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नक्सलवाद : समस्या एवं समाधान | आंतरिक सुरक्षा और आपदा प्रबंधन for UPSC CSE in Hindi PDF Download

सार संक्षेप


अन्याय, गैर बराबरी एवं शोषण के गर्भ से जन्मा नक्सलवाद आज भारत की सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है। चारू मजूमदार एवं कानू सान्याल के दर्शन से प्रभावित होकर भूमिहीन किसान एवं उपेक्षित सामाजिक वर्ग के लोगों द्वारा 1967 में आरंभ किया गया नक्सलवादी आंदोलन की चपेट में देश के अधिकांश हिस्सों में शीघ्र ही यह आंदोलन अपना पाँव पसारने में कामयाब हो गया। नक्सलवाद के उदय के प्रमुख कारणों में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं प्रशासनिक असहिष्णुता को शामिल किया जाता है। सामाजिक व आर्थिक रूप से शोषित एक बड़ा वर्ग नक्सलवादी विचारधारा से प्रभावित होकर अपनी मुक्ति की राह ढूँढ़ने के लिए नक्सलवादी गतिविधियों में संलिप्त हो गया। चीनी कम्यूनिष्ट नेता माओ के दर्शन से प्रभावित होकर चारू मजूमदार ने जिस आंदोलन को आरंभ किया आज वही नक्सलवादी आंदोलन सरकार के लिए एक बड़ी मुसीबत बनी हुई है। जब तक शोषित, पीड़ित, भूमिहीन किसान एवं मजदूर, विस्थापित आदिवासी एवं सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से पिछड़े लोगों की समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो जाता है, तब तक नक्सलवादी समस्या का स्थायी समाधान संभव नहीं है। सरकारी एवं गैर सरकारी दोनों स्तरों पर इस समस्या का समाधान ढूँढना है। नक्सलवादी आंदोलन जिन परिस्थितियों में पनपा उसमें काफी बदलाव अवश्य आये हैं, परंतु फिर भी असमानता की खाई ज्यों का त्यों विद्यमान है। समय रहते नक्सलवादी समस्या का स्थायी समाधान ढूँढना राष्ट्रहित के लिए आवश्यक है।

मुख्य शब्द- नक्सलबाड़ी, आंदोलन, गैर-बराबरी, शोषण, अन्याय, आंदोलन

परिचय–

सी. पी. एम. की दार्जिलिंग इकाई के जिला सचिव चारू मजूमदार द्वारा तैयार किया गया 'तराई दस्तावेज' नक्सलबाड़ी दमन के विरुद्ध प्रतिरोध का बुनियादी आधार पत्र था। दरअसल 25 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी थाने में उस वक्त बड़ी घटना घटी जब चाय बगान मालिकों एवं पुलिस के गठजोड़ से हुए हमले में 9 महिलाओं समेत 2 बच्चे मारे गये। नक्सलबाड़ी की इस घटना से देश की राजनीतिक बिरादरी खासकर कम्युनिष्ट पार्टियों के बीच भूचाल मच गया। 25 मई, 1967 की इस घटना से उस क्षेत्र के आदिवासियों में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। परिणामस्वरूप आदिवासियों ने भूस्वामियों के खिलाफ हथियार उठा लिये। कालांतर में यह आन्दोलन पश्चिम बंगाल से होते हुए आंध्र प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, उड़ीसा आदि राज्यों में फैल गया। यहाँ तक कि समाज का बौद्धिक वर्ग भी घर एवं शिक्षण संस्थाओं को छोड़कर इस आंदोलन से जुड़ गये। इनका लक्ष्य एक वर्गविहीन नयी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है।

दर्शन-

नक्सलवादी आंदोलन से जुड़े लोगों का मानना है कि वर्तमान राजसत्ता नौकरशाहों, भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, पूंजीपतियों, भू-स्वामियों तथा तथाकथित दलालों के हाथों में है। ये सभी मिलकर विशाल समूह वाले कृषक मजदूर एवं अन्य दलित, आदिवासियों पर अत्याचार कर रहे हैं। अत: नक्सलियों के मुताबिक वे पूँजीवादी सरकार की बाजारवादी व समाज में गैर-बराबरी बढ़ाने वाली गतिविधियों के विरोध में और गरीबों के हित में लड़ रहे हैं।

संस्थापक नेता-

नक्सलवादी आंदोलन के संस्थापक नेताओं में कानू सान्याल, चारू मजूमदार, सीता रमैया, नागभूषण पटनायक आदि का नाम उल्लेखनीय है।

लक्ष्य–

जहाँ तक नक्सलवादी आंदोलन के लक्ष्य का सवाल है, नक्सलवाद का लक्ष्य समाज से गैर-बराबरी को समाप्त कर ऐसे समरस समाज का निर्माण करने से है जहाँ न अन्याय, न शोषण और न ही उत्पीड़न के लिए कोई स्थान हो। सर्वहारा वर्ग की सत्ता कायम करना नक्सलवाद का प्रमुख लक्ष्य है।

उत्पत्ति के कारण-

मानव और पशु में सबसे बड़ा अंतर यह है कि मानव के पास सोचने की शक्ति होती है। अपने विचारों को व्यक्त कर अपनी भावना को जगजाहिर करने की क्षमता उसे पशु से भिन्न बनाता है। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही बुर्जुआ वर्ग द्वारा सर्वहारा वर्ग का शोषण आरंभ हो गया। शोषण का यह अंतहीन सिलसिला आज भी कायम है। भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् समाजवादी विचारधारा का काफी तीव्र गति से विकास हुआ। इसके साथ ही वर्ग संघर्ष पूरे भारत में आरंभ हो गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी सामंतवाद भारत में लम्बे समय तक कायम रहा। सामंतवादी व्यवस्था के पोषक लोगों द्वारा सबसे अधिक प्रताड़ना उन्हीं लोगों को दी गई जो सामाजिक सोपान के सबसे निचले पायदान पर थे।

प्रसिद्ध कम्युनिष्ट चीनी नेता माओ का मानना था कि-

  • राजनीतिक सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है।
  • राजनीति रक्तपात रहित एक युद्ध है और युद्ध रक्तपात युक्त एक राजनीति है।

माओ के उपरोक्त दोनों सिद्धांत नक्सलवादी नेताओं के लिए आदर्श साबित हुए।

आंदोलन की शुरूआत–

सामाजिक असमानता के गर्भ से उत्पन्न नक्सलवाद एक विचार नहीं अपितु एक विचारधारा है। नक्सलवादी आंदोलन के प्रमुख अगुआ कानू सान्याल ने अपनी रपट 'रिपोर्ट ऑन पिंजेंट्स मूवमेंट इन तराई रिजन' में लिखा है कि किसानों ने संघर्ष किया है क्रांतिकारी राज्यतंत्र के सशस्त्र हमलों के खिलाफ उनके इस उक्ति से स्पष्ट है कि यह आंदोलन मुख्यतः किसानों द्वारा सामंतवाद के खिलाफ किया गया आंदोलन है जिसमें मुख्यतः भूमिहीन किसान, मजदूर, आदिवासी, दलित एवं ऐसे असंख्य शोषित, पीडित एवं उपेक्षित लोग शामिल हैं जिन्होंने अन्याय को सहने से इनकार कर दिया एवं अहिंसा के रास्ते का परित्याग कर हिंसा का सहारा लेना आरंभ कर दिया।

नक्सलवादी आंदोलन के व्यापक चार बिन्दु-

  1. जल, जंगल, जीवन
  2. आदिवासी एवं पिछड़े इलाकों में विकासात्मक कार्यों का अभाव
  3. प्रशासनिक असफलता
  4. सामाजिक तिरस्कार एवं उपेक्षा

नक्सलवादी आंदोलन के चरण- नक्सलवादी आंदोललन के इतिहास का अवलोकन करने के पश्चात् नक्सलवादी आंदोलन को मुख्यतः तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है-

  1.  प्रथम चरण- इसकी काल अवधि 1967 से 1980 तक मानी जाती है। यह शुरूआती दौर या जब नक्सलवाद को व्यवस्था के विद्रोह के रूप में एक बुद्धिजीवी आंदोलन के रूप में देखा गया। यह चरण आदर्शवादी एवं वैचारिक आंदोलन का चरण माना जाता है।
  2. द्वितीय चरण- इसकी काल अवधि 1980 से 2004 तक मानी जाती है। इस अवधि में नक्सलियों ने सशस्त्र बलों पर हमले आरंभ कर दिए। इसी चरण में नक्सली आंदोलन का सीमा विस्तार सर्वाधिक हुआ। पूरे भारत में लाल गलियारे का निर्माण होने लगा जो पश्चिम बंगाल से होते हुए बिहार, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र तक पहुँच गया। गोरिल्ला युद्ध में माहिर नक्सलियों द्वारा छत्तीसगढ़, झारखंड एवं उड़ीसा आदि के जंगलों में घात लगाकर सशस्त्र बलों पर हमले आरंभ हो गये।
  3. तृतीय चरण- तीसरे चरण की शुरूआत 2004 से मानी जाती है जो वर्तमान समय तक जारी है। 2004 के बाद नक्सलवादी आंदोलन अपने मूल उद्देश्य से भटक गया ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। साल 2004 में पीपुल्स वारग्रुप एवं एमसीसीई के एकीकरण के पश्चात् एक नई पार्टी का गठन किया गया जिसे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का नाम दिया गया। 25 मई 2013 के छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के जंगलों में हमले हुए। इस हमले में सलमा जुडूम के प्रवर्तक महेन्द्र कर्मा व छत्तीसगढ़ कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और उनके बेटे दिनेश पटेल, पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल व आठ अन्य लोग मारे गये।
    इस हमले के बाद से स्पष्ट हो जाता है कि नक्सलवादी अपने मूल उद्देश्य से भटककर उनलोगों को निशाना बनाने लगे हैं जो नीति-नियंता, राजनीतिक नेतृत्वकर्ता एवं राजनीतिक पार्टियों से जुड़े हुए हैं।

नक्सलवाद का प्रभाव-


  • नक्सलवाद का सर्वाधिक प्रभाव देश के आठ बड़े राज्यों में देखा जा सकता है। इन राज्यों में पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र एवं छत्तीसगढ़ शामिल है। देश के विभिन्न राज्यों में लाल गलियारे का निर्माण हुआ। नक्सलवादी आंदोलन के कारण हजारों लोगों की हत्या कर दी गई। देश में अरबों रुपये की संपत्ति बर्बाद कर दी गई। नक्सलवाद के प्रभाव को निम्न रूप में देखा जा सकता है -
    (i) आंतरिक अशांति
    (ii) कानून व्यवस्था की समस्या
    (iii) अलगाववादी तत्त्वों को प्रोत्साहन
    (iv) समानांतर सरकार का गठन
    (v) सशस्त्र विद्रोह का भय
    (vi) जानमाल की व्यापक हानि
    (vii) वर्गीय भेदभाव को बढ़ावा
    (viii) सशस्त्रों की अवैध खरीद फरोख्त
    (ix) हिंसक गतिविधियों में वृद्धि
    (x) आर्थिक नुकसान

समाधान-


  • भूतपूर्व केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने नक्सलवादी समस्या के चार प्रमुख कारण बताएँ हैं
    (i) समाज के एक बड़े तबके का मुख्यधारा से कटे रहना
    (ii) एक वर्ग विशेष का दबे-कुचले रहना
    (iii) अधिकारों से वंचित रहना एवं
    (iv) असंतुष्ट रहना
  • उपरोक्त कारणों का निवारण नक्सलवादी समस्या के समाधान का सर्वाधिक उपयुक्त रास्ता है।
  • नक्सलवाद के मूल में आर्थिक कारण समाहित है। 2008 में जर्नल ऑफ कंटम्प्रेरी एशिया में छपे एक लेख में जेम्स पेट्रास ने बताया था कि दुनिया की सबसे बड़ी गैर बराबरी भारत में पायी जाती है। देश में लगभग 35 खरबपति परिवारों की दौलत देश के 80 करोड़ भूमिहीन, किसान, मजदूर और शहरी गंदी बस्ती के लोगों की कुल दौलत से अधिक है। देश के गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाले आदिवासियों की औसत आमदनी 12 रुपये प्रतिदिन है। असमानता की इतनी बड़ी खाई को पाटे बगैर नक्सली समस्या का स्थायी समाधान कतई संभव नहीं है।

सरकारी प्रयास–


  • भारत सरकारर द्वारा नक्सली समस्या के समाधान की दिशा में अनेक प्रमुख कदम उठाये गए हैं जिनमें दंड के प्रावधान के साथ-साथ सुधारात्मक पहलू पर भी ध्यान दिया गया। अनेक जनकल्याणकारी कदम उठाए गये हैं जिनमें प्रमुख है-
    (i) नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे, कौशल विकास, शिक्षा, ऊर्जा के क्षेत्र में व्यापक विकास और डिजिटल कनेक्टिविटी के विस्तार पर कार्य 11
    (ii) 2013 में 'रोशनी' नामक विशेष पहल की शुरूआत।
    (iii) 2017 में केन्द्र सरकार द्वारा आठ सूत्रीय ‘समाधान' नाम की एक कार्य योजना की शुरूआत।”

समाधान पहल :-

  • भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा नक्सली समस्या के समाधान के लिए एक नई पहल की गई है जिसे समाधान नाम दिया गया है।
  • कुशल नेतृत्व
  • आक्रामक रणनीति
  • अभिप्रेरणा एवं प्रशिक्षण
  • अभियोज्य गुप्तचर व्यवस्था
  • कार्ययोजना आधारित प्रदर्शन सूचकांक एवं परिणामोन्मुखी क्षेत्र
  • कारगर प्रौद्योगिकी
  • प्रत्येक रणनीति की कार्ययोजना
  • नक्सलियों के वित्त पोषण को विफल करने की रणनीति
  • इसमें कोई संदेह नहीं है कि नक्सलवाद देश के लिए एक गंभी चुनौती है। समस्या के समाधान के लिए सरकारी स्तर पर वर्षों से प्रयास जारी है। अनेक नीतियाँ बनाई गई किन्तु उन नीतियों का कार्यान्वयन उचित ढंग से आज तक नहीं हो पाया है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि 'नक्सलवाद' के मूल में जाकर समस्या के समाधान के लिए समुचित प्रयास किये जायें। गुमराह व्यक्तियों के लिए पुनर्वास की उचित व्यवस्था की जाये। भूमि सुधार कार्यक्रम लागू कर समस्य का स्थायी समाधान किया जा सकता है।
  • नक्सलवाद देश की आंतरिक समस्या है। अतः इसका समाधन भी देश में ही संभव है। सरकारी प्रयास के साथ-साथ आमजन का भी यह दायित्व बनता है कि नक्सली समस्या के समाधान की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभायें। नक्सली गतिविधियों में संलिप्त लोगों को समाज की मुख्यधारा से जोड़कर समस्या का समाधान संभव है। यहाँ एक बात सर्वाधिक महत्वपूणर्क है कि देश में व्याप्त असमानता की खाई को पाटकर इस गंभीर समस्या का निदान किया जा सकता है।

निष्कर्ष-

  • नक्सलवाद को पनपने एवं पोषण देने में जिन तत्त्वों की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है उसमें गरीबी, बेरोजगारी, प्रशासनिक भ्रष्टाचार, एक बड़े वर्ग के समुचित विकास का अभाव, विस्थापन की समस्या आदि प्रमुख कारण है। इसमें कतई संदेह नहीं है कि नक्सलवाद देश के समक्ष एक गंभीर चुनौती है। 1967 से आरंभ हुए नक्सलवादी आंदोलन अपने आरंभिक काल से 53 वर्षों की यात्रा पूरी कर चुका है। इस लम्बी अवधि में भी न तो नक्सलवाद का प्रयोजन पूरा हो सका और न ही इसका समाधान हो सका। हाँ, नक्सलवादी विचारधारा एवं सरकारी प्रयासों में अंतर अवश्य दृष्टिगोचर हुए हैं। एक विचारधारा के रूप में विद्यमान 'नक्सलवाद' आज भी जीवित है। उसने अपना रूप अवश्य बदल लिया है। भूमिहीन किसान, मजदूरों का सामंतों के विरुद्ध प्रारंभ किये गये आंदोलन आज सरकार एवं सुरक्षा बलों के विरुद्ध आंदोलन बनकर रह गया है। नक्सलियों द्वारा समानांतर सरकार का गठन यह बताने के लिए पर्याप्त है कि नक्सलियों का संविधान से विश्वास उठ सा गया है। यह देश के लिए गंभीर समस्या है। आवश्यकता इस बात की है कि नक्सली गतिविधि में संलिप्त लोग एवं सरकारी महकमा आमने-सामने बैठकर समस्या का स्थायी समाधान निकालें। यही वक्त की माँग है। सशक्त भारत की परिकल्पना को साकार रूप देने के लिए यह आवश्यक है।
  • वश्यकता इस बात की है कि सरकारी नीतियाँ इस ढंग से बनायी जाये जिससे आमजन को लाभ पहुँच सके। गरीबी अमीरी की खाई को पाटकर उन असंख्य लोगों को समाज की मुख्यधारा में शामिल होने का अवसर प्रदान कर नक्सलवाद का समाधान किया जा सकता है।
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