संसद का वित्तीय नियंत्रण तथा संसद के प्रति कार्यपालिका का दायित्व संसदीय लोकतंत्र के मूल तत्व हैं। वित्तीय नियंत्रण का अर्थ यह है कि जन.सहमति के बिना कराधान नहीं हो सकता और जनाधिकार के बिना कोई खर्च नहीं किया जा सकता। हमारे भारत जैसी संसदीय शासन प्रणाली में जन.इच्छा सर्वोच्च होती है तथा इसका क्रियान्वयन संसद/राज्य विधान मंडलों में जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से किया जाता है।
अतः कार्यपालिका पर संसद का नियंत्रण इस मूल सिद्धान्त का प्रतिफल है कि संसद जनता की इच्छा को मूर्त रूप प्रदान करती है और इसलिए वित्तीय नीतियों सहित सरकार की नीतियाँ निर्धारित करने तथा नीतियों के कार्यान्वयन के तरीके पर निगरानी रखने में इसकी भूमिका निर्णायक होनी चाहिये। तथापि सरकारी कार्यकलापों की अधिकता और जटिलता के कारण, एक निकाय के रूप में संसद न तो बजट प्राक्कलनों की ही ओर न ही व्यय की प्रभावकारी रूप में संवीक्षा कर सकती है। वास्तव में संसद के पास न तो आधुनिक प्रशासन की विविध जटिल बातों की पूरी तरह से जांच करने या संवीक्षा करने का समय है और न ही यह वस्तुतः अपने आकार के कारण, इस कार्य के लिए उपयुक्त है। विश्व के सभी भागों में संसदों के अनुभव से यह पता चलता है कि कार्यपालिका संबंधी दायित्वों को लागू कराने हेतु विभिन्न विभागों की विस्तारपूर्वक संवीक्षा करने तथा इनके कार्यकरण पर निगरानी रखने के लिए पर्याप्त शक्तियों वाली संसदीय समितियों की एक सुविकसित प्रणाली सबसे उपयुक्त प्रणाली है।
व्यय पर संसदीय निगरानी और नियंत्रण रखने के मामले में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही लोक सभा की स्थानीय समितियों में से तीन वित्तीय समितियाँ, यथा- (एक) प्राक्कलन समिति, (दो) लोक लेखा समिति, तथा (तीन) सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति अपने आप में विशिष्ट समितियाँ हैं क्योंकि ये सरकार के व्यय और कार्यों पर कठोर निगरानी रखती हैं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
सरकारी खर्च की व्यापक जाँच करने के लिए प्राक्कलन समिति का गठन करने के प्रश्न को 1937 से केन्द्रीय विधान मण्डल में कई बार उठाया गया किन्तु सरकार द्वारा यह प्रस्ताव केवल स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् 1950 में स्वीकार किया गया।
प्राक्कलन समिति सर्वप्रथम 10 अप्रैल, 1950 में प्राक्कलनों की जाँच करने के लिए गठित की गयी थी ताकि वह सरकारी खर्च में मितव्ययिता लाने और संगठन तथा कार्यकुशलता में सुधार करने आदि के बारे में सुझाव दे सके। यह सर्वविदित है कि सरकारी खर्च पर संसद का नियंत्रण देश का प्रशासन चलाने के लिए अपेक्षित निधि को स्वीकृति देने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसके द्वारा यह भी सुनिश्चित किय जाता है कि खर्च सही तरह से किया जाय और योजनाओं तथा कार्यक्रमों के निर्धारित लक्ष्य प्राप्त किये जायें। इस कार्य के लिए सभा को प्रस्तुत किये गये प्राक्कलनों की बारीकी से जाँच करनी होती है और इसमें विशेष रूप से सरकार की योजनाओं तथा कार्यक्रमों के साथ.साथ संबंधित क्षेत्रों में उसके कार्यनिष्पादन का सूक्ष्म मूल्यांकन करना भी शामिल है।
तत्कालीन लोक सभा अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर ने 18 अप्रैल, 1950 को प्रथम प्राक्कलन समिति के समक्ष अपने भाषण में प्राक्कलन समिति के मुख्य उद्देश्योें, उसकी भूमिका तथा उसके कृत्यों को संक्षेप में इस प्रकार विश्लेषत किया थाः
1. यथासंभव अधिक से अधिक सदस्यों को न केवल प्रशासनिक प्रक्रिया से अवगत कराना और प्रशिक्षत करना, बल्कि उन्हें उन विभिन्न समस्याओं से भी अवगत कराना है जिनका सरकार को दिन.प्रतिदिन सामना करना पड़ता है;
2. कार्यपालिका पर नियंत्रण रखना जिससे कि वह दमनकारी और निरंकुश न हो जाये;
3. सरकार की नीतियों को प्रभावित करना; तथा
4. सरकार तथा आम जनता के बीच संपर्क बनाये रखना।
समिति का कार्य अत्यंत दुर्वह और महत्वपूर्ण है। जब तक समिति उस योजना के, जिसके प्राक्कलन उसके समक्ष है, उद्देश्य और उसके निष्पादन तंत्र दोनों को सूक्ष्मता से अध्ययन नहीं कर लेती तथा उसे पूर्णतया समझ नहीं लेती, तब तक वह संगत प्राक्कलनों की पूर्ण तथा समुचित जाँच नहीं कर सकती है तथा निधियों, समय और शक्ति के उपयोग में मितव्ययिता के सुझाव नहीं दे सकती है। समिति द्वारा की जाने वाली दक्षतापूर्ण जाँच से सरकारी तंत्र इस बात से सचेत रहेगा कि कोई ऐसा निकाय है जो प्रस्तावित योजनाओं की बारीकी से जाँच करेगा। केवल यही अहसास कार्यपालिका पर एक कठोर नियंत्रण का कार्य करेगी। यदि प्रस्तावों की जाँच भलीभाँति की गई, तो उससे प्रशासन की सामान्य कार्यकुशलता में वृद्धि होगी। समिति द्वारा की गयी जाँच भावी प्राक्कलनों और भावी नीतियों के लिए मार्गदर्शक के रूप में भी उपयोगी हो सकती है।“
गठन एवं कृत्य
आरम्भ में प्राक्कलन समिति में लोक सभा द्वारा अपने सदस्यों में से आनुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के अनुसार एकल संक्रमण प्रणाली मत द्वारा 25 सदस्य निर्वाचित किये जाते थे। इस निर्वाचन प्रणाली से यह सुनिश्चित हो जाता है कि लोक सभा में उनकी सदस्य संख्या के अनुपात में समिति में समुचित प्रतिनिधत्व प्राप्त हो। वर्ष 1956 में इस समिति की सदस्य संख्या बढ़ा कर 30 कर दी गई।
प्राक्कलन समिति की एक विशेषता यह है कि इसमें केवल लोक सभा के सदस्य होते हैं। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि चूँकि भारत के संविधान द्वारा सभी वित्तीय शक्तियाँ प्रायः लोक सभा को सौंपी गई हैं, इसलिए केवल लोक सभा को ही उसके द्वारा स्वीकृत बजट अनुदानों की तुलना में भारत सरकार द्वारा किये गये व्यय की संवीक्षा करने की शक्ति का प्रयोग करना चाहिये तथा व्यय में मितव्ययिता के सुझाव देने चाहिये।
कार्यकाल
समिति का कार्यकाल एक वर्ष, अर्थात् 1 मई से 30 अप्रैल तक होता है। किन्तु जब नई लोक सभा का गठन होता है और प्राक्कलन समिति की नियुक्ति यदि 1 मई के बाद हुई होती है, तो भी उसका कार्यकाल 30 अप्रैल को ही समाप्त हो जाता है, भले ही उसने पूरे एक वर्ष का कार्यकाल पूरा न किया हो। एक सुस्थापित प्रथा के अनुसार प्रमुख दल समिति में निर्वाचन हेतु अपने सदस्यों को लगातार दो वर्षों के लिए नाम.निर्देशित करते हैं। एक दूसरी प्रथा के अनुसार निवर्तमान समिति के सभापति के समिति मे पुनः निर्वाचित होने की स्थिति में अध्यक्ष द्वारा उसे दूसरी बार सभापति नियुक्त किया जाता है। ये प्रथायें समिति के कार्यकरण में तारतम्य बनाये रखने के लिए स्थापित की गई हैं।
सभापति
समिति का सभापति अध्यक्ष द्वारा समिति के सदस्यों में से नियुक्त किया जाता है। अभी तक अध्यक्ष द्वारा सत्तारूढ़ दल अथवा इसके किसी भी एक संबद्ध दल के सदस्य को ही इस समिति का सभापति नियुक्त किया गया है। सर्व श्री एम. अनन्तशयनम अय्यंगर, जो कि इस समिति के प्रथम सभापति थे, बलवंत राय गोपालजी मेहता, एच.सी. दासप्पा, ए.सी. गुहा, पी. बेंकटसुब्बैया, एम. थिरमला राव, कमलनाथ तिवारी, आर. के. सिन्हा, भगवत झा आजाद, सत्येन्द्र नारायण सिंह, डा. बलदेव प्रकाश तथा एस. बी. पी. पट्टाभिरामा राव, बंसीलाल, चिन्तामणि प्राणिग्रही, चन्द्रा त्रिपाठी और आशुतोष लाहा जैसे सुविख्यात राजनीतिज्ञों ने समिति के सभापति पद को सुशोभित किया है। प्राक्कलन समिति (1990 - 91) के सभापति श्री जसवंत सिंह थे, जो तत्कालीन सरकार को बाहर से समर्थन दे रही भारतीय जनता पार्टी के सदस्य थे।
सदस्यता की शर्तें
यदि कोई सदस्य समिति के लिए निर्वाचित होने के बाद मंत्री नियुक्त कर दिया जाता है तो वह नियुक्ति की तिथि से समिति का सदस्य नहीं रह जाता। अध्यक्ष के निदेश के अंतर्गत यह स्वस्थ परंपरा स्थापित की गई है कि ऐसा कोई भी सदस्य जो सरकार द्वारा नियुक्त किसी समिति का पहले से ही सदस्य है अथवा प्राक्कलन समिति का सदस्य निर्वाचित होने के बाद उसकी सदस्यता स्वीकार करता है, वह बिना अध्यक्ष की स्वीकृति के इस समिति का सदस्य नहीं बना रहेगा। यह उपबंध इस आशय से किया गया है कि समिति सरकार के किसी भी तरह के प्रभाव से मुक्त रहे तथा इस तरह समिति ज्ञात तथ्यों के आधार पर निर्भीक एवं निष्पक्ष रूप से उचित निष्कर्षों तक पहुँच सके। इस परंपरा से प्राक्कलन समिति को स्वतंत्र रूप से कार्य करने में तो सहायता मिलती ही है- सरकारी अधिकारियों को भी समिति के समक्ष स्पष्ट रूप से अपने विचार व्यक्त करने में मदद मिलती है।
कृत्य
समिति के कृत्य जैसा कि लोक सभा में प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमों के नियम 310 में दिया गया है निम्नलिखित हैंः
(क) प्राक्कलनों से संबंधित नीति के अनुरूप मितव्ययिता, संगठन में सुधार, कार्यकुशलता या प्रशासनिक सुधारों के संबंध में प्रतिवेदित करना;
(ख) प्रशासन में कार्यकुशलता और मितव्ययिता के लिए वैकल्पिक नीतियों का सुझाव देना;
(ग) इस बात की जाँच करना कि क्या प्राक्कलनों में अंतर्निहित नीति की सीमा में रहते हुए धन का उचित रूप से व्यय किया जा रहा है; तथा
(घ) प्राक्कलन किस रूप में संसद में प्रस्तुत किये जायेंगे, इसका सुझाव देना, परन्तु समिति ऐसे सरकारी उपक्रमों के संबंध में जो सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति को इन नियमों द्वारा अथवा अध्यक्ष द्वारा सौंपे गये हों, अपने कृत्यों का निर्वहन नही करेगी।
ऊपर खंड (क) में उल्लिखित "निति" शब्द को अध्यक्ष द्वारा दिये गये निम्नलिखित निर्देशों में समझाया गया हैः
(1) नियम 310 के खंड (क) में उल्लिखित श्नीतिश् शब्द केवल उन नीतियों के संबंध में है जो संसद ने सांविधियों द्वारा या समय-सयम पर विशिष्ट संकल्प पारित करके निर्धारित की गई हों।
(2) समिति को किसी भी ऐसे मामले की परीक्षा करने का अधिकार होगा जिसका निर्णय सरकार ने अपने कार्यपालिका संबंधी कृत्यों के निर्वहन में नीति के रूप में किया हो।
(3) नियम 310 के खंड (ख) के संबंध में समिति संसद द्वारा अनुमोदित नीति के विरुद्ध नहीं जायेगी, किन्तु जहाँ यह बात साक्ष्य द्वारा सिद्ध हो जाये कि किसी विशिष्ट नीति से प्रत्याशित या अभिष्ट फल प्राप्त नहीं हो रहे हैं या उससे अपव्वय हो रहा है तो समिति का यह कत्र्तव्य है कि वह सभा का ध्यान इस बात की ओर दिलाये कि नीति में परिवर्तन करने की आवश्यकता है। समिति के मूल उद्देश्य मितव्ययिता, प्रशासन में कार्यकुशलता और यह सुनिश्चित करना है कि निधियों को ठीक ढंग से लगाया जाये, किन्तु यदि सावधानी से परीक्षा करने के बाद यह मालूम हो कि किसी विशेष नीति का अनुसरण करने से बड़ी.बड़ी निधियों का अपव्यय हो रहा है, तो समिति त्रुटियों की ओर ध्यान दिला सकेगी और सभा के विचारार्थ नीति में परिवर्तन करने के लिए कारण बता सकेगी।
प्राक्कलन समिति द्वारा नीति विषयक मामलों की जाँच के क्षेत्र के संबंध में प्रारम्भिक वर्षों में प्राक्कलन समिति के सभापति श्री बी.जी. मेहता ने तत्कालीन अध्यक्ष के साथ 1 सितम्बर, 1958 को चर्चा की थी। उन्होंने जाँच के क्षेत्र के बारे में निम्नलिखित ब्यौरा दिया, जिससे अध्यक्ष सहमत थेः
"समिति द्वारा विचारणीय नीति मामले निश्चित करने के संबंध में अध्यक्ष महोदय के साथ चर्चा के दौरान मुझे इस बात का बराबर ध्यान रहा कि समिति को मितव्ययता, कार्यकुशलता, एकरूपता, कार्य चालन के बेहतर परिणामों, जतना की आवश्यकताओं की अधिकाधिक पूर्ति तथा जतना के धन, जिसके संसद और उसकी समिति, प्राक्कलन समिति अभिरक्षक हैं, के सर्वोत्तम उपयोग से संबंधित नीति विषयक मामलों पर विचार करना है। मैं इस बात से सहमत हूं कि प्राक्कलन समिति स्वतः नीति संबंधी किसी मामले पर केवल इस कारण विचार न करे कि उसमें गुण-दोष के आधार पर परिवर्तन अपेक्षित हैं ऐसे विचार का उन विभिन्न विषयों से कुछ संबंध होना चाहिये जिनके बारे में मैने ऊपर बताया है। किन्तु उपर्युक्त विचारणीय बातों से उद्भूत नीतिगत मामलों पर किसी प्रकर का विचार करने की संभावनाओं से इंकार करना न तो उचित ही होगा और न ही व्यावहारिक।"
उदाहरणार्थ प्राक्कलन समिति (1990 - 91) ने जाँच के लिए जिन कुछ नीतिगत विषयों का चयन किया था, उनमें तेल एवं प्राकृतिक गैस की खोज संबंधी नीति, अखबारी कागज के नियतन संबंधी नीति तथा रक्षा विभाग की भूमि एवं भूमि के उपयोग संबंधी नीति जैसे विषय सम्मिलित हैं।
जैसा कि उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है, प्राक्कलन समिति के कृत्य केवल ”प्राक्क्लनों“ की जाँच तक ही सीमित नही है, अपितु उसकी जाँच का क्षेत्र काफी विस्तृत है और वह भारत सरकार के ऐसे किसी भी मंत्रालय/विभाग अथवा अधीनस्थ कार्यालय तथा निकाय, जिसे प्रक्रिया नियमों के अधीन समिति के कार्यक्षेत्र से सुस्पष्ट रूप से बाहर नहीं कर दिया गया हो, की संगठन व्यवस्था और कार्यकरण की जाँच कर सकती है। समिति केन्द्र सरकार द्वारा कार्यान्वित किसी भी ऐसी योजना, परियोजना या उसके अन्य ऐसे कार्यकलाप की भी जाँच कर सकती है, जिस पर भारत की संचित निधि से धन व्यय किया गया हो अथवा किया जाना हो। तथापि समिति प्राक्कलनों की अधिकारिक जाँच नहीं करती हैं तथा लोक सभा में प्रस्तुत किये जाने से पूर्व प्राक्कलनों को तैयार करने तथा उन्हें अंतिम रूप देने की प्रक्रिया से इसका कोई संबंध नहीं है। यद्यपि समिति अनुदानों की माँगों पर अंतिम मतदान से पूर्व लोक सभा में प्रस्तुत बजट प्राक्कलनों की जाँचकर सकती है, किन्तु समिति की जाँच वास्तव में विस्तृत जाँच के लिए लिये गये विषयों तक सीमित है जो कि अनिवार्यतः समयसाध्य प्रक्रिया है। अतः बजट का पारित होना समिति के कार्य के पूरा होने पर निर्भर करता है।
विषयों का चयन
समिति प्रति वर्ष सामान्यतः मई माह के प्रथम सप्ताह में अपने गठन के तुरन्त बाद वर्ष के दौरान जाँच के लिए विषयों का चयन करने हेतु अपनी प्रथम बैठक करती है। विषयों का चयन सभापति तथा सदस्यों द्वारा दिये गये विभिन्न सुझावों पर विचार करने के बाद किया जाता है। समिति का यह प्रयास रहा है कि जाँच के लिए ऐसे विषयों का चयन किया जाये जो जनसाधारण के लिए महत्वपूर्ण हों या जो समसामयिक महत्व के हों।
अध्ययन दल
समिति के गठन के बाद उसे अनेक अध्ययन दलों में बाँट दिया जाता है। समिति के सभापति द्वारा इन दलों की नियुक्ति उनमें काम करने के लिए सदस्यों की सहमति प्राप्त करने के बाद की जाती है। अध्ययन दलों की व्यवस्था से सदस्य अपने रुझान के अनुरूप विषयों का अध्ययन तल्लीनता से कर सकते हैं और साथ ही इससे सदस्यों को विशेषज्ञता प्राप्त करने की प्रेरणा भी मिलती है।
सामग्री का संग्रह
समिति को व्यक्तियों को बुलाने और कागजात तथा रिकार्ड माँगने की शक्ति प्राप्त है। समिति के पास गैरसरकारी संगठनों, संस्थाओं और विशेषज्ञों से जाँचाधीन विषयों पर सामग्री प्राप्त करने की भी एक व्यापक व्यवस्था है। ऐसा संबंधित संस्थाओं को जारी की गई प्रश्नावली के उत्तर प्राप्त करके किया जाता है।
समिति द्वारा जाँच के लिए विषयों का चयन कर लिये जाने के बाद संबंधित मंत्रालयों/विभागों से निश्चित समय के भीतर प्रारम्भिक सामग्री भेजने के लिए कहा जाता है। इस प्रयोजन के लिए हर विषय पर एक प्रश्नावली तैयार की जाती है और संबंधित मंत्रालय/विभाग को भेजी जाती है। प्रारम्भिक सामग्री के अध्ययन के बाद सदस्य ऐसे मुद्दे सुझा सकते हैं जिन पर उन्हें और जानकारी की जरूरत है। विषय से संबंधित प्रारम्भिक सामग्री तथा अन्य प्रकार की सामग्री के अध्ययन से उत्पन्न सभी महत्वपूर्ण मुद्दे, जिनमें सदस्यों द्वारा सुझाये गये मुद्दे भी शामिल हैं, एक प्रश्नावली के रूप में समेकित किये जाते हैं। सभापति द्वारा अनुमोदन किये जाने के बाद इस प्रश्नावली को लिखित उत्तरों के लिए संबंधित मंत्रालय/विभाग भेज दिया जाता है। समिति ने जाँच के लिए चुने गये विषयों पर अग्रणी गैरसरकारी संगठनों तथा उन विषयों के विशेषज्ञ अथवा जानकार व्यक्तियों से ज्ञापन माँगने की प्रणाली विकसित की है जो समिति के लिए जाँच करने में उपयोगी हो सकते हैं। आवश्यकता पड़ने पर समिति चुनिंदा गैर.सरकारी संगठनों, संस्थाओं और व्यक्तियों को भी मौखिक साक्ष्य देने के लिए बुलाती है।
अध्ययन दौरे
जाँचाधीन विषय से संबंधित विभिन्न संस्थाओं और प्रतिष्ठानों के तत्स्थानिक अध्ययन हेतु दौरे करने के लिए समिति को प्रायः दो अध्ययन दलों में बाँट दिया जाता है। इन अध्ययन दौरों के दौरान प्राप्त जानकारी और स्थानीय अधिकारियों के साथ हुई अनौपचारिक चर्चा से प्राप्त जानकारी समिति के लिए बहुत उपयोगी होती है।
मौखिक साक्ष्य
विषयों से सबंधित मंत्रालयों क प्रतिनिधि आमतौर पर मंत्रालय के सचिव या विभागाध्यक्ष को समिति के समक्ष मौखिक साक्ष्य देने के लिए बुलाया जाता है। मंत्रालयों के प्रतिनिधियों का मौखिक साक्ष्य सरकारी तथा गैर.सरकारी संगठनों से तथा अध्ययन दौरों के दौरान एकत्र की गई सामग्री तथा जानकारी के गहन अध्ययन के पश्चात् पहले तैयार की गई प्रश्नावली के आधार पर लिये जाते हैं। कुछ ऐसे मुद्दे भी हो सकते हैं जिन पर साक्षी साक्ष्य के दौरान समिति को जानकारी देने में असमर्थ हों। ऐसे मामलों में सभापति साक्षी को बाद में लिखित उत्तर देने की अनुमति दे सकता है।
सरकार के प्रतिनिधियों का मौखिक साक्ष्य पूरा हो जाने तथा साक्ष्य के दौरान सरकार द्वारा प्रतिज्ञात सम्पूर्ण जानकारी मिल जाने के बाद उस विषय पर समिति के प्रतिवेदन का प्रारूप तैयार किया जाता है।
समिति के समक्ष मंत्रियों को न बुलाया जाना
समिति द्वारा प्राक्कलन की जाँच के संबंध में मंत्रियों का समिति के समक्ष न तो साक्ष्य के लिए बुलाया जाता है और न ही परामर्श के लिए, परन्तु समिति का सभापति आवश्यक समझे जाने पर, परन्तु इसकी कार्यवाही समाप्त होने के बाद (क) मंत्रालय निर्धारित नीति से संबंधित किन्हीं ऐसे मुद्दों, जिनसे समिति पूर्णतया सहमत न हो तथा (ख) गोपनीय किस्म के किसी ऐसे मामले, जिसे समिति अपने प्रारूप प्रतिवेदन में शामिल न करना चाहती हो, से अवगत होने के लिए संबंधित मंत्री से अनौपचारिक रूप से बातचीत कर सकता है।
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1. प्राक्कलन समिति की भूमिका क्या है? |
2. प्राक्कलन समिति क्या करती है? |
3. UPSC क्या है? |
4. UPSC परीक्षा क्या होती है और कैसे तैयारी की जाती है? |
5. भारतीय राजव्यवस्था में प्राक्कलन समिति की क्या भूमिका है? |
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