धारा 124ए के उपयोग के खिलाफ प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के लिए उसी संहिता की धारा 154 के प्रावधान के रूप में आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 196 (3) के समान प्रावधान को शामिल करने का प्रस्ताव करता है।
    • आयोग यह निर्दिष्ट करने के लिए धारा 124ए में संशोधन करने का सुझाव देता है कि यह "हिंसा भड़काने या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति वाले" व्यक्तियों को दंडित करता है।
  • बढ़ी हुई सज़ा:
    • रिपोर्ट में राजद्रोह के लिए जेल की अवधि को अधिकतम सात साल या आजीवन कारावास तक बढ़ाने का प्रस्ताव है
    • वर्तमान में, अपराध के लिए तीन साल तक की सज़ा या आजीवन कारावास का प्रावधान है।

राजद्रोह कानून को बरकरार रखने के क्या औचित्य हैं?

  • रिपोर्ट में तर्क दिया गया है कि दुरुपयोग के आरोप स्वचालित रूप से धारा 124ए को निरस्त करने को उचित नहीं ठहराते हैं।
  • यह उन उदाहरणों पर प्रकाश डालता है जहां व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता और निहित स्वार्थों के लिए विभिन्न कानूनों का दुरुपयोग किया गया है।
  • राजद्रोह कानून को पूरी तरह से निरस्त करने से देश की सुरक्षा और अखंडता के लिए गंभीर प्रतिकूल परिणाम हो सकते हैं, जिससे विध्वंसक ताकतों को स्थिति का फायदा उठाने की इजाजत मिल सकती है।

राजद्रोह कानून क्या है?

  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
    • 17वीं शताब्दी में इंग्लैंड में राजद्रोह कानून बनाए गए थे जब कानून निर्माताओं का मानना था कि सरकार की केवल अच्छी राय ही जीवित रहनी चाहिए, क्योंकि बुरी राय सरकार और राजशाही के लिए हानिकारक थी।
    • यह कानून मूल रूप से 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार-राजनेता थॉमस मैकॉले द्वारा तैयार किया गया था, लेकिन 1860 में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) अधिनियमित होने पर इसे बेवजह हटा दिया गया था।
    • धारा 124ए को 1870 में सर जेम्स स्टीफन द्वारा पेश किए गए एक संशोधन द्वारा शामिल किया गया था जब अपराध से निपटने के लिए एक विशिष्ट धारा की आवश्यकता महसूस हुई।
    • आज भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के तहत राजद्रोह एक अपराध है।
  • धारा 124 आईपीसी:
    • यह राजद्रोह को एक अपराध के रूप में परिभाषित करता है जब "कोई भी व्यक्ति शब्दों के माध्यम से, चाहे बोले गए या लिखित, या संकेतों द्वारा, या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या अन्यथा, घृणा या अवमानना लाता है या लाने का प्रयास करता है, या भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति असंतोष पैदा करता है या उत्तेजित करने का प्रयास करता है"
    • अप्रसन्नता में विश्वासघात और शत्रुता की सभी भावनाएँ शामिल हैं। हालाँकि, घृणा, अवमानना या असंतोष को उत्तेजित करने या उत्तेजित करने का प्रयास किए बिना टिप्पणियाँ इस धारा के तहत अपराध नहीं मानी जाएंगी
  • राजद्रोह के अपराध के लिए सज़ा:
    • यह एक गैर जमानती अपराध है . धारा 124ए के तहत सज़ा तीन साल तक की कैद से लेकर आजीवन कारावास तक है, जिसमें जुर्माना भी जोड़ा जा सकता है।
    • इस कानून के तहत आरोपित व्यक्ति को सरकारी नौकरी से रोक दिया जाता है।
    • उन्हें अपने पासपोर्ट के बिना रहना होगा और आवश्यकता पड़ने पर हर समय अदालत में उपस्थित होना होगा।

राजद्रोह कानून से संबंधित विभिन्न तर्क क्या हैं?

पक्ष में तर्क:

  • उचित प्रतिबंध:
    • भारत का संविधान उचित प्रतिबंध निर्धारित करता है (अनुच्छेद 19(2) के तहत) जो इस अधिकार ( भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ) पर हमेशा लगाए जा सकते हैं ताकि इसके जिम्मेदार अभ्यास को सुनिश्चित किया जा सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह सभी नागरिकों के लिए समान रूप से उपलब्ध है।
  • एकता और अखंडता बनाए रखना:
    • राजद्रोह कानून सरकार को राष्ट्रविरोधीअलगाववादी और आतंकवादी तत्वों से निपटने में मदद करता है।
  • राज्य की स्थिरता बनाए रखना:
    • यह निर्वाचित सरकार को हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को उखाड़ फेंकने के प्रयासों से बचाने में मदद करता है।
    • कानून द्वारा स्थापित सरकार का अस्तित्व में रहना राज्य की स्थिरता की एक अनिवार्य शर्त है।

राजद्रोह कानून बनाए रखने के विरुद्ध तर्क

  • औपनिवेशिक काल के अवशेष:
    • औपनिवेशिक प्रशासकों ने ब्रिटिश नीतियों की आलोचना करने वाले लोगों को जेल में डालने के लिए राजद्रोह का इस्तेमाल किया।
    • लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, भगत सिंह आदि जैसे स्वतंत्रता आंदोलन के दिग्गजों को ब्रिटिश शासन के तहत उनके "देशद्रोही" भाषणों, लेखों और गतिविधियों के लिए दोषी ठहराया गया था।
    • इस प्रकार, राजद्रोह कानून का बड़े पैमाने पर उपयोग औपनिवेशिक युग की याद दिलाता है।
  • राजद्रोह मामलों पर एनसीआरबी रिपोर्ट:
    • एनसीआरबी की भारत में अपराध रिपोर्ट के नवीनतम संस्करण से पता चला है कि 2021 में देश भर में 76 राजद्रोह के मामले दर्ज किए गए, जो 2020 में दर्ज 73 से मामूली वृद्धि है।
    • राजद्रोह कानून (आईपीसी धारा 124के तहत दायर मामलों में सजा की दर , जो अब सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मामले का विषय है, में पिछले कुछ वर्षों में 3% से 33% के बीच उतार-चढ़ाव आया हैऔर अदालत में ऐसे मामलों की लंबितता 2020 में 95% के उच्च स्तर पर पहुंच गई है ।
  • संविधान सभा का रुख:
    • संविधान सभा राजद्रोह को संविधान में शामिल करने पर सहमत नहीं थी। सदस्यों का मानना था कि इससे भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कमी आएगी।
    • उन्होंने तर्क दिया कि लोगों के वैध और संवैधानिक रूप से गारंटीकृत विरोध के अधिकार को दबाने के लिए राजद्रोह कानून को एक हथियार में बदला जा सकता है।
  • सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अवहेलना:
    • सुप्रीम कोर्ट ने केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले 1962 में , राजद्रोह को "अव्यवस्था पैदा करने के इरादे या प्रवृत्ति, या कानून और व्यवस्था में गड़बड़ी, या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों" तक सीमित कर दिया।
    • इस प्रकार, शिक्षाविदों, वकीलों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं और छात्रों के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगाना सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना है।
  • लोकतांत्रिक मूल्यों का दमन:
    • मुख्य रूप से राजद्रोह कानून के संवेदनहीन और योजनाबद्ध उपयोग के कारण, भारत को एक निर्वाचित निरंकुश देश के रूप में वर्णित किया जा रहा है।

मद्रास उच्च न्यायालय: मंदिर के पुजारियों की नियुक्तियों में जाति से ऊपर योग्यता

चर्चा में क्यों

हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय सुनाया है जो मंदिर के पुजारियों की नियुक्ति में योग्यता और समानता के महत्त्व पर बल देता है।

  • न्यायालय का निर्णय वर्ष 2018 में दायर एक रिट याचिका के जवाब में आया है जिसमें श्री सुगवनेश्वर स्वामी मंदिर, सेलम (तमिलनाडु) में अर्चक/स्थानिगर (मंदिर पुजारी) के पद के लिये नौकरी की घोषणा को चुनौती दी गई थी।
  • याचिकाकर्त्ता ने मंदिर के आगम ग्रंथों में उल्लिखित पारंपरिक दिशा-निर्देशों तथा लंबे समय से सेवा करने वाले पुजारियों के वंशानुगत अधिकारों के आधार पर नियुक्तियों का तर्क दिया।
  • न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता के दावे को खारिज करते हुए योग्यता आधारित नियुक्तियों के पक्ष में निर्णय सुनाया

मंदिर पुजारी की नियुक्ति से जुड़े कानूनी और ऐतिहासिक पहलू

  • कानूनी पहलू:
    • अनुच्छेद 15 धर्ममूलवंशजातिलिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है। 
      • इसमें कहा गया है कि राज्य रोज़गार या सार्वजनिक स्थानों तक पहुँच के मामलों में इन आधारों पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं करेगा।
    • साथ ही राज्यों के पास मंदिर के पुजारियों की नियुक्ति सहित धार्मिक संस्थानों और उनके मामलों को विनियमित करने का अधिकार है। राज्य कानून ऐसी नियुक्तियों के लिये योग्यताप्रक्रिया तथा पात्रता मानदंड निर्धारित करते हैं
  • ऐतिहासिक पहलू:
    • कई हिंदू मंदिरों में वंशानुगत नियुक्तियों की परंपरा प्रचलित है, जहाँ मंदिर के पुजारी की नियुक्ति विशिष्ट परिवारों या जातियों से की जाती है।
      • मंदिर अक्सर आगम ग्रंथों का पालन करते हैं जो मंदिर के अनुष्ठानों और प्रथाओं के लिये दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं।
      • यह प्रथा अक्सर पैतृक ज्ञान और वंश की शुद्धता में विश्वास पर आधारित होती है।
    • हालाँकि कुछ क्षेत्रों में प्रतियोगिताएँ अथवा योग्यता के आधार पर भी चयन का प्रचलन है

मंदिर के पुजारियों की नियुक्ति के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले

  • सेशम्मल और अन्य बनाम तमिलनाडु राज्य (1972): 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अर्चक (मंदिर पुजारी) की नियुक्ति एक धर्मनिरपेक्ष कार्य है और पुजारियों द्वारा धार्मिक सेवा का प्रदर्शन धर्म का एक अभिन्न अंग है
    • सर्वोच्च न्यायालय ने धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक पहलुओं को पृथक बताते हुए कहा कि आगम (ग्रंथों) द्वारा प्रदान की गई व्यवस्था केवल धार्मिक सेवा कार्य के लिये महत्त्वपूर्ण है।
    • किसी भी व्यक्ति को जाति अथवा पंथ की परवाह किये बिना अर्चक के रूप में नियुक्त किया जा सकता है यदि वह योग्य है और आगमों तथा मंदिर में पूजा के लिये आवश्यक अनुष्ठानों की अच्छी समझ रखता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के आधार पर मद्रास उच्च न्यायालय ने निर्णय लिया कि यदि चुना गया व्यक्ति निर्दिष्ट मानकों को पूरा करता है, तो अर्चक की नियुक्ति में जाति-आधारित वंशावली की कोई भूमिका नहीं होगी
  • एनअदिथायन बनाम त्रावणकोर देवासम बोर्ड (2002):
    • सर्वोच्य न्यायलय ने इस पारंपरिक दावे को अस्वीकृत कर दिया कि केवल ब्राह्मण (इस मामले में मलयाला ब्राह्मण) ही मंदिरों में अनुष्ठान कर सकते हैं।
    • न्यायालय ने फैसला सुनाया कि उचित तरीके से पूजा करने वाले योग्य प्रशिक्षित व्यक्ति अनुष्ठान कर सकते हैं।
    • सर्वोच्य न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि कुछ मंदिरों में केवल ब्राह्मणों द्वारा अनुष्ठान करने का नियम ऐतिहासिक कारणों से था, जैसे वैदिक साहित्य और पवित्र दीक्षा तक सीमित पहुँच।
  • आगम सिद्धांत मंदिर की पवित्रता और आध्यात्मिक प्रभावकारिता को बनाए रखने के लिये उच्चकोटि के अनुष्ठानों और प्रक्रियाओं का पालन करने के महत्त्व पर बल देते हैं।
    • आगम ग्रंथों को आधिकारिक माना जाता है तथा  मंदिर के पुजारियों की नियुक्ति और प्रशिक्षण में उनका अधिक महत्त्व है।
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