दार्शनिको के विचार | नीतिशास्त्र, सत्यनिष्ठा एवं अभिवृत्ति for UPSC CSE in Hindi PDF Download

जैन दर्शन

1. जैन दर्शन निरीश्वरवादी है। वास्तव में यह ईश्वर का निषेध मनुष्य को उसके कमों के लिए उत्तरदायी बनाने के लिए करता है। इसीलिए जैन दर्शन में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर बनने की सामर्थ्य निहित है।

2. इसका प्रतिनिधित्व जैन धर्म का 5 शपथ करता है जिसको अनुव्रत और महाव्रत कहा जाता है। इसे जैन धर्म में धार्मिक अनुशासन भी कहा जाता है जो निम्न है:

  • अहिंसा (हिंसा नहीं करना)
  • अस्तेय (चोरी नहीं करना)
  • सत्य (झूठ नहीं बोलना)
  • अपरिग्रह (धन संग्रह नहीं करना)
  • ब्रह्मचर्य

3. जब कोई भिक्षुक इसका पालन कठोर रूप से करता है तो उसे महाव्रत और कोई अनुयायी करता है तो उसे अनुव्रत कहते हैं।
4. जैन दर्शन के अनुसार सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चरित्र त्रिरत्न कहलाते हैं। सम्यक दर्शन का अभिप्राय सम्यक आस्था है। वास्तव में ज्ञान के लिए आस्था का होना आवश्यक है। सम्यक ज्ञान का अर्थ है कि मनुष्य को वास्तविक स्थिति का ज्ञान होना चाहिए।
5. वास्तव में जैन दर्शन की दृष्टि अनेकतावादी है। वह सभी जीवों एवं मनुष्यों को समान स्तर पर स्वीकार करता है और इसीलिए उसने "जियो और जीने दो" का नैतिक सिद्धांत दिया।

बौद्ध दर्शन

1. बौद्ध दर्शन को मानवतावादी दर्शन कहा जाता है। वास्तव में बौद्ध दर्शन, वैदिक दर्शन का प्रतिवाद है। बौद्ध दर्शन में वैदिक दर्शन के ईश्वरवाद, आत्मावाद, परलोकवाद आदि को निरस्त करते हुए मानववादी धर्म एवं दर्शन की प्रतिस्थापना की गयी है।

2. बौद्ध दर्शन के सभी सिद्धांत उसके चार आर्यसत्यों में मूलतः वर्णित हैं।

ये चार आर्यसत्य हैं:

  • दु:ख
  • दु:ख समुदय
  • दु:ख निरोध
  • दु:ख निरोध मार्ग।

3. बुद्ध के विचार का मतलब आष्टांगिक मार्ग से है जो बौद्ध धर्म के नैतिकता का प्रतीक है।
आष्टांगिक माग (8 Fold Path)- सम्यक् आस्था , सम्यक् सोच, सम्यक वाक्, सम्यक् कार्य, सम्यक्जी वकोपार्जन, सम्यक् प्रयास (Endeauour), सम्यक् चिंतन/साधना/ध्यान

कौटिल्य के विचार

1. कौटिल्य को विष्णुगुप्त और चाणक्य के नाम से भी जाना जाता है। इनका प्रमुख ग्रंथ अर्थशास्त्र है। चाणक्य ने इस पुस्तक में राज्य सिद्धांत, राज्य शिल्प, राजा एवं प्रजा के कर्त्तव्य तथा कर सिद्धांत आदि की विस्तृत व्याख्या दी है।

2. कौटिल्य ने राज्य की स्थापना सप्तांग सिद्धांत से की है। चाणक्य राज्य की आंगिक अवधारणा को स्वीकार करता है। इस सप्तांग सिद्धांत के सात भाग हैं- स्वामी (राजा), अमात्रा (मंत्री), जनपद (व्यक्ति एवं भूमि), दुर्ग (किला), धन (कोष) दण्ड (सेना) तथा मित्र। चाणक्य ने इन सातों भागों की तुलना मानव शरीर के विभिन्न अंगों से की है।

3. कौटिल्य का नैतिक चिंतन राजा एवं प्रजा के कर्तव्यों की परिभाषा एवं जनसामान्य के लिए दिए गए नीति वचनों पर आधारित है। कौटिल्य ने राजा के कर्तव्यों को परिभाषित करते हुए कहा है कि

  • राजा को जीविकोपार्जन के साधनों का विकास एवं सृजन करना चाहिए।
  • राजा को जनसुविधाओं का ध्यान रखते हुए चिकित्सालयों एवं औषधालयों का निर्माण करना चाहिए।
  • राजा को कृषि, पशुपालन, उद्योग तथा वाणिज्य का विकास करना चाहिए।
  • राजा को विधवा, अनाथ रोगियों तथा दुःखियों की सहायता करनी चाहिए तथा गर्भवती महिलाओं केदेखभाल की भी व्यवस्था करनी चाहिए।
  • राजा का यह भी कर्तव्य है कि वह ज्ञान की खोज में लगे आश्रम वासियों एवं विद्यार्थियों की रक्षा करे।
  • राजा को विद्वानों का सम्मान एवं सहायता करनी चाहिए तथा कला एवं शिक्षा के विकास के लिए प्रयास करना चाहिए।
  • भूमिहीन कृषकों को कृषियोग्य भूमि का आवंटन करना चाहिए। कृषि के विकास के लिए बाँध, तालाब तथा नहर बनवाना चाहिए।
  • धनी व्यक्तियों पर कर लगाना चाहिए तथा इसका वितरण निर्धन व्यक्तियों में करना चाहिए।
  • इनके अतिरिक्त राज्य की सुरक्षा, शांति एवं व्यवस्था, प्रजा की रक्षा, पशुधन विकास, वन, खानों तथा उद्योगों का विकास और सामाजिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक कार्यों का विकास करना चाहिए।

चार्वाक के विचार

  • चार्वाक ने कहा 'यदम् जीवेत सुखम जीवेत, ऋणम् कृत्वा घृतम् पीवेत'। अर्थात् जब तक जियें सुख से जियें और आवश्यकता पड़े तो ऋण लेकर भी घी पियें क्योंकि जीवन की समाप्ति के बाद ऋण चुकाने के लिए आप शेष नहीं रहेंगे।
  • चार्वाक का तर्क है कि प्रत्यक्ष के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। चार्वाक वस्तुतः प्रत्यक्ष को इन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में स्वीकार करता है। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होने वाला साक्षात ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है।
  • भारतीय दर्शन में वर्णित धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरूषार्थों में चार्वाक धर्म और मोक्ष को निरसित कर देता है। धर्म उसकी दृष्टि में कपोल कल्पना पर आधारित है और मृत्यु ही मोक्ष है।

राजा राममोहन राय के विचार


राजा राममोहन राय को आमतौर पर आधुनिक भारत, आधुनिक भारतीय उदारवादी परंपरा एवं पुनर्जागरण का जनक, महिलाओं के अधिकारों का योद्धा, सामाजिक तथा राजनैतिक सुधारों का पथप्रदर्शक, अंतर्राष्ट्रीय सहअस्तित्व का भविष्य दृष्टा तथा भारत के संवैधानिक उदारवादियों का अग्रदूत माना जाता है। आधुनिक भारत के जनक के रूप में तथा एक महान चिंतक के रूप में उन्होंने परंपरा तथा आधुनिकता के सम्मिलन का अविरल प्रयास किया। उन्होंने विश्व के सभी प्रमुख धर्मों की सर्वोच्च मान्यताओं के आधार पर एक विश्वव्यापी नैतिक धर्म की अवधारणा का प्रतिपादन भी किया। उन्होंने प्रचलित अंधविश्वासों तथा सती, देशदासी व जातिप्रथा जैसी वैचारिक परिपाटियों के विरूद्ध संघर्ष भी किया, ताकि एक ऐसे सभ्य व सुसंस्कृत समाज की पुनस्र्थापना की जा सके जो इतना उन्मुक्त हो कि सभी को समानता तथा स्वतंत्रता के सुअवसर प्राप्त करा सके।
आधुनिक भारतीय उदारवादी परंपरा में लगभग सभी प्रमुख नैतिक तथा राजनैतिक मूल्यों व विचारों का अद्भुत संकल्प देखने को मिलता है। 

इन मूल्यों तथा विचारों में सर्वप्रमुख निम्नलिखित है:

  • मानव की एक ऐसे विवेकशील प्राणी के रूप में आस्था, जिनकी क्षमताएं असीमित हैं।
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता में आस्था।
  • प्रतिनिधित्व प्रदान करने वाली राजनैतिक संस्थाओं में आस्था।
  • कानून के शासन में आस्था।
  • राष्ट्रीय स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक तथा आर्थिक सुधार के लिए संघर्ष की अपरिहार्यता में आस्था।
  • प्राचीन भारतीय परंपरा तथा पश्चिमी आधुनिकता का सम्मिश्रण व
  • निर्धारित लक्ष्यों की शांतिपूर्ण तरीकों, सृजनात्मक प्रयत्नों तथा क्रमिकतावाद की राजनीति के द्वारा प्राप्ति।

1. धार्मिक क्षेत्र में वह बहुदेववाद, मूर्तिपूजा तथा अंधविश्वास को स्वीकार नहीं करते थे। इनके स्थान पर उनकी आस्था  एकेश्वरवाद, तौहीद (दैवीय एकता) तथा प्रार्थना के सामूहिक रूप में थी। उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता से भी समस्याओं के समाधान के लिए असाम्प्रदायिक दृष्टिकोण तथा विज्ञान व आध्यात्मिकता के सृजनात्मक सम्मिश्रण की वकालत की। उन्होंने हर व्यक्ति की आत्मानुसरता की स्वतंत्रता के आध्यात्मिक मूल्य को सराहा तथा अपने तर्कों को प्रमुख धर्मों की सर्वोत्कृष्ट विशेषताओं के सम्मिश्रण पर आधारित किया।
2. सामाजिक क्षेत्र में उन्होंने सभी प्रकार के अंधविश्वासों,सती, देवदासी, बहुपत्नीवाद तथा जातिवाद की परिपाटियों की घोर निंदा की तथा उन्हें समूल नष्ट करने का प्रयास किया।
3. आर्थिक क्षेत्र में संपत्ति के अधिकार की पवित्रता में आस्था प्रकट की तथा निर्धन किसानों की शोषण से मुक्ति व आधुनिकतम वैज्ञानिक उद्योग-धंधों की स्थापना पर जोर दिया।
4. शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने न केवल देशी भाषाओं तथा साहित्यों को प्रोत्साहित किया, बल्कि अंग्रेजी भाषा तथा आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान को शुरूआत करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया। कुल मिलाकर उन्होंने जातिवाद को आधुनिक मानवतावाद, प्राचीन अंधविश्वासों को आधुनिक विज्ञान, निरंकुशता को जनतंत्र, असहज रीति-रिवाजों को सहज प्रगति तथा बहुदेववाद को एकेश्वरवाद से पलटने का अथक प्रयास किया।

स्वामी विवेकानंद के विचार


सितंबर 1893 में शिकागो में सम्पन्न हुई धर्मों की विश्व संसद में उन्होंने विदेशियों द्वारा भारत के पद-दलित गौरव, अस्मिता और आत्मविश्वास को जगाया और उसकी विश्व के आध्यात्मिक गुण की पुनः बहाल कराने की दिशा में अभूतपूर्व भूमिका निभाई। उनके उपदेशों का बंगाल के राष्ट्रवादी आन्दोलन पर गहन प्रभाव पड़ा। उनके विचारों से राष्ट्रीय चेतना विकसित हुई एवं भारत के लोगों को उपनिवेशवाद के अपने संघर्ष में सराहनीय प्रेरणा मिली। इसके अलावा उन्होंने देश की तात्कालिक समस्याओं तथा जनता द्वारा भोगी जाने वाली यातनाओं की ओर ध्यान दिया और ऐसी भूमिका निभा कर उन्होंने भारतवासियों के दिल में इतना आत्मविश्वास पैदा कर दिया कि जिससे वह स्वयं अपने बलबूते पर अपने मानवोचित अधिकारों के लिए संघर्ष कर सकें। विवेकानंद के विचारों को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है

1. विवेकानंद ने अपने विचारों में आध्यात्मवाद को प्रमुख स्थान दिया है, परन्तु उसका मानवतावाद से सम्मिश्रण भी किया है। 

2. उन्होंने विचार दिया कि वर्तमान नैतिकता भय पर आधारित नैतिकता है अर्थात विधि का भय, ईश्वर का भय, धर्म का भय जो कि सही नहीं है। साथ ही यह भी बताया कि मनुष्य को क्यों नैतिक होना चाहिए भय के कारण नहीं बल्कि इस बात के कारण कि शुद्धता और अच्छाई मानव की वास्तविक प्रवृत्ति है और सभी मानव एक हैं। 

3. विवेकानंद ने जनता को सशक्त तथा स्वावलंबी बनाकर वेदांत का भारत के पुनर्जीवित तथा पुनर्चेतना के लिए प्रयोग किया। उनके दर्शन में मनन तथा कर्म, निर्विकल्य समाधि तथा मानवतावादी गतिविधि, परमात्मा तथा विश्व इन सबका समन्वय मिलता है।
विवेकानंद की तीन आधारभूत मान्यताएँ थीं:

  • मानव की प्रकृति ईश्वरीय है।
  • जीवन का लक्ष्य इस सत्यरूपी ईश्वरीय शक्ति की अनुभूति है।
  • सभी धर्मों का मूल लक्ष्य समान है।

4. विवेकानंद के अनुसार, भारत की एकता के लिए एक सामान्य धर्म अथवा विभिन्न धर्मों के समान मूलभूत सिद्धांतों को पहचानना और स्वीकार करना अनिवार्य है।

5. व्यक्ति को सदैव दूसरों के प्रति अच्छा होना चाहिए क्योंकि अच्छाई उसकी प्रकृति है तथा उन्होंने सद्गुण और चरित्र के विकास पर बल दिया।

6. उन्होंने वंशानुगत जाति प्रथा तथा उससे उत्पन्न होने वाली छुआछुत जो उनके पारस्परिक संबंधों में छाया बनती है, का खंडन किया।

7. उनके नैतिक चिंतन में कार्यकेंद्रित नैतिकता दृष्टिगोचर होती है एवं साथ ही नैतिकता में सक्रियता के तत्व हैं।

8. उनका यह मानना था कि भारतीयों को अपनी विभिन्न समस्याओं का समाधान ढूंढना है तो उन्हें आत्मनिर्भर बनना होगा। उनके अनुसार भारत के लोगों के दुखों का सबसे बड़ा कारण उनकी शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक निर्बलता थी। 

9. उनका यह भी मानना था कि सभी धर्म अच्छे हैं। हर धर्म सत्य पर आधारित है तथा हर धर्म ने गुणी लोगों को जन्म दिया है। इसलिए यह आवश्यक नहीं है कि लोग स्वधर्मों को छोड़कर किसी दूसरे धर्म को अपनाए। विश्व के विभिन्न धर्मावलम्बियों को एक-दूसरे की धार्मिक भावनाओं को अपनाना चाहिए, लेकिन साथ ही साथ अपनी पहचान भी बनाए रखनी चाहिए और अपने धर्म के विकास के सिद्धांत के अनुसार विकास करना चाहिए।

10. भारत एक आध्यात्मिक राष्ट्र है, इसलिए भारत में समाज सुधार का उद्देश्य आध्यात्मिक जीवन को और अधिक परिपक्व करना, लोगों का कल्याण करना तथा राष्ट्र को उसकी आध्यात्मिकता वापस दिलाने का होना चाहिए।

11.  वर्ण-विभेद, महिलाओं का अपमान तथा जनता की निर्धनता भारत के सामाजिक तथा राष्ट्रीय अवनति के प्रमुख कारण हैं। इसलिए सुधार का जो भी कार्यक्रम अपनाया जाए उसका उद्देश्य होना चाहिए निर्धनता का निवारण, महिलाओं को उच्च स्थान प्रदान कराना तथा जाति प्रथा को शिष्ट बनाना।

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