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Science and Technology (विज्ञान और प्रौद्योगिकी): September 2021 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly PDF Download

ब्ल्यूस्ट्रैग्लर तारे

हाल ही में ब्लूस्ट्रैगलर (Blue Stragglers) का पहला व्यापक विश्लेषण करते हुए भारतीय शोधकर्त्ताओं ने इनकी उत्पत्ति के संदर्भ में एक परिकल्पना प्रस्तुत की है।

  • ब्लूस्ट्रैगलर्स खुले या गोलाकार समूहों में सितारों का एक ऐसा वर्ग हैं जो अन्य सितारों की तुलना में अपेक्षाकृत बड़े और नीले रंग के होने के कारण अलग ही दिखाई देते हैंI

प्रमुख बिंदु

ब्लूस्ट्रैगलर तारों के विषय में:

  • तारे असामान्य रूप से गर्म और चमकीले होते हैं तथा प्राचीन तारकीय समूहों, जिन्हें ग्लोबुलर (गोलाकार तारामंडल/तारा समूह) कहा जाता है, के कोर में पाए जाते हैं ।
  • उनकी उत्पत्ति का एक संकेत यह हैकि वे केवल घने तारकीय प्रणालियों में पाए जाते हैं, जहाँ सितारों के बीच की दूरी बहुत कम (एक प्रकाश वर्ष के एक अंश के बराबर) होती है ।
  • एलन सैंडेज (कैलिफोर्निया के पासाडेना में कार्नेगी ऑब्ज़र्वेटरीज के एक खगोलशास्त्री) ने वर्ष 1952-53 में गोलाकार क्लस्टर M3 में ब्लूस्ट्रैगलर की खोज की थी।
  • अधिकांश ब्लूस्ट्रैगलर सूर्यसे कई हज़ार प्रकाश वर्ष दूर स्थित हैं और इनमें से ज़्यादातर लगभग 12 बिलियन वर्ष या उससे भी अधिक पुराने हैं।
  • मिल्की वे आकाशगंगा का सबसे बड़ा और सबसे चमकीला ग्लोबुलर ओमेगा सेंटॉरी (Omega Centauri) है।

ब्लूस्ट्रैगलर की विशेषता:

  • लू स्ट्रैगलर सितारे तारकीय विकास के मानक सिद्धांतों का उल्लंघन करते प्रतीत होते हैं।
  • एक ही बादल से एक ही निश्चित अवधि में जन्मे तारों का कोई एक समूह अलग से दूसरा समूह बना लेता है। तारे का निर्माण अंतर-तारकीय आणविक बादलों (बहुत ठंडी गैस और धूल के अपारदर्शी गुच्छ) में होता है।
  • मानक तारकीय विकास के तहत जैसे-जैसे समय बीतता है, प्रत्येक तारा अपने द्रव्यमान के आधार पर अलग-अलग विकसित होने लगता है। जिसमें एक ही समय में उत्पन्न हुए सभी सितारों को हर्ट्ज़स्प्रंग-रसेल आरेख (Hertzsprung-Russell Diagram) पर स्पष्ट रूप से निर्धारित वक्र पर स्थित होना चाहिये।
  • हर्ट्ज़स्प्रंग-रसेल आरेख तारों के तापमान को उनकी चमक के विरुद्ध या तारों के रंग को उनके पूर्ण परिमाण के विरुद्ध चित्रित करता है। यह सितारों के एक समूह को उनके विकास के विभिन्न चरणों में दर्शाता है।
  • अभी तक इस आरेख की सबसे प्रमुख विशेषता इसका मुख्य अनुक्रम है, जो आरेख में ऊपर की तरफ बाईं ओर से (गर्म, चमकदार तारे) से नीचे दाईं ओर (शांत, दुर्बल तारे) तक चलता है।

ब्लूस्ट्रैगलर विकसित होने के बाद मुख्य अनुक्रम से हट जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनके मार्ग में एक विपथन आ जाता हैजिसे टर्नऑफ के रूप में जाना जाता है।।

  • चूँकि ब्लूस्ट्रैगलर इस इस वक्र से दूर रहते हैं, इसलिये वे असामान्य तारकीय विकास क्रम से गुज़र सकते हैं।
  • वे एक अधिक शांत, लाल रंग की अवस्था प्राप्त करने के विकास क्रम में अपने समूह के अधिकांश अन्य सितारों से पिछड़ते हुए दिखाई देते हैं।

परिकल्पना के विषय मे:

(i) भारतीय शोधकर्त्ताओं ने यह पाया कि:

  • कुल ब्लूस्ट्रैग्लर में से आधे तारे एक करीबी द्वि-ध्रुवीय/बाइनरी साथी तारे से बड़े पैमाने पर द्रव्य स्थानांतरण के माध्यम से बनते हैं।
  • एक तिहाई संभावित रूप से दो सितारों के बीच टकराव के माध्यम से बनते हैं।
  • शेष दो से अधिक तारों की परस्पर क्रिया से बनते हैं।

(ii) इस परिकल्पना के लिये शोधकर्त्ताओं ने यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (European Space Agency- ESA) के गैया (Gaiya) टेलीस्कोप का उपयोग किया।

(iii) आगे के अध्ययन के लिये, भारत की पहली समर्पित अंतरिक्ष वेधशाला, एस्ट्रोसैट (AstroSat) पर लगे पराबैंगनी इमेजिंग टेलीस्कोप, साथ ही नैनीताल स्थित 3.6 मीटर देवस्थल ऑप्टिकल टेलीस्कोप का उपयोग किया जाएगा।

(iv) यह अध्ययन विभिन्न आकाशगंगाओं सहित बड़ी तारकीय आबादी के अध्ययन में रोमांचक परिणामों को उजागर करने के साथ ही इन तारकीय प्रणालियों की जानकारी की समझ में और सुधार लाने में सहायक होगा।


कोरोनल मास इजेक्शन

भारतीय वैज्ञानिकों ने अंतर्राष्ट्रीय सहयोगियों के साथ सूर्य के वायुमंडल (Solar Corona) से विस्फोट के चुंबकीय क्षेत्र को मापा है, जो सूर्य के आंतरिक भाग की एक दुर्लभ झलक प्रस्तुत करता है।

  • कोरोनल मास इजेक्शन (Coronal Mass Ejection- CME) सूर्य की सतह पर सबसे बड़ेविस्फोटों में से एक हैजिसमें अंतरिक्ष में कई मिलियन मील प्रति घंटे की गति से एक अरब टन पदार्थ हो सकता है।

प्रमुख बिंदु:

अनुसंधान के संदर्भ में:

(i) इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स (Indian Institute of Astrophysics- IIA) के वैज्ञानिकों ने पहली बार विस्फोटित प्लाज़्मा से जुड़े कमज़ोर थर्मल रेडियो उत्सर्जन का अध्ययन किया, जो चुंबकीय क्षेत्र और विस्फोट की अन्य भौतिक स्थितियों को मापता है।

  • IIA, कर्नाटक के गौरीबिदनूर में स्थित विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (DST) का एक स्वायत्त संस्थान है।

(ii) टीम ने 1 मई, 2016 को हुए कोरोनल मास इजेक्शन (CME) से प्रवाहित प्लाज़्मा का अध्ययन किया।

  • प्लाज़्मा को पदार्थ की चौथी अवस्था के रूप में भी जाना जाता है। उच्च तापमान पर इलेक्ट्रॉन परमाणु के नाभिक से अलग हो जाते हैं और प्लाज़्मा या पदार्थ की आयनित अवस्था बन जाते हैं।

(iii) कुछ अंतरिक्ष-आधारित दूरबीनों के साथ-साथ IIA के रेडियो दूरबीनों की मदद से उत्सर्जन का पता लगाया गया, जो सूर्य को अत्यधिक पराबैंगनी और सफेद प्रकाश में देखते थे।

(iv) वे इस उत्सर्जन के ध्रुवीकरण को मापने में भी सक्षम थे, जो उस दिशा का संकेत हैजिसमें तरंगों के विद्युत और चुंबकीय घटक दोलन करते हैं।

‘कोरोनल मास इजेक्शन’ के विषय में:

(i) सूर्य एक अत्यंत सक्रिय निकाय है, जहाँ कई हिंसक और विनाशकारी घटनाओं के ज़रिये भारी मात्रा में गैस और प्लाज़्मा बाहर निकालता है।

  • इसी प्रकार के विस्फोटों का एक वर्ग ‘कोरोनल मास इजेक्शन’ (CMEs) कहा जाता है।
  • ‘कोरोनल मास इजेक्शन’ सौरमंडल में होने वाले सबसे शक्तिशाली विस्फोट हैं।

 (ii) ‘कोरोनल मास इजेक्शन’ के अंतर्निहित कारणों को अभी भी बेहतर तरीके से समझा नहीं जा सका है। हालाँकि खगोलविद इस बात से सहमत हैं कि सूर्य का चुंबकीय क्षेत्र इसमें एक प्रमुख भूमिका निभाता है।

(iii) यद्यपि ‘कोरोनल मास इजेक्शन’ सूर्य पर कहीं भी हो सकता है, किंतु सूर्य की ‘दृश्यमान सतह’ (जिसे फोटोस्फीयर कहा जाता है) के केंद्र के पास उत्पन्न ‘कोरोनल मास इजेक्शन’ अध्ययन की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि इनका प्रभाव पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देखने को मिलता है।

  • इसका अध्ययन वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष मौसम को समझने में मदद करता है। 

(iv) जब एक मज़बूत ‘कोरोनल मास इजेक्शन’ पृथ्वी के करीब होता है, तो यह पृथ्वी के आसपास मौजूद उपग्रहों में इलेक्ट्रॉनिक्स को नुकसान पहुँचा सकता है और पृथ्वी पर रेडियो संचार नेटवर्क को बाधित कर सकता है।

(v) जब प्लाज़्मा बादल हमारे ग्रह से टकराता है, तो एक भू-चुंबकीय तूफान आता है।

  • भू-चुंबकीय तूफान पृथ्वी के मैग्नेटोस्फीयर (पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र द्वारा नियंत्रित अंतरिक्ष) की एक बड़ी गड़बड़ी है जो तब होती है जब सौर हवा से पृथ्वी के आसपास के अंतरिक्ष वातावरण में ऊर्जा का एक बहुत ही कुशल आदान-प्रदान होता है।

(vi) वे पृथ्वी पर आकाश से तीव्र प्रकाश उत्पन्न कर सकते हैं, जिसे औरोरा (Auroras) कहा जाता है।

  • कुछ ऊर्जा और छोटे कण पृथ्वी के वायुमंडल में उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों पर चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं की यात्रा करते हैं।
  • वहाँ कण वातावरण में गैसों के साथ परस्पर क्रिया करते हैं जिसके परिणामस्वरूप आकाश में प्रकाश का सुंदर प्रदर्शन होता है।
  • पृथ्वी के उत्तरी वातावरण में औरोरा को उरोरा बोरेलिस या उत्तरी रोशनी कहा जाता है। इसके दक्षिणी समकक्ष को औरोरा ऑस्ट्रेलिया या दक्षिणी रोशनी कहा जाता है।

सूर्य की संरचना

(i) सूर्य का कोर- ऊर्जाथर्मोन्यूक्लियर प्रतिक्रियाओं के माध्यम से उत्पन्न होती है जो सूर्य के कोर के भीतर अत्यधिक तापमान का निर्माण करती है।

(ii) विकिरण क्षेत्र (Radiative Zone) - ऊर्जा धीरे-धीरे बाहर की ओर जाती है, सूर्य की इस परत के माध्यम से विकिरण करने में 1,70,000 से अधिक वर्षलगते हैं।

(iii) संवहन क्षेत्र (Convection Zone)- गर्म और ठंडी गैस की संवहन धाराओं के माध्यम से ऊर्जासतह की ओर बढ़ती रहती है।

(iv) क्रोमोस्फीयर (Chromosphere)- सूर्य की यह अपेक्षाकृत पतली परत चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं द्वारा निर्मित है जो विद्युत आवेशित सौर प्लाज़्मा को नियंत्रित करती है। कभी-कभी बड़े प्लाज़्मा लक्षण, जो विशिष्ठ होते हैं, बहुत ही कमज़ोर और गर्म कोरोना में निर्मित होते हैं और कभी-कभी सूर्यसे दूर सामग्री को बाहर निकालते हैं।

(v) कोरोना (Corona)- कोरोना (या सौर वातावरण) के भीतर आयनित तत्त्व एक्स-रे और अत्यधिक पराबैंगनी तरंगदैर्ध्य में चमकते हैं। अंतरिक्ष उपकरण इन उच्च ऊर्जाओं पर सूर्य के कोरोना की छवि बना सकते हैं क्योंकि इन तरंगदैर्ध्य में फोटोस्फीयर (सौर वातावरण की सबसे निचली परत) काफी मंद होता है।

(vi) कोरोनल स्ट्रीमर (Coronal Streamer)- कोरोना के बाहर प्रवाहित प्लाज़्मा को चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं द्वारा कोरोनल स्ट्रीमर नामक पतले रूपों में आकार दिया जाता है, जो अंतरिक्ष में लाखों मील तक फैला होता है।

(vii) सौर कलंक या सनस्पॉट ऐसे क्षेत्र होते हैं जो सूर्य की सतह पर काले दिखाई देते हैं। ये सूर्य की सतह के अन्य भागों की तुलना में ठंडे होते हैं, इसलिये काले दिखाई देते हैं।


चंद्र विज्ञान कार्यशाला 2021 : इसरो

हाल ही में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (Indian Space Research Organisation- ISRO) द्वारा चंद्रमा की कक्षा में चंद्रयान-2 ऑर्बिटर के प्रचालन के दो वर्ष पूरे होने के अवसर पर चंद्र विज्ञान कार्यशाला 2021 का आयोजन कियागया था।

  • इसरो के अनुसार, चंद्रयान-2 कक्षीय-यान नीतभारों (Orbiter Payloads) के अवलोकन से खोज-श्रेणी (Discovery-class) के परिणाम मिले हैं।
  • चंद्रयान-3 मिशन को अगले वर्ष के अंत में लॉन्च करने की संभावना व्यक्त की गई है।

प्रमुख बिंदु

चंद्रयान-2 के बारे में :

(i) चंद्र अन्वेषण मिशन: यह चंद्र अन्वेषण उपग्रहों की भारतीय शृंखला का दूसरा अंतरिक्षयान है।

  • इसमें एक ऑर्बिटर, जिसके लैंडर का नाम विक्रम था तथा चंद्रमा के दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र का पता लगाने के लिये प्रज्ञान नामक रोवर शामिल था

(ii) लॉन्च: इसे 22 जुलाई, 2019 को GSLV Mk-III द्वारा श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से प्रक्षेपित किया गया था।

  • इसे अगस्त, 2019 में चंद्रमा की कक्षा में स्थापित किया गया था।
  • सितंबर 2019 में ऑर्बिटर और लैंडर मॉड्यूल को दो स्वतंत्र उपग्रहों के रूप में अलग किया गया था।

(iii) लैंडर की विफलता: विक्रम लैंडर इसरो द्वारा पूर्व निर्धारित योजना के अनुरूप ही उतर रहा था और सितंबर 2019 में चंद्रमा की सतह से

2.1 किमी. की ऊँचाई तक इसके सामान्य प्रदर्शन को देखा गया था।

  • इसके बाद लैंडर से संपर्क टूट गया तथा लैंडर की हार्डलैंडिंग चंद्रमा की सतह पर हुई।
  • छह पहियों वाले रोवर (प्रज्ञान) को लैंडर (विक्रम) के अंदर स्थापित किया गया था।
  • यदि एक सफल सॉफ्ट-लैंडिंग हो जाती तो भारत, तत्कालीन सोवियत संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बाद ऐसा करने वाला चौथा देश बन जाता।

(iv) ऑर्बिटर की भूमिका: चंद्रमा के चारों ओर अपनी निर्धारित कक्षा में स्थापित ऑर्बिटर अपने आठ उन्नत वैज्ञानिक उपकरणों का उपयोग करके ध्रुवीय क्षेत्रों में चंद्रमा के विकास और खनिजों एवं पानी के अणुओं के मानचित्रण को साझा करेगा।

  • सटीक प्रक्षेपण और अनुकूलित मिशन प्रबंधन ने नियोजित एक वर्ष के बजाय ऑर्बिटर के लिये लगभग सात वर्षों का लंबा प्रचालन सुनिश्चित किया है।

चंद्रयान-2 ऑर्बिटर द्वारा की गई खोजें:

आर्गन-40 की खोज: मास स्पेक्ट्रोमीटर चंद्र एटमाॅस्फेरिक कंपोज़िशनल एक्सप्लोरर 2 (CHACE 2) ने ध्रुवीय कक्षीय प्लेटफॉर्मसे चंद्र तटस्थ एक्सोस्फीयर की संरचना का पहला इन-सीटू अध्ययन किया।

  • इसने चंद्रमा के मध्य और उच्च अक्षांशों पर आर्गन- 40 की परिवर्तनशीलता का पता लगाया तथा उसका अध्ययन किया, जो चंद्र के इंटीरियर के मध्य और उच्च अक्षांशों में रेडियोजेनिक गतिविधियों को दर्शाता है।

(ii) क्रोमियम व मैंगनीज़ की खोज: चंद्रयान -2 लार्ज एरिया सॉफ्ट एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (क्लास) पेलोड ने रिमोट सेंसिंग के माध्यम से क्रोमियम और मैंगनीज़ के मामूली तत्त्वों का पता लगाया है।

(iii) सूर्य के माइक्रोफ्लेयर्स का अवलोकन: क्वाइट-सन पीरियड (Quiet-Sun Period) के दौरान सूर्य के माइक्रोफ्लेयर का अवलोकन, जो कि सूर्य की कोरोनल हीटिंग से संबंधित महत्त्वपूर्णसूचना प्रदान करता है, सोलर एक्स-रे मॉनिटर (XSM) पेलोड द्वारा संपन्न किया गया।

(iv) हाइड्रेशन सुविधाओं की खोज: चंद्रयान -2 ने अपने इमेजिंग इंफ्रा-रेड स्पेक्ट्रोमीटर (IIRS) पेलोड [जिसने चंद्र की सतह पर हाइड्रॉक्सिल (Hydroxyl) और पानी-बर्फ (Water-Ice) के स्पष्ट उपस्थिति का पता लगाया] के साथ चंद्रमा कीजलयोजन विशेषताओं का पहली बार स्पष्ट पता लगाया।

(v) उपसतह पर जल-बर्फ की खोज: दोहरी आवृत्ति सिंथेटिक एपर्चर रडार (DFSAR) उपकरण ने उपसतह जल-बर्फ की उपस्थिति का पता लगाया और ध्रुवीय क्षेत्रों में चंद्र रूपात्मक विशेषताओं की उच्च रिज़ॉल्यूशन मैपिंग की।

(vi) चंद्रमा की इमेजिंग: अपने ऑर्बिटर हाई रेज़ोल्यूशन कैमरा (OHRC) के द्वारा "बेस्ट-एवर" रेज़ोल्यूशन के साथ 100 किमी चंद्र कक्षा से चंद्रमा की इमेजिंग भी प्राप्त की।

(vii) भूवैज्ञानिक निष्कर्ष: चंद्रयान-2 के टेरेन मैपिंग कैमरा (TMC 2), जो वैश्विक स्तर पर चंद्रमा की इमेजिंग कर रहा है, ने चंद्र क्रस्टल शॉर्टिंग और ज्वालामुखीय गुंबदों की पहचान के दिलचस्प भूगर्भिक साक्ष्य प्राप्त किये हैं।

(viii) चंद्रमा के आयनमंडल का अध्ययन: चंद्रयान-2 पर दोहरे आवृत्ति रेडियो विज्ञान (DFRS) प्रयोग ने चंद्रमा के आयनमंडल का अध्ययन किया है, जो चंद्र बाह्यमंडल की तटस्थ प्रजातियों के सौर फोटो-आयनीकरण द्वारा उत्पन्न होता है।

नोट:

  • 'प्रदान' पोर्टल भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान डेटा सेंटर (ISSDC) द्वारा होस्ट किया जाता है, जो इसरो मिशन के लिये डेटा संग्रह का नोडल केंद्र है।
  • PRADAN पोर्टल के माध्यम से व्यापक सार्वजनिक उपयोग के लिये चंद्रयान-2 मिशन का डेटा जारी किया जा रहा है।

CRISPR द्वारा मच्छरों की आबादी पर नियंत्रण

हाल ही में शोधकर्त्ताओं ने एक ऐसी प्रणाली विकसित की है जो क्लस्टर्ड रेग्युलरली इंटरस्पेस्ड शॉर्ट पैलिनड्रॉमिक रिपीट्स (Clustered Regularly Interspaced Short Palindromic Repeats- CRISPR) जो कि जेनेटिक इंजीनियरिंग पर आधारित है, का उपयोग कर मच्छरों की आबादी को नियंत्रित करती है।

हर साल लाखों लोग मच्छर से होने वाली डेंगू और मलेरिया जैसी दुर्लभ बीमारियों से संक्रमित होते हैं।

प्रमुख बिंदु

बाँझ कीट तकनीक (Sterile Insect Technique):

(i) SIT मच्छरों की जंगली आबादी (wild populations) को रोकने हेतु पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित और प्रमाणित तकनीक है।

(ii) प्रिसिशन गाइडेड स्टेराइल टेकनीक (precision-guided Sterile Insect Technique- pgSIT) जो कि

CRISPR आधारित एक टेकनीक/तकनीक है, इसकी उपयोगिता को और अधिक बढ़ा देती है।

pgSIT:

(iii) यह एक नई स्केलेबल जेनेटिक कंट्रोल सिस्टम/प्रणाली (Scalable Genetic Control System) है जो तैनात मच्छरों की आबादी को नियंत्रित करने के लिये CRISPR आधारित प्रणाली पर कार्य करती है।

  • नर मच्छर बीमारियों को प्रसारित नहीं करते हैं, अत: यह तकनीक अधिक- से-अधिक नर मच्छरों को बाँझ बनाने पर आधारित है।
  • इसमें हानिकारक रसायनों और कीटनाशकों का उपयोग किये बिना मच्छरों की आबादी को नियंत्रित किया जा सकता है।

(iv) pgSIT तकनीक पुरुष प्रजनन क्षमता से संबंधित जीन को परिवर्तित कर देती है जो बाँझ संतान पैदा करने तथा उड़ने वाली मादा एडीज़ एजिप्टी मच्छर जो कि डेंगू बुखार, चिकनगुनिया और जीका आदि बीमारियों को फैलाने के लिये ज़िम्मेदार मच्छर की एक प्रजाति है।

(v) PgSIT यांत्रिक रूप से एक प्रमुख आनुवंशिक तकनीक पर निर्भर करती है जो एक साथ सेक्सिंग (Sexing) और नसबंदी (Sterilization) को सक्षम बनाती है, इससे पर्यावरण में अंडों को छोड़ने की सुविधा मिलती हैजिससे केवल बाँझ वयस्क नर मच्छर ही उत्पन्न होते हैं।

  • दो सुरक्षा विशेषताएँ जो इस तकनीक को स्वीकृति प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण हैं, इस प्रकार हैं- पहली यह प्रणाली स्वयं सीमित है और दूसरी इसकी पर्यावरण में बने रहने या फैलने की संभावना नहीं है।

(vi) pgSIT अंडों को मच्छर जनित बीमारी वाले स्थान पर भेजा जा सकता है या एक साइट पर विकसित किया जा सकता है, इस प्रकार उनका उत्पादन आस-पास के स्थानों पर अंडों को छोड़ने के लिये किया जा सकता है।

(vii) इन pgSIT अंडों को जंगल में छोड़ दिया जाता है और इनसे बाँझ pgSIT नर मच्छर उत्पन्न होते हैं जो अंततः मादाओं के साथ संभोग कर जंगली आबादी को आवश्यकतानुसार कम करने में मददगार साबित होंगे।


CRISPR:

  • यह एक जीन एडिटिंग तकनीक है, जो Cas9 नामक एक विशेष प्रोटीन का उपयोग करके वायरस के हमलों से लड़ने के लिये बैक्टीरिया में प्राकृतिक रक्षा तंत्र की प्रतिकृति का निर्माण करती है।
  • CRISPR-CAS9 तकनीक आनुवंशिक सूचना धारण करने वाले DNA के सिरा (Strands) या कुंडलित धागे को हटाने और चिपकाने (Cut and Paste) की क्रियाविधि की भाँति कार्य करती है। DNA सिरा के जिस विशिष्ट स्थान पर आनुवंशिक कोड को बदलने या एडिट करने की आवश्यकता होती है, सबसे पहले उसकी पहचान की जाती है। इसके पश्चात् CAS-9 के प्रयोग से (CAS-9 कैंची की तरह कार्य करता है) उस विशिष्ट हिस्से को हटाया जाता है। यह कैंची की एक जोड़ी की तरह काम करता है।
  • एक DNA स्ट्रैंड जब टूट जाता है, तो खुद को ठीक करने की उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। वैज्ञानिक इस स्व-मरम्मत प्रक्रिया के दौरान हस्तक्षेप करते हैं, आनुवंशिक कोड के वांछित अनुक्रम की आपूर्ति करते हैं और स्व-विलगित DNA को जोड़ते हैं।
  • CRISPR-Cas9 एक सरल, प्रभावी और अविश्वसनीय रूप से सटीक तकनीक हैजिसमें भविष्य में मानव अस्तित्त्व में क्रांति लाने की क्षमता है।
  • फ्राँस के इमैनुएल चारपेंटियर और यूएसए की जेनिफर ए डोडना को CRISPR/Cas9 आनुवंशिक कैंची विकसित करने के लिये रसायन विज्ञान में वर्ष 2020 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

तेजस-एमके-2 और AMCA

‘वैमानिकी विकास एजेंसी’ (ADA) के मुताबिक, LCA ‘तेजस-एमके-2’ को वर्ष 2022 तक लॉन्च कर दिया जाएगा और यह वर्ष 2023 की शुरुआत में अपनी पहली उड़ान भरेगा। वहीं ‘एडवांस मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट’ (AMCA) को वर्ष 2024 तक लॉन्च किया जाएगा और यह वर्ष 2025 में अपनी पहली उड़ान भरेगा।

  • साथ ही नौसेना के विमानवाहक पोतों से उड़ान भरने के लिये दो इंजन वाले डेक-आधारित लड़ाकू जेट के विकास का कार्य भी जल्द ही पूरा कर लिया जाएगा।
  • ‘वैमानिकी विकास एजेंसी’ रक्षा मंत्रालय का एक स्वायत्त निकाय है।

प्रमुख बिंदु

LCA ‘तेजस-एमके-2’

(i) यह 4.5 जनरेशन का विमान है, जिसका इस्तेमाल भारतीय वायुसेना द्वारा किया जाएगा।

(ii) यह ‘मिराज-2000’ श्रेणी के विमानों का प्रतिस्थापन है।

  • इसमें बड़ा इंजन मौजूद है और यह 6.5 टन पेलोड ले जा सकता है।

(iii) इस प्रौद्योगिकी को प्रारंभ से ही ‘हल्केलड़ाकू विमान’ (LCA) में प्रयोग के लिये विकसित किया गया है।

  • LCA कार्यक्रम को 1980 के दशक में भारत के पुराने मिग-21 लड़ाकू विमानों को प्रतिस्थापित करने हेतु शुरू किया गया था।
  • LCA को ‘वैमानिकी विकास एजेंसी’ (ADA) द्वारा डिज़ाइन और विकसित किया जा रहा है तथा राज्य के स्वामित्व वाली‘हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड’ (HAL) इस परियोजना की प्रमुख भागीदार है।

(iv) इसका उत्पादन वर्ष 2025 के आसपास शुरू होने की संभावना है।

तेजस के संस्करण

  • तेजस ट्रेनर: वायु सेना के पायलटों को प्रशिक्षण देने के लिये 2-सीटर ऑपरेशनल कन्वर्ज़न ट्रेनर।
  • LCA नौसेना: भारतीय नौसेना के लिये ट्विन और सिंगल-सीट वाहक-सक्षम।
  • LCA तेजस नेवी MK2: यह LCA नेवी संस्करण का फेज़-2 है।
  • LCA तेजस Mk-1A: यह LCA तेजस Mk-1 में उच्च थ्रस्ट इंजन (वायु सेना) के साथ एक उन्नत संस्करण है।
  • LCA तेजस Mk-2: Mk-1A का एक उन्नत संस्करण Mk-2 है जो उच्च गतिशीलता प्रदान करता है।
  • उन्नत मध्यम युद्धक विमान (AMCA):

(i) परिचय:

  • यह पाँचवीं पीढ़ी का विमान हैजिसे भारतीय वायु सेना में शामिल किया जाएगा।
  • यह एक स्टील्थ विमान है, जो हल्के युद्धक विमान के विपरीत स्टील्थ तकनीकी पर आधारित अधिक तीव्र गति से कार्य करने वाला विमान है।
  • लो रडार क्रॉस-सेक्शन (Low Radar Cross-Section) प्राप्त करने के लिये इसका आकार अद्वितीय है, इस युद्धक विमान को आंतरिक हथियारों से सुसज्जित किया जा सकता है।
  • बाहरी हथियारों को हटाने के बाद भी इसमें लगे आंतरिक हथियारों में महत्त्वपूर्ण अभियानों को पूर्ण करने की क्षमता विद्यमान है।

(ii) रेंज:


  • विभिन्न माध्यमों में इसकी कुल रेंज 1,000 किमी. से लेकर 3,000 किमी. तक होगी।

(iii) प्रकार और इंजन:

  • इसके दो प्रकार (Mk-1 और Mk-2) हैं। AMCA Mk-1 में LCA Mk-2 के समान एक आयातित इंजन लगा होगा, वहीं AMCA Mk-2 में एक स्वदेशी इंजन होगा।

(iv) निर्माण:

  • विमान का निर्माण और उत्पादन एक विशेष प्रयोजन वाहन (SPV) के माध्यम से होगा, जिसमें निजी उद्योग की भी भागीदारी होगी।

युद्ध क्षेत्र में रोबोट

हाल ही में इज़रायल एयरोस्पेस इंडस्ट्रीज़ (IAI) ने रिमोट कंट्रोल आधारित सशस्त्र रोबोट 'रेक्स एमके II’ (REX MK II) का अनावरण किया, जो युद्ध क्षेत्रों में गश्त करने, घुसपैठियों को ट्रैक करने तथा हमला/ फायरिंग करने में सक्षम है।

  • युद्ध क्षेत्र में रोबोट के उपयोग के साथ-साथ इसमें नैतिक दुविधाओं से निपटना शामिल है।
  • समर्थकों का कहना हैकि ऐसी अर्द्ध-स्वायत्त मशीनें सेनाओं को अपने सैनिकों की रक्षा करने की अनुमति देती हैं, जबकि आलोचकों को डर हैकि यह जीवन-या-मृत्यु का निर्णयन करने वाले रोबोटों की तरफ एक और खतरनाक कदम है।

प्रमुख बिंदु

REX MK II के बारे में:

(i) यह रोबोट स्थलीय सैनिकों के लिये खुफिया जानकारी इकट्ठा कर सकता है, घायल सैनिकों को ले जा सकता है एवं युद्ध क्षेत्र के अंदर और बाहर रक्षा सामग्री की आपूर्ति कर सकता है तथा आस-पास के लक्ष्यों पर हमला कर सकता है।

(ii) इज़रायली सेना वर्तमान में गाजा पट्टी के साथ सीमा पर गश्त करने के लिये जगुआर नामक एक छोटे लेकिन उसके अनुरूप वाहनों का उपयोग कर रही है।

(iii) संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और रूस सहित अन्य सेनाओं द्वारा मानव रहित स्थलीय वाहनों का तेज़ी से उपयोग किया जा रहा है।

  • उनके कार्यों में लॉजिस्टिक सपोर्ट, खदानों का समापन और हथियारों से फायरिंग करना शामिल है।
  • अमेरिका-मेक्सिको (USA-Mexico Border) सीमा पर भौतिक और सशस्त्र गश्त के विकल्प के तौर पर उन्नत निगरानी तकनीक वाली एक वैकल्पिक स्मार्ट वॉल (Alternative Smart Wall) के निर्माण का प्रस्ताव रखा गया है।

युद्ध में रोबोट के उपयोग के पक्ष में तर्क:

(i) कोई शारीरिक सीमा नहीं: यह स्वतः संचालक (Autonomous) रोबोट है, क्योंकि इसकी मानव शरीर की तरह कोई शारीरिक सीमाएँ नहीं हैं, यह नींद या भोजन के बिना कार्य करने में सक्षम है, उन चीजों को समझ और कर सकता हैजिसे लोग नहीं करते हैं और उन तरीकों से आगे बढ़ता है जो मनुष्य नहीं कर सकते।

  • रोबोटिक सेंसर की एक विस्तृत शृंखला मानव संवेदी क्षमताओं की तुलना में युद्ध के मैदानों के अवलोकन हेतु बेहतर ढंग से सुसज्जित है।

(ii) सेना को परिचालन से संबंधित लाभ: रोबोट के निम्नलिखित लाभ हो सकते हैं: तेज़, सस्ता, बेहतर मिशन संचालक, लंबी दूरी, अधिक दृढ़ता, अधिक सहनशक्ति, उच्च परिशुद्धता; तेज़ी से लक्ष्य से जुड़ना तथा रासायनिक और जैविक हथियारों से सुरक्षित।

(iii) कठिन परिस्थितियों में कार्य करने की क्षमता: लक्ष्य के पहचान की कम संभावना की स्थिति में रोबोट को खुद को बचाने की ज़रूरत नहीं है।

  • स्वायत्त सशस्त्र रोबोटिक वाहनों (Autonomous Armed Robotic Vehicles) को एक प्रमुख अभियान के रूप में आत्म-संरक्षण की आवश्यकता नहीं होती है।
  • एक कमांडिंग ऑफिसर के आदेश के बिना, यदि आवश्यक हो और उपयुक्त हो, तो उनका उपयोग आत्म-बलिदान (SelfSacrificing) के रूप में किया जा सकता है।

(iv) मानव जीवन के नुकसान को कम करना: मानव जीवन के नुकसान को कम करना युद्ध की नैतिकता के मूल सिद्धांतों में से एक है, जिसेरोबोट के उपयोग से पूरा किया जा सकता है।


युद्ध में रोबोट के प्रयोग के विरुद्ध तर्क:

  • युद्ध लागत में कमी आना: रोबोट सैनिकों के उपयोग से युद्ध की लागत कम हो जाएगी, जिससे भविष्य के युद्धों की संभावना बढ़ जाएगी।
  • लक्ष्यीकरण में त्रुटियाँ: ऐसे हथियार चिंताजनक हैं क्योंकि लड़ाकों और नागरिकों के बीच अंतर करने या आस-पास के नागरिकों को हमलों से होने वाले नुकसान के बारे में उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है।
  • युद्ध अभिसमयों की अनदेखी: मशीनें मानव जीवन के मूल्य को नहीं समझ सकती हैं, जो मानव गरिमा को कम करती है और मानवाधिकार कानूनों का उल्लंघन करती है।
  • मशीनों द्वारा अत्याचार करने और युद्ध के बुनियादी नियमों का उल्लंघन करने की आशंका है, जैसे- हेग कन्वेंशन और अन्य घोषणाएँ यह बताती हैं कि युद्ध कैसे लड़ा जाना चाहिये।
  • नियमित जोखिम: अन्य देशों और आतंकवादियों के लिये प्रौद्योगिकी के प्रसार जैसे जोखिम हमेशा बने रहेंगे।
  • साथ ही रोबोटिक मशीनें साइबर-सुरक्षा हमलों या हैकिंग के लिये प्रवृत्त होती हैं और उनका उपयोग उनके ही लोगों के विरुद्ध किया जा सकता है।

भारत में सुरक्षा प्रबंधन:

  • CIBMS परियोजना: भारत सरकार ‘व्यापक एकीकृत सीमा प्रबंधन प्रणाली’ (CIBMS) परियोजना के माध्यम से तकनीकी समाधान पर ज़ोर दे रही है। इसका उद्देश्य मौजूदा प्रणालियों के साथ प्रौद्योगिकी को एकीकृत करना है, ताकि सीमा पर बेहतर पहचान और अवरोधन की सुविधा प्रदान की जा सके।
  • नेशनल काउंटर रोग ड्रोन दिशा-निर्देश, 2019: इसका उद्देश्य ड्रोन के कारण परमाणु ऊर्जासंयंत्रों और सैन्य ठिकानों जैसे प्रमुख प्रतिष्ठानों की संभावित सुरक्षा चुनौतियों से निपटना है।

आगे की राह

  • आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग आदि द्वारा प्रेरित तकनीकी क्रांति ने उद्योगों और आर्थिक क्षेत्रों में दक्षता, उत्पादकता एवं अनुकूलन बढ़ाने की आवश्यकता को जन्म दिया है।
  • हालाँकि युद्ध में रोबोटिक्स की तैनाती से पहले गहन शोध किये जाने की आवश्यकता है, ताकि कम-से-कम मानवीय नुकसान के साथ अवसरों को अधिकतम किया जा सके।

राष्ट्रीय अभियंता दिवस

प्रत्येक वर्ष 15 सितंबर को भारत महान इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की उपलब्धियों को मान्यता देने और उनका सम्मान करने के लिये राष्ट्रीय अभियंता दिवस (National Engineer’s Day) मनाता है।

  • भारत के साथ-साथ श्रीलंका और तंजानिया में भी यह दिवस मनाया जाता है।
  • यह दिन अभियंताओं के महान कार्य को याद करने और उनमें सुधार तथा नवाचार के लिये प्रोत्साहित करने हेतु मनाया जाता है।
  • यह यूनेस्को द्वारा प्रतिवर्ष 4 मार्च को मनाए जाने वाले विश्व इंजीनियर दिवस से भिन्न है।

प्रमुख बिंदु

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया:

(i) उनका जन्म वर्ष 1861 में कर्नाटक में हुआ, उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय से कला स्नातक (BA) की पढ़ाई की और फिर पुणे में विज्ञान कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की तथा देश के सबसे प्रतिष्ठित इंजीनियरों में से एक बन गए।

(ii) वह भारत के एक अग्रणी इंजीनियर थे जिनकी प्रतिभा जल संसाधनों के दोहन और देश भर में बाँधों के निर्माण और समेकन में परिलक्षित होती थी।

(iii) उनका काम की लोकप्रियता को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1906-07 में जल आपूर्ति और जल निकासी व्यवस्था का अध्ययन करने के लिये अदन (यमन) भेजा।

  • उन्होंने अपने अध्ययन के आधार पर एक परियोजना तैयार की जिसे अदन में लागू किया गया।

(iv) उन्होंने वर्ष 1909 में मैसूर राज्य के मुख्य अभियंता और 1912 में मैसूर रियासत के दीवान के रूप में कार्य किया, इस पद पर वे सात वर्षों तक रहे।

  • दीवान के रूप में उन्होंने राज्य के समग्र विकास में बहुत बड़ा योगदान दिया।

(v) वर्ष 1915 में जनता की भलाई में उनके योगदान के लिये किंग जॉर्ज पंचम द्वारा उन्हें ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के नाइट कमांडर के रूप में नाइट की उपाधि दी गई थी।

(vi) वह एक इंजीनियर थे जिन्होंने वर्ष 1934 में भारतीय अर्थव्यवस्था की योजना बनाई थी।

(vii) उन्हें 50 वर्षों के लिये लंदन इंस्टीट्यूशन ऑफ सिविल इंजीनियर्स की मानद सदस्यता से सम्मानित किया गया।

(viii) उन्हें वर्ष 1955 में भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।

वर्ष 1962 में बंगलूरू, कर्नाटक में उनका निधन हो गया।


उनके द्वारा लिखित पुस्तकें:

  • रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया' और प्लान्ड इकॉनमी फॉर इंडिया।

प्रमुख योगदान: अपने व्यावसायिक जीवन (Professional Life) के दौरान मैसूर, हैदराबाद, ओडिशा और महाराष्ट्र में कई उल्लेखनीय निर्माण परियोजनाओं का हिस्सा बनकर उन्होंने समाज के प्रति बहुत योगदान दिया है।

(i) वह मैसूर में कृष्णा राजा सागर बाँध के निर्माण के लिये मुख्य कार्यकारी अभियंता (Engineer) थे।

  • इससे बंजर भूमि को खेती के लिये उपजाऊ भूमि में परिवर्तित करने में सहायता मिली।

(ii) वर्ष 1903 में पुणे में खड़कवासला जलाशय में स्वचालित वियर फ्लडगेट (Automatic Weir Floodgates) की एक प्रणाली को डिज़ाइन और पेटेंट कराने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था।

(iii) वर्ष 1908 में हैदराबाद में आई विनाशकारी बाढ़ (मुसी नदी) के बाद उन्होंने भविष्य में शहर को बाढ़ से बचाने के लिये एक जल निकासी व्यवस्था तैयार की।

(iv) उन्होंने ही तिरुमाला और तिरुपति के बीच सड़क निर्माण की योजना तैयार की थी।

(v) विशाखापत्तनम बंदरगाह को समुद्री कटाव से बचाने के लिये उन्होंने एक प्रणाली विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

(vi) मैसूर राज्य में कई नई रेलवे लाइनों को भी उन्होंने चालू किया।

(vii) उन्होंने 1895 में सुक्कुर नगर पालिका के लिये वाटरवर्क्स का डिज़ाइन और संचालन किया था।

(viii) उन्हें बाँधों में अवरोधक प्रणाली (Block System) के विकास का भी श्रेय दिया जाता है जो बाँधों में पानी के व्यर्थ प्रवाह को रोकता है।

(ix) उन्होंने मैसूर साबुन कारखाना, मैसूर आयरन एंड स्टील वर्क्स (भद्रावती), श्री जयचामाराजेंद्र (Jayachamarajendra) पॉलिटेक्निक संस्थान, बैंगलोर (बंगलूरू) कृषि विश्वविद्यालय और स्टेट बैंक ऑफ मैसूर की स्थापना की ज़िम्मेदारी भी निभाई।

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