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सीमावर्ती क्षेत्रों में सुरक्षा चुनौतियाँ और उनका प्रबंधन - 3 | आंतरिक सुरक्षा और आपदा प्रबंधन for UPSC CSE in Hindi PDF Download

सीमावर्ती इलाकों का विकास


  • दुर्गम क्षेत्रों और सुविधाओं, जैसे- सड़कें, शिक्षण संस्थान एवं अस्पताल की कमी के कारण सीमावर्ती क्षेत्र, अगम्य एवं अविकसित हैं। आर्थिक अवसरों की कमी, सीमावर्ती लोगों को तस्करी एवं अवैध व्यापार शुरू करने के लिए और अधिक प्रोत्साहित करती है। इन समस्याओं को ध्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार ने पर्याप्त सामाजिक और आर्थिक बुनियादी ढांचे, विकास में भागीदारी को बढ़ावा देने, अलगाव की भावना को समाप्त करने और सीमा क्षेत्र विकास कार्यक्रम की शुरुआत की। बी.ए.डी.पी. योजना में समुदाय आधारित बुनियादी ढांचे का विकास, जैसे- वानिकी, चारागाह भूमि, मत्स्य तालाब, फूलों की खेती के सामुदायिक केन्द्र, मोबाइल औषधालय, विपणन केन्द्र आदि शामिल हैं। इन वर्षों में कार्यक्रम की प्रकृति, राज्य स्तरीय कार्यक्रमों में शिक्षा पर जोर देने के साथ-साथ सीमावर्ती क्षेत्रों के संतुलित विकास पर भी जोर देने के लिए एक योजनाबद्ध तरीके में बदल गई है। अपने क्षेत्रों के लिए प्राथमिक योजनाओं को तय करने के लिए जमीनी स्तर की संस्थाओं, जैसे पंचाय ती राज संस्थाएं, जिला परिषद्/पारंपरिक परिषदें इत्यादि को प्रोत्साहित किया गया है।
  • पूर्वोत्तर भारत, जो भूटान, चीन, म्यांमार और बांग्लादेश के साथ अपनी सीमाओं का 98 प्रतिशत साझा करता है, उग्रवाद और अल्पविकास से ग्रसित है। दक्षिण पूर्व एशिया के प्रवेश द्वार के रूप में इसके रणनीतिक महत्त्व के कारण हाल ही के वर्षों में सरकार को विभिन्न कार्यक्रमों को शुरू करने के लिए प्रेरित किया है। पूर्वोत्तर क्षेत्र की स्थिति का अध्ययन करने और उसके विकास के लिए उपयुक्त परियोजनाओं के लिए सुझाव देने के लिए सरकार ने सन् 1990 में एल.सी. जैन समिति तथा एस.पी. शुक्ला की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय आयोग गठित किया। उच्च स्तरीय आयोग ने पूर्वोत्तर रूपांतरण शीर्षक वाली अपनी रिपोर्ट में क्षेत्र में अपर्याप्त बुनियादी ढांचे विशेष तौर पर सड़क नेटवर्क का उल्लेख किया और दृढ़ता से उसे विकसित करने की वकालत की। नतीजतन, क्षेत्र में रोड नेटवर्क को विकसित करने के लिए योजनाओं की एक शृंखला की शुरुआत की गईं इनमें से तीन सबसे महत्वपूर्ण योजनाएँ राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम-द्वितीय फेज, राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम-तृतीय फेज बी एवं पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए विशेष त्वरित सड़क विकास कार्यक्रम हैं।

द्विपक्षीय संस्थागत तंत्र


  • सीमा प्रबंधन के बारे में आपसी हित के मामलों पर द्विपक्षीय वार्ता को सहज बनाने के लिए भारत सरकार ने सीमा प्रबंधन पर गृह सचिव, सीमा रक्षा बलों के एरिया कमांडरों और संयुक्त कार्य समूह की बैठकों के माध्यम से संस्थागत बातचीत की एक प्रणाली का विकास किया है। उदाहरणस्वरूप भारत-म्यांमार सीमा पर उग्रवाद और तस्करी के मुद्दों पर चर्चा करने के लिए भारत की ओर से विदेश सचिव के स्तर पर फॉरेन ऑफिस कंस्लटेशन और म्यांमार की ओर से उप विदेश मंत्री नियमित रूप से बैठकें करते हैं।
  • राष्ट्रीय स्तर की बैठकें तथा क्षेत्रीय स्तर की बैठकें; एस.एल.एम. क्रमशः गृह मंत्रालय के गृह सचिव एवं संयुक्त सचिव की अध्यक्षता में भी आयोजित की जाती हैं। इन बैठकों के आयोजन का मूल उद्देश्य सीमा पर शांति और सौहार्द बनाए रखना है और इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए दोनों पक्ष ‘उनके सुरक्षा बलों द्वारा एक-दूसरे के प्रदेशों के अनजाने में उल्लंघन को रोकने’ के लिए सहमत होते हैं और साथ ही वे सभी अवैध एवं नकारात्मक गतिविधियों, जैसे-उग्रवादियों की सीमा पार आवाजाही, नशीली दवाओं के तस्करों तथा नापाक गतिविधियों में शामिल अन्य व्यक्तियों पर नजर रखने के लिए और उन पर अंकुश लगाने के लिए भी एकजुट होकर कार्य करते हैं। प्रत्येक छह् माह में निर्दिष्ट स्थानों पर स्थानीय एरिया सेना कमांडरों के बीच ‘बॉर्डर सम्पर्क बैठक’ आयोजित की जाती है।
  • भारत और म्यांमार के सर्वेयर जनरल भी सीमा पर सीमा स्तंभों के रखरखाव, उनके संयुक्त निरीक्षण, मरम्मत इत्यादि कार्य योजना पर चर्चा करने के लिए एक-दूसरे से मिलते हैं। भारत ने बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल और भूटान के साथ भी इसी तरह के संस्थागत तंत्र का गठन किया है। भारत-बांग्लादेश सीमा पर बी.जी.बी. के साथ कई द्विपक्षीय तंत्र, जैसे-कंपनी कमांडर स्तर की बैठक, कमांडेंट स्तर की बैठक, सेक्टर कमांडर स्तर की बैठक, महानिरीक्षक बी.एस.एफ.- उप-महानिदेशक बी.जी.बी. स्तरीय बैठक, नोडल अधिकारी स्तर की बैठकें तथा महानिदेशक बी.एस.एफ.- महानिदेशक बी.जी.बी. स्तर के सीमा समन्वय सम्मेलन मौजूद हैं। पाकिस्तान रेंजर्स के साथ भी बी.एस.एफ. भी इसी प्रकार का द्विपक्षीय तंत्र मौजूद है।
  • सुरक्षा संबंधी चिंताओं के बारे में एक-दूसरे को संवेदनशील बनाने और सीमा के बेहतर प्रबंधन के लिए रणनीति तैयार करने में ये द्विपक्षीय तंत्र काफी मददगार है।

समुद्र तट और द्वीप प्रदेशों की सुरक्षा

संक्षिप्त में समुद्रीय सुरक्षा

  • तटों की सुरक्षा के लिए भारत सरकार द्वारा एक तीन स्तरीय तंत्र लागू किया गया है। सबसे बाहरी घेरे के तौर पर, भारतीय नौसेना के गश्ती दल, समुद्री जहाजों और उन पर स्थित विमानों की सहायता से हवाई सर्वेक्षण करते हैं। मध्यवर्ती घेरा 12 से 200 समुद्री मील की दूरी के बीच, जिसमें विशेष आर्थिक क्षेत्र भी शामिल हैं, की तटरक्षक बलों द्वारा गश्त की जाती है। टास्क फोर्स की सिफारिश पर भारत सरकार ने वर्ष 2005-06 में तटीय सुरक्षा योजना का शुभारंभ किया। इस योजना की परिकल्पना के तहत पाँच साल की अवधि में, तट पर और तट के करीब जल में गतिशीलता के लिए 204 नौकाओं, 153 जीपों और 312 मोटर साइकिलों से सुसज्जित 73 तटीय पुलिस स्टेशनों की स्थापना की गई है।
  • तटीय पुलिस थानों में पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित जनशक्ति, अत्याधुनिक हथियार अथवा गश्ती नौकाएँ उपलब्ध नहीं हैं। इन थानों में तैनात कर्मी, समुद्र में गश्त करने के लिए अनिच्छुक होते हैं। वे हमेशा समुद्री बीमारी, हाई स्पीड गश्ती नौकाओं की कमी और उचित प्रशिक्षण के अभाव की शिकायत करते हैं।
  • मुंबई आतंकी हमलों के बाद सरकार ने देश की तटीय सुरक्षा को मजबूत बनाने के लिए विभिन्न उपायों की घोषणा की। जिसमें शामिल हैं:
    1. तटीय सुरक्षा योजना के कार्यान्वयन में तेजी लाना
    2. 204 अवरोधक नौकाओं का शीघ्र वितरण
    3. तटीय पुलिस स्टेशनों की स्थापना हेतु पर्यावरणीय मानदंडों में सहजता
    4. सभी मछुआरों, मल्लाह कर्मियों एवं तटीय गाँवों के व्यक्तियों को बहु-उद्देश्यीय के पहचान-पत्र जारी करना
    5. देश भर में मछली पकड़ने की नावों को जारी किए जाने वाले लाइसेंसों की एकरूपता का कार्यान्वयन
    6. पहचान और खोज के लिए पंजीकृत नौकाओं पर विशेष ट्रांसपोंडर और ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम की स्थापना
    7. सभी बंदरगाहों पर केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की कमांडों इकाइयों की तैनाती
    8. समुद्री मार्ग से आतंकी खतरों का मुकाबला करने हेतु तटीय जिलों के लिए एकीकृत कमान का गठन
  • द्वीप प्रदेशों की सुरक्षा के लिए भारत सरकार ने अंडमान एवं निकोबार कमांड के नाम से अंडमान एवं निकोबार में एक संयुक्त कमान की स्थापना की है जिसमें सेना, नौसेना, वायुसेना और तटरक्षक बलों के कार्मिक शामिल होते हैं। अन्य जिम्मेदारियों के अलावा, ए.एन.सी. अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की सुरक्षा का कार्य भी देखती है।

भारत की समुद्रीय सुरक्षाः चुनौतियाँ और प्रबंधन


  • भारत की तटरेखा 7500 किमी. से अधिक है और लगभग 1200 द्वीप समूह है और बड़े विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र लगभग 2 मिलियन वर्ग किमी. में फैले हैं, मग्नद्वीप तट का लगभग 1.2 मिलियन वर्ग क्षेत्र जोड़े जाने के बाद भारत का कुल समुद्र तल क्षेत्र, इसके भूभाग का आधा हो जाएगा।
  • हिन्द महासागर, जिसकी पहचान तीन ओर से भूभाग हैं, से विश्व के अधिकतर पोत नौवहन करते हैं। इस क्षेत्र के लिए समुद्रीय अधिगम केवल कुछ अवरोध स्थलों के माध्यम से संभव हैं, जिससे अरब सागर और बंगाल की खाड़ी तथा दक्षिणी हिन्द महासागर में आवाजाही होती है। भारत पहले दो क्षेत्रों से सटा हुआ है और तीसरे क्षेत्र के संबंध में केन्द्रीय स्थिति है। इसकी प्रायद्वीपीय विशेषता सभी दिशाओं में इसे व्यापक समुद्र तल अधिगम के लिए प्राकृतिक पहुँच प्रदान करता है, जो अण्डमान एवं निकोबार तथा लक्षद्वीप द्वीपसमूह तक विस्तारित है।
  • हिन्द महासागर क्षेत्र में भारत की केन्द्रीय स्थिति है, इसे एक विशिष्ट लाभ प्रदान करता है, यह आईओआर के बाह्य भागों और सभी ‘अवरोध स्थलों’ को भारत से लगभग समान दूरी पर रखकर, क्षेत्र के अधिगम सुगमता, अपने समुद्रीय बलों की आवाजाही हेतु सुगमता प्रदान करता है, समुद्रीय क्षेत्र में अपने राष्ट्रीय हितों का प्रसार और सुरक्षोपाय। समुद्रीय क्षेत्र की व्यापकता इसकी सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु पर्याप्त संसाधनों और निवेश की माँग करती है, ताकि पारंपरिक और गैर-पारंपरिक खतरों से उत्पन्न चुनौतियों से निपटा जा सके।
  • चुनौतियाँ भारत के समुद्रीय क्षेत्र की विशालता ने इसके विशिष्ट भूगोल के साथ और अटलांटिक-प्रशांत से वैश्विक समुद्रीय फोकस का भारत-प्रशांत अविच्छिन्न की ओर फोकस इसकी सुरक्षा के लिए अनेक चुनौतियाँ उत्पन्न करता है। इन चुनौतियों में पारंपरिक और गैर-पारंपरिक संसाधनों से उत्पन्न होने वाले अनेक खतरे सम्मिलित हैं।
  • पारंपरिक खतरे पारंपरिक खतरे राष्ट्रों से उत्पन्न होते हैं, इनमें समुद्रीय सीमा विवाद, समुद्रीय संसाधनों के दावे सामरिक हित इत्यादि शामिल हो सकते हैं। वर्तमान में हम पाकिस्तान, चीन और श्रीलंका से खतरों को सामना कर रहे हैं।
  • गैर पारंपरिक खतरे- ये खतरे गैर-राष्ट्र कारकों से उत्पन्न होते हैं, जो अर्थव्यवस्था, समाज और सम्बन्धित राज्यों की राजनीति को प्रभावित करते हैं, इसमें समुद्री डकैती, आतंकवाद, तस्करी, पर्यावरणीय मुद्दे, प्राकृतिक आपदाएँ इत्यादि सम्मिलित हैं।

पारंपरिक खतरे


  • भारत-पाकिस्तान भारत और पाकिस्तान के मध्य मुख्य चिन्ता सर क्रीक क्षेत्र है। यह अरब सागर में खुलने वाली कच्छ की खाड़ी के दलदल में 96 किमी. का मुहाना है, जो भारत के गुजरात और पाकिस्तान के सिंध को अलग करता है।
  • लम्बे समय से चल रहा यह मुद्दा वास्तविक सीमांकन का हैः
  1. सर क्रीक के मुहाने से सर क्रीक के शीर्ष तक
  2. सर क्रीक के शीर्ष से पश्चिमी टर्मिनल पर निर्दिष्ट रेखा पर बिन्दु के पूर्व में
  3. अरब सागर में भारत और पाकिस्तान के मध्य समुद्रीय सीमा का सीमांकन
  • सर क्रीक के विवादित क्षेत्र की काफी कम सामरिक या सैन्य महत्ता है परन्तु यह क्षेत्र मत्स्यन संसाधनों में समृद्ध है, इसको एशिया के सबसे बड़े मत्स्यन क्षेत्रों में से एक माना जाता है। यह क्षेत्र हाइड्रोजन और शैल गैस में भी समृद्ध हो सकता है और इसकी आर्थिक क्षमता अपार है। यदि सीमा निर्धारित हो जाए तो इससे समुद्रीय सीमाओं के निर्धारण में मदद मिलेगी। जो ईईजेड और मग्नतटीय द्वीप सीमा निर्धारण में मदद करेगा।
  • 1965 में इस क्षेत्र में उत्पन्न विवाद ने भारत और पाकिस्तान के मध्य पूर्ण युद्ध का रूप धारण कर लिया था। बाद में भारत-पाक पश्चिमी सीमा मामला अधिकरण की स्थापना, विवाद समाधान हेतु की गई थी। अधिकरण ने कच्छ का लगभग 90% क्षेत्र भारत के अधिकार क्षेत्र में माना और कच्छ के दक्षिण में शेष क्षेत्र को बिना समाधान के छोड़ दिया। 1969 से सामूहिक वार्ता समूह द्वारा आठ दौरों की बातचीत निष्फल रही है। चूंकि कोई भी पक्ष किसी भी बात पर सहमत नहीं है, भारत ने सर्वप्रथम, समुद्री कानूनों पर समुद्रीय सीमा का सीमांकन प्रस्तावित किया था। तथापि, पाकिस्तान पहले विवाद निपटान अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्था द्वारा करना चाहता है, जिसका भारत द्विपक्षीय मुद्दा होने के कारण स्पष्ट विरोध करता है।
  • दोनों देशों द्वारा सही सीमा निर्धारण न कर पाने के कारण अंतर अरब सागर में बह जा रहे हैं और एक बड़ा क्षेत्र विवादित जल क्षेत्र बना हुआ है, जहाँ मछुआरों का दुर्भाग्य, आतंकी डिजाइन और वैश्विक ड्रग गिरोहों के हित सब मिल रहे हैं। ऐसे संकेत हैं कि यह क्षेत्र विश्व ड्रग बाजार का सबसे बड़ा गढ़ बन सकता है।
  • भारत-श्रीलंका भारत और श्रीलंका ने समुद्रीय सीमा सीमांकन का समाधान कर लिया है। तथापि, कुछ मुद्दे वहाँ रहने वाले लोगों की जीविका पर सीधा प्रभाव डालते हैं। भूगोलिक दृष्टि से भारत और श्रीलंका आईएमबी के काफी निकट हैं अर्थात् भारतीय तट को श्रीलंकाई तट से अलग करने वाला पाल्क स्ट्रेट केवल 22 नौटिकल मील दूर है। यह निकटता मछुआरों द्वारा अनभिज्ञता से दूसरे क्षेत्र में प्रवेश का कारण बनती है और परिणामतः मछुआरों को पकड़ने और उन पर हमले इत्यादि होते हैं।
  • 1974 में भारत ने पाल्क खाड़ी में एक छोटे खाली द्वीप कच्छाटीपू पर और भारतीय मछुआरों के लिए कुछ सुरक्षोपाय के साथ श्रीलंका का अधिकार स्वीकृत किया तथापि श्रीलंका सरकार भारतीय मछुआरों के मत्स्यन अधिकारों का विरोध करती है। जबकि भारतीय मछुआरे पारंपरिक रूप से यहाँ मछली पकड़ते रहे हैं। कच्छाटीपू प्रदान करने से भारतीय मछुआरों को इस समृद्ध जल में मत्स्यन के अधिकार से वंचित कर दिया है। जब भी भारतीय मछुआरे द्वीप के आसपास श्रीलंकाई जल में प्रवेश करते हैं, इससे लड़ाई और घटनाएँ होती हैं।
  • एलटीटीई की हार के बाद की अवधि में भारतीय मछुआरों की श्रीलंकाई मछुआरों और श्रीलंका नौ-सेना के साथ विवाद घटनाएँ बढ़ी हैं। अत्यधिक बल प्रयोग के आक्षेप लगे हैं और मछुआरों को अवैध शिकार से रोकने के लिए बन्दूकों का भी प्रयोग किया गया है।
  • भारत-चीन चीन से भारत को सुरक्षा चुनौतियों के संदर्भ में समुद्रीय आयाम तुलनात्मक रूप से नया कारक है। दोनों अर्थव्यवस्थाओं के तीव्र विकास ने ऊर्जा और कच्चे माल की माँग बढ़ा दी है, जिनका परिवहन समुद्र द्वारा किया जाता है। दोनों अर्थव्यवस्थाएँ अपने व्यापारों और ऊर्जा आपूर्ति के अनधिकृत परिवहन हेतु समुद्र मार्गों पर ध्यान केन्द्रित कर रही है। इसलिए, भारतीय नौसेना ने दक्षिण चीन सागर में नई प्रतिबद्धताएँ तय की हैं, जबकि पीएलए नौसेना ने हिन्द महासागर में प्रवेश किया है।
  • यदि हम चीन के व्यापार मार्गों को देखते हैं, तो इसका 40% तेल आयात होर्मुज की खाड़ी से होता है जबकि 82% तेल आयात मलक्का खाड़ी से होकर गुजरता है। यह दोनों सामरिक पोत परिवहन मार्ग दोनों भारतीय और अमरीकी नौसेना की पहुँच के अंदर है। यह वास्तविकता चीन को हिन्द महासागर में अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए बाधित कर रही है, चीन अपनी स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स के माध्यम से भारत को घेर और प्रतिबंधित कर रहा है।
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