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सरकारी तथा निजी संस्थानों में नैतिक चिंताएँ एवं दुविधाएँ | नीतिशास्त्र, सत्यनिष्ठा एवं अभिवृत्ति for UPSC CSE in Hindi PDF Download

नैतिक चिंताएँ


नैतिक चिंताएँ, तब उत्पन्न होती है, जब कर्ता द्वारा नैतिक पक्षों का उल्लंघन किया जाता है या किये जाने का प्रयास किया जाता है, या ऐसा किये जाने की संभावना रहती है। ऐसी स्थिति में कर्ता, बिना किसी नैतिक दुविधा के कार्य निष्पादन करता है, फिर चाहे वह कार्य, कर्ता को कोई व्यक्तिगत लाभ ही क्यों न दे रहा हो।

कुछ प्रमुख नैतिक चिंताएँ

  • सरकार या संसद किसी ऐसी नीति के पक्ष में तो नहीं है जो सामान्य हित के अनुरूप ना होकर केवल उनके अपने समूह के पक्ष में हो तथा समाज के विरूद्ध हो।
  • सरकार कहीं कोई ऐसा कदम तो नहीं उठा रही है जो संविधान की भावना के विरूद्ध हो।
  • सरकार की कोई नीति या कार्यवाही वितरण मूलक न्याय की प्रक्रिया में कोई बाधा तो उत्पन्न नहीं कर रही है।
  • कहीं सरकार जनता पर अनावश्यक नियंत्रण तो नहीं लगा रही है।
  • प्रशासनिक अधिकारी कहीं अपने उत्तरदायित्व का दुरूपयोग तो नहीं कर रहे हैं।
  • अमुख निर्णय, जनसेवा के पक्ष में है या व्यक्तिगत हित में।

नैतिक दुविधा


जब किसी व्यक्ति के पास दो या दो से अधिक विकल्प हो, और उन उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक को चुनना हो, और सारे विकल्प ऐसे हो कि किसी भी विकल्प को चुनकर, पूर्ण संतुष्टि प्राप्त न हो, तो ऐसी स्थिति में जो मनः द्वंद्व होता है उसे ही 'दुविधा' कहते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सारी दुविधायें नैतिक ही हो, जैसे किसी गरीब व्यक्ति के पास कुछ पैसे हैं, जिससे वह खाना भी खा सकता है, व ठण्ड से बचने के लिये गर्म कपड़े भी खरीद सकता है, अतः ऐसी स्थिति में जो दुविधा होगी वह नैतिक दुविधा नहीं कहलायेगी। नैतिक दुविधा में, उपलब्ध विकल्पों में से कम से कम एक विकल्प नैतिकता से संबंधित होता है और ऐसा भी हो सकता है कि दोनों विकल्प, अलग-अलग नैतिक मूल्यों से संबंधित हो जिसके कारण एक निर्णय लेना अत्यधिक कठिन हो जाता है।

नैतिक दुविधाओं के प्रकार 

  1. व्यक्तिगत क्षति से संबंधित दुविधा- जब वैयक्तिक अधिकारों तथा मूल्यों पर किसी नैतिक व्यवहार के कारण दुष्प्रभाव पड़ता है तो नैतिक दुविधा की स्थिति प्राप्त होती है। ऐसे विकल्पों में नैतिक दुविधा यह होती है, कि व्यक्ति अपने लिये फायदेमंद विकल्प को चुने या सामूहिक हितों की रक्षा करने वाले विकल्प को। 
  2. विभिन्न नैतिक मूल्यों में दुविधा- ऐसी नैतिक दुविधाएँ दो अत्यन्त सुदृढ़ मूल्यों के बीच होने वाले संघर्ष से उत्पन्न होती हैं। जैसे- अधिकारी के आदेश को अधिक महत्व दें, या जनता से सम्बन्धित निर्णय को। 
  3. संयुक्त- अधिकार तथा मूल्यों के साथ-साथ व्यक्तिगत क्षति से संबंधित दुविधाओं के मिश्रण से उत्पन्न नैतिक दुविधा भी हो सकती है।

प्रशासन व्यवस्था में नैतिक चिंताओं के बढ़ने का कारण 

निर्णय एवं निर्णयकर्ता
निर्णय एवं निर्णयकर्ता दोनों के नैतिकता के निष्कर्ष पर खरा न उतरने का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि एक नया कर्मचारी या अफसर जिसने नौकरशाही में कदम भर रखा है, अपने समकालीन वातावरण से अधिक वाकिफ, अधिक आत्मविश्वासी एवं अपना एक अलग दृष्टिकोण रखने वाला होता है। नए अफसर के लिए सहज काम का बखूबी कर लेना अपर्याप्त होता है। वर्तमान समय में भ्रष्टाचार एक निवेश की तरह समझा जाने लगा है, जिससे अनन्तर यथोचित लाभ की प्रत्याशा रहती है और वर्तमान व्यवस्था ऐसी है कि जो लोग इन वर्जित मागों पर चलना चाहते हैं, उनके लिए कठिनाइयाँ अपेक्षाकृत कम हो जाती है क्योंकि प्रष्टाचार के माहौल में भ्रष्ट आचरण से किसी को खतरा नहीं महसूस होता।
जब एक नवनियुक्त करशाह अपने इर्द-गिर्द देखता है, जो पहली नजर में उसे अपने वरिष्ठ अधिकारियों में वैसा कोई नौकरशाह नहीं दिखता जैसे आदर्श अफसर की कल्पना वह अपने प्रशिक्षण के दौरान करता है। तब वह थोड़ा सा भ्रम में आ जाता है और यही वैचारिक भ्रम धीरे-धीरे उसे एक भावनात्मक रिक्तता की ओर ले जाता है। उसके अपने अनुभव उसकी इस धारणा की पुष्टि करते जाते हैं। जैसे किसी फौरी फैसले का उच्च अधिकारी द्वारा अनुमोदन करने से इंकार कर देना, राजनीतिक दबाव में निर्णय बदल देने की अपेक्षा, सही मशवरे पर साथ न देना आदि धीरे-धीरे नये नौकरशाही को यह समझा देते हैं कि ऐन वक्त पर उसे अपने वरिष्ठ अधिकारी से कोई मदद नहीं मिलेगी। तय वह अपने दफ्तर के माहौल को एक अन्य ही नजरिए से देखने लगता है। ऐसे में यदि नौकरशाह की नैतिक निष्ठा पर्याप्त अडिग नहीं है, तो वह सहज ही इन नैतिक विचार बिन्दुओं की अनदेखी करना सीख जाता है।

  1. राजनैतिक उदासीनता - प्रशासन के सभी स्तरों में राजनेताओं का सीधा हस्तक्षेप पाया जाता है और ऐसा वोट बैंक के लिये ही किया जाता है। राजनैतिक दल सरकार में आने के बाद केवल उन्हीं क्षेत्रों के विकास का ध्यान देते है जहाँ से उन्हें वोट प्राप्त होते हैं। परिणामस्वरूप, क्षेत्रवाद की राजनीति गर्माने लगती है।
  2. गैर उत्तरदायी नौकरशाही - आजादी के इतने दशकों के बाद भी भारतीय नौकरशाही अपने आपको जनमानस का सेवक ना मानकर मालिक मानती है और जनता की सेवा करने की बजाय उन पर राज कर रही है। कहने की तो इंस्पैक्टरी राज खत्म कर दिया गया है लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। आम आदमी और नौकरशाही के बीच में बहुत ज्यादा खाई है और ये बढ़ती ही जा रही है।
  3. राजनीति बनाम नौकरशाही - कोई भी राजनेता अपने काले कारनामों को वगैर नौकरशाही की सहायता से अन्जाम नहीं दे सकता क्योंकि योजना बनाने से लेकर उसको लागू करने तक की जिम्मेदारी नौकरशाही की ही होती है। इसीलिये, नौकरशाही को यह ज्ञात होता है कि कहाँ से पैसा काले धन के रूप में प्राप्त किया जा सकता है। इसी का नतीजा है कि हमारे देश का बहुत सा पैसा बाहर के देशों में जमा है और यह अधिकतर धन राजनेताओं, उद्योगपतियों और नौकरशाहों का है।
  4. प्रशासन में समन्वय का अभाव- वर्तमान समय में देश के प्रत्येक राज्य में प्रशासनिक अधिकारियों के बीच समन्वय का अभाव बहुत ज्यादा है और परिणामस्वरूप देश की सुरक्षा व विकास के कार्य अवरुद्ध हो रहे है। इसके दो हालिया उदाहरण हैं; एक तो मुम्बई हमले में जांच के लिये बनाई गई समिति ने पुलिस अधिकारियों के बीच समन्वय न होने का भी एक कारण बताया है क्योंकि सरकार द्वारा जवाबी कार्यवाही में कई घंटे की देरी हुई थी और दूसरी घटना छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा में मारे गये केंद्रीय रिजर्व बल के जवानों के पीछे भी एक कारण अधिकारियों के आपसी समन्वय का न होना पाया गया, चाहे वह राज्य पुलिस व केंद्रीय बल के जवानों के बीच में हो।
  5. नौकरशाहों पर गैर-जरूरी मानसिक तनाव - आजकल चुनाव जीतने के लिये राजनैतिक दलों द्वारा नागरिकों से ऐसे-ऐसे वायदे किये जाते हैं जो लुभावने तो होते हैं लेकिन उनका विकास से बहुत कम संबंध होता है। जब उन्हें पूरा करने का वक्त आता है तो सरकार के पास धन का अभाव होता है, परिणामस्वरूप नौकरशाही पर अनावश्यक रचाव आता है कि इस तरह के प्रोग्राम व स्कीम के लिये धन की पूर्ति का रास्ता खोजा जाए और बिना योजना के किये गये वादों को पूरा करने के लिये उन्हें दवाव में काम करना पड़ता है।
  6. सिविल सेवकों का त्वरित तबादला - सरकार अपने निजी स्वार्थों को पूरा करने और भाई-भतीजावाद की राजनीति करने के लिए नौकरशाही का जल्दी-जल्दी तबादला करती रहती है। उनका इन तबादलों से विकास के किसी भी कार्य से कोई लेना-देना नहीं होता बल्कि सिर्फ सिविल सेवकों को सजा देना मात्र होता है। इन तबादलों से इस अधिकारी के मनोबल पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
  7. भर्तियों में अनाचार - नये पदों की भर्तियों में भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पर है। जब भी सरकारें बदलती है तब वे अपने रिश्तेदारों, जान-पहचान वालों और अपनी जातियों के उम्मीदवारों की भर्तियां करती है और ऐसा करके कानून का उल्लंघन करती हैं। इसीलिये, असतुष्ट उम्मीदवारों को मजबूरन न्यायालयों की शरण लेनी पड़ती है। जब इन भ्रष्ट तरीकों को प्रयोग करके भर्तियों की जायेंगी तो उत्तरदायी व जिम्मेदार प्रशासन कहाँ से लाएँगे?
  8. राजनीति का अपराधीकरण - महात्मा गांधी राजनीति को लोगों की सेवा करने का माध्यम मानते थे लेकिन अब राजनीतिज्ञ अपनी सेवा करवाने के लिये राजनीति में आते हैं। अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिये राजनीति की शरण लेते हैं। एक समय था जब राजनीति में सच्चरित्रता थी, उसके बाद दौर आया अपराधियों के माध्यम से चुनाव जीतने का लेकिन, अब अपराधी चुनाव लड़ते हैं और जीतकर संसद व विधानसभाओं में पहुँच रहे हैं। अगर इसी तरह अपराधी चुनाव जीत कर आते रहे तो प्रशासन में नैतिक मूल्य किस हद तक बरकरार रहेंगे? यह एक विचारणीय विषय है। हालांकि SC ने दागी जन-प्रतिनिधियों के दो वर्ष से अधिक की सजा पर 6 वर्ष तक चुनाव न लड़ पाने का फैसला दिया है।
  9. शिक्षा की दयनीय स्थिति - किसी भी देश का उज्ज्वल भविष्य उसकी गुणात्मक शिक्षा पर निर्भर करता है और शिक्षा ही वहाँ के नागरिकों में नैतिक मूल्यों का समावेश करती है। उनमें देशभक्ति की भावना भरती है, कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाती है, सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने में सहायता प्रदान करती है, देश निर्माण में योगदान करती है और भविष्य के लिए अच्छे नागरिक बनाती है। लेकिन हमारे देश में गुणात्मक शिक्षा की बजाय डिग्रीयाँ बांटी जा रही हैं, चाहे वे तकनीकी हों या सामान्य। अगर भारत को अपने आर्थिक विकास की गति सुचारू रूप से चलानी है तो बहुत जल्द अपनी शिक्षा पद्धति को बदलना होगा।

सरकारी संस्थानों में नैतिक चिंताएँ व दुविधाएँ

ब्रिटिश शासन के औपनिवेशिक साम्राज्य से विरासत में प्राप्त नौकरशाही व सरकारी का संस्थाएं लंबे समय से अधिकार मूलक रही हैं न कि दायित्वमूलक। इनकी पहचान जटिल कानूनों, प्रक्रियाओं, औपचारिकताओं से होती आपी है। परंपरागत भारतीय नौकरशाही व सरकारी तंत्र द्वारा अधिक विशेषाधिकारों (Pherogatives) सुविधाओं स्वायत्तता और अहस्तक्षेप के साये में कार्य करने की दोषी रही है लेकिन जैसे-जैसे जनता की सहमागिता प्रशासन में बड़ी, सरकार के कामकाजों की पारदर्शिता, उनकी जवाबदेहिता सुनिश्चित, करने की बातें उठी, सुशासन की माँगे उठी, प्रशासन को अधिक जन केन्द्रित बनाये जाने की माँगे उठी, वैसे ही सरकारी संस्थाओं में जनता के हित एवं कल्याण की दृष्टि से नैतिक चिंताएँ व दुविधाएँ उठनी प्रारंभ हुई। इनमें से कुछ प्रमुख निम्नवत् है

  1. चुनाव एवं धन बल - राजनीतिक सिद्धांतकार जान स्टुअर्ट मिल जहाँ एक तरफ मतदान व निर्वाचन को एक पवित्र प्रक्रिया मानते हैं वहीं भारत में इस प्रक्रिया को दूषित करने के चलते भारत के निर्वाचन आयोग में नैतिक चिंताए उभरी हैं। भारत में चुनाव जीतने के लिए केवल सर्वाधिक वोट हासिल करना ही पर्याप्त नहीं है। उम्मीदवारों को अपने चुनावी अभियानों में अपार धन खर्च करना पड़ता है। यद्यपि चुनाव आयोग ने सांसदों एवं विधायकों के चुनाव खर्च की सीमा का निर्धारण तथा उसमें समय-समय पर संशोधन किया है। नवीनतम संशोधन के अनुसार लोकसभा के उम्मीदवारों के लिए चुनाव खर्च की सीमा 15 लाख रुपय से बढ़ाकर 25 लाख रुपये की गई है।
    प्रत्येक उम्मीदवार को चुनाव पूर्ण हो जाने पर अपने खर्च का हिसाब किताब चुनाव आयोग को सौंपना पड़ता है। ऐसा करने पर इसे भ्रष्टाचारपूर्ण कृत्य माना जाता है और इस आधार पर उम्मीदवार को कानूनी तौर पर अगले छ वर्ष चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है किन्तु चुनाव आयोग द्वारा उल्लंघन किया जाता है।
    1999 के लोकसभा चुनावों के दौरान 25 नमूना चुनाव क्षेत्रों में किए गए एक अध्ययन के अनुसार अपने चुनाव क्षेत्र में सबसे अधिक मत लेने वाले पहले चार उम्मीदवारों में से प्रत्येक के द्वारा 80-100 लाख रुपये खर्च किये गये। उम्मीदवारों द्वारा प्रचार के लिए यातायात, इंधन जी व अन्य वाहनों, बैनर, झाकियाँ, कट-आउट का खर्चा, साथ ही मतदाताओं को डराने के लिए लाये गए अपराधियों का खर्चा शामिल नहीं है। अखबारों एवं टी.वी पर विज्ञापन दिलाने के लिए खर्च स्टार नेताओं को खोने के लिए हैलीकॉप्टर एवं विमानों का खर्चा, रैलियों का रेला, प्रचार करने वाली फौज पर खर्च आदि करते है कि  चुनाव प्रचार आदि खर्च का मामला होता है। 
  2. राजनीति का अपराधीकरण - देश के कई भागों में चुनाव अनगिनत आपराधिक गतिविधियों का पर्याय हो चुके है। देश के अनेक भागों में चुनावों के समय मतदाताओं को किसी उम्मीदवार विशेष के पक्ष में मतदान करने के लिए डराना-धमकाना या मतदाताओं को बल प्रयोग द्वारा मतदान केन्द्रों में जाने से रोकना विशेषकर दलितों, आदिवासियों और ग्रामीण महिलाओं जैसे कमजोर वर्गों को अब आम बात हो चुकी है। कुछ भागों में तो हिंसा जब तब इन्सानी जिंदगियों की बलि न ले ले. तब तक चुनाव पूर्ण नहीं होते है। सर्वाधिक चिंताजनक तथ्य यह है कि अपराधियों ने स्वयं चुनाव लड़ना शरू कर दिया है। चुनावों के दौरान विहार एवं उत्तर प्रदेश में हर राजनीतिक दल के द्वारा चुनावी मैदान में उतारे गये ऐसे अनेक उम्मीदवारों के साक्ष्य है जिनका माफिया से संबंध है, अथवा जिनके विरुद्ध हत्या, बलात्कार, डकैती, या दूसरे संगीन अपराधों के मामले दर्ज हैं। 
  3. चुनावी संस्कृति का गिरता स्तर - चुनावों में चाहे कोई भी राजनीतिक दल जीते लेकिन, चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा ऐसे हथकंडे अपना लिये जाते हैं, जिससे लोकतांत्रिक मूल्यों एवं मर्यादित राजनीति की पराजय हो जाती है। चुनाव प्रचार के दौरान सभी राजनीतिक दलों द्वारा एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप, छींटाकशी, चुनावी हिंसा, जोड़-तोड़, अनावश्यक खर्चे, आपराधिक तत्वों की धमकियों से चुनावी संस्कृति का स्तर चुनावों में शराब से लेकर साड़ियों तक का विरतण इसके ज्वलंत उदाहरण है। 
  4. सरकारी संस्थानों में भ्रष्टचार को लेकर उभरी नैतिक चिंताएँ व दुविधाएं - वर्षों में भारत में सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार अत्यधिक तीव्र गति से बढ़ा है। कामनवेल्थ खेल घोटाला, 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला. 1.86 हजार करोड़ के कोल घोटाला. वी.वी.आई.पी. हेलीकाप्टर घोटाला, जमीनों के खरीद फरोख्त में नियमों कानूनों का पालन न किया जाना आदि घटनाएं सामने आयी है, जो सरकारी तंत्र के आचारगत क्षरण की तरफ इशारा करती है। इन्हीं परिप्रेक्ष्यों को ध्यान में रखकर रक्षा मंत्री की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के समूह ने सरकार से आग्रह किया है कि वह द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिविल सेवकों की राजनीतिक निष्पक्षता एवं तटस्थता के रक्षोपाय हेतु की गई सिफारिशों पर मंत्रियों के लिए नैतिक संहिता (Code of Ethics) एवं सिविल सेवकों के लिए आचरण संहिता (Code of Ethics) पर विचार करें। मंत्रियों के समूह द्वारा स्पष्ट किया गया है कि मौजूदा हालात को देखते हुए ऐसे संहिता की तुरंत आवश्यकता है और इसकी मौजूदगी में नौकरशाहों एवं मंत्रियों के बीच निष्पक्ष एवं पारदर्शी कार्य संबंध बनाने में मदद मिलेगी। 
  5. कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन शोषण का मामला - भारत में कई प्राइवेट संस्थानों व उनसे संबंद्ध कार्यस्थलों पर प्राइवेट नियोक्ताओं द्वारा कामगार महिलाओं के यौन शोषण का गंभीर मामला उठता रहता है। काल सेन्टर्स में नाइट शिफ्ट में कार्य करने की स्थितियाँ भी महिलाओं के लिए अनेक अवसरों पा खतरे से खाली नहीं रही है। यौन शोषण के बाद कंपनी के मालिकों द्वारा मामला दबाने के लिए तरह-तरह के प्रयास किये जाते हैं। काम से निकालने, हत्या करवाने आदि भयादोहनों के साथ महिलाओं की मानसिक स्थिति बिगड़ती है और कई अवसरों पर तो वे आत्महत्या का मार्ग चुन लेती है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर विशाखा मामले (1997) में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने प्राइवेट नियोक्ताओं को महिला की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार बनाया। इसके साथ ही राष्ट्रीय महिला आयोग भी स्व कार्यवाही (Suo moto) के आधार पर निजी संस्थानों से महिलाओं को सुरक्षित करने के प्रयास करता रहा है।
  6. मीडिया की कार्यप्रणाली का अवमूल्यन - हाल के वर्षों में मीडिया की भूमिका पर भी अनेक आधारों पर प्रश्न चिन्ह लगाये जाने लगे हैं। मीडिया हाउसों द्वारा सत्ता पक्ष के समर्थन में सूचनाएँ प्रेषित करना, पेड न्यूज जैसी स्थितियाँ, संवेदनशील सूचनाओं के पूर्ण सत्य को उजागर न करने जैसे मामलों ने लोकतंत्र के चौधे आधार स्तम्भ को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है। कुछ समय पूर्व नीरा राडिया टेप प्रकरण से मीडिया नौकरशाही व व्यवसायियों के कुत्सित गठजोड़ का रहस्योद्घाटन हुआ है।
    आज निजी मीडिया का उद्देश्य दर्शकों - पाठकों के एक बड़े समूह प्रभावित कर विज्ञापनदाता कंपनियों, के अनुकूल बना देना है। जाहिर है ऐसा इसलिए कि कंपनियों को उसके उत्पाद के खरीददार मिलें। यदि मीडिया कभी जनमहत्व व जनसंघर्ष के मुद्दे पर कवरेज बढ़ता है तो उसे विज्ञापनदाता कंपनियों का कोपभाजन बनना पड़ता है। जाने माने पत्रकार पी.साईनाथ ने वर्ष 2007 में लिखा था कि, "जब मुंबई में (वर्ष 2007) लैक्मे फैशन वीक में कपास से बने सूती कपड़ों का प्रदर्शन किया जा रहा था, लगभग उसी दौरान विदर्भ में किसान आत्महत्या कर रहे थे। इन दोनों घटनाओं की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि "फैशन वीक' को कवर करने के लिए जहाँ 512 मान्यता प्रात्रकार रोजाना पूरे हफ्ते डटे रहे और कोई 100 पत्रकार, रोजाना प्रवेशपत्र लेकर आते-जाते रहे वहीं विदर्भ में किसानों की आत्महत्या को कवर करने के लिए बमुश्किल 6 पत्रकार पहुँच पाये।
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