पर्यावरण और प्रदूषण
• 25 लाख वर्ष पूर्व, जब मानव-जीवन की शुरूआत हुई थी, तो उसने ईश्वर-प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों के छोटे से हिस्से का इस्तेमाल किया था। जैसे - जैसे मनुष्यों की आबादी बढ़ती गई, और उसकी संस्कृति एवं प्रौद्योगिकी विकसित होती गई, उसने प्राकृतिक प्रणाली को एक कृत्रिम और अत्यधिक उत्पादक प्रणाली में रूपान्तरित किया ताकि अधिक ऊर्जा और पोषक स्रोत हासिल किए जा सकें। इसका नतीजा यह हुआ कि अधिक सह उत्पादों और कचरे का उत्पादन हुआ, जो प्राकृतिक संसाधनों की इस तरह भारी मात्रा में शोषण किये जाने और सह-उत्पादों तथा कचरे की विशाल एवं अनियंत्रित मात्रा से आज पर्यावरण का संकट पैदा हुआ और इससे न केवल मानव अस्तित्व बल्कि समूची धरती पर जीवन खतरे में पड़ गया है।
• वायु, जल और मिट्टी, पौधे और जीव-जन्तु प्राकृतिक पूंजी का निर्माण होता है, जिस पर मानव अपनी आवश्यकताएं और विकास की महत्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए निर्भर है। इन संसाधनों का विवेकपूर्ण प्रबंध रचनात्मक एवं वास्तविक आयोजना की मांग करता है, जिसमें मनुष्य की आवश्यकताओं और उन्हें पूरा करने की पर्यावरण की क्षमताओं के बीच संतुलन कायम हो सके। यही कारण है कि नीति-निर्माता और यहां तक कि आम आदमी भी दिन-ब-दिन धरती के तापमान में बढ़ोतरी, ओजोन की परत क्षीण होने, ऐसिड वर्षा, अकाल, सूखा, बाढ़, भूकम्प, ईंधन की लकड़ी और चारे की कमी, वायु एवं जल प्रदूषण, खतरनाक रसायनों और विकिरण से उत्पन्न समस्याएं, भूमि के विकृत होने, रेगिस्तानों के बढ़ने, बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों के समाप्त होने, वन्य जीवों के नष्ट होने, वनस्पति एवं वन्य जीवों को अस्तित्व खतरे में पड़ने, जीवन-प्रणालियों में एक ओर फालतू और व्यर्थ की उपभोग सामग्री की आवश्यकता पड़ने और दूसरी ओर गरीबी, प्राकृतिक उपहारों के दोहन में निरन्तरता न बने रहने जैसे मुद्दों के प्रति चिन्तित होता जा रहा है। इन सभी मुद्दों का मानव-पर्यावरण पर सामूहिक, विनाशकारी और प्रतिकूल असर पड़ रहा है।
• अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण का संकट विभिन्न रूपों में संकट प्रकट हुआ है। इसके कुछ प्रमुख रूप इस प्रकार हैं।
I. प्रदूषण
• प्रदूषण का अर्थ है पर्यावरण के प्राकृतिक घटकों का विषाक्त होते जाना।
• हवा विभिन्न गैसों का मिश्रण है, जो एक संतुलन स्थापित करती हैं। गैसों का यह संतुलन जब पर्यावरण द्वारा निर्धारित सीमाओं से अधिक गड़बड़ा जाता है, तो वायु प्रदूषित होती है। अगर कोई गैस इस हद तक कम हो जाती है कि प्राकृतिक संतुलन के बल पर भी हवा में उसका स्तर निश्चित अनुपात में बहाल न किया जा सके, तो उससे वायु में विद्यमान गैसों का अनुपात बाधित होता है और उसके परिणामस्वरूप ऐसिड वर्षा, ग्रीन हाऊस इफेक्ट्स (यानी धरती के तापमान में बढ़ोतरी से जलवायु परिवर्तन, समुद्र के जल स्तर में बढ़ोतरी, पारिस्थितिकी प्रणाली में बाधाएं और बीमारियां), श्वास संबंधी-समस्याओं और उनसे संबद्ध फेफडे़ और हृदय रोग, ओजोन की परत का क्षीण होना, धूमित कुहरा और पौधों, सम्पत्ति आदि को क्षति, जैसे प्रभाव सामने आते हैं। भारत में वायु प्रदूषण के सामान्य स्रोतों में औद्योगिक, यातायात (आॅटोमोबाइल) और घरेलू निस्सरण शामिल हैं। इनके अंतर्गत ताप बिजलीघरों, उर्वरक फैक्टरियों, कपड़ा मिलों और चीनी मिलों आदि से निकलने वाला धुआं वायु प्रदूषण का प्रमुख स्रोत है।
• जल प्रदूषण का अर्थ पानी में विषाक्त तत्वों का समावेश और जल के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों में मिलावट, अथवा पानी में मल अथवा व्यावसायिक कचरे अथवा अन्य किसी गैसीय या ठोस पदार्थ का मिल जाना, जिससे जल मैला दिखाई देता है, उसमें गंध आने लगती है, स्वाद पर दुष्प्रभाव पड़ता है या ऐसा जल जन स्वास्थ्य के लिए घातक और नुकसानदायक हो जाता है। यह जल घरेलू, व्यावसायिक, औद्योगिक कृषि अथवा अन्य वैध इस्तेमाल के योग्य नहीं रहता। पशुओं और जलीय जीव-जन्तुओं के स्वास्थ्य के लिए भी ऐसा जल घातक हो जाता है। जल प्रदूषण के कारण इस प्रकार हैं-
1. नदियो, झीलों अथवा खुले स्थानों पर घरेलू मल और औद्योगिक कचरा डालना,
2. खेती पद्धतियों में उर्वरकों तथा कीटनाशकों का अत्यधिक इस्तेमाल।
3. नमी और एसिड वर्षा के संपर्क के आकर गैसीय प्रदूषकों का ऐसिड में बदल जाना।
4. झीलों, नदियों और तालाबों में मनुष्यों और पशुओं का स्नान करना, बर्तन साफ करना और अधजले या बिना जले शव डालना। प्रदूषित जल से अनेक ऐसी बीमारियां फैलती हैं जैसे मलेरिया, जैपनीज ऐन्सेफलाइटिस, डेंगू फिलारियासिस, हैजा, टाइफाइड, कंजेक्टिवाइटिस, अमोल्वियासिस, अतिसार, पीलिया, पेचिश, आन्त्रा कृमि और परजीवी जिनसे पोलियो हो सकता है, दाँत खराब होना, उदर रोग, त्वचा रोग, फेफडे़ खराब होना, जोड़ों में दर्द, टांगों में विकृति आना आदि। इसके अलावा प्रदूषित जल से जल के भीतर और बाहर पौधों और जीव-जन्तुओं की मृत्यु हो जाती है। भारत में अब देश भर में इस बात के लिखित साक्ष्य मिले हैं कि जल-प्रदूषण के प्रतिकूल प्रभाव पड़े रहे हैं। गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा और ब्रह्मपुत्रा सहित लगभग सभी नदियों और अनेक झीलों तथा तालाबों में बेहद प्रदूषण है।
II. भूमि प्रदूषण
• बाढ़ के पानी, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, जीवाणु नाशकों और शाक नाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल तथा बहुफसल प्रणाली से भूमि के अधिक उपयोग की वजह से मिट्टी की पारिस्थितिकी बदल गई है और इसमें इतनी विकृतियां आ गई हैं कि यह अपनी प्राकृतिक संरचना और उर्वरता बनाए रखने के लिए आवश्यक तत्व खो चुकी है। इस अवधारणा को भूमि-प्रदूषण कहा जाता है। भूमि प्रदूषण के दुष्परिणाम मिट्टी में कैल्शिियम, मैग्नेशियम, सल्फर, आयरन (लौह), तांबा, जिंक, बोरान, मोलिब्डनेम, मैंग्नीज, नाइट्रोजन, पोटाशियम और फाॅस्फोरस जैसे तत्वों की गंभीर कमी, कुछ उपयोगी पौधों और जीव समूहों के विनाश, जो भूमि को नमी देते हैं और पोषक तत्वों के आवर्तन के लिए जरूरी है, विषाक्त अनाज, सब्जियों और फलों से मनुष्यों में स्वास्थ्य के संकट और मिट्टी में क्षारता बढ़ने आदि रूपों में सामने आते हैं। मार्च, 1980 में कृषि मंत्रालय द्वारा लगाए गए अनुमानों के अनुसार देश के कुल 30 करोड़ 40 लाख हेक्टेयर क्षेत्रा में से 17 करोड़ 50 लाख भू-भाग ऐसा है, जो पर्यावरण समस्याओं से ग्रस्त है।
• रेगिस्तान पारिस्थतिकी प्रणाली के लिए विनाशकारी हैं, जिनसे खेती योग्य भूमि की उर्वरा शक्ति में कमी आती है और परिणामस्वरूप खाद्य की कमी और जलवायु परिवर्तन जैसे संकट खड़े होते हैं। कार्पेंटर (1982) ने रेगिस्तान बढ़ने की परिभाषा इस प्रकार दी थी“ यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे भूमि की उत्पादकता में कमी आती है और सामाजिक असंतोष में बढ़ोतरी होती है। इसके अंतर्गत वनों की कटाई, शुष्कता और अर्ध-शुष्कता, रेंज भूमि प्रबंध, पानी भरा रहने और क्षारता तथा कटाव की वजह से भूमि विकृत होने, रासायनिक अनुक्रिया और संभावित घटकों की समस्याएं भी शामिल हैं“
III. ध्वनि प्रदूषण
• मानव और अन्य जीव समूहों पर शोर-शराबे का प्रभाव इसके घनत्व, आवृति और अवधि पर निर्भर है। आज, ध्वनि को डेसिबल्स (डीबी) नामक यूनिटों में व्यक्ति किया जाता है। 85 डेसीबल्स को आवाज की सहनीय सीमा समझा जाता है। ध्वनि का स्तर जब इस सीमा को पार जाता है तो ध्वनि-प्रदूषण होने लगता है। ध्वनि-प्रदूषण भारी यातायात, लाउड स्पीकरों पर गरजते संगीत, जेट विमानों और उद्योगों के कारण होता है। इससे हमारी मानसिक खुशहाली के प्रति खतरा पैदा होता है जो बहरेपन, सुनने में कठिनाई और अन्य बीमारियों और मानसिक असंतुलन के रूप में सामने आता है। इससे बहुत सारे जीव समूह-जीव जन्तु और पौधों की मृत्यु हो जाती है।
IV .पर्यावरण संकट के कारण
• भारत और विदेश में पर्यावरण संकट के पीछे विशेष कारण हैं-
• दुनिया की जनसंख्या में हर साल 9.2 करोड़ लोगों की बढ़ोतरी होती है और भारत में प्रत्येक सेकेण्ड में एक शिशु जन्म ले लेता है। भारत में पर्यावरण संकट की प्रमुख चुनौती तेजी से बढ़ती आबादी है। इसमें निरन्तर हो रही वृद्धि को देखते हुए अनुमान है कि इस शताब्दी के अंत तक हम एक अरब हो जायेेंगे। जनसंख्या की समस्या का स्वरूप नितान्त वैयक्तिक किस्म का है और एक लंबे समय से एक भावनात्मक मुद्दा बना हुआ है। किन्तु जनसंख्या में वृद्धि और पर्यावरण पर उसके प्रभाव के बीच एक प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। अधिक लोगों को अधिक भोजन की; खेती के लिए अधिक जमीन की, मकान बनाने के लिए अधिक भूखंडों की, अधिक खनिजों और अधिक ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। जनसंख्या-वृद्धि के पाश्र्ववर्ती प्रभावों में रसायनों, रासायनिक उर्वरकों, कीट नाशकों का अधिक मात्रा में इस्तेमाल, वनों की कटाई, अधिक प्रदूषण और यातायात पर अधिक दबाव शामिल है। इस तरह जनसंख्या वृद्धि एक प्रमुख पर्यावरण समस्या है, हालांकि यह अनेक समस्याओं में से एक है।
• हम, भारतवासी दुनिया की आबादी का 16 प्रतिशत हिस्सा है, लेकिन हमारे पास विश्व के उपलब्ध भू-भाग का मात्रा 2.4 प्रतिशत है। चूँकि भूमि की और अधिकतर अन्य संसाधनों की उपलब्धता की एक ऊपरी सीमा है, अतः हमें यह जानने की आवश्यकता है कि हमारे देश की वहन क्षमता कितनी है। वहन क्षमता को भोजन, जल, भूमि, ऊर्जा और अन्य संसाधनों की उपलब्धता से जोड़कर समझा जाना चाहिए। जन्म दर 34 प्रति हजार की कम करके मृत्यु-दर के बराबर यानी 9 प्रति हजार पर अवश्य लाना होगा ताकि जनसंख्या को स्थिरता प्रदान की जा सके।
• प्राकृतिक संसाधनों की क्षति और प्रदूषण की मार सबसे अधिक गरीबों पर पड़ती है क्योंकि वे अपनी रक्षा के लिए अपेक्षित साधन नहीं जुटा पाते और उनके पास चयन के लिए कोई विकल्प नहीं होते, वे ही ऐसे लोग भी हैं जो पर्यावरण को सबसे अधिक क्षति पहुंचाते हैं। कंतु, गरीबों से यह कहना कि वे प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और परिष्कार करें, बड़ा ही अमानवीय होगा, क्योंकि उन्हें अपने शरीर और आत्मा एक साथ रखने के लिए संघर्ष करना होता है।
• भारत दुनिया का दसवां सबसे बड़ा औद्योगिक देश है। किन्तु, साथ ही जहां तक औद्योगिक प्रदूषण और कचरे का सवाल है, यह दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषित देशों में से एक भी है। पर्यावरण सुरक्षा एवं संरक्षण के पहलुओं के प्रति उद्योगों की उदासीनता का यह नतीजा है कि वायु, जल और भूमि में ऐसे प्रदूषण का प्रसार हो रहा है। जिसे रोका जा सकता है। हमारे सामने वास्तविक समस्या यह है कि औद्योगिक विकास नियंत्रित नहीं है। इसके अतिरिक्त बहुसंख्यक उद्योग तरल, गैसीय और ठोस रूपों में कचरा पैदा कर रहे हैं, जिसमें से कुछ जहरीला और खतरनाक भी होता है। खतरनाक कचरे के उपचार और निपटान का जो वर्तमान तरीका है, उस पर कड़ी निगरानी रखने की आवश्यकता है। कभी-कभी उद्योग इस तरह के कचरे का उपचार किए बिना ही छोड़ देते हैं।
• उद्योगीकरण की प्रक्रिया से पहले आमतौर पर शहरीकरण की प्रक्रिया घटित होती है। अगस्त, 1988 में प्रस्तुत की गई ‘शहरीकरण संबंधी राष्ट्रीय आयोग’ की रिपोर्ट में अनुमान व्यक्त किया गया था कि इस शताब्दी के अंत तक शहरी आबादी लगभग 34 करोड़ हो जाएगी, जो भारत की कुल आबादी लगभग एक-तिहाई होगी। बुच (1982) ने ठीक ही चेतावनी दी थी कि ”शहरी पारिस्थितिकी प्रणाली संकट में है, जिसकी परिधि बढ़ती जा रही है, क्योंकि शहरीकरण में तेजी आयी है और शहरी विकास के लिए उपलब्ध वित्तीय संसाधन में कमी आई है।“ टेढ़े-मेढ़े शहरी विकास से शहीर और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में पर्यावरण को व्यापक क्षति पहुंची है। ग्रामीण क्षेत्रों में जड़ता के फलस्वरूप पर्यावरण संबंधी दुर्बलता बनी हुई है। शहरी क्षेत्रा स्वयं के कष्टों, उपनिवेशी बस्तियों, सफाई और जलापूर्ति सुविधाओं के अभाव अत्यधिक भीड़-भाड़, तंगी और प्रदूषण की समस्याओं का सामना कर रहे हैं। भारत में शहरों को सफाई के अभाव, सेवाओं की भीषण कमी, प्रदूषित वायु और जल, खुले स्थान और मनोरंजन-क्षेत्रों का अभाव, यातायात की भीड़-भाड़ आदि पर्यावरण-समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसके अतिरिक्त शहरी क्षेत्रों में घरेलू सामना करना पड़ रहा है। इसके अतिरिक्त शहरी क्षेत्रों घरेलू और औद्योगिक कचरे का निपटान भी एक गंभीर समस्या है। अधिकतर शहरों में सीवर प्रणालियांे का अभाव है। शहरों में भीड़ और प्रदूषित वायु के कारण जनसंख्या वृद्धि, मैन्युफैक्चरिंग गतिविधियों और आॅटोमोबाइल्स में बढ़ोतरी है। लाउड स्पीकर, हाॅकरों की बोलियों,विनिर्माण गतिविधियों और आॅटोमोबाइल्स में कई गुणा बढ़ोतरी से शहरों में शोर का स्तर बहुत ऊंचा होता है।
• जनसंख्या वृद्धि और आर्थिक विकास के अनुरूप विभिन्न उद्देश्यों के लिए उपलब्ध ऊर्जा का विस्तार भी अनिवार्य हो जाता है। देश में ऊर्जा-संकट इस कदर है कि विश्व संसाधन संस्थान ने भारत को ग्रीन हाउस गैसों में सर्वाधिक योगदान करने वाले देशों में पांचवें स्थान पर रखा है और हमारे जीवाश्म ईंधन (तेल-कोयला) संसाधन समाप्त होने के करीब हैं।
• पर्यावरण के संदर्भ में प्रौद्योगिकी पर विचार करते समय हमें तीन अलग-अलग पहलुओं का सामना करना पड़ता है-पर्यावरण के अनुकूल प्रौद्योगिकी का अभाव, पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाली प्रौद्योगिकी की अधिकता और पर्यावरण संबंधी चिन्ताओं में प्रासंगिक प्रौद्योगिकी। हमें आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण के अनुकूल प्रौद्योगिकी की खोज की जाये और उसे बढ़ावा दिया जाये तथा साथ ही पर्यावरण पर दुष्प्रभाव डालने वाली प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बंद किया जाये।
• व्यापक निरक्षरता एवं अज्ञानता न केवल देश में बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण की क्षति पहुंचाने वाला एक और घटक है। पर्यावरण साक्षरता का स्तर बहुत निम्न है और जैव-विविधता के आर्थिक, सौंदर्यपरक, तात्त्विक और पारिस्थितिकी विषयक पहलुओं, प्रकृति की वहन क्षमता एवं उद्योगीकरण का सम्पूर्ण मूल्यांकन नहीं किया गया है।
• समूचे विश्व में असमानता की खाई पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाला एक प्रमुख कारण है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमीर और गरीब के बीच आय एवं सम्पदा की असमानता धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही है। असमान विकास से उच्च वर्ग में उपभोग को और निचले स्तर पर भुखमरी को बढ़ावा मिल रहा है। मध्यम आय वर्ग की तुलना में लोगों की संख्या निम्न और उच्च आय वर्गों में ही अधिक है, जिससे इस ग्रह के पारिस्थितिकी संबंधी स्वास्थ्य को क्षति पहुंच रही है। यह माना जाता है कि गरीब की आवश्यकता और अमीर का लालच पर्यावरण-संकट के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं।
• यातायात प्रणालियों का पर्यावरण संबंधी प्रभाव आबादी वाले क्षेत्रों को भी पार कर गया है, इसका असर अनेक पारिस्थितिकी प्रणालियों पर और खासकर प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल पर पड़ा है। परिवहन प्रणालियों में तेल की खपत प्रमुख रूप से होती है और भीषण वायु-प्रदूषण, ऐसिड वर्षा और ग्रीन हाउस प्रभाव में उनका भारी योगदान है। यातायात पर भारी दबाव के कारण ध्वनि प्रदूषण भी होता है।
• पर्यावरण में निवेश वास्तव में अधिक सुरक्षित भविष्य में निवेश है। पर्यावरण संबंधी चुनौतियों और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्ध पर पहली बार 1972 में स्टाॅकहोम में संयुक्त राष्ट्र मानव पर्यावरण सम्मेलन में ध्यान केंद्रित किया गया। भारत ने 1992 में रियोदि जिनेरियो में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन में विकासशील देशों का पक्ष प्रस्तुत किया। भारत ने रियो में जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और रेगिस्तान नियंत्राण संबंधी समझौते पर हस्ताक्षर किये तथा वन संबंधी सिद्धान्तों के प्रति वचनबद्धता व्यक्त की।
V. परमाणु विकिरण - इसके दुष्परिणाम
• विभिन्न स्त्रोतों से लगातार होने वाला परमाणु विकिरण पर्यावरण के प्रति गंभीर खतरा है। विश्व भर में चार सौ बीस परमाणु-रिएक्टर है। 26 अप्रैल, 1986 को रूस में चैरनोबिल में जो दुर्घटना हुई थी, उसकी पुनरावृति का खतरा हमेशा बना रहता है। इस दुर्घटना से चैरनोबिल के आसपास न केवल बड़े क्षेत्रा में विनाश हुआ था बल्कि वह अभी भी रहने लायक नहीं हुआ है। उससे उत्पन्न आणविक बादल कई दिन तक यूरोप के बड़े हिस्से में छाये रहे थे। हालांकि, दुर्घटना के दौरान रिएक्टर की यूनिट-चार में 2 से 6 प्रतिशत रेडियोधर्मिता ही थी, लेकिन उसी से लगभग पाँच लाख कैंसर के मामले सामने आये हैं और साथ ही यूरोप के बड़े हिस्से में पर्यावरण संतुलन के लिये महत्वपूर्ण पशुओं और पौधों की अनेक प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। वनस्पति, दूध, तेल, भोजन, जलवायु और मिट्टी में उच्च स्तरीय रेडियोधर्मिता का अभी भी पता लगाया जा रहा है। इस सबसे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण को परमाणु युद्ध से कितना बड़ा खतरा हो सकता है।
दुष्परिणाम
• जब कभी भी कोई परमाणु दुर्घटना होती है तो उससे बड़ा खतरनाक विकिरण होता है। इसी प्रकार परमाणु विस्फोट के बाद वातावरण में जो मलबा रह जाता है उसमें बड़े खतरनाक तत्व बचे रहते है। उदाहरण के तौर पर स्ट्रांसियम के एक आईसोटोप से रक्त कैंसर हो सकता है। सेसीयम-137 मिट्टी में मिला रहता है और आनुवांशिक परिवर्तनों का कारण बनता है। आयोडीन-131 भी एक ऐसा ही खतरनाक पदार्थ है, जो थाईराइड कैंसर का कारण बनता है।
• एक और चिन्ता का विषय यह है कि भारत जैसे देश में सुरक्षा संबंधी कारणों से आणविक ऊर्जा प्रतिष्ठानों को किसी पर्यावरण संबंधी कानून के दायरे में नहीं लाया गया है।