हाल में आए एक अभूतपूर्व निर्णय में, भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) D.Y. चंद्रचूड़ ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 की परिवर्तनकारी व्याख्या की है। पंजाब राज्य बनाम पंजाब राज्यपाल के प्रधान सचिव और अन्य के मामले में दिया गया यह ऐतिहासिक निर्णय, राज्य विधानमंडल द्वारा पारित होने के बाद राज्यपाल की सहमति के लिए प्रस्तुत विधेयक पर राज्यपाल की शक्तियों को पुनःपरिभाषित करता है।
एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या राज्यपाल मनमाने ढंग से राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयकों को सुरक्षित रख सकता है। संविधान के अनुच्छेद 213 और 254 में इस मुद्दे का अप्रत्यक्ष संदर्भ दिया गया है।
अनुच्छेद 200 विधायी स्वायत्तता पर राज्यपाल के अनुचित प्रभाव के खिलाफ एक मजबूत बचाव उपाय के रूप में कार्य करता है। स्वीकृति न देने को अनिवार्य पुनर्विचार के साथ जोड़ने से संवैधानिक ढांचे मजबूत होगा और विधायिका के अधिकारों की रक्षा होगी । हालांकि, राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयकों को आरक्षित करने के लिए विवेकाधीन शक्ति का संबंधी कुछ चिंताएं बनी हुई हैं। ऐसे मामलों पर संवैधानिक प्रावधानों के अभाव के कारण तत्काल न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है। जैसे-जैसे न्यायपालिका इन क्षेत्रों पर स्पष्ट निर्णय देगी , वैसे-वैसे कार्यपालिका और विधायी अंगों के मध्य नाजुक संतुलन स्थापित होगा । सीजेआई चंद्रचूड़ का सूक्ष्म दृष्टिकोण लोकतांत्रिक आदर्शों को मजबूत करने के महत्व को रेखांकित करता है, यह सुनिश्चित करता है कि विधि निर्माण की प्रक्रिया को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक सिद्धांत अनुचित बाहरी प्रभावों से अप्रभावित रहें ।
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